February 6, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 49 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ उनचासवाँ अध्याय श्रीराधा और श्रीकृष्ण के चरित्र तथा श्रीराधा की पूजा-परम्परा का अत्यन्त संक्षिप्त परिचय श्रीमहादेवजी कहते हैं — पार्वति ! एक समय की बात है, श्रीकृष्ण विरजा नाम वाली सखी के यहाँ उसके पास थे। इससे श्रीराधाजी को क्षोभ हुआ । इस कारण विरजा वहाँ नदी रूप होकर प्रवाहित हो गयी । विरजा की सखियाँ भी छोटी-छोटी नदियाँ बनीं। पृथ्वी की बहुत-सी नदियाँ और सातों समुद्र विरजा से ही उत्पन्न हैं । राधा ने प्रणयकोप से श्रीकृष्ण के पास जाकर उनसे कुछ कठोर शब्द कहे। सुदामा ने इसका विरोध किया । इस पर लीलामयी श्रीराधा ने उसे असुर होने का शाप दे दिया। सुदामा ने भी लीलाक्रम से ही श्रीराधा को मानवीरूप में प्रकट होने की बात कह दी। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सुदामा माता राधा तथा पिता श्रीहरि को प्रणाम करके जब जाने को उद्यत हुआ तब श्रीराधा पुत्र-विरह से कातर हो आँसू बहाने लगीं। श्रीकृष्ण ने उन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और शीघ्र उसके लौट आने का विश्वास दिलाया। सुदामा ही तुलसी का स्वामी शङ्खचूड़ नामक असुर हुआ था, जो मेरे शूल से विदीर्ण एवं शापमुक्त हो पुनः गोलोक चला गया। सती राधा इसी वाराहकल्प में गोकुल में अवतीर्ण हुई थीं। वे व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं। वे देवी अयोनिजा थीं, माता के पेट से नहीं पैदा हुई थीं। उनकी माता कलावती ने अपने गर्भ में ‘वायु’ को धारण कर रखा था । उसने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया; परंतु वहाँ स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गयीं। बारह वर्ष बीतने पर उन्हें नूतन यौवन में प्रवेश करती देख माता-पिता ने ‘रायाण’ वैश्य के साथ उसका सम्बन्ध निश्चित कर दिया । उस समय श्रीराधा घर में अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं अन्तर्धान हो गयीं। उस छाया के साथ ही उक्त रायाण का विवाह हुआ । ‘जगत्पति श्रीकृष्ण कंस के भय से रक्षा के बहाने शैशवावस्था में ही गोकुल पहुँचा दिये गये थे । वहाँ श्रीकृष्ण की माता जो यशोदा थीं, उनका सहोदर भाई ‘रायाण’ था । गोलोक में तो वह श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था, पर इस अवतार के समय भूतल पर वह श्रीकृष्ण का मामा लगता था । जगत्स्रष्टा विधाता ने पुण्यमय वृन्दावन में श्रीकृष्ण के साथ साक्षात् श्रीराधा का विधिपूर्वक विवाह-कर्म सम्पन्न कराया था । गोपगण स्वप्न में भी श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन नहीं कर पाते थे। साक्षात् राधा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में वास करती थीं और छाया राधा रायाण के घर में । ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन पाने के लिये पुष्कर में साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी; उसी तपस्या के फलस्वरूप इस समय उन्हें श्रीराधा-चरणों का दर्शन प्राप्त हुआ था । गोकुलनाथ श्रीकृष्ण कुछ काल तक वृन्दावन में श्रीराधा के साथ आमोद-प्रमोद करते रहे । तदनन्तर सुदामा के शाप से उनका श्रीराधा के साथ वियोग हो गया। इसी बीच में श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का भार उतारा। सौ वर्ष पूर्ण हो जाने पर तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग से श्रीराधा ने श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का दर्शन प्राप्त किया । तदनन्तर तत्त्वज्ञ श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोकधाम पधारे। कलावती (कीर्तिदा) और यशोदा भी श्रीराधा के साथ ही गोलोक चली गयीं । प्रजापति द्रोण नन्द हुए । उनकी पत्नी धरा यशोदा हुईं। उन दोनों ने पहले की हुई तपस्या के प्रभाव से परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण को पुत्ररूप में प्राप्त किया था । महर्षि कश्यप वसुदेव हुए थे । उनकी पत्नी सती साध्वी अदिति अंशतः देवकी के रूप में अवतीर्ण हुई थीं । प्रत्येक कल्प में जब भगवान् अवतार लेते हैं, देवमाता अदिति तथा देवपिता कश्यप उनके माता-पिता का स्थान ग्रहण करते हैं । श्रीराधा की माता कलावती (कीर्तिदा) पितरों की मानसी कन्या थी । गोलोक से वसुदाम गोप ही वृषभानु होकर इस भूतल पर आये थे । दुर्गे ! इस प्रकार मैंने श्रीराधा का उत्तम उपाख्यान सुनाया। यह सम्पत्ति प्रदान करने वाला, पापहारी तथा पुत्र और पौत्रों की वृद्धि करने वाला है । श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं — द्विभुज और चतुर्भुज । चतुर्भुजरूप से वे वैकुण्ठधाम में निवास करते हैं और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्ण गोलोकधाम में । चतुर्भुज की पत्नी महालक्ष्मी, सरस्वती, गङ्गा और तुलसी हैं। ये चारों देवियाँ चतुर्भुज नारायणदेव की प्रिया हैं । श्रीकृष्ण की पत्नी श्रीराधा हैं, जो उनके अर्धाङ्ग से प्रकट हुई हैं। वे तेज, अवस्था, रूप तथा गुण सभी दृष्टियों से उनके अनुरूप हैं । आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः । व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः ॥ विद्वान् पुरुष को पहले ‘राधा’ नाम का उच्चारण करके पश्चात् ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण करना चाहिये। इस क्रम से उलट-फेर करने पर वह पाप का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। कार्तिक की पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का पूजन किया और तत्सम्बन्धी महोत्सव रचाया। उत्तम रत्नों की गुटिका में राधा- कवच रखकर गोपों सहित श्रीहरि ने उसे अपने कण्ठ और दाहिनी बाँह में धारण किया । भक्तिभाव से उनका ध्यान करके स्तवन किया। फिर मधुसूदन ने राधा के चबाये हुए ताम्बूल को लेकर स्वयं खाया । राधा श्रीकृष्ण की पूजनीया हैं और भगवान् श्रीकृष्ण राधा के पूजनीय हैं। वे दोनों एक- दूसरे इष्ट देवता हैं । उनमें भेदभाव करने वाला पुरुष नरक में पड़ता है। श्रीकृष्ण के बाद धर्म ने, ब्रह्माजी ने, मैंने, अनन्त ने, वासुकि ने तथा सूर्य और चन्द्रमा ने श्रीराधा का पूजन किया । तत्पश्चात् देवराज इन्द्र, रुद्रगण, मनु, मनुपुत्र, देवेन्द्रगण, मुनीन्द्रगण तथा सम्पूर्ण विश्व के लोगों ने श्रीराधा की पूजा की। ये सब द्वितीय आवरण के पूजक हैं। तृतीय आवरण में सातों द्वीपों के सम्राट् सुयज्ञ ने तथा उनके पुत्र-पौत्रों एवं मित्रों ने भारतवर्ष में प्रसन्नतापूर्वक श्री राधिका का पूजन किया। उन महाराज को दैववश किसी ब्राह्मण ने शाप दे दिया था, जिससे उनका हाथ रोगग्रस्त हो गया था । इस कारण वे मन-ही-मन बहुत दुःखी रहते थे । उनकी राज्यलक्ष्मी छिन गयी थी; परंतु श्रीराधा के वर से उन्होंने अपना राज्य प्राप्त कर लिया । ब्रह्माजी के दिये हुए स्तोत्र से परमेश्वरी श्रीराधा की स्तुति करके राजा ने उनके अभेद्य कवच को कण्ठ और बाँह में धारण किया तथा पुष्करतीर्थ में सौ वर्षों तक ध्यानपूर्वक उनकी पूजा की। अन्त में वे महाराज रत्नमय विमान पर सवार होकर गोलोकधाम में चले गये। पार्वति ! यह सारा प्रसङ्ग मैंने तुम्हें कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहती हो ? (अध्याय ४९ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गत हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने राधायाः सुदामशापादिकथनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related