ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 17
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
सत्रहवां अध्याय
ब्राह्मण-बालक के साथ क्रमशः ब्रह्मा, महादेवजी तथा धर्म की बातचीत, देवताओं द्वारा श्रीविष्णु की तथा ब्राह्मण द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की उत्कृष्ट महत्ता का प्रतिपादन

सौति कहते हैं — ब्राह्मण को आया देख देव समुदाय उठकर खड़ा हो गया। फिर वहाँ सभा में उन सबकी परस्पर बातचीत हुई। ये ब्राह्मण रूपधारी साक्षात भगवान् विष्णु हैं, यह बात देवताओं की समझ में नहीं आयी। भगवान् विष्णु की माया से मोहित होने के कारण वे पूर्वापर की सारी बातें भूल गये थे। शौनक जी ! उस समय ब्राह्मण ने सब देवताओं को सम्बोधित करके मधुर वाणी में वह सत्य बात कही, जो प्राणियों के लिये परम कल्याण कारक थी ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

ब्राह्मण बोले — देवताओ! यह उपबर्हण की भार्या और चित्ररथ की कन्या है। पति शोक से पीड़ित होकर इसने स्वामी के जीवनदान के लिये याचना की है। अब इस कार्य के लिये निश्चित रूप से किस उपाय का अवलम्बन करना चाहिये? सब देवता मिलकर मुझे वह उपाय बतायें, जो सदा काम में लाने योग्य और समयोचित हो। मालावती श्रेष्ठ सती एवं तेजस्विनी है। वह अपना मनोरथ सफल न होने पर समस्त देवताओं को शाप देने के लिये उद्यत है। अतः आप लोगों के कल्याण के लिये मैं यहाँ आया हूँ और मैंने सती को समझा-बुझाकर शान्त किया है। सुना है, आप लोगों ने श्वेतद्वीप में श्रीहरि की भी स्तुति की थी; परंतु आप लोगों के वे स्वामी भगवान् विष्णु यहाँ आये कैसे नहीं? आकाशवाणी हुई थी कि तुम लोग चलो, पीछे से भगवान् विष्णु भी जायेंगे। आकाशवाणी की बात तो अटल होती है; फिर वह विपरीत कैसे हो गयी ?

ब्राह्मण की यह बात सुनकर साक्षात जगद्गुरु ब्रह्मा ने यह परम मंगलमय सत्य एवं हितकर बात कही।

ब्रह्माजी बोले — मेरे पुत्र नारद ही शापवश उपबर्हण नामक गन्धर्व हुए थे। फिर मेरे ही शाप से उन्होंने योग-धारणा द्वारा प्राणों को त्याग दिया। भूतल पर उपबर्हण की स्थिति एक लाख युग तक नियत की गयी थी। इसके बाद वे शूद्रयोनि में पहुँचकर उस शरीर को त्यागने के बाद फिर मेरे पुत्र के रूप में प्रतिष्ठित हो जायेंगे। भूतल पर उनके रहने का जो समय नियत था, उसका कुछ भाग अभी शेष है। उसके अनुसार इस समय इनकी आयु अभी एक सहस्र वर्ष तक और बाकी है। मैं स्वयं भगवान् विष्णु की कृपा से उपबर्हण को जीवन-दान दूँगा। जिससे इस देव समुदाय को शाप का स्पर्श न हो, वह उपाय मैं अवश्य करूँगा।

ब्रह्मन! आपने जो यह कहा कि यहाँ भगवान् विष्णु क्यों नहीं आये, सो ठीक नहीं है; क्योंकि भगवान् विष्णु तो सर्वत्र विद्यमान हैं। वे ही सबके आत्मा हैं। आत्मा का पृथक शरीर कहाँ होता है? वे स्वेच्छामय परब्रह्म परमात्मा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही दिव्य शरीर धारण करते हैं। वे सनातन देव सर्वत्र हैं, सर्वज्ञ हैं और सबको देखते हैं। ‘विष्’ धातु व्याप्तिवाचक है और ‘णु’ का अर्थ सर्वत्र है। वे सर्वात्मा श्रीहरि सर्वत्र व्यापक हैं; इसलिये विष्णु कहे गये हैं।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
(ब्रह्मखण्ड १७ । १७)

कोई अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी अवस्था में क्यों न हो, जो कमलनयन भगवान् विष्णु का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर सहित पूर्णतः पवित्र हो जाता है ।

कर्मारम्भे च मध्ये वा शेषे विष्णुं च यः स्मरेत् ।
परिपूर्णं तस्य कर्म वैदिकं च भवेद् द्विज॥

(ब्रह्मखण्ड १७ । १८ )

ब्रह्मन! कर्म के आरम्भ, मध्य और अन्त में जो श्री विष्णु का स्मरण करता है, उसका वैदिक कर्म सांगोपांग पूर्ण हो जाता है ।

जगत् की सृष्टि करने वाला मैं विधाता, संहारकारी हर तथा कर्मों के साक्षी धर्म – ये सब जिनकी आज्ञा के परिपालक हैं, जिनके भय और आज्ञा से काल समस्त लोकों का संहार करता है, यम पापियों को दण्ड देता है और मृत्यु सबको अपने अधिकार में कर लेती है। सर्वेश्वरी, सर्वाद्या और सर्वजननी प्रकृति भी जिनके सामने भयभीत रहती तथा जिनकी आज्ञा का पालन करती है। वे भगवान् विष्णु ही सबके आत्मा और सर्वेश्वर हैं।

महेश्वर बोले — ब्रह्मन! ब्रह्मा जी के जो सुप्रसिद्ध पुत्र हैं, उनमें से किसके वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है? वेदों का अध्ययन करके तुमने कौन-सा सार तत्त्व जाना है? विप्रवर! तुम किस मुनीन्द्र के शिष्य हो? और तुम्हारा नाम क्या है? तुम अभी बालक हो तो भी सूर्य से बढ़कर तेज धारण करते हो। तुम अपने तेज से देवताओं को भी तिरस्कृत करते हो; परंतु सबके हृदय में अन्तर्यामी आत्मारूप से विराजमान हमारे स्वामी सर्वेश्वर परमात्मा विष्णु को नहीं जानते हो, यह आश्चर्य की बात है। उन परमात्मा के ही त्याग देने पर देहधारियों का यह शरीर गिर जाता है और सभी सूक्ष्म इन्द्रियवर्ग एवं प्राण उसके पीछे उसी तरह निकल जाते हैं, जैसे राजा के पीछे उसके सेवक जाते हैं।

जीव उन्हीं का प्रतिबिम्ब है। वह तथा मन, ज्ञान, चेतना, प्राण, इन्द्रियवर्ग, बुद्धि, मेधा, धृति, स्मृति, निद्रा, दया, तन्द्रा, क्षुधा, तृष्णा, पुष्टि, श्रद्धा, संतुष्टि, इच्छा, क्षमा और लज्जा आदि भाव उन्हीं के अनुगामी माने गये हैं। वे परमात्मा जब जाने को उद्यत होते हैं, तब उनकी शक्ति आगे-आगे जाती है। उपर्युक्त सभी भाव तथा शक्ति उन्हीं परमात्मा के आज्ञापालक हैं। देह में जब तक ईश्वर की स्थिति है, तभी तक देहधारी जीव सब प्रकार के कर्म करने में समर्थ होता है। उन ईश्वर के निकल जाने पर शरीर शव होकर अस्पृश्य एवं त्याज्य हो जाता है। ऐसे सर्वेश्वर शिव को कौन देहधारी नहीं मानता? सबकी दृष्टि करने वाले साक्षात जगत्-विधाता ब्रह्मा निरन्तर उन भगवान् के चरणारविन्दों का चिन्तन करते हैं, परंतु उनका दर्शन नहीं कर पाते।

ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये जब एक लाख युगों तक तप किया, तब इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और ये संसार की सृष्टि करने में समर्थ हुए। मैंने भी श्रीहरि की आराधना करते हुए सुदीर्घ काल तक, जिसकी कोई गणना नहीं है, तप किया; परंतु मेरा मन नहीं भरा। भला, मंगल की प्राप्ति से कौन तृप्त होता है? अब मैं समस्त कर्मों से निःस्पृह हो अपने पाँच मुखों से उनके नाम और गुणों का कीर्तन एवं गान करता हुआ सर्वत्र घूमता रहता हूँ। उनके नाम और गुणों के कीर्तन का ही यह प्रभाव है कि मृत्यु मुझसे दूर भागती है।

निरन्तर भगवन्नाम का जप करने वाले पुरुष को देखकर मृत्यु पलायन कर जाती है। चिरकाल तक तपस्यापूर्वक उनके नाम और गुणों का कीर्तन करने से ही मैं समस्त ब्रह्माण्डों का संहार करने में समर्थ एवं मृत्युंजय हुआ हूँ। समय आने पर मैं उन्हीं श्रीहरि में लीन होता हूँ तथा पुनः उन्हीं से मेरा प्रादुर्भाव होता है। उन्हीं की कृपा से काल मेरा संहार नहीं कर सकता और मौत मुझे मार नहीं सकती। ब्रह्मन! जो श्रीकृष्ण गोलोक धाम में निवास करते हैं, वे ही वैकुण्ठ और श्वेत द्वीप में भी हैं। जैसे आग और उसकी चिनगारियों में कोई अन्तर नहीं है, उसी प्रकार अंशी और अंश में भेद नहीं होता। इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है। ( प्रत्येक मन्वन्तर में दो इन्द्र व्यतीत होते हैं ।) अट्ठाईसवें (विष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय ३ के श्लोक १५ से १७ तक यह बात बतायी गयी है कि ‘एक सहस्र चतुर्युग बीतनेपर ब्रह्माजीका एक दिन पूरा होता है। ब्रह्माजीके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं। सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र, मनु तथा मनुपुत्र – ये एक ही कालमें उत्पन्न होते हैं और एक ही कालमें उनका संहार होता है।’ इससे सूचित होता है कि चौदहवें इन्द्रके बीतनेपर ब्रह्माका दिन पूरा होता है; परंतु यहाँ २८ वें इन्द्रके गत होनेपर ब्रह्माका एक दिन बताया गया है। इसकी संगति तभी लग सकती है, जब एक मन्वन्तर में दो इन्द्र की सृष्टि और संहार माने जायँ । परंतु ऐसा मानने पर अन्य पुराणों से एकवाक्यता नहीं होगी ।)इन्द्र के गत होने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। इसी संख्या से विशिष्ट सौ वर्ष की आयु वाले ब्रह्मा जी का जब पतन होता है, तब परमात्मा विष्णु के नेत्र की एक पलक गिरती है। मैं परमात्मा श्रीकृष्ण की एक श्रेष्ठ कला मात्र हूँ। अतः उनकी महिमा का पार कौन पा सकता है? मैं तो कुछ भी नहीं जानता।

शौनक! ऐसा कहकर भगवान् शंकर वहाँ चुप हो गये। तब समस्त कर्मों के साक्षी धर्म ने अपना प्रवचन आरम्भ किया।

धर्म बोले — जिनके हाथ-पैर तथा सबको देखने वाले नेत्र सर्वत्र विद्यमान हैं, जो अन्तरात्मा रूप से प्रत्यक्ष हैं, तथापि दुरात्मा पुरुष जिन्हें नहीं देख या समझ पाते; उन सर्वव्यापी प्रभु के सब देश, काल और वस्तुओं में विद्यमान होने पर भी जो तुमने यह कहा कि ‘अभी तक भगवान् विष्णु इस सभा में नहीं आये’, ऐसा किस बुद्धि से निश्चय किया? तुम्हारी बात सुनकर मुनियों को भी मतिभ्रम हो सकता है। जहाँ महापुरुष की निन्दा होती हो, वहाँ साधु पुरुष उस निन्दा को नहीं सुनते; क्योंकि निन्दक श्रोताओं के साथ ही कुम्भीपाक नरक में जाता है और वहाँ एक युग तक कष्ट भोगता रहता है। यदि दैववश महापुरुषों की निन्दा सुनायी पड़ जाये तो विद्वान पुरुष श्री विष्णु का स्मरण करने पर समस्त पापों से मुक्त होता और दुर्लभ पुण्य पाता है।

जो इच्छा या अनिच्छा से भी भगवान् विष्णु की निन्दा करता है तथा जो नराधम सभा के बीच में बैठकर उस निन्दा को सुनता और हँसता है, वह ब्रह्मा जी की आयुपर्यन्त कुम्भीपाक नरक में पकाया जाता है। जहाँ श्रीहरि की निन्दा होती है, वह स्थान मदिरा मात्र की भाँति अपवित्र माना जाता है। वहाँ जाकर यदि भगवन्निन्दा सुनी गयी तो सुनने वाला प्राणी निश्चय ही नरक में पड़ता है। ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में विष्णु-निन्दा के तीन भेद बताये थे। एक तो वह जो परोक्ष में निन्दा करता है, दूसरा वह जो श्रीहरि को मानता ही नहीं है तथा तीसरी कोटि का निन्दक वह ज्ञानहीन नराधम है, जो दूसरे देवताओं के साथ उनकी तुलना करता है। सौ ब्रह्माओं की आयुपर्यन्त उस निन्दक का नरक से उद्धार नहीं होता। जो नराधम गुरु एवं पिता की निन्दा करता है, वह चन्द्रमा और सूर्य की स्थिति पर्यन्त कालसूत्र नरक में पड़ा रहता है। भगवान् विष्णु तीनों लोकों में सबके गुरु, पिता, ज्ञानदाता, पोषक, पालक, भय से रक्षक तथा वरदाता हैं।

इन तीनों की बात सुनकर वे ब्राह्मण शिरोमणि हँसने लगे। फिर उन देवताओं से मधुर वाणी में बोले।

ब्राह्मण ने कहा — हे धर्मशाली देवताओ! मैंने भगवान् विष्णु की क्या निन्दा की है? श्रीहरि यहाँ नहीं आये इसलिये आकाशवाणी की बात व्यर्थ हो गयी, यही तो मैंने कहा है। देवेश्वरो! धर्म के लिये सच बोलो। जो सभा में बैठकर पक्षपात करते हैं वे अपनी सौ पीढ़ियों का नाश कर डालते हैं। आप लोग भावुक हैं, बताइये तो सही, यदि विष्णु सदा और सर्वत्र व्यापक हैं तो आप लोग उनसे वर माँगने के लिये श्वेतद्वीप में क्यों गये थे? अंश और अंशी में भेद नहीं है तथा आत्मा में भी भेद का अभाव है, यदि यही आपका निश्चित मत है तो बताइये श्रेष्ठ पुरुष कला (अंश) का त्याग करके पूर्णतम (अंशी) की उपासना क्यों करते हैं?

यद्यपि पूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण की कोटि जन्मों तक आराधना करके भी उन्हें वश में कर लेना अत्यन्त कठिन है और असाधु पुरुषों के लिये तो वे सर्वथा असाध्य हैं, तथापि लोगों की बलवती आशा उन्हीं की सेवा करना चाहती है। क्या छोटे और क्या बड़े, सभी परम पद को पाना चाहते हैं। जैसे बौना अपने दोनों हाथों से चन्द्रमा को छूना चाहे, उसी तरह लोग उन पूर्णतम परमात्मा को हस्तगत करना चाहते हैं। जो विष्णु हैं, वे एक विषय (देश) में रहते हैं। विश्व के अन्तर्गत श्वेतद्वीप में निवास करते हैं। आप, ब्रह्मा, महादेव, धर्म तथा दिशाओं के स्वामी दिक्पाल भी एक देश के निवासी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवेश्वर, देवसमूह और चराचर प्राणी– ये सब भिन्न-भिन्न ब्रह्माण्डों में अनेक हैं। उन ब्रह्माण्डों और देवताओं की गणना करने में कौन समर्थ है? उन सबके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जो भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये दिव्य विग्रह धारण करते हैं।

जिसे सभी पाना चाहते हैं, वह सत्यलोक या नित्य वैकुण्ठधाम समस्त ब्रह्माण्ड से ऊपर है। उससे भी ऊपर गोलोक है, जिसका विस्तार पचास करोड़ योजन है। वैकुण्ठ धाम में वे सनातन श्रीहरि चार भुजाधारी लक्ष्मीपति के रूप में निवास करते हैं। वहाँ सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षद उन्हें घेरे रहते हैं।

गोलोक में वे सनातनदेव दो भुजाओं से युक्त राधा-वल्लभ श्रीकृष्ण रूप से निवास करते हैं। वहाँ बहुत-सी गोपांगनाएँ, गौएँ तथा द्विभुज गोप-पार्षद उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं। वे गोलोकाधिपति श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम ब्रह्म हैं। वे ही समस्त देहधारियों के आत्मा हैं। वे सदा स्वेच्छामय रूप धारण करके दिव्य वृन्दावन के अन्तर्गत रासमण्डल में विहार करते हैं। दिव्य तेजोमण्डल ही उनकी आकृति है। वे करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिमान् हैं। योगी एवं संत-महात्मा सदा उन्हीं निरामय परमात्मा का ध्यान करते हैं। नूतन जलधर के समान उनकी श्याम कान्ति है। दो भुजाएँ हैं। श्रीअंगों पर दिव्य पीताम्बर शोभा पाता है। उनका लावण्य करोड़ों कन्दर्पों से भी अधिक है। वे लीला धाम हैं। उनका रूप अत्यन्त मनोहर है। किशोर अवस्था है। वे नित्य शान्त-स्वरूप परमात्मा मुख से मन्द-मन्द मुस्कान की आभा बिखेरते रहते हैं। वैष्णव संत उन्हीं सत्यस्वरूप श्यामसुन्दर का सदा भजन और ध्यान करते हैं। आप लोग भी वैष्णव ही हैं और मुझसे पूछ रहे हैं कि ‘तुम्हारा जन्म किसके वंश में हुआ है? तथा तुम किस मुनीन्द्र के शिष्य हो?’ ऐसा प्रश्न मुझसे बार-बार किया गया है।

देवताओ! मैं जिसके वंश में उत्पन्न हूँ और जिसका बालक–शिष्य हूँ, उन्हीं का यह ज्ञानमय वचन है। तुम लोग इसे सुनो और समझो। देवेश्वर सुरेश! गन्धर्व को शीघ्र जीवित करो। विचार व्यक्त करने पर स्वतः ज्ञात हो जाता है कि कौन मूर्ख है और कौन विद्वान? अतः यहाँ वाग्युद्ध का क्या प्रयोजन है?

शौनक! ऐसा कहकर वे ब्राह्मण रूपधारी भगवान् विष्णु चुप हो गये और जोर-जोर से हँसने लगे। (अध्याय १७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे विष्णुसुरसंघसंवादे विष्णुप्रशंसाप्रणयने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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