February 4, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 38 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ अड़तीसवाँ अध्याय भगवती लक्ष्मी का समुद्र से प्रकट होना भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर भगवान् श्रीहरि का ध्यान करके देवराज इन्द्र ने बृहस्पतिजी को आगे करके सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्मा की सभा के लिये प्रस्थान किया। वे शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये। सबको ब्रह्माजी के दर्शन हुए । इन्द्र और बृहस्पति सहित समस्त देवताओं ने उनके चरणों में मस्तक झुकाया । तत्पश्चात् देवगुरु बृहस्पतिजी ने ब्रह्माजी को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उनकी बात सुनकर ब्रह्माजी हँस पड़े । उन्होंने देवराज से कहा । ब्रह्माजी बोले — वत्स ! तुम मेरे वंशज हो । तुम्हें उत्तम बुद्धि प्राप्त है। मेरे प्रपौत्र हो । बृहस्पतिजी तुम्हारे गुरु हैं और तुम स्वयं भी देवताओं के स्वामी हो । परम प्रतापी विष्णुभक्त दक्ष प्रजापति तुम्हारे मातामह हैं। भला, जिसके तीनों कुल ऐसे पवित्र हों, वह सुयोग्य पुरुष अहंकार क्यों करे? जिसकी माता परम पतिव्रता, पिता शुद्धस्वरूप और मातामह एवं मातुल जितेन्द्रिय हों, वह व्यक्ति अहंकारी क्यों बन जाय ? क्योंकि यदि पिता, मातामह और गुरु — ये तीन दोषी हों तो इन्हीं के दोष से सम्पन्न होकर पुरुष भगवान् श्रीहरि का द्रोही बन सकता है – यह निश्चित है । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सर्वान्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में विराजमान रहते हैं । उनके देह से निकल जाने पर उसी क्षण प्राणी शव बन जाता है । वे स्वामी हैं और हम सब लोग उनके अनुचर हैं I मैं प्राणियों के शरीर में इन्द्रियों का स्वामी मन होकर रहता हूँ । शंकर ज्ञान का रूप धारण करके रहते हैं। विष्णु के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी भगवती श्रीराधा प्रकृति के रूप में विराजमान रहती हैं । बुद्धि को साध्वी दुर्गा का रूप माना गया है। निद्रा एवं क्षुधा आदि – ये सभी भगवती प्रकृति की कलाएँ हैं। आत्मा का जो बुद्धि में प्रतिबिम्ब है, वही जीव है । उसी ने इस भोग-शरीर को धारण कर रखा है। जब शरीर का स्वामी आत्मा देह से निकलकर जाने लगता है, तब ये सब भी तुरंत उसी के साथ-साथ चल पड़ते हैं; जैसे रास्ते में वर के आगे चलने पर सभी बराती सज्जन उसका अनुसरण करते हैं। मैं, शिव, शेषनाग, विष्णु, धर्म एवं महाविराट् तथा तुम सब लोग — ये सब जिनके अंश और भक्त हैं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण के निर्माल्यरूप पुष्प का तुमने अपमान कर दिया है । भगवान् शिव ने जिस पुष्प से उन श्रीहरि के चरणकमलों की पूजा की थी, वही पुष्प सौभाग्यवश मुनिवर दुर्वासा की कृपा से तुम्हें प्राप्त हुआ था; परंतु तुमने उसका सम्मान नहीं किया। भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल से च्युत पुष्प जिसके मस्तक पर स्थान पाता है, वह सौभाग्यशाली व्यक्ति सम्पूर्ण देवताओं में प्रधान माना जाता है और उसी की पहले पूजा होती है । हाय ! दैव ने तुम्हें ठग लिया। वास्तव में दैव बड़ा प्रबल होता है। इस समय भगवान् श्रीकृष्ण के निर्माल्य का परित्याग करने से रोष में आकर भगवती श्रीदेवी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। अब तुम मेरे तथा बृहस्पति के साथ वैकुण्ठ में चलो। मैं वर देता हूँ, अतः तुम वहाँ लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरि की सेवा करके लक्ष्मी को अवश्य प्राप्त कर लोगे । नारद! इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओं को साथ ले वैकुण्ठलोक में गये । वहाँ जाने पर उन्हें परब्रह्म सनातन भगवान् श्रीहरि के दर्शन हुए। उस समय वे तेजःपुञ्ज प्रभु अपने ही तेज से प्रकाशित हो रहे थे । उनका श्रीविग्रह ऐसा जान पड़ता था, मानो ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक असंख्य सूर्य एक साथ चमक रहे हों। वे आदि, मध्य और अन्त से रहित लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरि शान्तरूप से विराजमान थे । वे चार भुजा वाले पार्षदों से और भगवती सरस्वती से युक्त थे। चारों वेदों सहित भगवती गङ्गा भक्ति प्रदर्शित करती हुई उनके पास विराजमान थीं। उन्हें देखकर ब्रह्मा के अनुयायी सम्पूर्ण देवताओं ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। उनके प्रत्येक अङ्ग में भक्ति और विनय का विकास हो चुका था । आँखों में आँसू भरकर वे परम प्रभु भगवान् श्रीहरि की स्तुति करने लगे । स्वयं ब्रह्माजी ने हाथ जोड़कर भगवान् से यथावत् समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। उस समय समस्त देवता अपने अधिकार से च्युत होने के कारण रो रहे थे। विपत्ति ने उनके हृदय में भली-भाँति स्थान प्राप्त कर लिया था । भय के कारण उनमें घबराहट की सीमा नहीं थी । उनके शरीर पर एक भी रत्न या आभूषण नहीं था । वे सवारी से भी रहित थे। उन सभी के मुख म्लान थे। श्री तो पहले ही उनका साथ छोड़ चुकी थी । वे निस्तेज एवं भयग्रस्त थे । कुछ भी करने की शक्ति उनमें नहीं रह गयी थी । देवताओं को ऐसी दीन दशा में पड़े हुए देखकर भय को दूर करने वाले भगवान् श्रीहरि ने उनसे कहा । भगवान् श्रीहरि बोले — ब्रह्मन् तथा देवताओ ! भय मत करो। मेरे रहते तुम लोगों को किस बात का भय है। मैं तुम्हें परम ऐश्वर्य को बढ़ानेवाली अचल लक्ष्मी प्रदान करूँगा; परंतु मैं कुछ समयोचित बात कहता हूँ, तुम लोग उस पर ध्यान दो। मेरे वचन हितकर, सत्य, सारभूत एवं परिणाम में सुखावह हैं। जैसे अखिल विश्व के सम्पूर्ण प्राणी निरन्तर मेरे अधीन रहते हैं, वैसे ही मैं भी अपने भक्तों के अधीन हूँ । मैं अपनी इच्छा से कभी कुछ नहीं कर सकता । सदा मेरे भजन-चिन्तन में लगे रहने वाला निरङ्कुश भक्त जिस पर रुष्ट हो जाता है, उसके घर लक्ष्मीसहित मैं नहीं ठहर सकता – यह बिलकुल निश्चित है । मुनिवर दुर्वासा महाभाग शंकर के अंश एवं वैष्णव पुरुष हैं। उनके हृदय में मेरे प्रति अटूट श्रद्धा भी है। उन्होंने तुम्हें शाप दे दिया है। अतएव तुम्हारे घर से लक्ष्मी सहित मैं चला आया हूँ; क्योंकि जहाँ शङ्खध्वनि नहीं होती, तुलसी का निवास नहीं रहता, शंकर की पूजा नहीं होती तथा ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराया जाता, वहाँ लक्ष्मी नहीं रहतीं। ब्रह्मन् तथा देवताओ ! जहाँ मेरे भक्तों की निन्दा होती है, वहाँ रहने वाली महालक्ष्मी के मन में अपार क्रोध उत्पन्न हो जाता है । अतः वे उस स्थान को छोड़कर चल देती हैं। जो मेरी उपासना नहीं करता तथा एकादशी और जन्माष्टमी के दिन अन्न खाता है, उस मूर्ख व्यक्ति के घर से भी लक्ष्मी चली जाती हैं। जो मेरे नाम का तथा अपनी कन्या का विक्रय करता है एवं जहाँ अतिथि भोजन नहीं पाता, उस घर को त्यागकर मेरी प्रिया लक्ष्मी अन्यत्र चली जाती हैं। जो ब्राह्मण पुंश्चली के उदर से उत्पन्न हुआ है अथवा पुंश्चली का पति है, उसे ‘महापापी’ कहा गया है। उसके घर लक्ष्मी नहीं ठहर सकतीं। जो ब्राह्मण बैल जोतता है, वह कमलालया भगवती लक्ष्मी का प्रेमभाजन नहीं हो सकता । अतः उसके यहाँ से वे चल देती हैं। जो अशुद्धहृदय, क्रूर, हिंसक और निन्दक है, उस ब्राह्मण के हाथ का जल पीने में भगवती लक्ष्मी डरती हैं, अतः उसके घर से वे चल देती हैं । जो शूद्रों से यज्ञ कराता है, कायर व्यक्तियों का अन्न खाता है, निष्प्रयोजन तृण तोड़ता है, नखों से पृथ्वी को कुरेदता रहता है; जो निराशावादी है, सूर्योदय के समय भोजन करता है, दिन में सोता और मैथुन करता है और जो सदाचारहीन है, ऐसे मूर्खो के घर से मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं । जो अल्पज्ञानी व्यक्ति भीगे पैर अथवा नंगा होकर सोता है तथा निरन्तर बेसिर-पैर की बातें बकता रहता है, उसके घर से साध्वी लक्ष्मी चली जाती हैं। जो सिर पर तैल लगाकर उसी से दूसरे के अङ्ग को स्पर्श करता है अर्थात् अपने सिर का तैल दूसरे को लगाता है तथा अपनी गोद में बाजा लेकर उसे बजाता है, उसके घर से रुष्ट होकर लक्ष्मी चली जाती हैं। जो द्विज व्रत, उपवास, संध्या और विष्णुभक्ति से हीन है, उस अपवित्र पुरुष के घर से मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं। जो ब्राह्मणों की निन्दा तथा उनसे द्वेष करता है, जीवों की सदा हिंसा करता है और दयारहित है, उसके घर से जगज्जननी लक्ष्मी चली जाती हैं । जिस स्थान पर भगवान् श्रीहरि की चर्चा होती है और उनके गुणों का कीर्तन होता है, वहीं पर सम्पूर्ण मङ्गलों को भी मङ्गल प्रदान करनेवाली भगवती लक्ष्मी निवास करती हैं। पितामह ! जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का तथा उनके भक्तों का यश गाया जाता है, वहीं उनकी प्राणप्रिया भगवती लक्ष्मी सदा विराजती हैं । जहाँ शङ्खध्वनि होती है तथा शङ्ख, शालग्राम, तुलसी – इनका निवास रहता है एवं उनकी सेवा, वन्दना और ध्यान होता है, वहाँ लक्ष्मी सदा विद्यमान रहती हैं। जहाँ शिवलिङ्ग की पूजा और पवित्र कीर्तन तथा दुर्गा-पूजन एवं कीर्तन होता है, वहाँ कमलालया लक्ष्मी निवास करती हैं । जहाँ ब्राह्मणों की सेवा होती है, उन्हें उत्तम पदार्थ भोजन कराये जाते हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं का अर्चन होता है, वहाँ पद्ममुखी साध्वी लक्ष्मी विराजती हैं। नारद! रमापति भगवान् श्रीहरि ने सम्पूर्ण देवताओं से यों कहकर श्रीलक्ष्मी से कहा — ‘देवि ! तुम अपनी कला से क्षीरसमुद्र के यहाँ जाकर जन्म धारण करना स्वीकार कर लो।’ इस प्रकार लक्ष्मी से कहने के पश्चात् उन जगत्प्रभु ने पुनः ब्रह्मा से कहा — ‘पद्मज ! तुम समुद्र का मन्थन करो, उससे लक्ष्मी प्रकट होंगी। तब उन्हें देवताओं को सौंप देना।’ मुने! यों अपना प्रवचन समाप्त करके कमलाकान्त भगवान् श्रीहरि अन्तःपुर में चले गये । देवता उसी क्षण क्षीरसागर की ओर चल पड़े। वहाँ सभी देवता और दानव एकत्रित हुए । मन्दराचल पर्वत को मन्थन-काष्ठ, कच्छप को पात्र तथा शेषनाग को मन्थन की रस्सी बनाकर वे क्षीरसमुद्र को मथने लगे । फलस्वरूप धन्वन्तरि वैद्य, अमृत, उच्चैःश्रवा घोड़ा, विविध रत्न, हाथियों में रत्न ऐरावत, लक्ष्मी, सुदर्शनचक्र तथा वनमाला — ये अमूल्य पदार्थ उन्हें प्राप्त हुए । मुने ! उस समय भगवान् विष्णु में अपार श्रद्धा रखनेवाली साध्वी श्रीलक्ष्मी ने क्षीरशायी सर्वेश्वर श्रीहरि के गले में वनमाला पहना दी। फिर देवता, ब्रह्मा और शंकर के पूजन एवं स्तवन करने पर उन्होंने देवताओं के भवन पर केवल दृष्टि फैला दी। इतने में ही देवताओं ने दुर्वासामुनि के शाप से मुक्त होकर दैत्यों के हाथ में गये हुए अपने राज्य को प्राप्त कर लिया । नारद! यों महालक्ष्मी की कृपा से वर पाकर वे परम सुखी हो गये । इस प्रकार महालक्ष्मी का सम्पूर्ण श्रेष्ठ उपाख्यान मैंने बतला दिया। इस सारभूत उपाख्यान के प्रभाव से समस्त सुख प्राप्त हो जाता है। अब पुनः तुम क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय ३८ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे लक्ष्म्युपाख्याने समुद्रमथनं नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related