ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 131
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ इकतीसवाँ अध्याय
अग्नि तथा स्वर्ण की उत्पत्ति का प्रसङ्ग

शौनक बोले — मैंने परम अद्भुत, अति गोपनीय, अत्यन्त रम्य एवं परम नवीन यह अपूर्व उपाख्यान सुना । पुराणों में क्या ही अनिर्वचनीय, कमनीय एवं मनोहर, प्राचीन तथा अति दुर्लभ कथा कही गयी है । इस प्रकार का सुन्दर दिन कब हमारा होगा ? जिसमें श्री वैष्णवों का संगम हो वह जन्म सफल एवं धन्य हो जाता है । वह (वैष्णव का संगम) गर्भवास का उच्छेदक, कर्म के मूल को काटनेवाला, हरि की दासता को प्रदान करने वाला शुद्ध एवं भक्ति को बढ़ानेवाला है । असाधुसङ्ग, दुर्बुद्धि एवं पापों के उन्मूलन का कारण गणेश के जन्म का उपाख्यान पुराणों में अत्यन्त दुर्लभ है । क्या ही अपूर्व एवं उत्कृष्ट तुलसी तथा राधिका का उपाख्यान सुना । इसके अतिरिक्त अन्य जो-जो गोपनीय व्यक्त, अव्यक्त, अभीष्ट, परिपूर्ण तथा मनोहर आख्यान था, हे महाभाग ! वह सब मैंने सुना । अब मैं अभीष्ट अग्नि तथा स्वर्ण की उत्पत्ति को सुनना चाहता हूँ । हे महाभाग ! उसका व्याख्यान मुझसे करें ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

सूत बोले — सृष्टि की सामग्री के साधनभूत जैसे जल, अग्नि तथा नित्या प्रकृति है, उसी प्रकार महत् तत्त्व भी है । जिस प्रकार दिशाएँ, महाकाश है। जैसे यह सृष्टिगोलक है । प्रकृति और महत् से जायमान जिस प्रकार अहंकार है । जिस प्रकार शब्द तथा तन्मात्राएँ हैं उसी प्रकार अग्नि भी है। फिर भी उसकी उत्पत्ति में बताता हूँ, सुनिये ।

एक समय सृष्टिकाल में ब्रह्मा, अनन्त एवं महेश्वर जगत्पति विष्णु का दर्शन करने के लिए श्वेत द्वीप गये । वे सब परस्पर संभाषण करके सुरम्य सभा के मध्य विष्णु भगवान् के सामने सिंहासनों पर आसीन हो गये । वहाँ पर विष्णु के शरीर से उत्पन्न लक्ष्मी की कलाभूत कामिनियाँ नृत्य करती रहती हैं और सुन्दर स्वर में विष्णु की गाथा का गायन करती हैं । स्मितपूर्ण मुखकमल को देखकर ब्रह्मा जी अच्छी तरह कामुक हो गये । हे द्विज ! ब्रह्मा जी अपने मन को नहीं रोक सके । उनका वीर्यपात हो गया और विभु ब्रह्मा जी उसे लज्जित होकर वस्त्र से ढक दिया और संगीत का विराम होने पर काम के ताप से प्रतप्त उस वीर्य को वस्त्र समेत क्षीरसागर में प्रवाहित कर दिया । ब्रह्म-तेज से प्रज्वलित होता हुआ एक पुरुष जल से निकलकर सभा के मध्य लज्जित होकर बैठे हुए ब्रह्मा की गोद में बैठ गया ।

इतने में ही रुष्ट होकर तुरन्त जल से निकलकर वरुण ने देवों को प्रणामकर बालक को ले जाने का प्रयास किया । बालक भय से रोता हुआ दोनों हाथों से ब्रह्मा को पकड़ लिया किन्तु हे द्विज ! जगत् के विधाता लज्जा के कारण कुछ नहीं बोले । वरुण ने रुष्ट होकर बालक का हाथ पकड़कर उसे खींचा । सभा के बीच प्रजापति ब्रह्मा ने उन्हें दूर फेंक दिया । उसके बाद दुर्बल वरुण देवता दूर जाकर गिरे और विधाता की कोपदृष्टि से मृतक के समान मूर्च्छित हो गये । शंकर भगवान् ने अमृतदृष्टि से उन्हें सचेत कर दिया । चेतना प्राप्तकर वरुण उनसे बोले ।

वरुण ने कहा — यह बालक जल में उत्पन्न हुआ है । अतः मेरा अभीष्ट पुत्र है । मैं इसे लेकर जाऊँगा ।

ब्रह्मा बोले — विष्णो ! हे महेश्वर ! यह बालक मेरी शरण में आया है । अतः मैं भयभीत एवं रोते हुए शरणागत इस बालक को कैसे दे दूं ? जो मूर्ख शरणागत, दीन तथा आत्तं की रक्षा नहीं करता है जब तक सूर्य और चन्द्रमा हैं तब तक नरक में निवास करता है ।

दोनों की बातें सुनकर सर्वज्ञ मधुसूदन हँसकर यथोचित वचन बोले ।

श्रीभगवान् ने कहा — कामिनी की श्रोणी को देखकर ब्रह्मा का वीर्यपात हो गया । उन्होंने लज्जा से उसे क्षीरसागर के निर्मल जल में फेंक दिया । उससे उत्पन्न हुआ बालक धर्मतः विधिविहित तो ब्रह्मा का ही पुत्र है किन्तु शास्त्र में वर्णित क्षेत्रज्ञ पुत्र गौणरूप से वरुण का भी है ।

महादेव बोले — वेदों में जो विद्या और योनि का सम्बन्ध निरूपित है उससे शिष्य और पुत्र में समता होती है । इस बात को वेदज्ञ लोग जानते हैं । तात्पर्य यह है कि योनि के सम्बन्ध से पुत्र होता है और विद्या के सम्बन्ध से शिष्य । अतः दोनों में साम्य है । अतः वरुण इस बालक को मन्त्र एवं विद्या प्रदान करें । यह अग्नि नामक बालक विधाता का पुत्र है और वरुण का शिष्य होगा । विष्णु भगवान् इस बालक को उज्ज्वल दाहिकाशक्ति प्रदान करें । यह अग्नि सबको जलानेवाला हो और वरुण इसके बुझानेवाले बनें ।

शिव की आज्ञा से विष्णु भगवान् ने उसे दाहिकाशक्ति प्रदान कर दी और वरुण ने मन्त्र, विद्या एवं मनोहर रत्नमाला प्रदान की । वरुण देवता ने उस बालक को गोद में लेकर मायापूर्वक चूमा और साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर को भी दिया । ब्रह्मा और शंकर विष्णु भगवान् को प्रणामकर अपने-अपने धाम में चले गये । इस प्रकार अग्नि की उत्पत्ति बता दी गयी अब स्वर्ण की उत्पत्ति सुनिये ।

एक बार सभी देवता स्वर्ग की सभा में बैठे थे। वहाँ पर अप्सराएँ नृत्यकर गायन कर रही थीं । सुन्दर श्रोणीवाली रम्भा अप्सरा को देखकर अग्निदेव सकाम हो गये । उनका वीर्यपात हो गया जिसे उन्होंने लज्जावश वस्त्र से ढक लिया । वस्त्र को फेंककर वह वीर्य जाज्वल्यमान स्वर्णपुञ्ज के रूप में उठ खड़ा हुआ और क्षण भर में बढ़कर सुमेरु (पर्वत) बन गया । उसे मनीषी लोग हिरण्यरेतत् अग्नि कहते हैं । यह स्वर्णोत्पत्ति के विषय में सब बता दिया । अब अधिक क्या सुनना चाहते हो ?    (अध्याय १३१ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद वह्निसुवर्णोत्पत्तिर्नामैकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३१ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.