March 13, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 115 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय कन्या की दुःशीलता का समाचार पाकर बाण का युद्ध के लिये उद्यत होना; शिव, पार्वती, गणेश, स्कन्द और कोटरी का उसे रोकना; परंतु बाण का स्कन्द को सेनापति बनाकर युद्ध के लिये नगर के बाहर निकलना, उषाप्रदत्त रथ पर सवार होकर अनिरुद्ध का भी युद्धोद्योग करना, बाण और अनिरुद्ध का परस्पर वार्तालाप श्रीनारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर अन्तःपुर के रक्षकों ने भयभीत हो स्कन्द, गणेश और पार्वती को दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर प्रणाम किया और अपने स्वामी बाण से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर बाण को बड़ी लज्जा हुई और वह क्रुद्ध हो उठा। उस समय शम्भु, गणेश, स्कन्द, पार्वती, भैरवी, भद्रकाली, योगिनियाँ, आठों भैरव, एकादश रुद्र, भूत, प्रेत, कूष्माण्ड, बेताल, ब्रह्मराक्षस, योगीन्द्र, सिद्धेन्द्र, रुद्र, चण्ड आदि तथा माता की भाँति हितैषिणी करोड़ों ग्रामदेवियाँ — ये सभी उसके हित के लिये बराबर मना कर रहे थे; फिर भी उसने युद्ध करने का ही विचार निश्चित किया । तब शंकरजी अपने को पण्डित मानने वाले मूर्ख बाण से हितकारक, सत्य, नीतिशास्त्रसम्मत और परिणाम में सुखदायक वचन बोले । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीमहादेवजी ने कहा — बाण! मैं इस पुरातनी कथा का वर्णन करता हूँ, सुनो। स्वयं परमेश्वर पृथ्वी का भार उतारने के लिये भारतवर्ष में सभी नरेशों का संहार करके द्वारका में विराजमान हैं। जिनके रोमों में सारे विश्व वर्तमान हैं, उन वासु के भी वे ईश्वर हैं; इसीलिये विद्वान् लोग उन्हें ‘वासुदेव’ ऐसा कहते हैं। स्वयं भगवान् चक्रपाणि भूतल पर ब्रह्मा के भी विधाता हैं। वे ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के स्वामी हैं; प्रकृति से परे, निर्गुण, इच्छारहित, भक्तानुग्रहमूर्ति, परब्रह्म, परम धाम और देहधारियों के परमात्मा हैं। जिनके शरीर से निकल जाने पर जीव शवतुल्य हो जाता है; उनके साथ तुम्हारा संग्राम कैसे सम्भव हो सकता है ? अनिरुद्ध उन्हीं के पुत्र (पौत्र) हैं। वे महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं और क्षणभर में अकेले ही तीनों लोकों का संहार करने में समर्थ हैं। जितने महारथी बलवान् देवता और दैत्य हैं, वे सभी अनिरुद्ध की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं। जिन दो व्यक्तियों में समान धन हो और जिनमें बल की भी समानता हो; उन्हीं दोनों में विवाह और मैत्री शोभा देती है। बलवान् और निर्बल का सम्बन्ध उचित नहीं होता । तुम्हारे पिता महारथी बलि दैत्यों के सारभूत और श्रीहरि की कला थे। उन्हें भी जिसने क्षणभर में ही सुतल-लोक को भेज दिया; उन्हीं वृन्दावनेश्वर परम पुरुष परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण के सभी जीव अंश-कलाएँ हैं । पार्वतीजी बोलीं — बाण! ब्रह्मा, महेश, शेष और ध्याननिष्ठ भक्त रात-दिन अपने हृदयकमल में उन सनातन भगवान् का ध्यान करते रहते हैं। सूर्य, गणेश और योगीन्द्रों के गुरु-के-गुरु शिव उन ऐश्वर्यशाली सनातन परमात्मा के ध्यान में तल्लीन रहते हैं । सनत्कुमार, कपि, नर तथा नारायण अपने हृदय-कमल में उन सनातन भगवान् का ध्यान लगाते हैं । मनु, मुनीन्द्र, सिद्धेन्द्र और योगीन्द्र ध्यान द्वारा अप्राप्य उन सनातन भगवान् के ध्यान में निमग्न रहते हैं । जो सबके आदि, सबके कारण, सर्वेश्वर और परात्पर हैं; उन सनातन भगवान् का सभी ज्ञानी ध्यान करते हैं । तदनन्तर गणेश और स्कन्द ने भी बाण को श्रीकृष्ण की महिमा भली-भाँति समझाकर युद्ध न करके अनिरुद्ध के साथ उषा का विवाह कर देने के लिये अनुरोध किया । अन्त में कोटरी बोली — ‘वत्स! धर्मानुसार मैं भी तुम्हारी माता हूँ; अतः जो कुछ कहती हूँ, उसे श्रवण करो । दुष्ट पुत्र से भी माता-पिता को पद-पद पर दुःख ही होता है । दूसरे के द्वारा ग्रहण की गयी वह कन्या उषा अब दूसरे को देने के योग्य नहीं ही है; अतः जो श्रीकृष्ण के पौत्र और प्रद्युम्न के पुत्र हैं; उन महान् बलशाली अनिरुद्ध को स्वेच्छानुसार अपनी कन्या दान कर दो। इससे तुम भारतवर्ष में अपनी सात पीढ़ियों के साथ पावन हो जाओगे । फिर भूतल पर महान् यश की प्राप्ति के लिये अपना सर्वस्व दहेज में समर्पित कर दो। अन्यथा माधव युद्धस्थल में सुदर्शन-चक्र द्वारा तुम्हारा वध कर डालेंगे। उस समय कौन तुम्हारी रक्षा कर सकेगा ?” मुने! कोटरी की बात सुनकर अभिमानी दैत्यश्रेष्ठ कुपित हो उठा। वह रथ पर आरूढ़ हो उस स्थान के लिये प्रस्थित हुआ जहाँ श्रीहरि के पौत्र अनिरुद्ध वर्तमान थे। उस समय भक्तवत्सल शंकर की आज्ञा से स्कन्द सेनापति होकर उसके साथ चले । स्वयं शिव और गणेश ने बाण के लिये स्वस्तिवाचन किया। पार्वती तथा कोटरी ने उसे शुभाशीर्वाद दिया । आठों भैरव और एकादश रुद्र – ये सभी हाथों में शस्त्र धारण करके युद्ध के लिये तैयार हुए। इस बीच एक दूत ने, जिसे पार्वतीदेवी तथा बाणपुत्री ने भेजा था, तुरंत ही जाकर अनिरुद्ध को भी यह समाचार सूचित कर दिया । दूत बोला — अनिरुद्ध ! उठो और पार्वती का यह मङ्गल-वचन श्रवण करो । ( उन्होंने कहा है — ) ‘वत्स! कवच धारण कर लो और बाहर निकलकर युद्ध करो।’ यह सुनकर उषा भयभीत हो गयी; वह डर के मारे रोती हुई सती पार्वती का ध्यान करके बोली — ‘महामाये ! मेरे मनोनीत प्राणेश्वर की रक्षा करो, रक्षा करो। यद्यपि ये निर्भय हैं; तथापि इस महाभयंकर संग्राम में इन्हें अभयदान दो। तुम्हीं जगत् की माता हो; अतः तुम्हारा सब पर समान स्नेह है ।’ तत्पश्चात् ऐश्वर्यशाली अनिरुद्ध ने कवच पहनकर हाथ में शस्त्र धारण किये और उषा द्वारा दिये गये रथ को पाकर वे उस पर हर्षपूर्वक आरूढ़ हुए । शिविर से बाहर निकलकर उन्होंने बाण को देखा, जो कवच पहनकर हाथों में शस्त्र धारण किये हुए था। उसके नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे । अनिरुद्ध को देखकर बाण क्रोध से भर गया। वह उस घोर संग्राम के मध्य प्रज्वलित होता हुआ विषोक्तियाँ उगलने लगा। उसने भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करके उनकी निन्दा की और अनिरुद्ध ने उसका विवेकपूर्ण खण्डन करके श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन किया। (अध्याय ११५ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद बाणानिरुद्धसंवाद पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related