ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 33
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तैंतीसवाँ अध्याय
ब्रह्माजी का मोहिनी के शाप से अपूज्य होना, इस शाप के निवारण के लिये उनका वैकुण्ठधाम में जाना और वहाँ अन्यान्य ब्रह्माओं के दर्शन से उनके अभिमान का दूर होना

श्रीकृष्ण बोले — बहुत समय तक मोहिनी का प्रयास चलता रहा; परंतु ब्रह्माजी ने उसके उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और एक दिन मुनियों के सामने मोहिनी का उपहास किया। इससे मोहिनी कुपित हो उठी और ब्रह्माजी को शाप दे दिया ।

मोहिनी बोली — ‘ब्रह्मन् ! मैं आपकी दासी के समान हूँ, विनयशील हूँ और दैववश आपकी शरण में आयी हूँ तो भी आप घमंड में आकर मेरी हँसी उड़ा रहे हैं; अतः सुदीर्घ काल के लिये आप अपूजनीय हो जायँ । स्वयं भगवान् श्रीहरि शीघ्र ही आपके दर्प का दलन करेंगे। अन्य देवताओं की प्रत्येक युग में वार्षिक पूजा होगी; किंतु आपकी नहीं होगी। इस कल्प में या कल्पान्तर में, इस देह में अथवा देहान्तर में फिर आपकी पूजा नहीं होगी। अब तक जो हो गयी, सो हो गयी।’

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यों कहकर मोहिनी शीघ्र ही कामलोक में गयी और पुनः सचेत होने पर अपने कुकृत्य को याद करके विलाप करने लगी। जगद्विधाता ब्रह्मा मोहिनी का शाप सुनकर काँप उठे । उनका मस्तक झुक गया । उस समय कल्याणकारी मुनियों ने उन्हें एक उपाय बताया- ‘आप भगवान् वैकुण्ठनाथ की शरण में जाइये।’ ऐसा कहकर वे ऋषि-मुनि अपने-अपने आश्रमों को चले गये । तत्पश्चात् ब्रह्माजी मेरे ही दूसरे स्वरूप परम शान्त कमलाकान्त श्यामवर्ण भगवान् नारायणकी शरण में गये। वहाँ जा खिन्नवदन हो चार भुजाधारी श्रीहरि को प्रणाम करके वे जगत्स्रष्टा ब्रह्मा उनके पास ही बैठे। उन्होंने विपत्ति से उबारने वाले, दयासिन्धु, दीनबन्धु भगवान् से अपने आगमन का रहस्य बताया। वह सारा रहस्य सुनकर भगवान् विष्णु हँसते हुए बोले ।

श्रीनारायण ने कहा — लोकनाथ ! क्षणभर ठहरो ।

इसी बीच में कोई शीघ्रगामी द्वारपाल श्रीहरि के सामने आया और उन्हें प्रणाम करके बोला — ‘भगवन् ! दूसरे किसी ब्रह्माण्ड के अधिपति दशमुख ब्रह्मा स्वयं पधार कर द्वार पर खड़े हैं। वे आपके महान् भक्त हैं और आपका दर्शन करने के लिये ही आये हैं।’

द्वारपाल की यह बात सुनकर भगवान् नारायण ने उक्त ब्रह्मा को भीतर बुला लाने के लिये उसे अनुमति दे दी । द्वारपाल की आज्ञा से ब्रह्मा ने भीतर आकर भक्तिभाव से भगवान् की स्तुति की। उन्होंने ऐसे-ऐसे अति विचित्र स्तोत्र सुनाये, जो चतुर्मुख ब्रह्मा ने कभी नहीं सुने थे । स्तुति करके भगवान् विष्णु की आज्ञा पाकर वे चतुर्मुख ब्रह्मा को पीछे करके बैठे। तदनन्तर भगवान् नारायण ने अपने चार भुजाधारी द्वारपालों से कहा- ‘जो कोई भी आगन्तुक सज्जन हों, उन्हें आदरपूर्वक भीतर ले आओ।’ वृन्दावन-विनोदिनि ! इसी समय वहाँ अत्यन्त विनीत भाव से स्वयं शतमुख ब्रह्मा का आगमन हुआ। उन्होंने भी अत्यन्त सुन्दर दिव्य स्तोत्रों द्वारा गूढ़ भाव से भगवान्‌ का स्तवन किया । उनके मुख से निकले हुए श्रेष्ठ स्तोत्र सभी के लिये अश्रुतपूर्व (सर्वथा नवीन ) थे । वे भी स्तुति के पश्चात् भगवान्‌ की आज्ञा पाकर पहले के आये हुए दोनों ब्रह्माओं के आगे बैठ गये। इसके बाद दूसरे किसी ब्रह्माण्ड के अधिपति सहस्रमुख ब्रह्मा श्रीहरि के सामने उपस्थित हुए। उन्होंने भी भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर किसी के द्वारा भी अब तक नहीं सुने गये उत्तम स्तोत्रों से भगवान्‌ की स्तुति की। तत्पश्चात् वे भी आज्ञा पाकर सबसे आगे बैठे। उनसे श्रीहरि ने समस्त ब्रह्माण्डों के ब्रह्माओं का और उनके राज्य में रहने वाले देवताओं का क्रमशः कुशल- समाचार पूछा।

उन सब ब्रह्माओं को देखकर अपने को विष्णु-तुल्य मानने वाले चतुर्मुख ब्रह्मा का घमंड चूर-चूर हो गया। इसके बाद श्रीहरि ने विभिन्न ब्रह्माण्डों में रहने वाले अन्यान्य ब्रह्माओं के भी दर्शन कराये। उन्हें देखकर चतुर्मुख ब्रह्मा मृतक-तुल्य हो गये ।

उस समय भगवान् ने कहा — ‘मुझ नारायण के शरीर में जितने रोम हैं, उतने ही ब्रह्माण्ड और उनके उतने ही ब्रह्मा विद्यमान हैं।’

यह सुनकर वे सभी आगन्तुक ब्रह्मा नारायण को प्रणाम करके शीघ्र ही अपने-अपने स्थान को चले गये। चतुर्मुख ब्रह्मा ने अपने को अत्यन्त छोटा तथा अल्प राज्य का अधिपति माना । लज्जा से उनका सिर झुक गया और वे भगवान् विष्णु के चरणों में पड़ गये।

तब भगवान् ने उनसे पूछा — ‘ ब्रह्मन् ! बोलो, इस समय तुमने स्वप्न की भाँति यह क्या देखा है।’

उनका प्रश्न सुनकर ब्रह्मा बोले — ‘प्रभो ! भूत, वर्तमान और भविष्य – सारा जगत् आपकी माया से ही उत्पन्न हुआ है।’

यों कह चतुर्भुज ब्रह्मा वैकुण्ठ की सभा में लज्जा का अनुभव करते हुए चुप हो गये । तब सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीहरि ने उनके शाप-निवारण का उपाय किया ।   ( अध्याय ३३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे मोहिनीशापब्रह्मदर्पभंगो नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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