ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 30
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तीसवाँ अध्याय
नरक-कुण्डों और उनमें जाने वाले पापियों तथा पापों का वर्णन

धर्मराज ने कहा — साध्वि ! भगवान् श्रीहरि की सेवामें संलग्न रहने वाले पुण्यात्मा, योगी, सिद्ध, व्रती, तपस्वी और ब्रह्मचारी पुरुष नरक में नहीं जाते, यह ध्रुव सत्य है । जो शक्तिशाली मनुष्य बल के अभिमान में आकर खलता के कारण अपने कटुवचनों के द्वारा बान्धवों को दग्ध करता है, वह अग्निकुण्ड नामक नरक में जाता है। उसके शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने वर्षों तक उसे उस नरक में वास करना पड़ता है। फिर वह तीन बार पशु-योनि में जन्म पाता है। जो मूर्ख मानव घर पर आये हुए भूखे और प्यासे दुःखी ब्राह्मण को भोजन नहीं देता, वह तप्तकुण्ड नामक नरक में जाता है। अपने रोम के बराबर वर्षों तक उस दुःखप्रद नरक में वास करने के पश्चात् सात जन्मों तक वह पक्षी होता है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

जो मनुष्य रविवार, सूर्यसंक्रान्ति, अमावास्या और श्राद्ध के दिन वस्त्रों को क्षार पदार्थ से धोता है, उसे सूत के बराबर वर्षों तक क्षारकुण्ड में रहना पड़ता है । फिर सात जन्मों तक वह धोबी होता है। जो अपने अथवा दूसरे के द्वारा दी हुई ब्राह्मण और देवताओं की वृत्ति को छीन लेता है, वह साठ हजार वर्षों के लिये विट्कुण्ड नामक नरक में जाता है । पुनः पृथ्वी पर आकर उतने ही वर्षोंतक वह विष्ठा के कीड़े की योनि में रहता है। जो दूसरों के तड़ाग में बिना उसकी आज्ञा लिये तड़ाग निर्माण कराता है (तड़ाग बनवाने का झूठा यश लेता है ) तथा भाग्यदोष से उसका विधिवत् उत्सर्ग करता है, ऐसा व्यक्ति उस दोष के कारण मूत्रकुण्ड नामक नरक में जाता है । उसे वहाँ वे ही मूत्रादि अपवित्र वस्तुएँ भोजन के लिये मिलती हैं । फिर सात जन्मों तक भारतवर्ष में वह गोधा होकर रहता है । मधुर पदार्थ को अकेले ही खा जाने वाला व्यक्ति श्लेष्मकुण्ड नामक नरक में जाता है । तत्पश्चात् वह प्रेत बनता है।

जो पिता-माता, गुरु, स्त्री, पुत्र-पुत्री अथवा अनाथ का भरण-पोषण नहीं करता, वह गरल (विष) – कुण्ड नामक नरक में जाता है और पूरे एक हजार वर्षों तक उसे खाने के लिये विष ही मिलता है । तत्पश्चात् वह भूतयोनि में जाता है । जो मनुष्य अतिथि को क्रोध भरे नेत्रों से देखता है, उस पापी के दिये हुए जल को पितर और देवता ग्रहण नहीं करते। उसको यहीं ब्रह्महत्या – जैसे घोर पापों का फल मिल जाता है। अन्त में इनके फलस्वरूप प्राणी दूषिकाकुण्ड नामक नरक में जाता है । वहाँ पूरे सौ वर्षों तक दूषित पदार्थ भोजन करके रहना पड़ता है। फिर भूत की योनि में रहने के पश्चात् वह पवित्र होता है। यदि ब्राह्मण को दी हुई वस्तु फिर दूसरे को दे दी जाय तो उस दूषित कर्म के प्रभाव से दाता को सौ वर्षों के लिये वसाकुण्ड नामक नरक में जाना पड़ता है । तदनन्तर सात जन्मों तक उसे भारत में गिरगिट होना पड़ता है । जो स्त्री पर-पुरुष से अथवा पुरुष परायी स्त्री से अवैध सम्बन्ध करता है या उसे शुक्रपान कराता है, वह शुक्रकुण्ड नामक नरक में जाता है और सौ वर्षों तक वही खाता है । तत्पश्चात् सौ वर्षों तक कीट योनि में रहकर वह शुद्ध होता है ।

जो गुरु अथवा ब्राह्मण को मारकर उनके शरीर से रक्त बहा देता है, उसे असृक्कुण्ड नामक नरक की प्राप्ति होती है । उसमें रहकर वह रक्तपान करता है । तदनन्तर सात जन्मों तक वह व्याघ्र होता है । फिर क्रमशः मानव योनि में जन्म पाता है। जो श्रीकृष्ण-गुणगान के अवसर पर भक्त को आँसू बहाते तथा गद्गदवाणी से हरिगुण गाते देखकर अनुचित रूप से उसका उपहास करता है, वह मानव सौ वर्षों तक अश्रुकुण्ड नामक नरक में वास करता है। भोजन के लिये उसे अश्रु ही मिलते हैं। तत्पश्चात् तीन जन्मों तक चाण्डाल की योनि में उसका जन्म होता है, तब वह शुद्ध होता है । जो मनुष्य सुहृद् के साथ निरन्तर शठता का व्यवहार करता है, वह गात्रमलकुण्ड नामक नरक जाता है । इसके बाद उसे तीन जन्मों तक गदहे की तथा तीन जन्मों तक श्रृंगाल की योनि प्राप्त होती है। तत्पश्चात् वह शुद्ध होता है । जो बहरे को देखकर हँसता और अभिमानवश उसकी निन्दा करता है, उसका कर्णविट् नामक नरककुण्ड में वास होता है और वहाँ उसे कानों की मैल भोजन  के लिये मिलती है । फिर परम दरिद्र होकर जन्म लेता है और उसके कानों में सुनने की शक्ति नहीं रहती । जो मनुष्य लोभवश अपने भरण-पोषण के लिये प्राणियों की हिंसा करता है, वह बहुत दीर्घकाल तक मज्जाकुण्ड नामक नरक में स्थान पाता है। वहाँ मज्जा ही उसे भोजन के लिये मिलती है। इसके बाद वह खरगोश की योनि में जन्म पाता है; फिर सात जन्मों तक मछली का शरीर पाता है । फिर कर्मों के प्रभाव से उसे मृग आदि योनियाँ प्राप्त होती हैं। तदनन्तर वह शुद्ध होता है।

जो अपनी कन्या को पाल-पोषकर उसे बेचता है, वह अर्थलोभी महान् मूर्ख मानव मांसकुण्ड नामक नरक में जाता है । कन्या का मांस ही उसे भोजन के लिये मिलता है मेरे अनुचर उसे डंडों से पीटते हैं। मांस का भार मस्तक पर उठाकर वह ढोता है और भूख लगने पर उससे चूते हुए रक्त की धारा चाटता है । तदनन्तर वह पापी भारत में जन्म पाकर कन्या की विष्ठा का कीड़ा होता है । फिर सात जन्मों तक वधिक होता है । उसके बाद उसे तीन जन्म तक सूअर और सात जन्मों तक कुत्ते की योनि मिलती है। फिर सात-सात जन्मों तक मेंढक, जोंक और कौए की योनि प्राप्त होती है। तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ।

जो मनुष्य व्रतों, श्राद्धों और उपवास के लिये संयम के दिन क्षौरकर्म कराता है, वह सम्पूर्ण कर्मों के लिये अपवित्र माना जाता है। साध्वि ! ऐसा करने वाला व्यक्ति नखकुण्ड में स्थान पाता है । जो भारत में केशयुक्त पार्थिव लिङ्ग की पूजा करता है, वह दीर्घकाल तक केशकुण्ड में वास करता उसके बाद महादेवजी के कोप से वह यवन होता है । फिर सौ वर्ष के बाद उसकी शुद्धि होती है। जो मानव विष्णुपद नामक तीर्थ में पितरों को पिण्ड नहीं देता है, वह अस्थिकुण्ड नामक नरक में वास पाता है । फिर सात जन्मों तक मानव-शरीर पाकर वह लँगड़ा और अत्यन्त दरिद्र होता है । इस तरह दण्ड भोगने के बाद उसकी शुद्धि होती है। जो महामूर्ख मानव अपनी गर्भवती स्त्री का सेवन ( उसके साथ समागम) करता है, वह प्रतप्त ताम्रकुण्ड नामक नरक में वास पाता है । अवीरा तथा सद्यः ऋतुस्नाता का अन्न खाने वाला मनुष्य सौ वर्षों तक प्रतप्त लौहकुण्ड नामक नरक में रहता है। इसके बाद उसे रजक की योनि और चर्मकार की योनि प्राप्त होती है।

जो चाम छूकर बिना हाथ धोये देवद्रव्य का स्पर्श करता है, वह घर्मकुण्ड नामक नरक में वास करता है । जो बिना निमन्त्रण मिले शूद्र के घर जाकर उसका अन्न खाता है, वह ब्राह्मण तप्तसुराकुण्ड में स्थान पाता है। जो कठोर वचन कहकर सदा स्वामी को कष्ट पहुँचाता है, वह तीक्ष्णकण्टक नामक नरककुण्ड में कण्टकभोजी बनकर वास करता है । मेरे दूत उसे डंडे से कष्ट पहुँचाते हैं । जो निर्दयी व्यक्ति प्राणी को विष देकर मार डालता है, वह हजार वर्षों तक विषभोजी होकर विषकुण्ड में रहता है । फिर सात जन्मों तक नरघाती अर्थात् जल्लाद होता है । सात जन्मों तक कोढ़ी होता है। उसके प्रत्येक अङ्ग में फोड़े-फुंसियाँ कष्ट देती हैं। तत्पश्चात् उसकी शुद्धि होती है । जो पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में जन्म पाकर बैल जोतने वाला व्यक्ति डंडे से बैल को स्वयं मारता है अथवा भृत्य द्वारा मरवाता है, वह प्रतप्त तप्त-तैल नामक नरककुण्ड में रहता है। उस बैल के जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक उसे बैल होकर कष्ट भोगना पड़ता है ।

साध्वि ! जो निर्दयी व्यक्ति डंडे से, लोहे से अथवा बंसी से प्राणी की हिंसा करता है, वह युगों तक दन्तकुण्ड नामक नरक में स्थान पाता है । इसके बाद मानव – योनि में जन्म पाकर उदररोग से दुःखी होता है । जो ब्राह्मण मांस- मछली खाता तथा श्रीहरि के नैवेद्य की वस्तु (उन्हें अर्पण किये बिना ही) चट कर जाता है, वह कृमिकुण्ड नामक नरक में जाता है। उसे आहार के रूप में मांस उपलब्ध होता है । तत्पश्चात् तीन जन्मों तक उसे म्लेच्छ की योनि मिलती है। जो छोटे-बड़े अथवा क्रूर सर्प को मारता है, वह मानव सर्पकुण्ड नामक नरक का अधिकारी होता है, उसे वहाँ सर्प काटते हैं । सर्प का विट् उसे खाना पड़ता है। तत्पश्चात् वह सर्प की योनि पाता है । इसके बाद थोड़ी आयुवाला मानव होता है। उसके शरीर में दाद आदि चर्मरोग होते हैं । फिर वह साँप के काटने पर बड़े क्लेश से मृत्यु को प्राप्त होता है । ब्रह्मा के विधान में रक्तपान जिनकी जीविका ही निश्चित है, उन मच्छर आदि क्षुद्र जन्तुओं को जो मारते हैं, वे मृत जीवों के मशकुण्ड और दंशकुण्ड नामक नरकों में निवास करते हैं । दिन-रात वे जन्तु उन्हें काटते रहते हैं। उन्हें खाने को कुछ मिलता नहीं । तदुपरान्त उस क्षुद्र जन्तु की योनि में उनका जन्म होता है । फिर वे अङ्गहीन मानव होते हैं ।

जो दण्ड न देने योग्य व्यक्ति को अथवा ब्राह्मण को दण्ड देता है, वह वज्रदंष्ट्रकुण्ड नामक नरक में जाता है । उसमें कीड़े-ही-कीड़े रहते हैं । उसे कीड़े खाते हैं और वह हाहाकार मचाया करता है। जो मूढ़ भूपाल धन के लोभ से प्रजा को सताता है, वह वृश्चिककुण्ड नामक नरक में स्थान पाता है। पुनः सात जन्मों तक बिच्छू होता है । तत्पश्चात् मनुष्य की योनि में उसकी उत्पत्ति होती है । वह अङ्गहीन और रोगी होकर जीवन व्यतीत करता है । जो ब्राह्मण होकर जीवों के वध के लिये हथियार उठाता है, वह दूसरों का धावन बनकर इधर-उधर जाता है । जो कभी संध्या नहीं करता तथा भगवान् श्रीहरि की भक्ति से विमुख रहता है, वह शर आदि के कुण्ड में जाता है । बाण आदि से उसके अङ्ग निरन्तर छिदते रहते हैं । मद के अभिमान में चूर रहनेवाला जो राजा थोड़े-से अपराध के कारण अन्धकारपूर्ण कारागार में प्रजाओं को मारता है, उसे अपने दोष के फलस्वरूप गोलकुण्ड नामक नरक में जाना पड़ता है। वह नरक बड़ा ही भयंकर है । उसमें खौलता हुआ जल भरा रहता है । अन्धकार छाया रहता है। तीखे दाँतवाले कीड़े सर्वत्र फैले रहते हैं। ऐसे दारुण नरक में वह पड़ा रहता है। तत्पश्चात् मनुष्य होकर उन प्रजाओं का भृत्य बनता है।

सरोवर से निकले हुए नक्र आदि जलचर जीवों को जो मारता है, वह नक्रकुण्ड नामक नरक में जाता है। जो मनुष्य पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में आकर कामभाव से परस्त्री के वक्षःस्थल, श्रोणी, स्तन एवं मुख देखता है, वह काकतुण्ड नामक नरक में वास करता है। जो मूढ़ मानव भारतवर्ष में जन्म पाकर ताँबा और लोहा चुराता है, वह बाजकुण्ड नामक नरक में स्थान पाता है। मेरे दूत बाणों से उसकी आँख फोड़ देते और उसे डंडों से पीटते हैं। इसके बाद वह तीन जन्मों में नेत्रहीन तथा सात जन्मों में दरिद्री होता है । भारतवर्ष में जन्म पाकर देवताओं की प्रतिमा तथा देवसम्बन्धी द्रव्य की चोरी करनेवाला मानव दुस्तर वन्धकुण्ड नामक नरक में निश्चितरूप से वास करता है । तीखे वज्रों से उसका शरीर दग्ध-सा होता रहता है। देवता और ब्राह्मण के रजत, गव्य (दूध-दही आदि) पदार्थ तथा वस्त्र की चोरी करनेवाला व्यक्ति तप्तपाषाणकुण्ड नामक नरक में स्थान पाता है – यह निश्चित है। फिर तीन जन्म तक बगुला, तीन जन्मों तक श्वेत हंस, एक जन्म में सफेद चील, फिर अन्यान्य श्वेत पक्षी, इसके बाद अल्पायु मानव होता है । रक्त विकार और शूलरोग से उसे असह्य पीड़ा सहनी पड़ती है । जो ब्राह्मण और देवता के पीतल तथा काँसे के पात्र का अपहरण करता है, वह तीक्ष्ण पाषाणकुण्ड में अपनी रोम की संख्या के बराबर वर्षों तक निश्चय ही निवास करता है ।

जो पुंश्चली का अन्न खाता तथा उसकी कमाई से जीविका चलाता है, वह लालाकुण्ड नामक नरक में वास करता है। जिसमें लार-ही-लार भरी रहती है, वहाँ का दुःख भोगने के पश्चात् मानव बनकर नेत्ररोग और शूलरोग से कष्ट पाता है। साध्वि ! जो ब्राह्मण तथा देवताओं के धान्य आदि से सम्पन्न खेती, ताम्बूल, आसन एवं शय्या का अपहरण करता है, वह पापी मानव चूर्णकुण्ड नामक नरक में जाता है। जो मनुष्य ब्राह्मण का धन चुराकर उससे चक्र (पहिया अथवा तेल पेरने का कोल्हू ) बनवाता है, वह चक्रकुण्ड नामक नरक वास करता है । उसे वहाँ सैकड़ों वर्षों तक डंडों की मार सहनी पड़ती है । फिर तीन जन्मों तक वह तेली, रोगी और निःसंतान होता है। भाई-बन्धुओं और ब्राह्मणों के प्रति क्रूर दृष्टि रखनेवाला मानव दीर्घकाल तक वत्रकुण्ड नामक नरक में रहता है । तत्पश्चात् सात जन्मों तक टेढ़े शरीरवाला तथा अङ्गहीन बनता है। दरिद्रता उसे घेरे रहती है। देवता और ब्राह्मणों  के घृत तथा तेल का अपहरण करनेवाला पातकी ज्वालाकुण्ड तथा भस्मकुण्ड नामक नरक का अधिकारी होता है। जो मानव देवता-ब्राह्मण के सुगन्धित तैल, आँवला तथा अन्य भी किसी उत्तम गन्धवाले द्रव्य का अपहरण करता है, वह पूतिकुण्डसंज्ञक नरक में रहकर रात-दिन दुर्गन्ध का अनुभव करता है । साध्वि ! जो बलवान् व्यक्ति किसी दूसरे की पैतृक भूमि को छल-बल से अथवा उसे मारकर छीन लेता है, उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में स्थान मिलता है। जैसे खौलते हुए तेल में कोई जीव जलता है, उसी तरह वह दग्ध होता हुआ निरन्तर उसके भीतर चक्कर लगाता रहता है, तथापि जलकर भस्म नहीं हो जाता; क्योंकि प्राणी का भोगदेह (यातना – शरीर) नष्ट नहीं होता । इसके बाद वह विष्ठा का कीड़ा होता है। फिर भूमिहीन एवं दरिद्र मानव होता है ।

साध्वि ! जो अत्यन्त दारुण एवं निर्दयी व्यक्ति तलवार से जीवों को काटता तथा धन के लोभ से नरघाती बनकर मानव की हत्या करता है, वह असिपत्र नामक नरक में स्थान पाता है । मेरे दूत तलवार से निरन्तर उसके अङ्ग काटते हैं । जब वह भोजन के अभाव में चिल्लाता है, तब दूत उसे मारते हैं । फिर सौ-सौ जन्मों तक भारत में चाण्डाल, शूकर और कूकर होता है। इसके बाद सात-सात जन्मों तक श्रृंगाल और व्याघ्र होता है, तीन जन्मों तक भेड़िया, सात जन्मों तक गेंडा और तीन जन्मों तक भैंसा होता है । पतिव्रते ! ग्रामों और नगरों में आग लगाने वाला पापी मानव क्षुरधारकुण्ड नामक नरक में निवास करता है। तीन युगों तक उसमें रहता है और यमदूत उसके अङ्ग को काटते रहते हैं । फिर उसे प्रेत की योनि मिल जाती है और मुँह से आग उगलता हुआ वह जगत् में भ्रमण करता है । फिर सात-सात जन्मों तक अमेध्य- भोजी, खद्योत, महान् शूलरोगी एवं गलितकुष्ठी मानव होता है। जो दूसरे के कान में मुँह लगाकर परायी निन्दा करता है, दूसरे के दोष जानने में जिसकी विशेष स्पृहा रहती है तथा जो देवता एवं ब्राह्मण की निन्दा किया करता है, वह तीन युगों तक शूचीमुख नामक नरक में स्थान पाता है । शूची में उसके सभी अङ्ग छिद जाते हैं। फिर बिच्छू, सर्प, वज्रकीट तथा आग फैलाने वाले कीड़ों की योनियों में सात-सात जन्मों तक भटकता है ।

जो गृहस्थों के घर में सेंध लगाकर घुस जाता और भीतर पड़ी हुई वस्तुएँ चुरा लेता है तथा गाय, बकरे और भेड़ों की भी चोरी करता है, वह गोधामुख नामक नरक में जाता है। मेरे दूतों की मार खाते हुए तीन युगों तक उसे वहाँ रहना पड़ता है । साधारण वस्तु चुराने वाला व्यक्ति नक्रमुख- संज्ञक नरक में जाता है। मेरे दूतों की मार सहते हुए वह वहाँ रहता है । फिर उसकी शुद्धि हो जाती है। जो हाथियों, घोड़ों एवं गौओं को मारता है तथा वृक्षों को काटता है, वह महान् पातकी व्यक्ति गजदंश नामक नरक में दीर्घकाल तक रहता है। मेरे दूत हाथी के दाँत लेकर उन्हीं से उसको निरन्तर पीटते हैं। फिर तीन-तीन जन्मों तक वह हाथी, घोड़े, गौ एवं म्लेच्छ जाति की योनि में उत्पन्न होता है। प्यासी गौ के जल पीते समय जो उसे दूर हटा देता है, वह पुरुष गोमुखकुण्ड नामक नरक में पड़ता है। वहाँ सब ओर कीड़े और खौलता हुआ जल भरा रहता है। वह उसी में जलता हुआ वास करता है । इसके बाद दीर्घरोगी एवं दरिद्र मानव होता है ।

जो गौ, ब्राह्मण, स्त्री, भिक्षुक तथा गर्भकी प्रत्यक्ष अथवा आतिदेशिकी हत्या करता है एवं अगम्या स्त्री के साथ गमन करता है, वह महान् नीच व्यक्ति कुम्भीपाककुण्ड नरक में निवास करता है । मेरे दूत निरन्तर मारते हुए उसे चूर्ण- चूर्ण कर देते हैं । प्रज्वलित अग्नि, कण्टक और खौलते हुए तेल एवं गरम लोहे तथा आग से संतप्त ताँबे पर वह क्षण-क्षण में गिरता रहता है। फिर गीध, सूअर तथा कौवा और सर्प होता है । तदनन्तर वह विष्ठा का कीड़ा होता है । फिर बैल होने के पश्चात् कोढ़ी मनुष्य होता है । दरिद्रता उसका साथ कभी नहीं छोड़ती।

साध्वि ! जो भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी प्रतिमा में, अन्य देवताओं तथा उनके विग्रहों में, शिव तथा शिवलिङ्ग में, सूर्य तथा सूर्यकान्तमणि में, गणेश और उनकी प्रतिमा में – सर्वत्र भेदबुद्धि करता है, उसे आतिदेशिकी ब्रह्महत्या लगती है । अर्थात् शास्त्र की आज्ञा के अनुसार उसे ब्रह्महत्या लगती है। जो अपने गुरु, इष्टदेव और जन्मदात्री माता भेदबुद्धि करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है। जो विष्णुभक्तों तथा अन्य देवभक्तों में, ब्राह्मणों एवं ब्राह्मणेतरों में तुलना करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है । परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वेश्वरेश्वर हैं। ये सम्पूर्ण कारणों के कारण हैं । इन सर्वान्तर्यामी आदिपुरुष की सभी देवता उपासना करते हैं । ये माया से अनेक रूप धारण करते हैं । वस्तुतः ये एक निर्गुण ब्रह्म हैं। जो इनकी दूसरे किसी से समता करता है, वह आतिदेशिकी ब्रह्महत्या का अधिकारी माना जाता है। वेद में कहे हुए देवताओं और पितरों के परम्परागत पूजन का जो निषेध करता है, वह ब्रह्महत्या को प्राप्त करता है। जो भगवान् हृषीकेश तथा उनके मन्त्रोपासकों की निन्दा करता है; जो पवित्रों में भी परम पवित्र हैं, जिनका विग्रह आनन्दमय ज्ञानस्वरूप है तथा जो वैष्णवजनों के परम आराध्य एवं देवताओं के सेव्य हैं, उन सनातन भगवान् श्रीहरिकी जो पूजा नहीं करते, बल्कि उलटे निन्दा करते हैं, उनको ब्रह्महत्या लगती है।

जो सर्वदेवीस्वरूपा, सर्वाद्या, सर्ववन्दिता, सर्वकारणरूपा, विष्णुभक्तिप्रदायिनी, सती, विष्णुमाया, सर्वशक्तिस्वरूपा तथा सर्वमाता प्रकृति (दुर्गा) हैं, उनकी जो निन्दा करते हैं, उन्हें ब्रह्महत्या प्राप्त होती है। श्रीकृष्णजन्माष्टमी, रामनवमी, एकादशी, शिवरात्रि और रविवारव्रत – ये अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाले हैं। जो ये परम पवित्र पाँच व्रत नहीं करते, वे चाण्डालसे भी अधिक नीच मानव ब्रह्महत्याके भागी होते हैं। जो भारतवासी मानव अम्बुवाची योग में अर्थात् आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में पृथ्वी खोदते तथा जल में मल- मूत्रादि करते हैं, उन्हें ब्रह्महत्या लगती है । जो समर्थ होकर भी गुरु, माता, भाई, साध्वी स्त्री, पुत्र-पुत्री तथा अनाथों का भरण-पोषण नहीं करता है, वह ब्रह्महत्या का अधिकारी होता है। जो भगवान् श्रीहरि की भक्ति से वञ्चित है, उसे ब्रह्महत्या लगती है। निरन्तर भगवान् श्रीहरि को भोग लगाकर भोजन नहीं करनेवाला और भगवान् विष्णु तथा पुण्यमय पार्थिवेश्वर की उपासना से विमुख रहनेवाला ब्रह्महत्यारा कहा जाता है । ( अब आतिदेशि की गोहत्या बतलाते हैं -)

कोई व्यक्ति गौ को मार रहा हो, उसे देखकर जो निवारण नहीं करता तथा जो गौ और ब्राह्मण के से होकर निकलता है, वह गोहत्या का अधिकारी होता है। जो मूर्ख डंडों से गौ को पीटता है, बैल पर आरूढ़ होता है, उसे प्रतिदिन गोवध का पाप लगता है। जो पैर से अग्नि का स्पर्श और गौ पर चरण – प्रहार करता है तथा स्नान करके बिना पैर धोये घर के भीतर प्रवेश करता है, उसे गोवध का पाप लगता है। जो पति अपनी स्त्री का सतीत्व बेचकर जीविका चलाता है और संध्या नहीं करता, उसे गोहत्या लगती है । जो स्त्री अपने स्वामी तथा श्रीकृष्ण में भेदबुद्धि करती तथा कठोर वचनों से पति के हृदय पर आघात पहुँचाती है, उसे निश्चय ही गोहत्या लगती है । जो गौओं के जाने मार्ग को खोदकर तथा तड़ाग एवं उसके ऊपर की भूमि को जोतकर उसमें अनाज बोता है, वह गोहत्या पाप का भागी होता है। राजकीय उपद्रव और दैवी प्रकोप के अवसर पर जो स्वामी यत्नपूर्वक गौ की रक्षा नहीं करता, बल्कि उसे उलटे दुःख देता है, उस मूढ़ मानव को गोहत्या अवश्य लगती है । जो किसी प्राणी को, देवप्रतिमा के स्नान कराने के बाद वहाँ से बहते हुए जल को, देवता के नैवेद्य को तथा निर्माल्य पुष्प को लाँघता है, वह गोहत्या का भागी होता है ।

जो अतिथियों के लिये सदा ‘नहीं’ ही किया करता, झूठ बोलता और दूसरों को ठगता तथा देवता और गुरु से द्वेष करता है, उसे गोहत्या का पाप लगता है । जो देवप्रतिमा, गुरु और ब्राह्मण को देखकर वेगपूर्वक उन्हें प्रणाम नहीं करता, उसे गोहत्या अवश्य लगती है । जो ब्राह्मण प्रणाम करने वाले व्यक्ति को क्रोध में आकर आशीर्वाद नहीं देता तथा विद्यार्थी को विद्या नहीं पढ़ाता, उसे गोहत्या लगती है। गुरुपत्नी, राजपत्नी, सौतेली माँ, सगी माँ, पुत्री, पुत्र- वधू, सास, गर्भवती स्त्री, बहिन, सहोदर भाई की पत्नी, मामी, दादी, नानी, बूआ, मौसी, भतीजी, शिष्या, शिष्य- पत्नी, भानजे की स्त्री, भाई के पुत्र की पत्नी – इन सबको ब्रह्माजी ने अत्यन्त अगम्या बतलाया है। जो पुरुष कामभाव से इन पर दृष्टिपात करता है, उसे अधम मानव कहा गया है। वेदों में उसे मातृगामी कहा गया है। उसे ब्रह्महत्या का पाप – फल प्राप्त होता है। किसी भी सत्कर्म में उसे नहीं लिया जा सकता। वह महापापी अत्यन्त दुष्कर कुम्भीपाक नामक नरक में जाता है । भद्रे ! मैंने नरकों में जाने वाले लोगों के कुछ लक्षण बतला दिये। इन नरककुण्डों से अतिरिक्त नरकों में जो जाते हैं, उनका प्रसङ्ग कहता हूँ, सुनो ! (अध्याय ३०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादे कर्मविपाके पापिनरकनिरूपणं शिवप्राशस्त्यं ब्रह्महत्यादि पदार्थ परिभाषा निरूपणं नाम त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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