March 17, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 133 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पुराणों के लक्षण और उनकी श्लोक संख्या का निरूपण, ब्रह्मवैवर्तपुराण के पठन-श्रवण के माहात्म्य का वर्णन करके सूतजी का सिद्धाश्रम को प्रयाण शौनकजी ने कहा — वत्स ! ब्रह्मवैवर्त-पुराण में जिस फल का निरूपण हुआ है, वह निर्विघ्नतापूर्वक मोक्ष का कारण है। उसे सुनकर आज मेरा जन्म लेना सफल हो गया और जीवन सुजीवन बन गया। तात ! अभी मुझे कुछ और निवेदन करना है; यदि मुझे अभयदान दो तो मैं उसे प्रकट करूँ । तब सूतजी बोले — महाभाग शौनकजी ! भय छोड़ दीजिये और आपकी जो इच्छा हो, उसे पूछिये । मैं जो-जो भी मनोहर गोपनीय विषय होगा, सब आपसे वर्णन करूँगा । शौनक ने कहा — पुत्रक ! अब मेरी पुराणों के लक्षण, उनकी श्लोक-संख्या और उनके श्रवण का फल सुनने की अभिलाषा है। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार विस्तृत पुराणों, इतिहासों, संहिताओं और पाञ्चरात्रों का वर्णन करता हूँ, सुनिये। विप्रवर! सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित — इन पाँचों लक्षणों से जो युक्त हो, उसे पुराण कहते हैं। विद्वान् लोग उपपुराणों का भी यही लक्षण बतलाते हैं । अब प्रधान पुराणों का लक्षण आपको बतलाता हूँ — सृष्टि, विसृष्टि, स्थिति, उनका पालन, कर्मों की वासना-वार्ता, मनुओं का क्रम, प्रलयों का वर्णन, मोक्ष का निरूपण, श्रीहरि का गुणगान तथा देवताओं का पृथक् पृथक् वर्णन —प्रधान पुराणों के ये दस लक्षण और बतलाये जाते हैं। अब इन पुराणों की श्लोक-संख्या का वर्णन करता हूँ, सुनिये । शौनकजी ! परमोत्कृष्ट ब्रह्मपुराण की श्लोक-संख्या दस हजार और पद्मपुराण की पचपन हजार की गयी है । विद्वान् लोग विष्णुपुराण को तेईस हजार श्लोकों वाला बतलाते हैं। शिवपुराण में चौबीस हजार श्लोक बतलाये जाते हैं। श्रीमद्भागवतपुराण अठारह हजार श्लोकों में ग्रथित है । नारदपुराण की श्लोक-संख्या पचीस हजार बतलायी गयी है । पण्डितलोग मार्कण्डेयपुराण में नौ हजार श्लोक बतलाते हैं । परम रुचिर अग्निपुराण पंद्रह हजार चार सौ श्लोकों वाला कहा गया है । पुराणप्रवर भविष्य में चौदह हजार पाँच सौ श्लोक बतलाये जाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में अठारह हजार श्लोक हैं। विद्वज्जन इसे सभी पुराणों का सार बतलाते हैं। श्रेष्ठ लिङ्गपुराण ग्यारह हजार श्लोकों का है । वाराहपुराण की श्लोक संख्या चौबीस हजार कही गयी है। सज्जनों ने उत्तम स्कन्दपुराण को ग्यारह हजार एक सौ अथवा इक्यासी हजार एक सौ श्लोकों वाला निरूपित किया है। पण्डितों ने वामनपुराण की दस हजार, कूर्मपुराण की सतरह हजार और मत्स्यपुराण की चौदह हजार श्लोक-संख्या बतलायी है। गरुड़पुराण उन्नीस हजार और उत्तम ब्रह्माण्डपुराण बारह हजार श्लोकों वाला कहा गया है। इस प्रकार सभी पुराणों की श्लोक-संख्या चार लाख बतलायी जाती है। इस प्रकार पुराणवेत्ता लोग अठारह पुराण ही बतलाते हैं। इसी तरह उपपुराणों की भी संख्या अठारह ही कही गयी है। महाभारत को इतिहास कहते हैं । वाल्मीकीय रामायण काव्य है और श्रीकृष्ण के माहात्म्य से परिपूर्ण पञ्चरात्रों की संख्या पाँच है। वासिष्ठ, नारदीय, कापिल, गौतमीय और सनत्कुमारीय — ये ही पाँचों श्रेष्ठ पञ्चरात्र हैं । संहिताएँ भी पाँच बतलायी जाती हैं; जो सभी श्रीकृष्ण की भक्ति से ओतप्रोत हैं । इनके नाम हैं — ब्रह्मसंहिता, शिवसंहिता, प्रह्लादसंहिता, गौतमसंहिता और कुमारसंहिता । शौनकजी ! इस प्रकार शास्त्र का भण्डार तो बहुत बड़ा है, तथापि मैंने अपनी जानकारी के अनुसार आपको क्रमशः पृथक्-पृथक् सब बतला दिया है। मुने! साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु ने गोलोकस्थित रासमण्डल में अपने भक्त ब्रह्मा को यह पुराण बतलाया था। फिर ब्रह्मा ने धर्मात्मा धर्म को, धर्म ने नारायणमुनि को, नारायण ने नारद को और नारद ने मुझ भक्त को इसका उपदेश किया। मुनिवर ! वही श्रेष्ठ पुराण इस समय मैं आपसे वर्णन कर रहा हूँ। यह अभीप्सित ब्रह्मवैवर्तपुराण परम दुर्लभ है। जो विश्वसमूह का वरण करता है, जीवधारियों का परमात्मस्वरूप है; वही ब्रह्म कर्मनिष्ठों के कर्मों का साक्षीरूप है। उस ब्रह्म का तथा उसकी अनुपम विभूति का जिसमें विवरण किया गया है; इसी कारण विद्वान्लोग इसे ‘ब्रह्मवैवर्त’ कहते हैं। यह पुराण पुण्यप्रद, मङ्गलस्वरूप और मङ्गलों का दाता है। इसमें नये-नये अत्यन्त गोपनीय रमणीय रहस्य भरे पड़े हैं। यह हरिभक्तिप्रद, दुर्लभ हरिदास्य का दाता, सुखद, ब्रह्म की प्राप्ति करने वाला साररूप और शोक संताप का नाशक है । जैसे सरिताओं में शुभकारिणी गङ्गा तत्क्षण ही मुक्ति प्रदान करने वाली हैं, तीर्थों में पुष्कर और पुरियों में काशी जैसे शुद्ध है, सभी वर्षों में जैसे भारतवर्ष शुभ और तत्काल मुक्तिप्रद है, जैसे पर्वतों में सुमेरु, पुष्पों में पारिजात-पुष्प, पत्रों में तुलसी-पत्र, व्रतों में एकादशीव्रत, वृक्षों में कल्पवृक्ष, देवताओं में श्रीकृष्ण, ज्ञानिशिरोमणियों में महादेव, योगीन्द्रों में गणेश्वर, सिद्धेन्द्रों में एकमात्र कपिल, तेजस्वियों में सूर्य, वैष्णवों में अग्रगण्य भगवान् सनत्कुमार, राजाओं में श्रीराम, धनुर्धारियों में लक्ष्मण, देवियों में महापुण्यवती सती दुर्गा, श्रीकृष्ण की प्रेयसियों में प्राणाधिका राधा, ईश्वरियों में लक्ष्मी तथा पण्डितों में सरस्वती सर्वश्रेष्ठ हैं; उसी प्रकार सभी पुराणों में ब्रह्मवैवर्त श्रेष्ठ है। इससे विशिष्ट, सुखद, मधुर, उत्तम पुण्य का दाता और संदेहनाशक दूसरा कोई पुराण नहीं है । यह इस लोक में सुखद, सम्पूर्ण सम्पत्तियों का उत्तम दाता, शुभद, पुण्यद, विघ्नविनाशक और उत्तम हरि दास्य प्रदान करने वाला है तथा परलोक में प्रभूत आनन्द देने वाला है । पुत्रक! सम्पूर्ण यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओं का तथा समूची पृथ्वी की प्रदक्षिणा का भी फल इसके फल की समता में नगण्य है। चारों वेदों के पाठ से भी इसका फल श्रेष्ठ है। जो संयत-चित्त होकर इस पुराण को श्रवण करता है; उसे गुणवान् विद्वान् वैष्णव पुत्र प्राप्त होता है। यदि कोई दुर्भगा नारी इसे सुनती है तो उसे पति के सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इस पुराण के श्रवण से मृतवत्सा, काकवन्ध्या आदि पापिनी स्त्रियों को भी चिरजीवी पुत्र सुलभ हो जाता है। अपुत्र को पुत्र, भार्यारहित को पत्नी और कीर्तिहीन को उत्तम यश मिल जाता है। मूर्ख पण्डित हो जाता है। रोगी रोग से, बँधा हुआ बन्धन से, भयभीत भय से और आपत्तिग्रस्त आपत्ति से मुक्त हो जाता है। अरण्य में, निर्जन मार्ग में अथवा दावाग्नि में फँसकर भयभीत हुआ मनुष्य इसके श्रवण से निश्चय ही उस भय से छूट जाता है। इसके श्रवण से पुण्यवान् पुरुष पर कुष्ठरोग, दरिद्रता, व्याधि और दारुण शोक का प्रभाव नहीं पड़ता । ये सभी पुण्यहीनों पर ही प्रभाव डालते हैं। जो मनुष्य अत्यन्त दत्तचित्त हो इसका आधा श्लोक अथवा चौथाई श्लोक सुनता है, उसे बहुसंख्यक गोदान का पुण्य प्राप्त होता है – इसमें संशय नहीं है। जो मनुष्य शुद्ध समय में जितेन्द्रिय होकर संकल्पपूर्वक वक्ता को दक्षिणा देकर भक्ति-भावसहित इस चार खण्डों वाले पुराण को सुनता है, वह अपने असंख्य जन्मों के बचपन, कौमार, युवा और वृद्धावस्था के संचित पाप से नि:संदेह मुक्त हो जाता है तथा श्रीकृष्ण का रूप धारण करके रत्ननिर्मित विमान द्वारा अविनाशी गोलोक में जा पहुँचता है। वहाँ उसे श्रीकृष्ण की दासता प्राप्त हो जाती है, यह ध्रुव है । असंख्य ब्रह्माओं का विनाश होने पर भी उसका पतन नहीं होता। वह श्रीकृष्ण के समीप पार्षद होकर चिरकाल तक उनकी सेवा करता है । मुने ! भली-भाँति स्नान करके शुद्ध हो तथा इन्द्रियों को वश में करके ‘ब्रह्मखण्ड’ की कथा सुनने से पश्चात् श्रोता को चाहिये कि वह वाचक को खीर-पूड़ी और फल का भोजन कराये, पान का बीड़ा समर्पित करे और सुवर्ण की दक्षिणा दे। फिर चन्दन, श्वेत पुष्पों की माला और मनोहर महीन वस्त्र श्रीकृष्ण को निवेदित करके वाचक को प्रदान करे। अमृतोपम सुन्दर कथाओं से युक्त ‘प्रकृतिखण्ड’ को सुनकर वक्ता को दधियुक्त अन्न खिलाकर स्वर्ण की दक्षिणा देनी चाहिये और फिर भक्तिपूर्वक सुन्दर सवत्सा गौ का दान देना चाहिये। विघ्ननाश के लिये ‘गणपतिखण्ड’ को सुनकर जितेन्द्रिय श्रोता को उचित है कि वह वाचक को सोने का यज्ञोपवीत, श्वेत अश्व, छाता, पुष्पमाला, स्वस्तिक के आकार की मिठाई, तिल के लड्डू और काल-देशानुसार उपलब्ध होने वाले पके फल प्रदान करे। ‘ श्रीकृष्णजन्मखण्ड’ को श्रवण करके भक्त को चाहिये कि वाचक को रत्न की सुन्दर अँगूठी दान करे और फिर महीन वस्त्र, हार, उत्तम स्वर्णकुण्डल, माला, सुन्दर पालकी, पके हुए फल, दूध और अपना सर्वस्व दक्षिणा में देकर उनकी स्तुति करे । इसके बाद सौ ब्राह्मणों को परम आदर के साथ भोजन कराना चाहिये। जो विष्णुभक्त, शास्त्रपटु पण्डित और शुद्धाचारी हो, ऐसे ही श्रेष्ठ ब्राह्मण को वाचक बनाना चाहिये। जो श्रीकृष्ण से विमुख, दुराचारी और उपदेश देने में अकुशल हो, ऐसे ब्राह्मण से कथा नहीं सुननी चाहिये। नहीं तो, पुराण-श्रवण निष्फल हो जाता है । जो श्रीकृष्ण की भक्ति से युक्त हो इस पुराण को सुनता है, वह श्रीहरि की भक्ति और पुण्य का भागी होता है तथा उसके पूर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। विप्रवर! इस प्रकार मैंने अपने गुरुजी के श्रीमुख से जो कुछ सुना था, वह सब आपसे वर्णन कर दिया। अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिये, मैं नारायणाश्रम को जाना चाहता हूँ। यहाँ इस विप्र समाज को देखकर नमस्कार करने के लिये आ गया था; फिर आपलोगों की आज्ञा होने से उत्तम ब्रह्मवैवर्तपुराण भी सुना दिया । आप ब्राह्मणों को मेरा नमस्कार प्राप्त हो । परमात्मा श्रीकृष्ण, शिव, ब्रह्मा और गणेश को नित्यशः बारंबार नमस्कार है । शौनकजी! जो सत्यस्वरूप, राधा के प्राणेश और तीनों गुणों से परे हैं; उन परब्रह्म श्रीकृष्ण का आप मन-वचन-शरीर से परमभक्तिपूर्वक रात-दिन भजन कीजिये । सरस्वती- देवी को नमस्कार है । पुराणगुरु व्यासजी को अभिवादन है। सम्पूर्ण विघ्नों का विनाश करनेवाली दुर्गादेवी को अनेकशः प्रणाम है। शौनकजी! आप लोगों के पुण्यमय चरणकमलों का दर्शन करके आज मैं उस सिद्धाश्रम को जाना चाहता हूँ, जहाँ भगवान् गणेश विराजमान हैं। (अध्याय १३३) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्धे नारदनारयणसंवादे सूतशौनकसंवादे त्रयस्त्रिंदशधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३३ ॥ ॥ श्रीकृष्णजन्मखण्ड सम्पूर्ण ॥ ॥ ब्रह्मवैवर्तपुराण समाप्त ॥ Content is available only for registered users. 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