February 6, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 47 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सैंतालीसवाँ अध्याय आदि-गौ सुरभीदेवी का उपाख्यान नारदजी ने पूछा — ब्रह्मन् ! वह सुरभीदेवी कौन थी, जो गोलोक से आयी थी ? मैं उसके जन्म और चरित्र सुनना चाहता हूँ । भगवान् नारायण बोले — नारद! देवी सुरभी गोलोक में प्रकट हुई। वह गौओं की अधिष्ठात्री देवी, गौओं की आदि, गौओं की जननी तथा सम्पूर्ण गौओं में प्रमुख है । मुने! मैं सबसे पहली सृष्टि का प्रसङ्ग सुना रहा हूँ, जिसके अनुसार पूर्वकाल में वृन्दावन में उस सुरभी का ही जन्म हुआ था । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय एक समय की बात है । गोपाङ्गनाओं से घिरे हुए राधापति भगवान् श्रीकृष्ण कौतूहलवश श्रीराधा के साथ पुण्य-वृन्दावन में गये । वहाँ वे विहार करने लगे। उस समय कौतुकवश उन स्वेच्छामय प्रभु के मन में सहसा दूध पीने की इच्छा जाग उठी। तब भगवान् ने अपने वामपार्श्व से लीलापूर्वक सुरभी गौ को प्रकट किया। उसके साथ बछड़ा भी था। वह दुग्धवती थी । उस सवत्सा गौ को सामने देख सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा । वह दूध सुधा से भी अधिक मधुर तथा जन्म और मृत्यु को दूर करने वाला था। स्वयं गोपीपति भगवान् श्रीकृष्ण ने उस गरम-गरम स्वादिष्ट दूध को पीया । फिर हाथ से छूटकर वह पात्र गिर पड़ा और दूध धरती पर फैल गया। उस दूध से वहाँ एक सरोवर बन गया। उसकी लंबाई और चौड़ाई सब ओर से सौ-सौ योजन थी । गोलोक में वह सरोवर ‘क्षीरसरोवर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ है । गोपिकाओं और श्रीराधा के लिये वह क्रीड़ा-सरोवर बन गया। भगवान् की इच्छा से उस क्रीड़ा-वापी के घाट तत्काल अमूल्य दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित हो गये । उसी समय अकस्मात् असंख्य कामधेनु प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौएँ थीं, उतने ही बछड़े भी उस सुरभी गौ के रोमकूप से निकल आये। फिर उन गौओं के बहुत-से पुत्र-पौत्र भी हुए, जिनकी संख्या नहीं की जा सकती । यों उस सुरभी देवी गौओं की सृष्टि कही गयी, जिससे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। मुने! पूर्वकाल में भगवान् श्रीकृष्ण ने देवी सुरभी की पूजा की थी। तत्पश्चात् त्रिलोकी में उस देवी की दुर्लभ पूजा का प्रचार हो गया। दीपावली के दूसरे दिन भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से देवी सुरभी की पूजा सम्पन्न हुई थी। यह प्रसङ्ग मैं अपने पिता धर्म के मुख से सुन चुका हूँ। महाभाग ! देवी सुरभी का ध्यान, स्तोत्र, मूलमन्त्र तथा पूजा की विधि का वेदोक्त क्रम मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। ‘ॐ सुरभ्यै नमः’ सुरभीदेवी का यह षडक्षर-मन्त्र है। एक लाख जप करने पर मन्त्र सिद्ध होकर भक्तों के लिये कल्पवृक्ष का काम करता है। ध्यान और पूजन यजुर्वेद में सम्यक् प्रकार से वर्णित हैं। स्थितं ध्यानं यजुर्वेदे पूजनं सर्वसम्मतम् । ऋद्धिदां वृद्धिदां चैव मुक्तिदो सर्वकामदाम् ॥ १७ ॥ लक्ष्मीस्वरूपां परमां राधासहचरीं पराम् । गवामधिष्ठातृदेवीं गवामाद्यां गवां प्रसूम् ॥ १८ ॥ पवित्ररूपां पूज्यां च भक्तानां सर्वकामदाम् । यया पूतं सर्वविश्वं तां देवीं सुरभीं भजे ॥ १९ ॥ ‘जो ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति और सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली हैं; जो लक्ष्मीस्वरूपा, श्रीराधा की सहचरी, गौओं की अधिष्ठात्री, गौओं की आदिजननी, पवित्ररूपा, पूजनीया, भक्तों के अखिल मनोरथ सिद्ध करनेवाली हैं तथा जिनसे यह सारा विश्व पावन बना है, उन भगवती सुरभी की मैं उपासना करता हूँ। ‘ कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बाँधने के खंभे, शालग्राम की मूर्ति, जल अथवा अग्नि में देवी सुरभी की भावना करके द्विज इनकी पूजा करें। जो दीपमालिका के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में भक्तिपूर्वक भगवती सुरभी की पूजा करेगा, वह जगत् में पूज्य हो जायगा । एक बार वाराहकल्प में देवी सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय त्रिलोकी में दूध का अभाव हो गया था। तब देवता अत्यन्त चिन्तित होकर ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी की स्तुति करने लगे । तदनन्तर ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर इन्द्र ने देवी सुरभी की स्तुति आरम्भ की। ॥ महेन्द्र उवाच ॥ नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नमः । गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके ॥ २४ ॥ नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नमः । नमः कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नमः । कल्पवृक्षस्वरूपायै प्रदात्र्यै सर्वसंपदाम् ॥ २५ ॥ श्रीदायै धनदायै च बुद्धिदायै नमो नमः । शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नमः ॥ २६ ॥ यशोदायै सौख्यदायै धर्मज्ञायै नमो नमः । स्तोत्रश्रवणमात्रेण तुष्टा हृष्टा जगत्प्रसूः ॥ २७ ॥ आविर्बभूव तत्रैव ब्रह्मलोके सनातनी । महेन्द्राय वरं दत्त्वा वाञ्छितं सर्वदुर्लभम् ॥ २८ ॥ जगाम सा च गोलोकं ययुर्देवादयो गृहम् । बभूव विश्वं सहसा दुग्धपूर्णं च नारद ॥ २९ ॥ दुग्धाद् घृतं ततो यज्ञस्ततः प्रीतिः सुरस्य च । इदं स्तोत्रं महापुण्यं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ॥ ३० ॥ स गोमान्धनवांश्चैव कीर्त्तिमान्पुण्यवान्भवेत् । सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ॥ ३१ ॥ इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते कृष्णमन्दिरम् । सुचिरं निवसेत्तत्र कुरुते कृष्णसेवनम् ॥ ३२ ॥ न पुनर्भवनं तस्य ब्रह्मपुत्र भवे भवेत् ॥ ३३ ॥ इन्द्र ने कहा — देवी एवं महादेवी सुरभी को बार-बार नमस्कार है । जगदम्बिके! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो; तुम्हें नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हें बार-बार नमस्कार है । श्रीकृष्ण-प्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है । जो सबके लिये कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करनेवाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी देवी को बार-बार नमस्कार है । यश और कीर्ति प्रदान करनेवाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है। इस प्रकार स्तुति सुनते ही सनातनी जगज्जननी भगवती सुरभी संतुष्ट और प्रसन्न हो उस ब्रह्मलोक में ही प्रकट हो गयीं । देवराज इन्द्र को परम दुर्लभ मनोवाञ्छित वर देकर वे पुनः गोलोक को चली गयीं। देवता भी अपने-अपने स्थानों को चले गये । नारद! फिर तो सारा विश्व सहसा दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ सम्पन्न होने लगे तथा उनसे देवता संतुष्ट हुए । जो मानव इस महान् पवित्र स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करेगा, वह गोधन से सम्पन्न, प्रचुर सम्पत्तिवाला, परम यशस्वी और पुत्रवान् हो जायगा । उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने तथा अखिल यज्ञों में दीक्षित होने का फल सुलभ होगा । ऐसा पुरुष इस लोक में सुख भोगकर अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण के धाम में चला जाता है। चिरकाल तक वहाँ रहकर भगवान् की सेवा करता रहता है। नारद ! उसे पुनः इस संसार में नहीं आना पड़ता । (अध्याय ४७) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सुरभ्युपाख्याने तदुत्पत्ति तत्पूजादिकथनं नाम सप्तचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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