ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 12
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
बारहवाँ अध्याय
ब्रह्मा जी की अपूज्यता का कारण, गन्धर्वराज की तपस्या से संतुष्ट हुए भगवान् शंकर का उन्हें अभीष्ट वर देना तथा नारद जी का उनके पुत्र रूप से उत्पन्न हो उपबर्हण नाम से प्रसिद्ध होना

तदनन्तर शौनक जी के पूछने पर सौति ने कहा ब्रह्मन! हंस, यति, अरणि, वोढु, पंचशिख, अपान्तरतमा तथा सनक आदि — इन सबको छोड़कर अन्य सभी ब्रह्मकुमार, जिनकी संख्या बहुत अधिक थी, सदा सांसारिक कार्यों में संलग्न हो प्रजा की सृष्टि करके गुरुजनों (पिता आदि) की आज्ञा का पालन करने लगे। स्वयं प्रजापति ब्रह्मा अपने पुत्र नारद के शाप से अपूज्य हो गये। इसीलिये विद्वान पुरुष ब्रह्मा जी के मन्त्र की उपासना नहीं करते। नारद जी अपने पिता के शाप से उपबर्हण नामक गन्धर्व हो गये।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

उनके वृत्तान्त का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ; सुनिये। इन दिनों जो गन्धर्वराज थे, वे सब गन्धर्वों में श्रेष्ठ और महान थे, उच्चकोटि के ऐश्वर्य से सम्पन्न थे, परंतु किसी कर्मवश पुत्र-सुख से वंचित थे। एक समय गुरु की आज्ञा लेकर वे पुष्कर तीर्थ में गये और वहाँ उत्तम समाधि लगाकर (अथवा अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक) भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये तप करने लगे। उस समय उनके मन में बड़ी दीनता थी, वे दयनीय हो रहे थे। कृपानिधान वसिष्ठ मुनि ने गन्धर्वराज को शिव के कवच, स्तोत्र तथा द्वादशाक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया। दीर्घकाल तक निराहार रहकर उपासना एवं जप-तप करने पर भगवान् शिव ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये।

भासयंतं दश दिशो ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ १२ ॥
महत्तेजस्स्वरूपं च भगवन्तं सनातनम् ।
ईषद्धासं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ १३ ॥
तपोरूपं तपोबीजं तपस्याफलदं फलम् ।
शरणागतभक्ताय दातारं सर्वसम्पदाम् ॥ १४ ॥
त्रिशूलपट्टिशधरं वृषभस्थं दिगम्बरम् ।
शुद्ध स्फटिकसंकाशं त्रिनेत्रं चन्द्रशेखरम् ॥ १५ ॥
तप्तस्वर्णप्रभाजुष्टजटाजालधरं वरम् ।
नीलकण्डं च सर्वज्ञं नागयज्ञोपवीतकम् ॥ १६ ॥
संहर्तारं च सर्वेषां कालं मृत्युंजयं परम् ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्त्तण्डकोटिसंकाशमीश्वरम् ॥ १७ ॥
तत्त्वज्ञानप्रदं शांतं मुक्तिदं हरिभक्तिदम् ।

नित्य तेजःस्वरूप सनातन भगवान् शिव ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान हो दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। भक्तों पर अनुग्रह करने वाले वे भगवान् तपोरूप हैं, तपस्या के बीज हैं, तप का फल देने वाले हैं और स्वयं ही तपस्या के फल हैं। शरण में आये हुए भक्त को वे समस्त सम्पत्तियाँ प्रदान करते हैं। उस समय वे दिगम्बर-वेष में वृषभ पर आरूढ थे, उन्होंने हाथों में त्रिशूल और पट्टिश ले रखे थे। उनकी अङ्ग-कान्ति शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल थी। उनके तीन नेत्र थे और उन्होंने मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण कर रखा था। उनका जटाजूट तपाये हुए सुवर्ण की प्रभा को छीने लेता था। कण्ठ में नील चिह्न और कंधे पर नाग का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा था। सर्वज्ञ शिव सबके संहारक हैं। वे ही काल और मृत्युंजय हैं। वे परमेश्वर ग्रीष्म-ऋतु की दोपहरी के करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी थे। शान्तस्वरूप शिव तत्त्व ज्ञान, मोक्ष तथा हरिभक्ति प्रदान करने वाले हैं।

उन्हें देखते ही गन्धर्व ने सहसा दण्ड की भाँति पृथ्वी पर पड़कर प्रणाम किया और वसिष्ठ जी के दिये हुए स्तोत्र से उन परमेश्वर का स्तवन किया।

तब कृपानिधान शिव उससे बोले — ‘गन्धर्वराज ! तुम कोई वर माँगो।’

तब गन्धर्व ने उनसे भगवान् श्रीहरि की भक्ति तथा परम वैष्णव पुत्र की प्राप्ति का वर माँगा। गन्धर्व की बात सुनकर दीनों के स्वामी दीनबन्धु सनातन भगवान् चन्द्रशेखर हँसे और उस दीन सेवक से बोले।

श्री महादेव जी ने कहा — गन्धर्वराज ! तुमने जो एक वर (हरिभक्ति) को माँगा है, उसी से तुम कृतार्थ होओगे। दूसरा वर तो चबाये हुए को चबाना मात्र है। वत्स ! जिसकी श्रीहरि में सुदृढ़ एवं सर्वमंगलमयी भक्ति है, वह खेल-खेल में ही सब कुछ करने में समर्थ है। भगवद्भक्त पुरुष अपने कुल की और नाना के कुल की असंख्य पीढ़ियों का उद्धार करके निश्चय ही गोलोक में जाता है। करोड़ों जन्मों में उपार्जित त्रिविध पापों का नाश करके वह अवश्य ही पुण्यभोग तथा श्रीहरि की सेवा का सौभाग्य पाता है। मनुष्यों को तभी तक पत्नी की इच्छा होती है, तभी तक पुत्र प्यारा लगता है, तभी तक ऐश्वर्य की प्राप्ति अभीष्ट होती है और तभी तक सुख-दुःख होते हैं, जब तक कि उनका मन श्रीकृष्ण में नहीं लगता।

श्रीकृष्ण में मन लगते ही भक्तिरूपी दुर्लङ्घ्य खड्ग मानवों के कर्ममय वक्षों का मूलोच्छेद कर डालता है। जिन पुण्यात्माओं के पुत्र परम वैष्णव होते हैं, उनके वे पुत्र लीलापूर्वक कुल की बहुसंख्यक पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं। अहो ! एक वर से ही कृतार्थ हुआ पुरुष यदि दूसरा वर चाहता है तो मुझे आश्चर्य होता है। दूसरे वर की क्या आवश्यकता है? लोगों को मंगल की प्राप्ति से तृप्ति नहीं होती है। हमारे पास वैष्णवों के लिये परम दुर्लभ धन संचित है। श्रीकृष्ण की भक्ति एवं दास्य-सुख हम लोग दूसरों को देने के लिये उत्सुक नहीं होते। वत्स! जो तुम्हारे मन में अभीष्ट हो, ऐसा कोई दूसरा वर माँगो अथवा इन्द्रत्व, अमरत्व या दुर्लभ ब्रह्मपद प्राप्त करो। मैं तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धियाँ, महान योग और मृत्युंजय आदि ज्ञान यह सब कुछ सुखपूर्वक दे दूँगा, किंतु यहाँ श्रीहरि का दासत्त्व माँगने का आग्रह छोड़ दो, क्षमा करो ।

भगवान् शंकर की यह बात सुनकर गन्धर्व के कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये। वह अत्यन्त दीनभाव से सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता दीनेश्वर शिव से बोला।

गन्धर्व ने कहा — प्रभो! जिसका ब्रह्मा जी की दृष्टि पड़ते ही पतन हो जाता है, वह ब्रह्मपद स्वप्न के समान मिथ्या एवं क्षणभंगुर है। श्रीकृष्ण भक्त उसे नहीं पाना चाहता। शिव! इन्द्रत्व, अमरत्व, सिद्धियोग आदि अथवा मृत्युंजय आदि ज्ञान की प्राप्ति भी श्रीकृष्ण भक्त को अभीष्ट नहीं है। श्रीहरि के सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य और सायुज्य को तथा निर्वाण मोक्ष को भी वैष्णवजन नहीं लेना चाहते।

सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसायुज्यं श्रीहरेरपि ।
तत्र निर्वाणमोक्षं च न हि वाञ्छन्ति वैष्णवाः ।।
(ब्रह्मखण्ड १२।३५)

भगवान् की अविचल भक्ति तथा उनका परम दुर्लभ दास्य प्राप्त हो– यही सोते, जागते हर समय भक्तों की इच्छा रहती है। अतः यही हमारे लिये श्रेष्ठ वर है। प्रभो! आप याचकों के लिये कल्पवृक्ष हैं; अतः मुझे वर के रूप में श्रीहरि का दास्य-सुख तथा वैष्णव पुत्र प्रदान कीजिये। आपको संतुष्ट पाकर जो दूसरा कोई वर माँगता है, वह बर्बर है। शम्भो! यदि आप मुझे दुष्कर्मी मानकर यह उपर्युक्त वर नहीं देंगे तो मैं अपना मस्तक काटकर अग्नि में होम दूँगा।

गन्धर्व की यह बात सुनकर भक्तों के स्वामी तथा भक्त पर अनुग्रह करने वाले कृपानिधान भगवान् शंकर उस दीन भक्त से इस प्रकार बोले।

भगवान् शंकर ने कहा — गन्धर्वराज! भगवान् विष्णु की भक्ति, उनके दास्य-सुख तथा परम वैष्णव पुत्र की प्राप्ति — इस श्रेष्ठ वर को उपलब्ध करो, खिन्न न होओ। तुम्हारा पुत्र वैष्णव होने के साथ दीर्घायु, सद्गुणशाली, नित्य सुस्थिर यौवन से सम्पन्न, ज्ञानी, परम सुन्दर, गुरुभक्त तथा जितेन्द्रिय होगा।

मुने! ऐसा कहकर भगवान् शंकर वहाँ से अपने धाम को चले गये और गन्धर्वराज संतुष्ट होकर अपने घर को लौटे। अपने कर्म से सफलता प्राप्त होने पर सभी मानवों के मानस-पंकज खिल उठते हैं। उस गन्धर्वराज की पत्नी के गर्भ से भारतवर्ष में नारद जी ने ही जन्म लिया। उस वृद्धा गन्धर्व पत्नी ने गन्धमादन पर्वत पर अपने पुत्र का प्रसव किया था। उस समय गुरुदेव भगवान् वसिष्ठ ने यथोचित रीति से बालक का नामकरण संस्कार किया। उस बालक का वह मंगलमय संस्कार मंगल के दिन सम्पन्न हुआ। ‘उप’ शब्द अधिक अर्थ का बोधक है और पुल्लिंग ‘बर्हण’ शब्द पूज्य-अर्थ में प्रयुक्त होता है। यह बालक पूज्य पुरुषों में सबसे अधिक है; इसलिये इसका नाम ‘उपबर्हण’ होगा– ऐसा वसिष्ठ जी ने कहा। (अध्याय १२)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौति शौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे नारद-जन्म-कथनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

॥ शौनक उवाच ॥
ऋषिवंशप्रसङ्गेन बभूवुर्विविधाः कथाः ।
उपालम्भेन प्रस्तावात्कौतुकेन श्रुता मया ॥ १ ॥
प्रजा वा ससृजुः के वा ऊर्ध्वरेताश्च कश्चन ।
पित्रा सह विरोधेन नारदः किं चकार सः ॥ २ ॥
पितुः शापेन पुत्रस्य किं बभूव विरोधतः ।
पितुर्वा पुत्रशापेन सौते तत्कथ्यतां शुभम् ॥ ३ ॥
॥ सौतिरुवाच ॥
हंसो यतिश्चारणिश्च वोढुः पञ्चशिखस्तथा ।
अपान्तरतमाश्चैव सनकाद्याश्च शौनक ॥ ४ ॥
एतैर्विनाऽन्ये बहवो ब्रह्मपुत्राश्च सन्ततम् ।
सांसारिकाः प्रजावन्तो गुर्वाज्ञापरिपालकाः ॥ ५ ॥
अपूज्यः पुत्रशापेन स्वयं ब्रह्मा प्रजापतिः ।
तेनैव ब्रह्मणो मन्त्रं नोपासन्ते विपश्चितः ॥ ६ ॥
नारदो गुरुशापेन गन्धर्वश्च बभूव सः ।
कथयामि सुविस्तीर्णं तद्वृत्तान्तं निशामय ॥ ७ ॥
गन्धर्वराजः सर्वेषां गन्धर्वाणां वरो महान् ।
परमैश्वर्य्यसंयुक्तः पुत्रहीनो हि कर्मणा ॥ ८ ॥
गुर्वाज्ञया पुष्करे स परमेण समाधिना ।
तपश्चकार शम्भोश्च कृपणो दीनमानसः ॥ ९ ॥
शिवस्य कवचं स्तोत्रं मन्त्रं च द्वादशाक्षरम् ।
ददौ गन्धर्वराजाय वसिष्ठश्च कृपानिधिः ॥ १० ॥
जजाप परमं मन्त्रं दिव्यं वर्षशतं मुने ।
पुष्करे स निराहारः पुत्रदुःखेन तापितः ॥ ११ ॥
विरामे शतवर्षस्य ददर्श पुरतः शिवम् ।
भासयंतं दश दिशो ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ १२ ॥
महत्तेजस्स्वरूपं च भगवन्तं सनातनम् ।
ईषद्धासं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ १३ ॥
तपोरूपं तपोबीजं तपस्याफलदं फलम् ।
शरणागतभक्ताय दातारं सर्वसम्पदाम् ॥ १४ ॥
त्रिशूलपट्टिशधरं वृषभस्थं दिगम्बरम् ।
शुद्ध स्फटिकसंकाशं त्रिनेत्रं चन्द्रशेखरम् ॥ १५ ॥
तप्तस्वर्णप्रभाजुष्टजटाजालधरं वरम् ।
नीलकण्डं च सर्वज्ञं नागयज्ञोपवीतकम् ॥ १६ ॥
संहर्तारं च सर्वेषां कालं मृत्युंजयं परम् ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्त्तण्डकोटिसंकाशमीश्वरम् ॥ १७ ॥
तत्त्वज्ञानप्रदं शांतं मुक्तिदं हरिभक्तिदम् ।
दृष्ट्वा ननाम सहसा गन्धर्वो दण्डवद्भुवि ॥ १८ ॥
वसिष्ठदत्तस्तोत्रेण तुष्टाव परमेश्वरम् ।
वरं वृणुष्वेति शिवस्तमुवाच कृपानिधिः ।
स ययाचे हरे भक्तिं पुत्रं परमवैष्णवम् ॥ १९ ॥
गन्धर्वस्य वचः श्रुत्वा चाह सीच्चन्द्रशेखरः ।
उवाच दीनं दीनेशो दीनबन्धुः सनातनम् ॥ २० ॥
॥ श्रीमहादेव उवाच ॥
कृतार्थस्त्वं वरादेकादन्यच्चर्वितचर्वणम् ।
गन्धर्वराज वृणुषे को वा तृप्तोऽतिमङ्गले ॥ २१ ॥
यस्य भक्तिर्हरौ वत्स सुदृढा सर्वमङ्गला ।
स समर्थः सर्वविश्वं पातुं कर्त्तुं च लीलया ॥ २२ ॥
आत्मनः कुलकोटिं च शतं मातामहस्य च ।
पुरुषाणां समुद्धृत्य गोलोकं याति निश्चितम् ॥ २३ ॥
त्रिविधानि च पापानि कोटिजन्मार्जितानि च ।
निहत्य पुण्यभोगं च हरिदास्यं लभेद् ध्रुवम् ॥ २४ ॥
तावत्पत्नी सुतस्तावत्तावदैश्वर्य्यमीप्सितम् ।
सुखं दुःखं नृणां तावद्यावत्कृष्णे न मानसम् ॥ २५ ॥
कृष्णे मनसि संजाते भक्तिखड्गो दुरत्ययः ।
नराणां कर्मवृक्षाणां मूलच्छेदं करोत्यहो ॥ २६ ॥
भवेद्येषां सुकृतिनां पुत्राः परमवैष्णवाः ।
कुलकोटिं च तेषां ते उद्धरन्त्येव लीलया ॥ २७ ॥
चरितार्थः पुमानेकाद्वरमिच्छुर्वरादहो ।
किं वरेण द्वितीयेन पुंसां तृप्तिर्न मङ्गले ॥ २८ ॥
धनं संचितमस्माकं वैष्णवानां सुदुर्लभम् ।
श्रीकृष्णे भक्तिदास्यं च न वयं दातुमुत्सुकाः ॥ २९ ॥
वरयान्यं वरं वत्स यत्ते मनसि वांछितम् ।
इन्द्रत्वममरत्वं वा ब्रह्मत्वं लभ दुर्लभम् ॥ ३० ॥
सर्वसिद्धिं महायोगं ज्ञानं मृत्युजयादिकम् ।
सुखेन सर्वं दास्यामि हरिदास्यं त्यज ध्रुवम् ॥ ३१ ॥
शङ्करस्य वचः श्रुत्वा शुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
उवाच दीनो दीनेशं दातारं सर्वसम्पदाम् ॥ ३२ ॥
॥ गन्धर्व उवाच ॥
यत्पक्ष्मचालनेनैव ब्रह्मणः पतनं भवेत् ।
तद्ब्रह्मत्वं स्वप्नतुल्यं कृष्णभक्तो न चेच्छति ॥ ३३ ॥
इन्द्रत्वममरत्वं वा सिद्धियोगादिकं शिव ।
ज्ञानं मृत्युजयाद्यं वा न हि भक्तस्य वाञ्छितम् ॥ ३४ ॥
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसायुज्यं श्रीहरेरपि ।
तत्र निर्वाणमोक्षं च न हि वाञ्छन्ति वैष्णवाः ॥ ३५ ॥
शश्वत्तत्र दृढा भक्तिर्हरिदास्यं सुदुर्लभम् ।
स्वप्ने जागरणे भक्ता वाञ्छन्त्येवं वरं वरम् ॥ ३६ ॥
तद्दास्यं वैष्णवसुतं देहि कल्पतरो वरम् ।
त्वां प्राप्य लभते तुष्टं वरं सर्ववरोऽवरः ॥ ३७ ॥
न दास्यसीदं चेच्छम्भो वरं दुष्कृतिनं च माम् ।
कृत्वा हि स्वशिरश्छेदं प्रदास्यामि हुताशने ॥ ३८ ॥
गन्धर्ववचनं श्रुत्वा तमुवाच कृपानिधिः ।
भक्तं दीनं च भक्तेशो भक्तानुग्रहकारकः ॥ ३९ ॥
॥ श्रीशंकर उवाच ॥
हरिभक्तिं हरेर्दास्यं पुत्रं परमवैष्णवम् ।
चिरायुषं च गुणिनं शश्वत्सुस्थिरयौवनम् ॥ ४० ॥
ज्ञानिनं सुन्दरवरं गुरुभक्तं जितेन्द्रियम् ।
गन्धर्वराजप्रवरं वरेमं लभ मा शुचः ॥ ४१ ॥
इत्युक्त्वा शंकरस्तस्माज्जगाम स्वालयं मुने ।
गन्धर्वराजः सन्तुष्ट आजगाम स्वमन्दिरम् ॥ ४२ ॥
प्रफुल्लमानसाः सर्वे मानवाः सिद्धकर्मणः ।
नारदस्तस्य भार्य्यायां लेभे जन्म च भारते ॥ ४३ ॥
सुषाव पुत्रं सा वृद्धा पर्वते गन्धमादने ।
गुरुर्वसिष्ठो भगवान्नाम चक्रे यथोचितम् ॥ ४४ ॥
बालकस्य च तस्यैव मङ्गलं मङ्गले दिने ।
उप शब्दोऽधिकार्थश्च पूज्ये च बर्हणः पुमान् ।
पूज्यानामधिको बालस्तेनोपबर्हणाभिधः ॥ ४५ ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौति शौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे नारदजन्मकथनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

अध्याय १२
नारद का वृत्तान्त

शौनक बोले — ऋषियों के वंश-वर्णन के प्रसंग में बहुत-सी कथाएँ हुईं। उनको मैं उपालंभ के द्वारा, प्रस्ताव से तथा कौतुक से सुन चुका । ( अब यह बताने की कृपा करें कि ) ब्रह्मा के पुत्रों में किन लोगों ने सृष्टि करना आरम्भ किया और कौन उर्ध्वरेता (महर्षि) हुए ? पिता (ब्रह्मा) से विरोध करके नारद ने क्या किया ? विरोध-वश पिता के शाप से पुत्र का क्या हुआ ? और पुत्र के शाप से पिता का क्या हुआ सूतपुत्र ! यह पवित्र वृत्तान्त बताइए ॥ १-३ ॥

सौति बोले — शौनक ! हंस, यति, अरणि, वोढु, पञ्चशिख, अपान्तरतमा और सनकादि चारों पुत्रों के अतिरिक्त अन्य सभी ब्रह्मा के पुत्रों ने संसार वृद्धि के लिए प्रजाओं की सृष्टि की। वे सदैव गुरु ब्रह्मा की आज्ञा का पालन करते रहे ॥ ४-५ ॥ पुत्र (नारद) के शाप द्वारा स्वयं प्रजापति ब्रह्मा अपूज्य हुए। इसीलिए विद्वान् लोग ब्रह्मा के मंत्र की उपासना नहीं करते ॥ ६ ॥ नारद भी ब्रह्मा के शाप से गन्धर्व हुए । उनके विस्तृत वृत्तान्त को मैं कह रहा हूँ, सुनो ॥ ७ ॥

उन दिनों जो गन्धर्वराज थे वे सब गन्धर्वों में श्रेष्ठ और महान् थे, उच्च कोटि के ऐश्वर्य से सम्पन्न थे, से पुष्कर तीर्थ में परन्तु किसी कर्मवश पुत्रहीन थे । कृपण एवं दीन-चित्त वाले उस गन्धर्वराज ने गुरु की आज्ञा परम समाधिस्थ होकर ( या एकाग्रतापूर्वक) भगवान् शंकर की आराधना करना आरम्भ किया ॥ ८-९ ॥ कृपानिधान वशिष्ठ ने शिव का कवच, स्तोत्र और द्वादशाक्षर मन्त्र गन्धर्वराज को प्रदान किया। मुने ! पुत्र-दुःख से सन्तप्त गन्धर्वराज ने निराहार रहकर दिव्य सौ वर्षों तक पुष्कर में उस परम मन्त्र का जप किया ॥ १०-११ ॥

तब सौ वर्षों के अन्त में उन्होंने अपने सामने स्थित शिव का प्रत्यक्ष दर्शन किया जो दशों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए अपने तेज से प्रदीप्त हो रहे हैं ॥ १२ ॥ उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। भक्तों पर अनुग्रह करने वाले वे भगवान् तपोरूप हैं, तपस्या के बीज हैं, तपस्या के फल देने वाले हैं और स्वयं ही तपस्या के फल हैं। शरण में आये हुए भक्तों को समस्त सम्पत्ति प्रदान कर देते हैं ॥ १३-१४ ॥ उस समय वे त्रिशूल, पट्टिश, धारण किये हुए, बैल पर विराजमान, नग्न, शुद्ध स्फटिक के समान निर्मलकान्ति, त्रिनेत्र, मस्तक पर चन्द्रमा तथा तपाये हुए सुवर्ण प्रभा से भूषित जटाजूट को धारण किये हुए थे। कंठ में नील चिह्न और कंधे पर नाग का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा था। इस प्रकार सर्वज्ञ, सर्वसंहारक, कालरूप, मृत्युञ्जय, ग्रीष्मऋतु की दोपहरी के करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी, शान्तस्वरूप और तत्त्वज्ञान, मोक्ष तथा हरिभक्ति प्रदान करने वाले शिव को देखकर उस गन्धर्व ने सहसा दण्ड की भाँति पृथिवी पर पड़कर प्रणाम किया और वशिष्ठ के दिये हुए स्तोत्र द्वारा उन परमेश्वर की स्तुति की। अनन्तर कृपानिधान शिव ने उससे कहा — ‘ वरदान मांगो।’ उन्होंने भगवान् की भक्ति समेत परम वैष्णव पुत्र की याचना की ॥ १५-१९ ॥ दीनों के ईश, दीनबन्धु एवं सनातन भगवान् चन्द्रशेखर ने उस गन्धर्व की बात सुनकर हँसते हुए उस दीन से कहा ॥ २० ॥

श्री महादेव बोले — गन्धर्वराज ! तुम तो एक ही वरदान से कृतार्थ हो गये, अतः दूसरा वरदान तुम्हारे लिए चबाये हुए को चबाना मात्र है । अथवा जो तुमने दूसरा वरदान माँगा, वह भी ठीक है। भला कल्याण से कौन तृप्त होता है ? ( अर्थात् जिसको जितना कल्याण मिलता है, वह उससे अधिकाधिक कल्याण चाहता है ) ॥ २१ ॥ वत्स ! जिसकी श्रीहरि में सर्व-मांगलिक भक्ति अत्यन्त दृढ़ है वह समस्त विश्व की रक्षा एवं सर्जन खेल-खेल में ही करने में समर्थ है ॥ २२ ॥ वह अपनी करोड़ पीढ़ियों और मातामह के सौ कुलों का उद्धार करके निश्चित रूप से गोलोक को जाता है ॥ २३ ॥ वह कोटि जन्मों के किये हुए त्रिविध (कायिक, वाचिक और मानसिक) पापों को नष्ट करके पुण्य ‘भोग समेत भगवान् की सेवा का सौभाग्य पाता है ॥ २४ ॥

मनुष्यों को पत्नी, पुत्र और ऐश्वर्य की प्राप्ति तभी तक अभीष्ट होती है और तभी तक सुख-दुःख होते हैं जब तक उसका मन भगवान् कृष्ण में नहीं लगता है ॥ २५ ॥ क्योंकि भगवान् कृष्ण में मन लगाने पर भक्तिरूपी खङ्ग मनुष्यों के कर्म रूपी वृक्षों का मूलोच्छेद कर डालता है; यह आश्चर्य की बात है। जिन पुण्यकर्मियों के अत्यन्त वैष्णव पुत्र उत्पन्न होते हैं, उनके वे पुत्र लीलापूर्वक कुल की बहुसंख्यक पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं ॥ २६-२७ ॥ यद्यपि मनुष्य एक ही वरदान से कृतार्थ हो जाता है, फिर भी वह दूसरा वरदान चाहता है, यह आश्चर्य की बात है। दूसरे वरदान की क्या आवश्यकता है ? लोगों को मंगल की प्राप्ति से तृप्ति नहीं होती है ॥ २८ ॥

हमारे पास वैष्णवों के लिए परम दुर्लभ धन संचित है । भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति और दास्य हम लोग दूसरों को देने के लिए उत्सुक नहीं होते। कोई अन्य अभीष्ट वरदान माँगो । मैं इन्द्रत्व, अमरत्व और दुर्लभ ब्रह्मत्व भी दे सकता हूँ तथा समस्त सिद्धियाँ, महायोग एवं मृत्यु को जीतने आदि का ज्ञान भी सहर्ष प्रदान करने को तैयार हूँ; किन्तु श्रीहरि का दासत्व माँगना छोड़ दो ॥ २९-३१ ॥

शंकर की ऐसी बातें सुन कर उस दीन के कण्ठ, ओठ और तालु सब सूख गये । उसने समस्त सम्पत्तियों के प्रदाता एवं दीनानाथ से पुनः कहा।

गन्धर्व बोले — जिसका ब्रह्मा की दृष्टि पड़ते ही पतन हो जाता है, वह ब्रह्मपद स्वप्न के समान मिथ्या एवं क्षणभंगुर है। उसे कोई कृष्ण भक्त नहीं चाहता है ॥ ३२-३३ ॥ शिव ! इन्द्रत्व, अमरत्व, सिद्धि अथवा योगादिक और मृत्युञ्जयादिक ज्ञान भी भक्त को प्रिय नहीं होता है। यहाँ तक कि भगवान् के सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य और सायुज्य नामक चार प्रकार के मोक्ष और निर्वाणमोक्ष को भी वैष्णवगण नहीं चाहते हैं । भगवान् की निरन्तर सुदृढ़ रहने वाली भक्ति और उनके अत्यन्त दुर्लभ दास्य को ही भक्तगण सोते-जागते समय चाहते हैं । अतः हमारे लिए यही वरदान उत्तम है ॥ ३४-३६ ॥ हे कल्पवृक्ष ! इसलिए मुझे हरिदास्य और विष्णुभक्त पुत्र प्रदान करने की कृपा करें क्योंकि आपको सन्तुष्ट पाकर जो कोई दूसरा वर माँगता है, वह बर्बर है ॥ ३७ ॥ शम्भो ! यदि आप मुझ पापी को यह वरदान नहीं देंगे तो मैं अपना सिर काट कर अग्नि में होम दूंगा ॥ ३८ ॥

अनन्तर भक्तों के ईश और उन पर कृपा रखने वाले कृपानिधान भगवान् शंकर ने गन्धर्व की बातें सुनकर उससे कहा ॥ ३९ ॥

श्रीशंकर बोले — भगवान् की भक्ति भगवान् का दास्य और परमवैष्णव पुत्र की प्राप्ति – इस श्रेष्ठ वर को उपलब्ध करो, खिन्न न होओ। तुम्हारा पुत्र वैष्णव होने के साथ ही दीर्घायु, सद्गुणशाली, नित्य सुस्थिर यौवन से सम्पन्न, ज्ञानी, परम सुन्दर, गुरुभक्त तथा जितेन्द्रिय होगा ॥ ४०-४१ ॥

मुने ! इतना कहकर शंकर जी अपने धाम को चले गये और गन्धर्वराज भी सन्तुष्ट होकर अपने घर को लौटे ॥ ४२ ॥ अपने कार्य में सफलता प्राप्त होने पर सभी मानवों के मानस कमल खिल उठते हैं । उस गन्धर्वराज की पत्नी से नारद जी ने भारतवर्ष में जन्म ग्रहण किया ॥ ४३ ॥ गन्धमादन पर्वत पर गन्धर्वराज की वृद्धा पत्नी ने पुत्र-रत्न उत्पन्न किया और गुरुदेव भगवान् वशिष्ठ ने उस पुत्र का यथोचित नामकरण संस्कार किया ॥ ४४ ॥ ‘उप’ शब्द का अर्थ अधिक है और पुलिंग ‘बर्हण’ का अर्थ पूज्य है । यह बालक पूज्य पुरुषों में सबसे अधिक है। इसलिए इसका नाम ‘उपबर्हण’ होगा ऐसा वशिष्ठ जी ने कहा ॥ ४५ ॥

॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में नारद-जन्म-कथन नामक बारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ १२ ॥

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