January 14, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 20 ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः बीसवाँ अध्याय गोपपत्नी कलावती के गर्भ से एक शिशु के रूप में उपबर्हण का जन्म, शूद्रयोनि में उत्पन्न बालक नारद का वर्णन सौति कहते हैं — उपबर्हण गन्धर्व अपनी पत्नी मालावती के साथ तथा अन्य पत्नियों के साथ भी निर्जन वन में आनन्दपूर्वक विहार करने लगे। उन्होंने अपनी आयु का शेष काल सानन्द बिताना आरम्भ किया। उपबर्हण के पिता गन्धर्वराज भी स्त्री-पुत्रों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे। उन्होंने नाना प्रकार के श्रेष्ठ कर्म तथा बड़े-बड़े पुण्य कर्म किये। वे कुबेर-भवन के समान वैभवशाली गृह में राजा होकर राजसुख का उपभोग करने लगे। उन्होंने अपनी सुस्थिर यौवना सुशीला पत्नी के साथ कुछ काल तक विहार किया। फिर समय आने पर गंगाजी के मनोहर तट पर पत्नी सहित गन्धर्वराज प्राणों का परित्याग करके सानन्द वैकुण्ठधाम को चले गये। वे शैव थे, इसलिये उन पर शिव जी की कृपा हुई तथा उनके पुत्र ने श्री विष्णु की सेवा की थी, इसलिये भगवान् विष्णु की भी उन पर कृपा दृष्टि हुई। इससे वे वैकुण्ठ में श्री विष्णु के श्याम-चतुर्भुज रूपधारी पार्षद हुए। माता-पिता का संस्कार करके गन्धर्व उपबर्हण ने ब्राह्मणों को नाना प्रकार के धन दिये। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय शौनक जी ! फिर अन्तकाल आने पर ब्रह्माजी के शाप से प्राणों का परित्याग करके उस विद्वान् गन्धर्व ने ब्राह्मण के वीर्य और शूद्रा के गर्भ से जन्म ग्रहण किया। सती मालावती ने मन में उत्तम संकल्प ले भारतभूमि के पुष्कर तीर्थ में अग्निकुण्ड के भीतर अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। वह साध्वी मनुवंशी राजा सृंजय की पत्नी से उत्पन्न हुई। उसे पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहता था। उस सुन्दरी के मन में यही संकल्प था कि उपबर्हण गन्धर्व मेरे पति हों। शौनक जी ने पूछा — सूतनन्दन! उपबर्हण गन्धर्व ब्राह्मण के वीर्य और शूद्र-पत्नी के गर्भ से किस प्रकार उत्पन्न हुए? यह आप बताने की कृपा करें। शौनक जी ने यों पूछने पर सूत जी ने गोपराज द्रुमिल की पत्नी कलावती ने मुनिवर काश्यप के स्खलित शुक्र को ग्रहण कर लिया था, इससे उसको पुत्र की प्राप्ति हुई थी’ — इस प्रकार उपबर्हण के जन्म की कथा सुनाकर कहा कि गोपराज बदरिकाश्रम में जाकर योगबल से शरीर को त्यागने के पश्चात विमान द्वारा वैकुण्ठधाम में चले गये। तत्पश्चात शोक विह्वला कलावती को अपनी माता कहकर एक दयालु ब्राह्मण अपने घर ले गये। साध्वी कलावती ने ब्राह्मण के ही घर में रहकर एक श्रेष्ठ पुत्र को जन्म दिया, जिसकी अंगकान्ति तपाये हुए स्वर्ण के समान दमक रही थी। वह ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान हो रहा था। उस घर में रहने वाली सभी स्त्रियों ने उस सुन्दर बालक को देखा। वह अपने ब्रह्मतेज से ग्रीष्म-ऋतु के मध्याह्नकालिक प्रचण्ड सूर्य की प्रभा को पराजित कर रहा था। उसका रूप कामदेव से भी अधिक सुन्दर तथा मुख चन्द्रमा से भी अधिक मनोहर था। उसके मुख की शोभा से शरत्पूर्णिमा चन्द्र लज्जित हो रहा था। उसके नेत्र शरद्-ऋतु के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को छीन लेते थे। ललित हाथ-पैर, सुन्दर कपोल और मनोहर आकृति थी। पद्म और चक्र से चिह्नित उसके चरणारविन्द अनुपम परम उज्ज्वल प्रतीत होते थे। उसके दोनों हाथों की कहीं तुलना नहीं थी। वह स्तन पीने के लिये रो रहा था। स्त्रियाँ उस बालक को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने-अपने आश्रम को गयीं। पुत्र और स्त्री सहित ब्राह्मण भी बड़े प्रसन्न हुए और नृत्य करने लगे। वह बालक शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिनोंदिन बढ़ने लगा। ब्राह्मण पुत्र सहित कलावती का पुत्री की भाँति पालन करने लगा। (अध्याय २०) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे उपबर्हणजन्मकथनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related