ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 124
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ चौबीसवाँ अध्याय
गणेशकृत राधा-प्रशंसा, पार्वती-राधा-सम्भाषण, पार्वती के आदेश से सखियों द्वारा राधा का शृङ्गार और उनकी विचित्र झाँकी; ब्रह्मा, शिव, अनन्त आदि के द्वारा राधा की स्तुति

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! सती राधा ने गणेश की विधिपूर्वक भली-भाँति पूजा करके स्तुति की और सर्वाङ्गों में पहनने योग्य बहुमूल्य रत्नों के बने हुए आभूषण प्रदान किये। राधा द्वारा किये गये पूजन और पूजा-सामग्री को देखकर तथा स्तवन सुनकर शान्तस्वरूप गणेश शान्तस्वभाव वाली त्रिलोकजननी राधा से मधुर वचन बोले ।

श्रीगणेश ने कहा — जगन्मातः ! तुम्हारी यह पूजा लोगों को शिक्षा देने के लिये है । शुभे ! तुम तो स्वयं ब्रह्मस्वरूपा और श्रीकृष्ण के वक्षः- स्थल पर वास करने वाली हो । ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवगण, सनकादि मुनिवर, जीवन्मुक्त भक्त और कपिल आदि सिद्धशिरोमणि, जिनके अनुपम एवं परम दुर्लभ चरणकमल का निरन्तर ध्यान करते हैं, उन श्रीकृष्ण के प्राणों की तुम अधिदेवी तथा उनके लिये प्राणों से भी बढ़कर परम प्रियतमा हो । श्रीकृष्ण के दक्षिणाङ्ग से माधव है और वामाङ्ग से राधा प्रादुर्भूत हुई हैं। जगज्जननी महालक्ष्मी तुम्हारे वामाङ्ग से प्रकट हुई हैं । तुम सबके निवासभूत वसु को जन्म देने वाली, परमेश्वरी, वेदों और लोकों की ईश्वरी मूलप्रकृति हो ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मातः ! इस सृष्टि में जितनी प्राकृतिक नारियाँ हैं; वे सभी तुम्हारी विभूतियाँ हैं । सारे विश्व कार्यरूप हैं और तुम उनकी कारणरूपा हो । प्रलयकाल में जब ब्रह्मा का तिरोभाव हो जाता है; वह श्रीहरि का एक निमेष कहलाता है । उस समय जो बुद्धिमान् योगी पहले राधा, फिर परात्पर कृष्ण अर्थात् राधा-कृष्ण का सम्यक् उच्चारण करता है; वह अनायास ही गोलोक में चला जाता है । इससे व्यतिक्रम करने पर वह महापापी निश्चय ही ब्रह्महत्या के पाप का भागी होता है । तुम लोकों की माता और परमात्मा श्रीहरि पिता हैं; परंतु माता पिता से भी बढ़कर श्रेष्ठ, पूज्य, वन्दनीय और परात्पर होती है । इस पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में यदि कोई मन्दमति पुरुष सबके कारणस्वरूप श्रीकृष्ण अथवा किसी अन्य देवता का भजन करता है और राधिका की निन्दा करता है तो वह इस लोक में दुःख – शोक का भागी होता है और उसका वंशच्छेद हो जाता है तथा परलोक में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति-पर्यन्त वह घोर नरक में पचता रहता है।

ज्ञान का उद्गीरण करने अर्थात् उगलने के कारण गुरु कहा जाता है; वह ज्ञान मन्त्र-तन्त्र से प्राप्त होता है; वह मन्त्र और वह तन्त्र तुम दोनों की भक्ति है । जब जीव प्रत्येक जन्म में देवों के मन्त्र का सेवन करता है तो उसे दुर्गा के परम दुर्लभ चरणकमल में भक्ति प्राप्त हो जाती है। जब वह लोकों के कारणस्वरूप शम्भु के मन्त्र का आश्रय ग्रहण करता है, तब तुम दोनों (राधा- कृष्ण ) – के अत्यन्त दुर्लभ चरणकमल को प्राप्त कर लेता है । जिस पुण्यवान् पुरुष को तुम दोनों के दुष्प्राप्य चरणकमल की प्राप्ति हो जाती है, वह दैववश क्षणार्थ अथवा उसके षोडशांश काल के लिये भी उसका त्याग नहीं करता। जो मानव इस पुण्यक्षेत्र भारत में किसी वैष्णव से तुम दोनों के मन्त्र, स्तोत्र अथवा कर्ममूल का उच्छेद करने वाले कवच को ग्रहण करके परमभक्ति के साथ उसका जप करता है; वह अपने साथ-साथ अपनी सहस्रों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। जो मनुष्य विधिपूर्वक वस्त्र, अलंकार और चन्दन द्वारा गुरु का भलीभाँति पूजन करके तुम्हारे कवच को धारण करता है, वह निश्चय ही विष्णु-तुल्य हो जाता है ।

मात्रः ! तुमने जो कुछ वस्तु मुझे समर्पित की है, उस सबको सार्थक कर डालो अर्थात् अब मेरी प्रसन्नता के लिये उसे ब्राह्मण को दे दो । तब मैं उसका भोग लगाऊँगा; क्योंकि देवता को देने योग्य जो दान अथवा दक्षिणा होती है, वह सब यदि ब्राह्मण को दे दी जाय तो वह अनन्त हो जाती है। राधे ! ब्राह्मणों का मुख ही देवताओं का प्रधान मुख है; क्योंकि ब्राह्मण जिस पदार्थ को खाते हैं, वही देवताओं को मिलता है ।

मुने! तब सती राधिकाने वह सारा पदार्थ ब्राह्मणोंको खिला दिया; इससे गणेश तत्काल ही प्रसन्न हो गये । इसी समय ब्रह्मा, शिव और शेषनाग आदि देवता देवश्रेष्ठ गणेश का पूजन करने के लिये उस वट-वृक्ष के नीचे आये। तब एक शिवदूत वहाँ जाकर उन देवताओं तथा देवियों से यों कहने लगा ।

रक्षक ( शिवदूत) – ने कहा — देवगण ! वृषभानुसुता राधा ने मुझे हटाकर शुभ मुहूर्त में स्वस्तिवाचन करके सर्वप्रथम गणेश की पूजा की है । पूजन में ऐसा कहा जाता है कि जो सर्वप्रथम पूजन करता है, वह अनन्त फल का भागी होता है और मध्य में पूजा करने वाले को मध्यम तथा अन्त में पूजने वाले को स्वल्प पुण्य प्राप्त होता है । ऐसा दशा में बहुत-से देवशिरोमणियों, मुनिवरों और देवाङ्गनाओं के रहते हुए उस राधा ने गोपियों के साथ देवश्रेष्ठ गणेश की पूजा की है।

दूत की बात सुनकर सभी देवताओं, मुनियों मनुओं और राजाओंका समुदाय तथा देवाङ्गनाएँ हँसने लगीं। वहाँ जो रुक्मिणी आदि महिलाएँ तथा देवियाँ थीं, उन्हें महान् विस्मय हुआ । तत्पश्चात् सावित्री, सरस्वती, परमेश्वरी पार्वती, रोहिणी, सती-संज्ञक स्वाहा आदि देवाङ्गनाएँ तथा सभी पतिव्रता मुनिपत्नियाँ वहाँ आयीं । फिर सभी देवताओं, मुनियों, मनुओं तथा मनुष्यों का दल, गणसहित श्रीकृष्ण तथा अन्याय जो वहाँ उपस्थित थे, उन सभी लोगों ने हर्षपूर्वक पदार्पण किया। तत्पश्चात् उन सबने शुभ मुहूर्त में बलवान् और दुर्बल के क्रम से पृथक्-पृथक् विविध द्रव्यों द्वारा गणेश की पूजा की। इस प्रकार पूजन करके वे सभी सुखासन पर विराजमान हुए । इसी समय पार्वती परम हर्ष के साथ राधा के स्थान पर गयीं । पार्वती को आयी हुई देखकर राधा उतावली के साथ अपने आसन से उठ खड़ी हुईं और हर्षमग्न हो उनसे सादर यथायोग्य कुशल-समाचार पूछने लगीं। तत्पश्चात् परस्पर आलिङ्गन और स्नेह- प्रदर्शन किया गया। तब दुर्गा राधा को अपनी छाती से लगाकर मधुर वचन बोलीं ।

पार्वती ने कहा — राधे ! मैं तुमसे क्या कुशल- प्रश्न करूँ; क्योंकि तुम तो स्वयं ही मङ्गलों की आश्रय स्थान हो । श्रीदामा के शाप से मुक्त हो जाने पर अब तुम्हारी विरह-ज्वाला भी शान्त ही हो गयी। जैसे मेरे मन-प्राण तुममें वास करते हैं; वैसे ही तुम्हारे मुझमें लगे रहते हैं । इस प्रकार शक्ति और पुरुष की भाँति हम दोनों में कोई भेद नहीं है। जो मेरे भक्त होकर तुम्हारी और तुम्हारे भक्त होकर मेरी निन्दा करते हैं; वे चन्द्रमा और सूर्य स्थितिकालपर्यन्त कुम्भीपाक में पचते रहते हैं। जो नराधम राधा और माधव में भेद-भाव करते हैं, उनका वंश नष्ट हो जाता है और वे चिरकालतक नरक में यातना भोगते हैं । इसके बाद साठ हजार वर्षों तक वे विष्ठा के कीड़े होते हैं, फिर अपनी सौ पीढ़ियों सहित सूकर की योनि में उत्पन्न होते हैं । सर्वपूज्य पुत्र गणेश्वर की तुमने ही सर्वप्रथम पूजा की है; मैं वैसा नहीं कर पायी हूँ । यह गणेश जैसे तुम्हारा है, वैसे ही मेरा भी है। देवि ! दुग्ध और उसकी धवलता के समान राधा और माधव में जीवनपर्यन्त कभी विच्छेद नहीं होगा । पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में स्थित इस महातीर्थ सिद्धाश्रम में विघ्नविनाशक गणेश की भली-भाँति पूजा करके तुम बिना किसी विघ्न-बाधा के गोविन्द को प्राप्त करो। तुम रसिका-रासेश्वरी हो और श्रीकृष्ण रसिक-शिरामणि हैं; अतः तुम नायिका का रसिक नायक के साथ समागम गुणकारी होगा। सती राधे ! सौ वर्ष के बाद तुम श्रीदामा के शाप से मुक्त हुई हो; अतः आज मेरे वरदान से तुम श्रीकृष्ण के साथ मिलो ! सुन्दरि ! मेरी दुर्लभ आज्ञा मानकर तुम अपना उत्तम शृङ्गार करो।

तब पार्वती की आज्ञा से प्यारी सखियाँ राधा का शृङ्गार करने में जुट गयीं। उन्होंने ईश्वरी राधा को रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया। फिर तो सखी रत्नमाला ने सामने से आकर राधा के गले में रत्नों की माला पहना दी और उनके दाहिने हाथ में मनोहर क्रीड़ा-कमल रख दिया। पद्ममुखी ने उनके दोनों चरणकमलों को महावर से सुशोभित किया । सुन्दरी गोपी ने चन्दनयुक्त सिन्दुर की परम रुचिर बेंदी से सीमन्त के अधोभाग – ललाट को सुशोभित किया। सती मालती ने मालती की मालाओं से विभूषित करके ऐसी मनभावनी रमणीय कवरी गूँथकर तैयार की जो मुनियों के भी मन को मोहे लेती थी। फिर कपोलों पर कस्तूरी और कुंकुममिश्रित चन्दन से सुन्दर पत्रभङ्गी की रचना की। मालावती ने राधा को सुन्दर चम्पा के पुष्पों की मनोहर गन्ध वाली माला और खिली हुई नवमल्लिका प्रदान की । रति-कार्यों में रस का ज्ञान रखने वाली गोपी ने परम श्रेष्ठ नायिका राधा को रत्नाभरणों से विभूषित करके रति-रस के लिये उत्सुक बनाया। सती ललिता ने उनके शरत्कालीन कमल – दल के समान विशाल नेत्रों को काजल से आँजकर सुहावनी साड़ी पहनने को दी और महेन्द्र द्वारा दिये गये पारिजात के सुगन्धित पुष्प को उनके हाथ में दिया । सती गोपिका सुशीला ने पति के पास जाकर किस प्रकार सुशील एवं मधुर यथोचित वचन कहना चाहिये – ऐसी नीतियुक्त शिक्षा दी।

राधा की माता कलावती ने विपत्तिकाल में विस्मृत हुई स्त्रियों की षोडश कलाओं का स्मरण कराया। बहिन सुधामुखी ने शृङ्गार – विषयसम्बन्धी अमृतोपम वचन की ओर ध्यान आकर्षित किया। कमला ने शीघ्र ही कमल और चम्पा के चन्दनचर्चित पत्ते पर कोमल रति- शय्या सजायी । स्वयं सती चम्पावती ने चम्पा के सुन्दर पुष्प को चन्दन से अनुलिप्त करके श्रीकृष्ण के लिये दोने में सजाकर रखा । फिर उसने श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये केलि-कदम्बों का पुष्प, मनोहर स्तवक (गुलदस्ता ) और कदम्ब-पुष्पों की माला तैयार की। कृष्णप्रिया ने श्रीकृष्ण के लिये कपूर आदि से सुवासित श्रेष्ठ एवं रुचिर पान तथा सुगन्धित जल उपस्थित किया । इसी समय देवताओं तथा मुनियों ने देखा कि जल-स्थलसहित सारा आश्रम गोरोचन के समान उद्भासित हो रहा है। उस समय तीनों लोकों में वास करने वाले सभी लोगों ने राधिका के दर्शन किये।

जिनके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पक के समान परम मनोहर एवं अनुपम है; जो ऊर्ध्वरेता मुनियों के भी मनों को मोह में डाल देती हैं; जो सुन्दर केशोंवाली, सुन्दरी, षोडशवर्षीया और वटवृक्ष के नीचे मण्डल में वास करने वाली हैं; जिनका मुख करोड़ों चन्द्रमाओं की छबि को छीने लेता है; जो सदा मुस्कराती रहती हैं, जिनके दाँत बड़े सुन्दर हैं; जिनके शरत्कालीन कमल के समान विशाल नेत्र कज्जल से सुशोभित रहते हैं; जो महालक्ष्मी, बीजरूपा, परमाद्या, सनातनी और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठातृदेवता हैं; परमात्मा की प्राप्ति के लिये जिनकी स्तुति – पूजा की जाती है; जो परा, ब्रह्मस्वरूपा निर्लिप्ता, नित्यरूपा, निर्गुणा, विश्व के अनुरोध से प्रकृति, भक्तानुग्रहमूर्ति, सत्यस्वरूपा, शुद्ध, पवित्र, पतित- पावनी, उत्तम तीर्थों को पावन करने वाली, सत्कीर्ति-सम्पन्ना, ब्रह्मा की भी विधाती, महाप्रिया, महती, महाविष्णु की माता, रासेश्वर की स्वामिनी, सुन्दरी नायिका, रसिकेश्वरी, अग्निशुद्ध वस्त्र धारण करने वाली, स्वेच्छारूपा और मङ्गल की आलय हैं; सात गोपियाँ श्वेत चँवर डुलाकर जिनकी निरन्तर सेवा करती रहती हैं, चार प्यारी सखियाँ जिनके चरणकमल की सेवामें तत्पर रहती हैं, अमूल्य रत्नों के बने हुए आभूषण जिनकी शोभा बढ़ा रहे हैं, दोनों मनोहर कुण्डलों से जिनके कर्ण और कपोल उद्भासित हो रहे हैं और जिनकी सुन्दर नासिका में गजमुक्ता लटक रही है, जो गरुड़ की चोंच का उपहास करने वाली है; जिनका शरीर कुंकुम – कस्तूरीमिश्रित सुस्निग्ध चन्दन से चर्चित है, जिनके कपोल सुन्दर और अङ्ग कोमल हैं; जो कामुकी, गजराजकी-सी चाल वाली, कमनीया एवं सुन्दरी नायिका, कामदेव के अस्त्र की विजयस्वरूपा, काम की कामना का लय करने वाली तथा श्रेष्ठ हैं; जिनके हाथ में प्रफुल्ल क्रीड़ा- कमल, पारिजात का पुष्प और अमूल्य रत्नजटित स्वच्छ दर्पण शोभा पाते हैं; जो नाना प्रकार के रत्नों की विचित्रता से युक्त रत्नसिंहासन पर विराजमान होती हैं, जो परमात्मा श्रीकृष्ण के पद्मा द्वारा समर्चित मङ्गलरूप चरणकमल का अपने हृदयकमल में ध्यान करती रहती हैं तथा मन-वचन-कर्म से स्वप्न अथवा जाग्रत् काल में श्रीकृष्ण की प्रीति और प्रेम-सौभाग्य का नित्य नूतन रूप में स्मरण करती रहती हैं; जो प्रगाढ़भावानुरक्त, शुद्धभक्त, पतिव्रता, धन्या, मान्या, गौरवर्णा, निरन्तर श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर वास करने वाली, प्रियाओं तथा प्रिय भक्तों में परम प्रिय, प्रियवादिनी, श्रीकृष्ण के वामाङ्ग से आविर्भूत, गुण और रूप में अभिन्न, गोलोक में वास करने वाली, देवाधिदेवी, सबके ऊपर विराजमान, गोपीश्वरी, गुप्तिरूपा, सिद्धिदा, सिद्धिरूपिणी, ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य, सद्भक्तों द्वारा वन्दित और पुण्यक्षेत्र भारत में वृषभानु- नन्दिनी के रूप में प्रकट हुई हैं; उन राधा की मैं वन्दना करता हूँ।

जो ध्यानपरायण मानव समाधि- अवस्था में ध्याननिष्ठ हो राधा का ध्यान करते हैं; वे इस लोक में तो जीवन्मुक्त हैं ही, परलोक में श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं । तदनन्तर लोकों के विधाता स्वयं ब्रह्मा ने ब्रह्माओं की जननी परमेश्वरी राधा को देखकर सर्वप्रथम स्तुति करना आरम्भ किया ।

ब्रह्मा बोले — परमेश्वरि ! मेरा चित्त तुम्हारे पादपद्म के मधुर मधु में लुब्ध हो गया था; अतः उस मधुव्रत के लोभ से प्रेरित होकर मैंने पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में स्थित पुष्करतीर्थ में जाकर साठ हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या की; तथापि तुम्हारा अभीष्ट चरणकमल मुझे प्राप्त नहीं हुआ । यहाँ तक कि मुझे स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं हुआ। तब उस समय आकाशवाणी हुई ‘ब्रह्मन् ! वाराहकल्प में भारतवर्ष में वृन्दावन नामक पुण्यवन में स्थित ‘सिद्धाश्रम’ में तुम्हें गणेश के चरणकमल का दर्शन होगा। तुम तो विषयी हो, अत: तुम्हें राधा-माधव की दासता कहाँ से प्राप्त होगी ? इसलिये महाभाग ! तुम उससे निवृत्त हो जाओ; क्योंकि वह परम दुर्लभ है।’ यों सुनकर मेरा मन टूट गया और मैं उस तपस्या से विरत हो गया । पर उस तपस्या के फलस्वरूप मेरा वह मनोरथ आज परिपूर्ण हो गया ।

श्रीमहादेवजी ने कहा — देवि ! ब्रह्मा आदि देवता, मुनिगण, मनु, सिद्ध, संत और योगीलोग ध्याननिष्ठ हो जिनके चरणकमल का, जो पद्मा द्वारा कमल-पुष्पों से समर्चित एवं अत्यन्त दुर्लभ है, निरन्तर ध्यान करते रहते हैं; परंतु स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं कर पाते, तुम उन्हीं के वक्षः- स्थल पर वास करने वाली हो ।

अनन्त बोले — सुव्रते ! वेद, वेदमाता, पुराण, मैं ( शेषनाग ), सरस्वती और संतगण तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं ।

नारद ! इस प्रकार वहाँ जितने देव, देवी तथा अन्यान्य मुनि, मनु आदि आये थे, उन सबने विनम्र भाव से राधा का स्तवन किया। यह देखकर रुक्मिणी आदि महिलाओं का मुख लज्जा से झुक गया। उन्होंने अपने शोकोच्छ्वास से रत्नदर्पण को मलिन कर दिया । निराहारा कृशोदरी सत्यभामा तो मृतक – तुल्य हो गयी, उसके मन का सारा गर्व गल गया ।    (अध्याय १२४ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद सिद्धाश्रमतीर्थयात्राप्रसङ्गेगणेशपूजनं ब्रह्मेशशेषादिकृतराधिकास्तोत्रं नाम चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२४ ॥

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