ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 50
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पचासवाँ अध्याय
दुर्वासा का दर्प-भंग

श्रीकृष्ण बोले — प्रिये ! योगी, रुद्र के अंश से उत्पन्न, अत्यन्त तेजस्वी और महान् मुनि दुर्वासा का दर्पभङ्ग सुनो । एक बार राजा अम्बरीष ने द्वादशी व्रत करके अनेक ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात् स्वयं पारण करने के लिए बैठे कि उसी बीच वहाँ मुनि दुर्वासा आ गये, जो क्षुधापीडित, तृषा ( प्यास) से आकुल एव विष्णुव्रत में निरत थे ।

उन्होंने राजा से कहा — हे महाभाग ! मुझे भोजन कराइये ! राजा ने तुरन्त भक्तिपूर्वक उन्हें अमृत के समान खीर समर्पित किया । किन्तु (खीर) में केश (बाल) निकलने से वे राजा को शाप देने के लिए तैयार हो गये । सिर से जटा तोड़कर भूमि पर पटक दिया । जटा के मध्य से प्रज्वलित अग्निशिखा की भाँति एक पुरुष निकल पड़ा, जो सात ताड़ वृक्षों के समान ऊँचा एवं प्रलयकारी था । वह क्रोध से नृपश्रेष्ठ राजा को मारने के लिए तैयार हो गया । उसके भय से ( वहाँ के ) सभी लोग कांप उठे । उनके कण्ठ, ओठ और तालू सूख गये ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

महाभयभीत होकर राजा मेरे चरणकमल का स्मरण करने लगा । स्मरण करते ही उसके समस्त विघ्नों का शमन हो गया । किन्तु उसी बीच सहसा चक्र-सुदर्शन प्रकट हो गया, जो दुर्निवार, मेरे समान तेजस्वी और करोड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण था । वह सभा में इधर-उधर घूमता हुआ (जटा से उत्पन्न ) उस कृत्या पुरुष को काटकर मुनि दुर्वासा को दौड़ाने लगा । समस्त पर्वत, सातों सागर और परमोत्तम काञ्चन भूमि (सुमेरु पर्वत ) समेत भूमण्डल में उनका पीछा करता रहा । दौड़ते हुए ऋषि के केश खुल गये थे और वे अति भयभीत, कातर एवं आतुर होकर भाग रहे थे । विप्रेन्द्र दुर्वासा अपने तेज से सूर्य की प्रभा को भी आच्छादित करके उत्तम प्रकाश फैलाते हुए दौड़ रहे थे । कैलास, सात स्वर्गं तथा स्वस्थ ब्रह्मलोक का भ्रमण करते हुए विष्णु की शरण में पहुँचे ।

वहाँ कृपासागर विष्णु ने अपने चरणकमल पर गिरे हुए ब्राह्मण श्रेष्ठ दुर्वासा को देखकर कृपया उन्हें अभय प्रदान किया । अनन्तर नारायण के वरदान द्वारा ही वह ब्राह्मण सन्तापरहित होकर सुखी हुआ । नारायण की स्तुति करके उनकी आज्ञा से पुनः राजा के घर गया । राजा उन मुनिश्रेष्ठ को पाकर बहुत प्रसन्न हुए । मुनि को तुरन्त पायस भोजन कराया, फिर स्वयं भी स्त्री – बान्धवों समेत भोजन किया । भोजन करके ब्राह्मण राजा को शुभाशिष प्रदान कर अपने घर चला गया । मैंने भक्तों की रक्षा के कार्य में उस चक्र को लगा दिया । प्रलय में सबका नाश हो जाता है, किन्तु मेरे भक्त का नाश नहीं होता । समस्त देव मेरे प्राणस्वरूप हैं किन्तु भक्त लोग मुझे प्राण से भी अधिक प्रिय हैं ।

तुम, लक्ष्मी, महामाया, सावित्री, सरस्वती, ब्रह्मा, शिव, अनन्त, धर्म, ब्राह्मण, गोपियाँ और गोपगण सभी मुझे अति प्रिय हैं, परन्तु उनसे भी बढ़कर भक्त प्रिय हैं, भक्त से बढ़कर प्रिय मुझे कोई नहीं है । भक्तों के रक्षणार्थ सुदर्शन को नियुक्त करने पर भी मुझे पूरा विश्वास नहीं होता है, अतः मैं स्वयं उन्हें देखने के लिए जाता हूँ । सुरेश्वरि ! महाभागे ! दुर्वासा का दर्पभङ्ग तो मुझसे सुन लिया, अब और क्या सुनना चाहती हो ? आज्ञा प्रदान करो ।

राधिका बोलीं — जगद्गुरो ! मुझे पुराणों में गोपनीय धन्वन्तरि का दर्पभङ्ग सुनने का कौतूहल हो रहा है, कहने की कृपा करें ।

नारायण बोले — राधिका की बात सुनकर मधुसूदन हँस पड़े और उन्होंने सुनने में अतिरमणीक प्राचीन कथा कहना आरम्भ किया ।    (अध्याय ५०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे दुर्वाससो दर्पभङ्गो नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

See Also :-

  1. श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय ४ अम्बरीष-दुर्वासोपाख्यानम्
  2. ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 25

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