ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 103
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ तीनवाँ अध्याय
द्वारकापुरी का निर्माण

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर सर्वव्यापी श्रीहरि ने बलराम के साथ मथुरापुरी में आकर पिता को प्रणाम किया और वटवृक्ष के नीचे बैठकर आदरसहित गरुड़, क्षारसागर और विश्वकर्मा का स्मरण किया । वहाँ उन्होंने गोपवेष का परित्याग करके राजसी वेष धारण कर लिया। इसी बीच करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान श्रेष्ठ सुदर्शनचक्र स्वयं ही श्रीकृष्ण के पास आया। वह उत्तम अस्त्र श्रीहरि के सदृश तेजस्वी, शत्रुनाशक, अमोघ अस्त्रों में श्रेष्ठ और परमोत्कृष्ट था । इसके बाद रत्ननिर्मित विमान को आगे करके गरुड़, शिष्य सहित विश्वकर्मा तथा काँपता हुआ समुद्र श्रीहरि के संनिकट आये। उन सब लोगों ने भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर श्रीहरि को प्रणाम किया। तब सर्वव्यापी भगवान् क्रमशः उससे आदरसहित मुस्कराते हुए बोले ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीकृष्ण ने कहा — हे महाभाग समुद्र ! मैं नगर-निर्माण करना चाहता हूँ; अतः उसके लिये तुम मुझे सौ योजन विस्तृत भूमि दो । पीछे वह भूमि मैं तुम्हें अवश्य ही लौटा दूँगा । हे विश्वकर्मा ! उस स्थान पर तुम एक ऐसा नगर-निर्माण करो; जो तीनों लोकों में दुर्लभ हो, सबके लिये रमणीय हो, स्त्रियों के मन को हरण करने वाला हो, भक्तों के लिये वाञ्छनीय हो, वैकुण्ठ के समान परमोत्कृष्ट हो, समस्त स्वर्गों से परे और सबके लिये अभीष्ट हो । आकाशचारियों में श्रेष्ठ महाभाग गरुड़! जब तक विश्वकर्मा द्वारकापुरी का निर्माण करते हैं, तब तक तुम रात-दिन इनके पास स्थित रहो । चक्रश्रेष्ठ सुदर्शन ! तुम दिन-रात मेरे पार्श्व में वर्तमान रहो ।

मुने! तब चक्र के अतिरिक्त और सभी लोग — – बहुत अच्छा’ यों कहकर चले गये । महाभाग ! इधर श्रीकृष्ण ने नगर में आकर कंस के पिता महाबली एवं सर्वोत्तम उग्रसेन को क्षत्रियों तथा सत्पुरुषों का भी राजा बना दिया । फिर युक्तिपूर्वक जरासंध को जीतकर कालयवन को मरवा डाला। इसके बाद नगर निर्माण का क्रम चालू किया।

श्रीभगवान् ने कहा — विश्वकर्मन् ! तुम पद्मराग, मरकत, सर्वश्रेष्ठ इन्द्रनील, मनोहर पारिभद्र, पलंक, स्यमन्तक, गन्धक, गालिम, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, स्फटिक की रची हुई पुत्तलियों, पीली-श्याम-श्वेत और नीली मणियों, दाडिमी – बीज के सदृश पीली गोरोचना, पद्म-बीज के सदृश, नीले कमल के – से रंगवाली, कज्जलके-से आकार वाली, उज्ज्वल, परिष्कृत, श्वेत चम्पक के सदृश कान्तिमती, तपाये हुए स्वर्णकी – सी चमकीली, स्वर्ण के मूल्य से सौगुनी अधिक मूल्यवाली, थोड़ी-थोड़ी लाल, परम सुन्दर, वजनदार, सर्वोत्तम और पूजनीय उत्तम मणियों द्वारा वास्तु शास्त्र के विधानानुसार यथायोग्य घटा-बढ़ाकर एक ऐसे मनोवाञ्छित परम मनोहर नगर की रचना करो, जो सौ योजन के विस्तार वाला हो। जब तक तुम नगर का निर्माण करोगे, तब तक यक्षगण हिमालय से रात-दिन मणियों को लाते रहेंगे। कुबेर की प्रेरणा से आये हुए सात लाख यक्ष, शंकरद्वारा भेजे हुए एक लाख बेताल और एक लाख कूष्माण्ड तथा गिरिराजनन्दिनी द्वारा नियुक्त किये हुए दानव और ब्रह्मराक्षस तुम्हारे सहायक बने रहेंगे। मेरी सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियों के लिये ऐसे दिव्य शिविर तैयार करो, जो खाइयों से युक्त तथा ऊँची-ऊँची चहारदीवारियों से परिवेष्टित हों । जिनमें प्रत्येक में बारह कमरे और सिंहद्वार लगे हों, जो चित्र-विचित्र कृत्रिम किवाड़ों से युक्त हों; निषिद्ध वृक्षों से रहित और प्रसिद्ध वृक्षों से सम्पन्न हों और जिनके आँगन शुभ लक्षणयुक्त और चन्द्रवेध हों । इसी प्रकार यदुवंशियों और नौकरों के लिये भी दिव्य आश्रम बनाओ। भूपाल उग्रसेन का भवन सर्वप्रसिद्ध तथा मेरे पिता वसुदेवजी का आश्रम सर्वतोभद्र होना चाहिये ।

तब विश्वकर्मा बोले — जगद्गुरो ! वे प्रशस्त वृक्ष कौन-कौन हैं और कौन निषिद्ध हैं तथा शुभ – अशुभ प्रदान करने वाले कौन हैं ? उन सबका परिचय दीजिये । प्रभो ! साथ ही यह भी बतलाइये कि किनकी अस्थि पड़ने से शिविर शुभ और किनकी अस्थि से अशुभ होता है ? शिविर की किस दिशा में जल मङ्गलकारक और किस दिशा में अमाङ्गलिक होता है ? और कौन वृक्ष किस दिशा में कल्याणप्रद होता है ? सुरेश्वर ! गृहों तथा आँगनों का विस्तार कितना होना चाहिये ? किस दिशा में पुष्पोद्यान मङ्गलप्रद होता है ? सुरेश्वर ! परकोटों, खाइयों, दरवाजों, गृहों और चहारदीवारियों का क्या प्रमाण है ? प्रभो ! शिविर-निर्माण में किस-किस वृक्ष की लकड़ी प्रशस्त मानी गयी है और किन वृक्षों के काष्ठ अमङ्गलजनक होते हैं ? यह सब मुझे बतलाने की कृपा कीजिये ।

श्रीभगवान् ने कहा — देवशिल्पिन्! गृहस्थों के आश्रम में नारियल का वृक्ष धन प्रदान करने वाला होता है। वही वृक्ष यदि शिविर के ईशानकोण अथवा पूर्व दिशा में हो तो पुत्रप्रद होता है । वह मनोहर वृक्षराज सर्वत्र मङ्गल का दाता होता है । यदि पूर्व दिशा में आम का वृक्ष हो तो वह मनुष्यों को सम्पत्ति प्रदान करता है और सर्वत्र शुभदायक होता है । बेल, कटहल, जम्बीरी नीबू तथा बेर के वृक्ष पूर्व दिशा में संतानदायक, दक्षिण में धनदाता तथा सर्वत्र सम्पत्तिप्रद होते हैं । इनसे गृहस्थ की उन्नति होती है। जामुन, अनार, केला तथा आमला के वृक्ष पूर्व में बन्धुप्रद तथा दक्षिण में मित्र की वृद्धि करने वाले होते हैं और सर्वत्र शुभदायक होते हैं । सुवाक दक्षिण में धन- पुत्र- शुभप्रद, पश्चिम में हर्षदायक और ईशानकोण में तथा सर्वत्र सुखद होता है। भूतल पर चम्पा का वृक्ष शुद्ध तथा सर्वत्र मङ्गलकारक होता है । लौकी, कुम्हड़ा, आयाम्बु, पलाश, खजूर और कर्कटी के वृक्ष शिविर में मङ्गलप्रद होते हैं । विश्वकर्मन्! बेल और बैंगन के पौधे भी शुभदायक होते हैं । सारी फलवती लताएँ निश्चय ही सर्वत्र शुभदायिनी होती हैं। शिल्पिन् ! इस प्रकार प्रशस्त वृक्षों का वर्णन कर दिया गया; अब निषिद्ध का वर्णन सुनो।

नगर अथवा शिविर में वन्यवृक्ष का रहना निषिद्ध है । शिविर में वटवृक्ष का रहना ठीक नहीं है; क्योंकि उससे सदा चोर का भय लगा रहता है, किंतु नगरों में उसका रहना उत्तम है; क्योंकि उसके दर्शन से पुण्य होता है। नगर, गाँव और शिविर में सेमल के वृक्ष का रहना सर्वथा निषिद्ध है। वह सदा राजाओं को दुःख देता रहता है । हे देवशिल्पी ! इमली का वृक्ष नगरों और गाँवों में तो प्रशस्त है; परंतु शिविर में उसका रहना ठीक नहीं है । वह विद्या – बुद्धि का विनाशक तथा सदा दुःखदायक होता है। उससे निश्चय ही प्रजा और धन की हानि होती है; अतः विद्वान् ‌को उचित है कि यत्नपूर्वक उसका परित्याग कर दे । खजूर और काँटेदार वृक्ष भी शिविर में नहीं रहने चाहिये; क्योंकि वे विद्या और बुद्धि को नष्ट कर देने वाले होते हैं; अतः उनसे दूर रहना ही ठीक है । गाँवों और नगरों में चना आदि अन्नों के पेड़ मङ्गलप्रद होते हैं। गाँव, नगर तथा शिविर में गन्ने का वृक्ष सदा शुभदायक होता है। अशोक, सिरिस और कदम्ब शुभप्रद होते हैं । हल्दी, अदरक, हरीतकी और आमलकी – ये गाँवों तथा नगरों में सदा शुभदायिनी तथा कल्याणकारिणी होती हैं।

वास्तुभूमि में स्थापन करने वालों के लिये गज की अस्थि शुभदायिनी और उच्चैःश्रवा के वंशज घोड़ों की हड्डी कल्याणकारिणी होती है । इनके अतिरिक्त अन्य पशुओं की अस्थि शुभकारक नहीं होती; वह विनाश का कारण होती है । वानरों, मनुष्यों, गदहों, गौओं, कुत्तों, सियारों और बिलावों की हड्डी अमङ्गलकारिणी होती है । शिविर के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और ईशानकोण में जल का रहना उत्तम है। इनके अतिरिक्त अन्य दिशाओं में अशुभ होता है । शिल्पिन् ! बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि जिसकी लंबाई-चौड़ाई समान हो, ऐसा घर न बनावें; क्योंकि चौकोर गृह में वास करना गृहस्थों के धन का नाशक होता है। घर की परिमित लंबाई-चौड़ाई में पृथक्-पृथक् दो का भाग देने से यदि शेष शून्यरहित हो तो शुभ अन्यथा शून्य शेष आने पर वह घर मनुष्यों के ये शून्यप्रद होता है । गृहों की चौड़ाई में पश्चिम से दो हाथ पूर्व और लंबाई में दक्षिण से तीन हाथ हटकर घर का तथा परकोटे का द्वार रखना शुभदायक होता है । मध्यभाग में दरवाजा नहीं बनाना चाहिये; क्योंकि वह कुछ कम – बेश में ही रखने पर शुभकारक होता है। चौकोर घर चन्द्रवेध होने पर मङ्गलप्रद होता है; परंतु मङ्गलप्रद गृह भी सूर्यवेध होने पर अमङ्गलकारक हो जाता है । उसी प्रकार सूर्यवेध आँगन भी अमङ्गलदायक होता है ।

घर के भीतर लगायी हुई तुलसी मनुष्यों के लिये कल्याणकारिणी, धन-पुत्र प्रदान करनेवाली, पुण्यदायिनी तथा हरिभक्ति देने वाली होती है। प्रातः काल तुलसी का दर्शन करने से सुवर्ण-दान का फल प्राप्त होता है। मकान के पूर्व और दक्षिणभाग में मालती, जूही, कुन्द, माधवी, केतकी, नागेश्वर, मल्लिका (मोतिया), काञ्चन ( श्याम धतूर), मौलसिरी और शुभदायिनी अपराजिता (विष्णुकान्ता ) – इन पुष्पों का उद्यान शुभद होता है; इसमें तनिक भी संशय नहीं है । गृहस्थ को सोलह हाथ से ऊँचा गृह नहीं बनवाना चाहिये। इसी तरह बीस हाथ से ऊँचा परकोटा भी शुभप्रद नहीं होता । बुद्धिमान् पुरुष को घर के समीप तथा गाँव के बीच में बढ़ई, तेली और सोनार को नहीं बसाना चाहिये; किंतु मकान के पास-पड़ोस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सत्शूद्र, ज्योतिषी, भाट, वैद्य और पुष्पकार ( माली) – को अवश्य रहने देना चाहिये । शिविर के चारों ओर सौ हाथ लंबी और दस हाथ गहरी खाई प्रशस्त मानी जाती है। उस खाई का दरवाजा भी ऐसा संकेतयुक्त होना चाहिये, जो शत्रु के लिये अगम्य हो; परंतु मित्र सुखपूर्वक आ-जा सकें ।

भवन- निर्माण में सेमल, इमली, हिंताल (एक प्रकार का जंगली खजूर), नीम, सिन्धुवार (निर्गुण्डी), गूलर, धतूरा, बरगद और रेंड -इनके अतिरिक्त अन्य वृक्षों की ही लकड़ी काम में लानी चाहिये । वस्तुतस्तु बुद्धिमान्‌ को लकड़ी, वज्रहस्त तथा शिला आदि का उपयोग न करना ही उचित है; क्योंकि ये स्त्री, पुत्र और धन के नाशक होते हैं- ऐसा कमलजन्मा ब्रह्मा का कथन है । वत्स ! यह सब मैंने लोक – शिक्षा के लिये कहा है । अब तुम सुखपूर्वक जाओ और बिना काष्ठ के ही पुरी का निर्माण करो; क्योंकि उसके लिये यही शुभ मुहूर्त है।

तब विश्वकर्मा गरुड़ के साथ श्रीहरि को नमस्कार करके वहाँ से चल दिये और समुद्र-तट पर मनोहर वटवृक्ष के नीचे आकर उन्होंने गरुड़ के साथ वहाँ रात्रि में शयन किया। मुने! स्वप्न में गरुड़ को वह रमणीय द्वारकापुरी दिखायी पड़ी। परमात्मा श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से जो कुछ कहा था, वे सारे-के-सारे लक्षण उन्हें उस नगर में दृष्टिगोचर हुए। स्वप्न में वे सभी कारीगर विश्वकर्मा की और दूसरे बलवान् गरुड़ पक्षी गरुड़ की हँसी उड़ा रहे थे । जागने पर उस पुरी को देखकर गरुड़ और विश्वकर्मा लज्जित हो गये । वह द्वारकापुरी अत्यन्त रमणीय थी और सौ योजन में उसका विस्तार था । वह ब्रह्मा आदि देवताओं की पुरियों को पराभूत करके सुशोभित हो रही थी; उसमें रत्नों की कारीगरी की गयी थी, जिसके कारण उसके तेज से सूर्य ढक गये थे ।  ( अध्याय १०३ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद द्वारकानिर्माणारम्भे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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