ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 66
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
छियासठवाँ अध्याय
दुर्गाजी का दुर्गनाशन-स्तोत्र एवं उसका माहात्म्य

नारदजी ने कहा मुनिश्रेष्ठ ! मैंने सब कुछ सुन लिया । अवश्य ही अब कुछ भी सुनना शेष नहीं रहा । केवल प्रकृतिदेवीके स्तोत्र और कवच का मुझसे वर्णन कीजिये ।

श्रीनारायण बोले — नारद! गोलोक में परमात्मा श्रीकृष्ण ने सबसे पहले वसन्त-ऋतु में रासमण्डल के भीतर प्रसन्नतापूर्वक देवी की पूजा करके उनकी स्तुति की थी। दूसरी बार मधु और कैटभ के साथ युद्ध के अवसर पर भगवान् विष्णु ने देवी का स्तवन किया। तीसरी बार वहीं प्राणसंकट का अवसर आया जान ब्रह्माजी ने दुर्गादेवी की स्तुति की थी। मुने! चौथी बार त्रिपुरारि शिव ने त्रिपुरों के साथ अत्यन्त घोरतर युद्ध का अवसर आने पर भक्तिभाव से देवी का स्तवन किया था और पाँचवीं बार वृत्रासुरवध के समय घोर प्राणसंकट की बेला में सम्पूर्ण देवताओं सहित इन्द्र ने दुर्गादेवी की स्तुति की थी । तबसे मुनीन्द्रों, मनुओं और सुरथ आदि मनुष्यों ने प्रत्येक कल्प में परात्परा परमेश्वरी का स्तवन एवं पूजन करना आरम्भ किया । ब्रह्मन् ! अब तुम देवी का स्तोत्र सुनो, जो सम्पूर्ण विघ्नों का नाश करनेवाला, सुखदायक, मोक्षदायक, सार वस्तु तथा भवसागर से पार होनेका साधन है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

॥ दुर्गा दुर्गम संकटनाशनस्तोत्र ॥
॥ श्रीकृष्ण उवाच ॥
त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका ॥ ८ ॥
कार्य्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम् ।
परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी ॥ ९ ॥
तेजस्स्वरूपा परमा भक्तानुग्रविग्रहा ।
सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा ॥ १० ॥
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया ।
सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमंगलमंगलः ॥ ११ ॥
सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी ॥ १२ ॥
त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम् ।
दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ॥ १३ ॥
निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चात्मनः प्रिया ।
क्षुत्क्षान्तिः शान्तिरीशा च शान्तिः सृष्टिश्च शाश्वती ॥ १४ ॥
श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा दया तथा ।
सतां सम्पत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह ॥ १५ ॥
प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा ।
शश्वत्कर्ममयी शक्तिः सर्वदा सर्वजीविनाम् ॥ १६ ॥
देवेभ्यः स्वपदो दात्री धातुर्धात्री कृपामयी ।
हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी ॥ १७ ॥
योगिनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम् ।
सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदा सिद्धयोगिनी ॥ १८ ॥
ब्रह्माणी माहेश्वरी च विष्णुमाया च वैष्णवी ।
भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयंकरी ॥ १९ ॥
ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे ।
सतां कीर्त्तिः प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा ॥ २० ॥
महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी ।
रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी ॥ २१ ॥
वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च ब्रह्मादीनां च सर्वदा ।
ब्रह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम् ॥ २२ ॥
विद्या विद्यावतां त्वं च बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम् ।
मेधा स्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम् ॥ २३ ॥
राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी ।
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने ॥ २४ ॥
तथाऽन्ते त्वं महामारी विश्वे विश्वैश्च पूजिते ।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी ॥ २५ ॥
दुरत्यया मे माया त्वं यया संमोहितं जगत् ।
यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्गं न पश्यति ॥ २६ ॥
इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया दुर्गनाशनम् ।
पूजाकाले पठेद्यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्छिता ॥ २७ ॥
( प्रकृतिखण्ड ६६ । ८-२७ )

श्रीकृष्ण बोले देवि! तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति ईश्वरी हो। तुम्हीं सृष्टिकार्य में आद्याशक्ति हो। तुम अपनी इच्छा से त्रिगुणमयी बनी हुई हो । कार्यवश सगुण रूप धारण करती हो । वास्तव में स्वयं निर्गुणा हो । सत्या, नित्या, सनातनी एवं परब्रह्मस्वरूपा हो, परमा तेजःस्वरूपा हो । भक्तों पर कृपा करने के लिये दिव्य शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेशा, सर्वाधारा, परात्परा, सर्वबीजस्वरूपा, सर्वपूज्या, निराश्रया, सर्वज्ञा, सर्वतोभद्रा (सब ओर से मङ्गलमयी), सर्वमङ्गलमङ्गला, सर्वबुद्धिस्वरूपा, सर्वशक्तिरूपिणी, सर्वज्ञानप्रदा देवी, सब कुछ जानने वाली और सबको उत्पन्न करनेवाली हो। देवताओं के लिये हविष्य दान करने के निमित्त तुम्हीं स्वाहा हो, पितरों के लिये श्राद्ध अर्पण करने के निमित्त तुम स्वयं ही स्वधा हो, सब प्रकार के दानयज्ञ में दक्षिणा हो तथा सम्पूर्ण शक्तियाँ तुम्हारा ही स्वरूप हैं। तुम निद्रा, दया और मन को प्रिय लगने वाली तृष्णा हो । क्षुधा, क्षमा, शान्ति, ईश्वरी, कान्ति तथा शाश्वती सृष्टि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्रद्धा, पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा, शोभा और दया हो । सत्पुरुषों के यहाँ सम्पत्ति और दुष्टों के घरमें विपत्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं पुण्यवानों के लिये प्रीतिरूप हो, पापियों के लिये कलह का अङ्कुर हो तथा समस्त जीवों की कर्ममयी शक्ति भी सदा तुम्हीं हो ।

देवताओं को उनका पद प्रदान करने वाली तुम्हीं हो। धाता (ब्रह्मा) – का भी धारण-पोषण करनेवाली दयामयी धात्री तुम्हीं हो। सम्पूर्ण देवताओं के हित के लिये तुम्हीं समस्त असुरों का विनाश करती हो। तुम योग-निद्रा हो । योग तुम्हारा स्वरूप है। तुम योगियों को योग प्रदान करनेवाली हो । सिद्धों की सिद्धि भी तुम्हीं हो। तुम सिद्धिदायिनी और सिद्धयोगिनी हो । ब्रह्माणी, माहेश्वरी, विष्णु- माया, वैष्णवी तथा भद्रदायिनी भद्रकाली भी तुम्हीं हो। तुम्हीं समस्त लोकों के लिये भय उत्पन्न करती हो । गाँव-गाँव में ग्रामदेवी और घर-घर में गृहदेवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सत्पुरुषों की कीर्ति और प्रतिष्ठा हो । दुष्टों की होनेवाली सदा निन्दा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम महायुद्ध में दुष्टसंहाररूपिणी महामारी हो और शिष्ट पुरुषों के लिये माता की भाँति हितकारिणी एवं रक्षारूपिणी हो । ब्रह्मा आदि देवताओं ने सदा तुम्हारी वन्दना, पूजा एवं स्तुति की है । ब्राह्मणों की ब्राह्मणता और तपस्वीजनों की तपस्या भी तुम्हीं हो, विद्वानों की विद्या, बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्पुरुषों की मेधा और स्मृति तथा प्रतिभाशाली पुरुषों की प्रतिभा भी तुम्हारा ही स्वरूप है । राजाओं का प्रताप और वैश्यों का वाणिज्य भी तुम्हीं हो। विश्वपूजिते ! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी, पालनकाल में रक्षारूपिणी तथा संहारकाल में विश्व का विनाश करनेवाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं कालरात्रि, महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो; तुम मेरी दुर्लङ्घय माया हो, जिसने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान् पुरुष भी मोक्षमार्ग को नहीं देख पाता ।

वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च दुर्भगा ।
श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सुपुत्रं लभते धुवम् ॥ २८ ॥
कारागारे महाघोरे यो बद्धो दृढबन्धने ।
श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं बन्धनान्मुच्यते धुवम् ॥ २९ ॥
यक्ष्मग्रस्तो गलत्कुष्ठी महाशूली महाज्वरी ।
श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सद्यो रोगात्प्रमुच्यते ॥ ३० ॥
पुत्रभेदे प्रजाभेदे पत्नीभेदे च दुर्गतः ।
श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं लभते नात्र संशयः ॥ ३१ ॥
राजद्वारे श्मशाने च महारण्ये रणस्थले ।
हिंस्रजन्तुसमीपे च श्रुत्वा स्तोत्रं प्रमुच्यते ॥ ३२ ॥
गृहदाहे च दावाग्नौ दस्युसैन्यसमन्विते ।
स्तोत्रश्रवणमात्रेण लभते नात्र संशयः ॥ ३३ ॥
महादरिद्रो मूर्खश्च वर्षं स्तोत्रं पठेत्तु यः ।
विद्यावान्धनवांश्चैव स भवेन्नात्र संशयः ॥ ३४ ॥

इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा किये गये दुर्गा दुर्गम संकटनाशनस्तोत्र का जो पूजाकाल में पाठ करता है, उसे मनोवाञ्छित सिद्धि प्राप्त होती है । जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है । जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ़ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ़, महाभयंकर शूल और महान् ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है । पुत्र, प्रजा और पत्नी के साथ भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है । राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवणमात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र को पढ़े तो निस्संदेह विद्वान् और धनवान् हो जाता है । (अध्याय ६६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने दुर्गास्तोत्रं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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