February 3, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 35 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पैंतीसवाँ अध्याय भगवती महालक्ष्मी के प्राकट्य तथा विभिन्न व्यक्तियों से उनके पूजित होने का वर्णन नारदजी ने कहा — भगवन्! मैं धर्मराज और सावित्री के संवाद में निर्गुण-निराकार परमात्मा श्रीकृष्ण का निर्मल यश सुन चुका । वास्तव में उनके गुणों का कीर्तन मङ्गलों का भी मङ्गल है । प्रभो ! अब मैं भगवती लक्ष्मी का उपाख्यान सुनना चाहता हूँ। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन् ! सर्वप्रथम भगवती लक्ष्मी की किसने पूजा की ? इन देवी का कैसा स्वरूप है और किस मन्त्र से इनकी पूजा होती है? आप मुझे इनका गुणानुवाद सुनाने की कृपा कीजिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् नारायण बोले — ब्रह्मन् ! प्राचीन समय की बात है। सृष्टि के आदि में परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के वामभाग से रासमण्डल में भगवती श्रीराधा प्रकट हुईं। उन परम सुन्दरी श्रीराधा के चारों ओर वटवृक्ष शोभा दे रहे थे। उनकी अवस्था ऐसी थी, मानो द्वादशवर्षीया देवी हों । निरन्तर रहने वाला तारुण्य उनकी शोभा बढ़ा रहा था। उनका दिव्य विग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो श्वेत चम्पक का पुष्प हो । उन मनोहारिणी देवी के दर्शन परम सुखी बनानेवाले थे । उनका प्रसन्नमुख शरत्पूर्णिमा के कोटि-कोटि चन्द्रमाओं की प्रभा से पूर्ण था । उनके विकसित नेत्रों के सामने शरत्काल के मध्याह्नकालिक कमलों की शोभा छिप जाती थी । परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के साथ विराजमान रहने वाली वे देवी उनकी इच्छा अनुसार दो रूप हो गयीं । रूप, वर्ण, तेज, अवस्था, कान्ति, यश, वस्त्र, आकृति, आभूषण, गुण, मुस्कान, अवलोकन, वाणी, गति, मधुर स्वर, नीति तथा अनुनय-विनय में दोनों (राधा तथा लक्ष्मी) समान थीं । श्रीराधा के बाँयें अंश से लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ और अपने दाहिने अंश में श्रीराधा स्वयं ही विद्यमान रहीं । श्रीराधा ने प्रथम परात्पर प्रभु द्विभुज भगवान् श्रीकृष्ण को पतिरूप से स्वीकार कर लिया। भगवान् का वह विग्रह अत्यन्त कमनीय था । महालक्ष्मी ने भी श्रीराधा के वर लेने के पश्चात् उन्हीं को पति बनाने की इच्छा की। तब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें गौरव प्रदान करने के विचार से ही स्वयं दो रूपों में प्रकट हो गये। अपने दक्षिण अंश से वे दो भुजाधारी श्रीकृष्ण ही बने रहे और वाम अंश से चतुर्भुज विष्णु के रूप में परिणत हो गये । उन्होंने महालक्ष्मी को भगवान् विष्णु की सेवामें समर्पित कर दिया। जो देवी अपनी स्नेहभरी दृष्टि से विश्व को माता की भाँति निरन्तर देखती-भालती रहती हैं, वे ही देवियों में महती होने के कारण महालक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। इस प्रकार द्विभुज भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधा के प्राणपति बने और चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु लक्ष्मी के । द्विभुज श्रीकृष्ण गोपों और गोपियों से आवृत हो गोलोक में अत्यन्त शोभा पाने लगे और चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु भगवती लक्ष्मी सहित वैकुण्ठधाम को चले गये। ये भगवान् श्रीविष्णु और भगवान् श्रीकृष्ण दोनों समस्त अंशों में एक समान ही हैं । भगवती श्रीमहालक्ष्मी योगबल से नाना रूपों में विराजमान हुईं। वे सम्पूर्ण सौभाग्यों से सम्पन्न होकर परम शुद्ध सत्त्वस्वरूपा, परिपूर्णतमा ‘महालक्ष्मी’ के नाम से प्रसिद्ध हो वैकुण्ठधाम में निवास करने लगीं। प्रेम के कारण समस्त नारी समुदाय में वे प्रधान हुईं। वे स्वर्ग में इन्द्र की सम्पत्तिस्वरूपिणी होकर ‘स्वर्गलक्ष्मी’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। पाताल में तथा मर्त्यलोक में राजाओं के यहाँ ‘राजलक्ष्मी’ हुईं। गृहस्थों के यहाँ ‘गृह-लक्ष्मी’ के नाम से पूजित हुईं। अपने कलांश से ये ही गृहिणी भी कहलाती हैं । वे गृहस्थों के लिये सम्पत्स्वरूपा तथा सर्वमङ्गलमङ्गला हैं । गौओं की जननी सुरभि तथा यज्ञपत्नी दक्षिणा भी वे ही हैं । क्षीरसागर के यहाँ उसकी कन्या हैं। कमलों में ‘श्री’ तथा चन्द्रमा और सूर्य में ‘शोभा’ रूप से उन्हीं का निवास है । वे सूर्यमण्डल का अलंकार हैं। भूषण, रत्न, फल, जल, राजा, रानी, दिव्य नारी, गृह, सम्पूर्ण धान्य, वस्त्र, पवित्र स्थान, देवताओं की प्रतिमा, मङ्गल-कलश, माणिक्य, मोतियों की सुन्दर मालाएँ, बहुमूल्य हीरे, चन्दन-वृक्षों की सुरम्य शाखा तथा नूतन मेघ — इन सभी वस्तुओं में भगवती श्रीलक्ष्मी का अंश विद्यमान है । सर्वप्रथम भगवान् नारायण ने वैकुण्ठधाम में इन महालक्ष्मी की पूजा की। दूसरी बार ब्रह्माजी ने भक्तिपूर्वक इनका अर्चन किया। तीसरी बार भगवान् श्रीशिव ने इनकी आराधना की। मुने! फिर भगवान् विष्णु ने क्षीरसागर में इनकी पूजा की । तदनन्तर स्वायम्भुव मनु मानवेन्द्र, ऋषीश्वर, मुनीश्वर तथा साधु गृहस्थ — इन लोगों ने महालक्ष्मी की उपासना की है। गन्धर्व और नाग आदि ने पाताललोक में इनका पूजन किया। भाद्रपद मास की शुक्ल अष्टमी के सुअवसर पर ब्रह्मा द्वारा ये सुपूजित हुईं। नारद! फिर भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में पूरे पक्ष तक त्रिलोकी में इनकी भक्तिपूर्वक पूजा होने लगी । चैत्र, पौष तथा भाद्रपद मास के पवित्र मङ्गलवार को भगवान् विष्णु ने भक्तिपूर्वक तीनों लोकों में इनकी पूजा का महोत्सव चालू किया । वर्ष के अन्त में पौष की संक्रान्ति के दिन मनु ने अपने प्राङ्गण में इनकी प्रतिमा का आवाहन करके इनकी पूजा की। तत्पश्चात् तीनों लोकों में वह पूजा प्रचलित हो गयी । राजेन्द्र ! मङ्गल, केदार, नील, नल, सुबल, उत्तानपाद-पुत्र ध्रुव, इन्द्र, बलि, कश्यप, दक्ष, मनु, विवस्वान् (सूर्य), प्रियव्रत, चन्द्रमा, कुबेर, वायु, यम, अग्नि और वरुण ने मङ्गलमयी देवी की उपासना की । इस प्रकार ये भगवती महालक्ष्मी सर्वत्र सब लोगों से सदा सुपूजित हुई हैं। ये सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री देवी हैं। समस्त सम्पत्तियाँ इन्हीं का स्वरूप हैं । (अध्याय ३५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे लक्ष्म्युपाख्याने लक्ष्मीस्वरूपपूजादिवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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