ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 02
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
दूसरा अध्याय
श्रीराधा और श्रीकृष्ण के गोकुल में अवतार लेने का कारण

नारायण बोले — जिसकी प्रार्थनावश भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वी पर आये और पृथ्वी पर जो-जो कार्य करके अपने लोक को चले गये; जैसे पृथ्वी का भार उतारना, दुष्टों के वध तथा पृथ्वी के भार उतारने का उपाय एवं दुष्टों के वध का प्रयत्न; मैं इन सबको भली-भाँति कहूँगा । इस समय भगवान् का गोपवेश और गोकुल में आगमन तथा जिस कारण से राधा गोपी होकर अवतरित हुई हैं, मैं कह रहा हूँ, सुनो । मैंने शंखचूड का वध संक्षेप में पहले सुना दिया था, अब उसी को विस्तार से कह रहा हूँ, एक बार श्रीदामा का राधा के साथ झगड़ा हुआ, उसी में राधा के शाप से श्रीदामा शंखचूड होकर उत्पन्न हुए ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीदामा ने भी राधा को शाप दिया था कि आप भी मनुष्य होकर उत्पन्न हो — व्रज में स्त्री बनकर वहां की भूमि में विचरण करो ।

श्रीदामा के शाप से भयभीत होकर राधा ने श्रीकृष्ण से कहा कि — ‘मुझे श्रीदामा के शाप से गोपी होना पड़ेगा । भवभंजन ! अब कौन उपाय करूँ, बताने की कृपा करो, क्योंकि आपके बिना मैं अपना जीवन धारण कैसे कर सकती हूँ । हे कालनाथ ! आपके बिना एक क्षण भी मुझे सैकड़ों युग के समान बीतता है, नेत्र-निमेष मात्र वियोग होने से तो मेरा मन जलने लगता है । हे नाथ ! शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान कान्ति और सुधा से पूर्ण आपके मुख ( सौन्दर्य ) का मैं रात-दिन अपने नेत्र रूपी चकोर से पान करती हूँ । आप मेरे आत्मा, मन और प्राण हो, मैं केवल इस देहमात्र का वहन करती हूँ । अतः आप ही मेरी दृष्टि शक्ति, नेत्र और परम जीवन धन हो । सोते-जागते सभी समय आप ही में अपना मन लगाकर आपके चरण-कमल का स्मरण किया करती हूँ । हे नाथ ! हे विभो ! बिना आपकी सेवा के मैं क्षण भर भी नहीं जी सकती ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने उनकी बातें सुनकर उस सुन्दरी को समझाया तथा उसे निर्भय किया और कहा — हे सुमुखी ! वाराह कल्प में मैं भी पृथ्वी तल पर चलूंगा उसी समय मेरे साथ तुम्हारा भी जन्म भूतल पर होगा । हे देवि ! व्रज में हम लोग चलकर जंगल में विहार करेंगे । तुम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो, अतः मेरे रहते तुम्हें भय क्या है ।

जगत्पति भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। इसी कारण भगवान् जगन्नाथ ने गोकुल में गमन किया । भयनाशक भगवान् को कंस से भय क्या हो सकता है ? वे मायिक भय के बहाने ही राधा के समीप गये और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए उनके साथ तथा गोपियों के साथ वहाँ विहार किया । ब्रह्मा के प्रार्थना करने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर आकर इसका भार उतारा और अंत में स्वलोक को चले गये ।

नारद बोले — श्रीदामा और राधा का कलह आपने पहले संक्षेप में कहा था, अतः इस समय इसे पुनः विस्तारपूर्वक सुनाने की कृपा करें ।

नारायण बोले — एक बार भगवान् श्रीकृष्ण बिना राधिका को पूछे उन्हें छोड़कर एक अन्य गोपी विरजा के पास चले गये । वह राधा के समान सुन्दरी थी और वृन्दावन में रहती थी । वह गोपी भगवान् कृष्ण की प्राणों से भी अधिक प्रिय और स्त्रियों में धन्यमान्य थीं । रत्नसिंहासन पर बैठी हुई उसने भगवान् को अपने समीप आये हुए देखा और भगवान् ने भी उस गोपी का शारदीय चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख देखा । मनोहर, मन्द मुसुकान मनोहर, मन्द मुसुकान एवं कटाक्ष करती हुई, सदा सोलह वर्ष की, प्रस्फुटित नवयौवन से युक्त, रत्नों के आभूषणों की शोभा से सम्पन्न शुक्ल वस्त्र शोभा से सम्पन्न शुक्ल वस्त्र से विभूषित, सर्वांग में रोमांच से युक्त और कामबाण से पीड़ित उसे देखकर भगवान् ने निर्जन महारण्यवर्ती रत्नमण्डप में उसके साथ विहार किया ।

राधिका की सखियों ने यह दृश्य देखकर राधिका जी से निवेदन कर दिया । उनकी बातें सुनकर राधा कुपित हो गयी । उनकी बातें सुनकर सुन्दरी राधा ने सखियों समेत रथ पर बैठकर वहाँ प्रस्थान किया । रथ से शीघ्र उतरकर भगवान् की प्रिया राधा उस रत्न-मण्डप में सहसा पहुँच गयीं । वहाँ दरवाजे पर श्रीकृष्ण के प्रिय किंकर श्रीदामा नामक गोप को देखा । श्रीदामा ने उन्हें भीतर नहीं जाने दिया । वह आकर उनके सामने निःशंक खड़ा हो गया । तब राधिका की सहेलियों ने शीघ्रता से किंकर समेत श्रीदामा को बलपूर्वक हटा दिया।

इस कोलाहल को सुनकर भगवान् स्वयं राधा को क्रुद्ध जानकर अन्तर्हित हो गये और विरजा भी राधा के ( रोषपूर्ण) शब्दों द्वारा भगवान् को अन्तर्हित देखकर इतना भयभीत हुई कि योग द्वारा उसने अपने प्राण ही छोड़ दिये । अनन्तर उसकी देह तुरन्त नदी रूप हो गयी, जिसने गोलाकार होकर गोलोक को व्याप्त कर लिया ।  (अध्याय २)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे विरजानदप्रस्ताववर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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