ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 21
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
इक्कीसवाँ अध्याय
शङ्खचूड़-वेषधारी श्रीहरि द्वारा तुलसी का पातिव्रत्य भङ्ग, शङ्खचूड़ का पुनः गोलोक जाना, तुलसी और श्रीहरि का वृक्ष एवं शालग्राम-पाषाण के रूप में भारतवर्ष में रहना तथा तुलसी महिमा, शालग्राम के विभिन्न लक्षण तथा महत्त्व का वर्णन

नारदजी ने कहा — प्रभो ! भगवान् नारायण ने कौन-सा रूप धारण करके तुलसी से हास-विलास किया था ? यह प्रसङ्ग मुझे बताने की कृपा करें।

भगवान् नारायण ऋषि कहते हैं नारद! भगवान् श्रीहरि ने वैष्णवी माया फैलाकर शङ्खचूड़ से कवच ले लिया । फिर शङ्खचूड़ का ही रूप धारण करके वे साध्वी तुलसी के घर पहुँचे, वहाँ उन्होंने तुलसी के महल के दरवाजे पर दुन्दुभि बजवायी और जय-जयकार के घोष से उस सुन्दरी को अपने आगमन की सूचना दी। तुलसी ने पति को युद्ध से आया देख उत्सव मनाया और महान् हर्ष-भरे हृदय से स्वागत किया । फिर दोनों में युद्धसम्बन्धी चर्चा हुई; तदनन्तर शङ्खचूड़ वेष में जगत्प्रभु भगवान् श्रीहरि सो गये । नारद! उस समय तुलसी के साथ उन्होंने सुचारुरूप से हास-विलास किया तथापि तुलसी को इस बार पहले की अपेक्षा आकर्षण आदि में व्यतिक्रम का अनुभव हुआ; अतः उसने सारी वास्तविकता का अनुमान लगा लिया और पूछा ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


तुलसी ने कहा — मायेश ! बताओ तो तुम कौन हो ? तुमने कपटपूर्वक मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया; इसलिये अब मैं तुम्हें शाप दे रही हूँ ।

ब्रह्मन् ! तुलसी के वचन सुनकर शाप के भय से भगवान् श्रीहरि ने लीलापूर्वक अपना सुन्दर मनोहर स्वरूप प्रकट कर दिया। देवी तुलसी ने अपने सामने उन सनातन प्रभु देवेश्वर श्रीहरि को विराजमान देखा । भगवान् ‌का दिव्य विग्रह नूतन मेघ के समान श्याम था । आँखें शरत्कालीन कमल की तुलना कर रही थीं । उनके अलौकिक रूप-सौन्दर्य में करोड़ों कामदेवों की लावण्य-लीला प्रकाशित हो रही थी । रत्नमय भूषण उन्हें भूषित किये हुए थे। उनका प्रसन्नवदन मुस्कान से भरा था। उनके दिव्य शरीर पर पीताम्बर सुशोभित था। उन्हें देखकर पति के निधन का अनुमान करके कामिनी तुलसी मूर्च्छित हो गयी। फिर चेतना प्राप्त होने पर उसने कहा ।

तुलसी बोली नाथ! आपका हृदय पाषाण के सदृश है; इसीलिये आपमें तनिक भी दया नहीं है। आज आपने छलपूर्वक ( मेरे इस शरीर का ) धर्म नष्ट करके मेरे (इस शरीर के) स्वामी को मार डाला। प्रभो! आप अवश्य ही पाषाण-हृदय हैं, तभी तो इतने निर्दय बन गये ! अतः देव! मेरे शाप से अब पाषाणरूप होकर आप पृथ्वी पर रहें। अहो ! बिना अपराध ही अपने भक्त को आपने क्यों मरवा दिया ?

इस प्रकार कहकर शोक से संतप्त हुई तुलसी आँखों से आँसू गिराती हुई बार-बार विलाप करने लगी । तदनन्तर करुण रस के समुद्र कमलापति भगवान् श्रीहरि करुणायुक्त तुलसीदेवी को देखकर नीतिपूर्वक वचनों से उसे समझाने लगे।

भगवान् श्रीहरि बोले — भद्रे ! तुम मेरे लिये भारतवर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। उस समय तुम्हारे लिये शङ्खचूड़ भी तपस्या कर रहा था । ( वह मेरा ही अंश था।) अपनी तपस्या के फल से तुम्हें स्त्रीरूप में प्राप्त करके वह गोलोक में चला गया। अब मैं तुम्हारी तपस्या का फल देना उचित समझता हूँ । तुम इस शरीर का त्याग करके दिव्य देह धारण कर मेरे साथ आनन्द करो । लक्ष्मी के समान तुम्हें सदा मेरे साथ रहना चाहिये । तुम्हारा यह शरीर नदीरूप में परिणत हो ‘गण्डकी’ नाम से प्रसिद्ध होगा । यह पवित्र नदी पुण्यमय भारतवर्ष में मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली बनेगी ।

तव केशसमूहाश्च पुण्यवृक्षा भवन्त्विति ।
तुलसीकेशसम्भूता तुलसीति च विश्रुता ॥ ३३ ॥
त्रिलोकेषु च पुष्पाणां पत्राणां देवपूजने ।
प्रधानरूपा तुलसी भविष्यति वरानने ॥ ३४ ॥
स्वर्गे मर्त्ये च पाताले वैकुण्ठे मम सन्निधौ ।
भवन्तु तुलसीवृक्षा वराः पुष्पेषु सुन्दरि ॥ ३५ ॥
गोलोके विरजातीरे रासे वृन्दावने भुवि ।
भाण्डीरे चम्पकवने रम्ये चन्दनकानने ॥ ३६ ॥
माधवीकेतकीकुन्दमल्लिकामालतीवने ।
भवन्तु तरवस्तत्र पुष्पस्थानेषु पुण्यदा ॥ ३७ ॥
तुलसीतरुमूले च पुण्यदेशे सुपुण्यदे ।
अधिष्ठानं तु तीर्थानां सर्वेषां च भविष्यति ॥ ३८ ॥
तत्रैव सर्वदेवानां समधिष्ठानमेव च ।
तुलसीपत्रपतनं प्रायो यत्र वरानने ॥ ३९ ॥
स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ।
तुलसीपत्रतोयेन योऽभिषेकं समाचरेत् ॥ ४० ॥
सुधाघटसहस्रेण सा तुष्टिर्न भवेद्धरेः ।
या च तुष्टिर्भवेन्नॄणां तुलसीपत्रदानतः ॥ ४१ ॥
गवामयुतदानेन यत्फलं लभते नरः ।
तुलसीपत्रदानेन तत्फलं लभते सति ॥ ४२ ॥
तुलसीपत्रतोयं च मृत्युकाले च यो लभेत् ।
स मुच्यते सर्वपापाद्विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ४३ ॥
नित्यं यस्तुलसी तोयं भुङ्क्ते भक्त्या च यो नरः ।
स एव जीवन्मुक्तश्च गंगास्नानफलं लभेत् ॥ ४४ ॥
नित्यं यस्तुलसीं दत्त्वा पूजयेन्मां च मानवः ।
लक्षाश्वमेधजं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ४५ ॥
तुलसीं स्वकरे धृत्वा देहे धृत्वा च मानवः ।
प्राणांस्त्यजति तीर्थेषु विष्णु लोकं स गच्छति ॥ ४६ ॥
तुलसीकाष्ठनिर्माणमालां गृह्णाति यो नरः ।
पदे पदेऽश्वमेधस्य लभते निश्चितं फलम् ॥ ४७ ॥
तुलसीं स्वकरे धृत्वा स्वीकारं यो न रक्षति ।
स याति कालसूत्रं च यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ४८ ॥
करोति मिथ्याशपथं तुलस्या यो हि मानवः ।
स याति कुम्भीपाकं च यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ४९ ॥
तुलसीतोयकणिकां मृत्युकाले च यो लभेत् ।
रत्नयानं समारुह्य वैकुण्ठं स प्रयाति च ॥ ५० ॥
पूर्णिमायाममायां च द्वादश्यां रविसंक्रमे ।
तैलाभ्यंगे चास्नाते च मध्याह्ने निशि सन्ध्ययोः ॥ ५१ ॥
आशौचेऽशुचिकाले वा रात्रिवासान्विते नराः ।
तुलसीं ये च छिन्दन्ति ते छिन्दन्ति हरेः शिरः ॥ ५२ ॥
त्रिरात्रं तुलसीपत्रं शुद्धं पर्युषितं सति ।
श्राद्धे व्रते वा दाने वा प्रतिष्ठायां सुरार्चने ॥ ५३ ॥
भूगतं तोयपतितं यद्दत्तं विष्णवे सति ।
शुद्धं तु तुल सीपत्रं क्षालनादन्यकर्मणि ॥ ५४ ॥

तुम्हारे केश-कलाप पवित्र वृक्ष होंगे। तुम्हारे केश से उत्पन्न होने के कारण तुलसी के नाम से ही उनकी प्रसिद्धि होगी । वरानने! तीनों लोकों में देवताओं की पूजा के काम में आने वाले जितने भी पत्र और पुष्प हैं, उन सबमें तुलसी प्रधान मानी जायगी। स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताल तथा वैकुण्ठलोक में — सर्वत्र तुम मेरे संनिकट रहोगी । सुन्दरि ! तुलसी के वृक्ष सब पुष्पों में श्रेष्ठ हों । गोलोक, विरजा नदी के तट, रासमण्डल, वृन्दावन, भूलोक, भाण्डीरवन, चम्पकवन, मनोहर चन्दनवन एवं माधवी, केतकी, कुन्द और मल्लिका के वन में तथा सभी पुण्य स्थानों में तुम्हारे पुण्यप्रद वृक्ष उत्पन्न हों और रहें । तुलसी-वृक्ष के नीचे के स्थान परम पवित्र एवं पुण्यदायक होंगे; अतएव वहाँ सम्पूर्ण तीर्थों और समस्त देवताओं का भी अधिष्ठान होगा। वरानने ! ऊपर तुलसी के पत्ते पड़ें, इसी उद्देश्य से वे सब लोग वहाँ रहेंगे। तुलसीपत्र के जल से जिसका अभिषेक हो गया, उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने तथा समस्त यज्ञों में दीक्षित होने का फल मिल गया।

साध्वी ! हजारों घड़े अमृत से नहलाने पर भी भगवान् श्रीहरि को उतनी तृप्ति नहीं होती है, जितनी वे मनुष्यों के तुलसी का एक पत्ता चढ़ाने से प्राप्त करते हैं । पतिव्रते ! दस हजार गोदान से मानव जो फल प्राप्त करता है, वही फल तुलसी-पत्र के दान से पा लेता है । जो मृत्यु के समय मुख में तुलसी-पत्र का जल पा जाता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर भगवान् विष्णु के लोक में चला जाता है। जो मनुष्य नित्यप्रति भक्तिपूर्वक तुलसी का जल ग्रहण करता है, वही जीवन्मुक्त है और उसे गङ्गा-स्नान का फल मिलता है। जो मानव प्रतिदिन तुलसी का पत्ता चढ़ाकर मेरी पूजा करता है, वह लाख अश्वमेध-यज्ञों का फल पा लेता है। जो मानव तुलसी को अपने हाथ में लेकर और शरीर पर रखकर तीर्थों में प्राण त्यागता है, वह विष्णुलोक में चला जाता है। तुलसी-काष्ठ की माला को गले में धारण करने वाला पुरुष पद-पद पर अश्वमेध-यज्ञ के फल का भागी होता है, इसमें संदेह नहीं ।

जो मनुष्य तुलसी को अपने हाथ पर रखकर प्रतिज्ञा करता है और फिर उस प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, उसे सूर्य और चन्द्रमा की अवधि-पर्यन्त ‘कालसूत्र’ नामक नरक में यातना भोगनी पड़ती है । जो मनुष्य तुलसी को हाथ में लेकर या उसके निकट झूठी प्रतिज्ञा करता है, वह ‘कुम्भीपाक’ नामक नरक में जाता है और वहाँ दीर्घकाल तक वास करता है। मृत्यु के समय जिसके मुख में तुलसी के जल का एक कण भी चला जाता है वह अवश्य ही विष्णुलोक को जाता है।

पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी और सूर्य संक्रान्ति के दिन, मध्याह्नकाल, रात्रि, दोनों संध्याओं और अशौच के समय, तेल लगाकर, बिना नहाये-धोये अथवा रात के कपड़े पहने हुए जो मनुष्य तुलसी के पत्रों को तोड़ते हैं, वे मानो भगवान् श्रीहरि का मस्तक छेदन करते हैं । साध्वि ! श्राद्ध, व्रत, दान, प्रतिष्ठा तथा देवार्चन के लिये तुलसी-पत्र बासी होने पर भी तीन रात तक पवित्र ही रहता है। पृथ्वी पर अथवा जल में गिरा हुआ तथा श्रीविष्णु को अर्पित तुलसी-पत्र धो देने पर दूसरे कार्य के लिये शुद्ध माना जाता है।

तुम निरामय गोलोक-धाम में तुलसी की अधिष्ठात्री देवी बनकर मेरे स्वरूपभूत श्रीकृष्ण के साथ निरन्तर क्रीड़ा करोगी । तुम्हारी देह से उत्पन्न नदी की जो अधिष्ठात्री देवी है, वह भारतवर्ष में परम पुण्यदा नदी बनकर मेरे अंशभूत क्षार-समुद्र की पत्नी होगी । स्वयं तुम महासाध्वी तुलसीरूप से वैकुण्ठ में मेरे संनिकट निवास करोगी। वहाँ तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होओगी । गोलोक के रास में भी तुम्हारी उपस्थिति होगी, इसमें संशय नहीं है ।

मैं तुम्हारे शाप को सत्य करने के लिये भारतवर्ष में ‘पाषाण’ (शालग्राम) बनकर रहूँगा । गण्डकी नदी के तट पर मेरा वास होगा । वहाँ रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दाँतरूपी आयुधों से काट-काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न करेंगे। जिसमें एक द्वार का चिह्न होगा, चार चक्र होंगे और जो वनमाला से विभूषित होगा, वह नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण का पाषाण ‘लक्ष्मी-नारायण’ का बोधक होगा। जिसमें एक द्वार और चार चक्र के चिह्न होंगे तथा वनमाला की रेखा नहीं प्रतीत होती होगी, ऐसे नवीन मेघ की तुलना करने वाले श्यामरंग के पाषाण को ‘लक्ष्मी-जनार्दन’ की संज्ञा दी जानी चाहिये। दो द्वार, चार चक्र और गाय खुर चिह्न से सुशोभित एवं वनमाला के चिह्न से रहित श्याम पाषाण को भगवान् ‘राघवेन्द्र’ का विग्रह मानना चाहिये। जिसमें बहुत छोटे दो चक्र के चिह्न हों, उस नवीन मेघ के समान कृष्णवर्ण के पाषाण को भगवान् ‘दधिवामन’ मानना चाहिये, वह गृहस्थों के लिये सुखदायक है । अत्यन्त छोटे आकार में दो चक्र एवं वनमाला से सुशोभित पाषाण स्वयं भगवान् ‘श्रीधर’ का रूप है – ऐसा समझना चाहिये। ऐसी मूर्ति भी गृहस्थों को सदा श्रीसम्पन्न बनाती है। जो पूरा स्थूल हो, जिसकी आकृति गोल हो, जिसके ऊपर वनमाला का चिह्न अङ्कित न हो तथा जिसमें दो अत्यन्त स्पष्ट चक्र के चिह्न दिखायी पड़ते हों, उस शालग्राम शिला की ‘दामोदर’ संज्ञा है ।

जो मध्यम श्रेणी का वर्तुलाकार हो, जिसमें दो चक्र तथा तरकस और बाण के चिह्न शोभा पाते हों, एवं जिसके ऊपर बाण से कट जाने का चिह्न हो, उस पाषाण को रण में शोभा पाने वाले भगवान् ‘रणराम’ की संज्ञा देनी चाहिये । जो मध्यम श्रेणी का पाषाण सात चक्रों से तथा छत्र एवं तरकस से अलंकृत हो, उसे भगवान् ‘राजराजेश्वर’ की प्रतिमा समझे । उसकी उपासना से मनुष्यों को राजा की सम्पत्ति सुलभ हो सकती है । चौदह चक्रों से सुशोभित तथा नवीन मेघ के समान रंगवाले स्थूल पाषाण को भगवान् ‘अनन्त’ का विग्रह मानना चाहिये। उसके पूजन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चारों फल प्राप्त होते हैं । जिसकी आकृति चक्र के समान हो तथा जो दो चक्र, श्री और गो-खुर के चिह्न से शोभा पाता हो, ऐसे नवीन मेघ के समान वर्णवाले मध्यम श्रेणी के पाषाण को भगवान् ‘मधुसूदन’ समझना चहिये । केवल एक चक्रवाला ‘सुदर्शन’ का, गुप्तचक्र- चिह्नवाला ‘गदाधर’ का तथा दो चक्र एवं अश्व के मुखकी आकृति से युक्त पाषाण भगवान् ‘हयग्रीव’ का विग्रह कहा जाता है।

साध्वि ! जिसका मुख अत्यन्त विस्तृत हो, जिस पर दो चक्र चिह्नित हों तथा जो बड़ा विकट प्रतीत होता हो ऐसे पाषाण को भगवान् ‘नरसिंह’ की प्रतिमा समझनी चाहिये । वह मनुष्य को तत्काल वैराग्य प्रदान करने वाला है । जिसमें दो चक्र हों, विशाल मुख हो तथा जो वनमाला के चिह्न से सम्पन्न हो, गृहस्थों के लिये सदा सुखदायी हो, उस पाषाण को भगवान् ‘लक्ष्मी-नारायण’ का विग्रह समझना चाहिये। जो द्वार-देश में दो चक्रों से युक्त हो तथा जिस पर श्री का चिह्न स्पष्ट दिखायी पड़े, ऐसे पाषाण को भगवान् ‘वासुदेव’ का विग्रह मानना चाहिये । इस विग्रह की अर्चना से सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो सकेंगी। सूक्ष्म चक्र के चिह्न से युक्त, नवीन मेघ के समान श्याम तथा मुख पर बहुत-से छोटे-छोटे छिद्रों से सुशोभित पाषाण ‘प्रद्युम्न’ का स्वरूप होगा। उसके प्रभाव से गृहस्थ सुखी हो जायँगे । जिसमें दो चक्र सटे हुए हों और जिसका पृष्ठभाग विशाल हो, गृहस्थों को निरन्तर सुख प्रदान करने वाले उस पाषाण को भगवान् ‘संकर्षण’ की प्रतिमा समझनी चाहिये। जो अत्यन्त सुन्दर गोलाकार हो तथा पीले रंग से सुशोभित हो, विद्वान् पुरुष कहते हैं कि गृहाश्रमियों को सुख देने वाला वह पाषाण भगवान् ‘अनिरुद्ध’ का स्वरूप है ।

जहाँ शालग्राम की शिला रहती है, वहाँ भगवान् श्रीहरि विराजते हैं और वहीं सम्पूर्ण तीर्थों को साथ लेकर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं । ब्रह्महत्या आदि जितने पाप हैं, वे सब शालग्राम शिला की पूजा करने से नष्ट हो जाते हैं। छत्राकार शालग्राम में राज्य देने की तथा वर्तुलाकार में प्रचुर सम्पत्ति देने की योग्यता है ।

शकट के आकार वाले शालग्राम से दुःख तथा शूल के नोक के समान आकार वाले से मृत्यु होनी निश्चित है। विकृत मुखवाले दरिद्रता, पिङ्गलवर्ण वाले हानि, भग्नचक्र वाले व्याधि तथा फटे हुए शालग्राम निश्चितरूप से मरणप्रद हैं ।

व्रत, दान, प्रतिष्ठा तथा श्राद्ध आदि सत्कार्य शालग्राम की संनिधि में करने से सर्वोत्तम हो सकते हैं। जो अपने ऊपर शालग्राम – शिला का जल छिड़कता है, वह सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर चुका तथा समस्त यज्ञों का फल पा गया। अखिल यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओं के फल का वह अधिकारी समझा जाता है ।

साध्वि ! चारों वेदों के पढ़ने तथा तपस्या करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य शालग्राम-शिला की उपासना से प्राप्त हो जाता है । जो निरन्तर शालग्राम शिला के जल से अभिषेक करता है, वह सम्पूर्ण दान के पुण्य तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा उत्तम फल का मानो अधिकारी हो जाता है । शालग्राम शिला के जल का निरन्तर पान करने वाला पुरुष देवाभिलषित प्रसाद पाता है; इसमें संशय नहीं । उसे जन्म, मृत्यु और जरा से छुटकारा मिल जाता है । सम्पूर्ण तीर्थ उस पुण्यात्मा पुरुष का स्पर्श करना चाहते हैं । जीवन्मुक्त एवं महान् पवित्र वह व्यक्ति भगवान् श्रीहरि के पद का अधिकारी हो जाता है । भगवान्‌ के धाम में वह उनके साथ असंख्य प्राकृत प्रलय तक रहने की सुविधा प्राप्त करता है । वहाँ जाते ही भगवान् उसे अपना दास बना लेते हैं । उस पुरुष को देखकर, ब्रह्महत्या के समान जितने बड़े-बड़े पाप हैं, वे इस प्रकार भागने लगते हैं, जैसे गरुड़ को देखकर सर्प । उस पुरुष के चरणों की रज से पृथ्वीदेवी तुरंत पवित्र हो जाती हैं। उसके जन्म लेते ही लाखों पितरों का उद्धार हो जाता है।

मृत्युकाल में जो शालग्राम के जल का पान करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को चला जाता है । उसे निर्वाणमुक्ति सुलभ हो जाती है । वह कर्मभोग से छूटकर भगवान् श्रीहरि के चरणों में लीन हो जाता है – इसमें कोई संशय नहीं । शालग्राम को हाथ में लेकर मिथ्या बोलने वाला व्यक्ति ‘कुम्भीपाक’ नरक में जाता है और ब्रह्मा की आयुपर्यन्त उसे वहाँ रहना पड़ता है। जो शालग्राम को धारण करके की हुई प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, उसे लाख मन्वन्तर तक ‘असिपत्र’ नामक नरक में रहना पड़ता है। कान्ते ! जो व्यक्ति शालग्राम पर से तुलसी के पत्र को दूर करेगा, उसे दूसरे जन्म में स्त्री साथ न दे सकेगी। शङ्ख से तुलसीपत्र का विच्छेद करने वाला व्यक्ति भार्याहीन तथा सात जन्मों तक रोगी होगा ।

शालग्राम, तुलसी और शङ्ख – इन तीनों को जो महान् ज्ञानी पुरुष एकत्र सुरक्षितरूप से रखता है, उससे भगवान् श्रीहरि बहुत प्रेम करते हैं । नारद! इस प्रकार देवी तुलसी से कहकर भगवान् श्रीहरि मौन हो गये। उधर देवी तुलसी अपना शरीर त्यागकर दिव्य रूप से सम्पन्न हो भगवान् श्रीहरि के वक्षःस्थल पर लक्ष्मी की भाँति शोभा पाने लगी । कमलापति भगवान् श्रीहरि उसे साथ लेकर वैकुण्ठ पधार गये।

नारद! लक्ष्मी, सरस्वती, गङ्गा और तुलसी — ये चार देवियाँ भगवान् श्रीहरिकी पत्नियाँ हुईं। उसी समय तुलसी की देह से गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान् श्रीहरि भी उसी के तट पर मनुष्यों के लिये पुण्यप्रद शालग्राम-शिला बन गये। मुने! वहाँ रहने वाले कीड़े शिला को काट-काटकर अनेक प्रकार की बना देते हैं। वे पाषाण जल में गिरकर निश्चय ही उत्तम फल प्रदान करते हैं। जो पाषाण धरती पर पड़ जाते हैं, उन पर सूर्य का ताप पड़ने से पीलापन आ जाता है, ऐसी शिला को पिङ्गला समझनी चाहिये । ( वह शिला पूजा में उत्तम नहीं मानी जाती है ।) नारद! इस प्रकार यह सभी प्रसङ्ग मैंने कह सुनाया; अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय २१ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारायणनारदसंवादे तुलस्युपाख्यानं एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.