February 10, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 67 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सडसठवाँ अध्याय प्रकृति-कवच या ब्रह्माण्ड-मोहन-कवच एवं उसका माहात्म्य नारदजी ने कहा — समस्त धर्मों के ज्ञाता तथा सम्पूर्ण ज्ञान में विशारद भगवन् ! ब्रह्माण्ड-मोहन नामक प्रकृति-कवच का वर्णन कीजिये । भगवान् नारायण बोले — वत्स ! सुनो। मैं उस परम दुर्लभ कवच का वर्णन करता हूँ । पूर्वकाल में साक्षात् श्रीकृष्ण ने ही ब्रह्माजी को इस कवच का उपदेश दिया था। फिर ब्रह्माजी ने गङ्गाजी के तट पर धर्म के प्रति इस सम्पूर्ण कवच का वर्णन किया था। फिर धर्म ने पुष्करतीर्थ में मुझे कृपापूर्वक इसका उपदेश दिया, यह वही कवच है, जिसे पूर्वकाल में धारण करके त्रिपुरारि शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था और ब्रह्माजी ने जिसे धारण करके मधु और कैटभ से प्राप्त होने वाले भय को त्याग दिया था। जिसे धारण करके भद्रकाली ने रक्तबीज का संहार किया, देवराज इन्द्र ने खोयी हुई राज्य लक्ष्मी प्राप्त की, महाकाल चिरजीवी और धार्मिक हुए, नन्दी महाज्ञानी होकर सानन्द जीवन बिताने लगा, परशुरामजी शत्रुओं को भय देनेवाले महान् योद्धा बन गये तथा जिसे धारण करके ज्ञानि-शिरोमणि दुर्वासा भगवान् शिव के तुल्य हो गये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ ब्रह्माण्ड मोहन प्रकृति कवच ॥ ॐ दुर्गेति चतुर्थ्यन्तं स्वाहान्तो मे शिरोऽवतु ॥ ७ ॥ मन्त्रः षडक्षरोऽयं च भक्तानां कल्पपादपः । विचारो नास्ति वेदेषु ग्रहणे च मनोर्मुने ॥ ८ ॥ मन्त्रग्रहणमात्रेण विष्णुतुल्यो भवेन्नरः । मम वक्त्रं सदा पातु चों दुर्गायै नमोऽन्ततः ॥ ९ ॥ ॐ दुर्गे रक्षयति च कण्ठं पातु सदा मम । ॐ ह्रीं श्रीमिति मन्त्रोऽयं स्कन्धं पातु निरन्तरम् ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति पृष्ठं च पातु मे सर्वतः सदा । ह्रीं मे वक्षःस्थलं पातु हस्तं श्रीमिति सन्ततम् ॥ ११ ॥ ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सर्वाङ्गं स्वप्ने जागरणे तथा । प्राचं मां प्रकृतिः पातु पातु वह्नौ च चण्डिका ॥ १२ ॥ दक्षिणे भद्रकाली च नैर्ऋत्यां च महेश्वरी । वारुण्यां पातु वाराही वायव्यां सर्वमङ्गला ॥ १३ ॥ उत्तरे वैष्णवी पातु तथैशान्यां शिवप्रिया । जले स्थले चान्तरिक्षे पातु मां जगदम्बिका ॥ १४ ॥ इति ते कथितं वत्स कवचं च सुदुर्लभम् । यस्मै कस्मै न दातव्यं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ १५ ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः । कवचं धारयेद्यस्तु सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ १६ ॥ भ्रमणे सर्वतीर्थानां पृथिव्याश्च प्रदक्षिणे । यत्फलं लभते लोकस्तदेतद्धारणान्मुने ॥ १७ ॥ पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धमेतद्भवेद्ध्रुवम् । लोके च सिद्धकवचं नास्त्रं विध्यति संकटे ॥ १८ ॥ न तस्य मृत्युर्भवति जले वह्नौ विशेद्ध्रुवम् । जीवन्मुक्तो भवेत्सोऽपि सर्वसिद्धेश्वरः स्वयम् ॥ १९ ॥ ‘ॐ दुर्गायै स्वाहा’ यह मन्त्र मेरे मस्तक की रक्षा करे । इस मन्त्र में छः अक्षर हैं । यह भक्तों के लिये कल्पवृक्ष के समान है। मुने! इस मन्त्र को ग्रहण करने के विषय में वेदों में किसी बात का विचार नहीं किया गया है। मन्त्र को ग्रहण करने मात्र से मनुष्य विष्णु के समान हो जाता है । ‘ॐ दुर्गायै नमः ‘ यह मन्त्र सदा मेरे मुख की रक्षा करे । ‘ ॐ दुर्गे रक्ष’ यह मन्त्र सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं’ यह मन्त्र निरन्तर मेरे कंधे का संरक्षण करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं’ यह मन्त्र सदा सब ओर से मेरे पृष्ठभाग का पालन ‘ह्रीं’ मेरे वक्षःस्थल की और ‘श्रीं’ सदा मेरे हाथ की रक्षा करे । ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं’ यह मन्त्र सोते और जागते समय सदा मेरे सर्वाङ्ग का संरक्षण करे । पूर्वदिशा में प्रकृति मेरी रक्षा करे । अग्निकोण में चण्डिका रक्षा करे। दक्षिणदिशा में भद्रकाली, नैर्ऋत्यकोण में महेश्वरी, पश्चिमदिशा में वाराही और वायव्यकोण में सर्वमङ्गला मेरा संरक्षण करे। उत्तरदिशा में वैष्णवी, ईशानकोण में शिवप्रिया तथा जल, थल और आकाश में जगदम्बि का मेरा पालन करे । वत्स ! यह परम दुर्लभ कवच मैंने तुमसे कहा है। इसका उपदेश हर एक को नहीं देना चाहिये और न किसी के सामने इसका प्रवचन ही करना चाहिये। जो वस्त्र, आभूषण और चन्दन से गुरु की विधिवत् पूजा करके इस कवच को धारण करता है, वह विष्णु ही है, इसमें संशय नहीं है । मुने! सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा और पृथ्वी की परिक्रमा करने पर मनुष्य को जो फल मिलता है, वही इस कवच को धारण करने से मिल जाता है । पाँच लाख जप करने से निश्चय ही यह कवच सिद्ध हो जाता है। जिसने कवच को सिद्ध कर लिया है, उस मनुष्य को रणसंकट में अस्त्र नहीं बेधता है । अवश्य ही वह जल या अग्नि में प्रवेश कर सकता है । वहाँ उसकी मृत्यु नहीं होती है । वह सम्पूर्ण सिद्धों का ईश्वर एवं जीवन्मुक्त हो जाता है । जिसको यह कवच सिद्ध हो गया है, वह निश्चय ही भगवान् विष्णु के समान हो जाता है। मुने! इस प्रकार प्रकृतिखण्ड का वर्णन किया गया, जो अमृत की खाँड़ से भी अधिक मधुर है । जिन्हें मूलप्रकृति कहते हैं तथा जिनके पुत्र गणेश हैं, उन देवी पार्वती ने श्रीकृष्ण का व्रत करके ही गणपति – जैसा पुत्र प्राप्त किया था । साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण अपने अंश से गणेश हुए थे। यह प्रकृतिखण्ड सुनने में सुखद और सुधा के समान मधुर है । इसे सुनकर वक्ता को दही, अन्न भोजन करावे और उसे सुवर्ण दान दे। बछड़ेसहित सुन्दर गौ का भक्तिपूर्वक दान करे । मुने! वाचक को वस्त्र, आभूषण तथा रत्न देकर संतुष्ट करे । पुष्प, आभूषण, वस्त्र तथा नाना प्रकार के उपहार ले भक्ति और श्रद्धा के साथ पुस्तक की पूजा करे। जो ऐसा करके कथा सुनता है, उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। उसके पुत्र-पौत्र आदि की वृद्धि होती है । वह भगवान् की कृपा से यशस्वी होता है। उसके घर में लक्ष्मी निवास करती हैं और अन्त में वह गोलोक को प्राप्त होता है । उसे श्रीकृष्ण का दास्यभाव सुलभ होता है तथा भगवान् श्रीकृष्ण में उसकी अविचल भक्ति हो जाती है । (अध्याय ६७) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने ब्रह्माण्डमोहनकवचं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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