ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 62
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
बाँसठवाँ अध्याय
अहल्या के उद्धार एवं श्रीराम चरित्र का संक्षेप से वर्णन

नारदजी ने पूछा — ब्रह्मन् ! दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम ने किस युग में और किस प्रकार गौतम-पत्नी अहल्या को शाप से मुक्त किया ? महाभाग ! आप रामावतार की मनोहर एवं सुखदायिनी कथा संक्षेप से कहिये; मेरे मन में उसे सुनने के लिये उत्कण्ठा हो रही है ।

श्रीनारायण ने कहा — नारद! त्रेतायुग में ब्रह्माजी की प्रार्थना से साक्षात् भगवान् विष्णु ने दशरथ से उनकी पत्नी कौसल्या के गर्भ से सानन्द जन्म ग्रहण किया। कैकेयी से भरत हुए, जो राम के समान ही गुणवान् थे और सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न का जन्म हुआ। वे दोनों ही गुणों के सागर थे । पिता द्वारा विश्वामित्र के साथ भेजे गये लक्ष्मण सहित श्रीराम सीता को प्राप्त करने के उद्देश्य से रमणीया मिथिलापुरी में गये। उसी मार्ग में पाषाणमयी स्त्री को देखकर जगदीश्वर श्रीराम ने विश्वामित्र से उसके शिला होने का कारण पूछा।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीराम का प्रश्न सुनकर महातपस्वी धर्मात्मा मुनि विश्वामित्र वहाँ सारा रहस्य उन्हें बताया। उनके मुँह से अहल्या के शिला होने का कारण सुनकर अखिल भुवन पावन श्रीराम ने अपने चरण की एक अंगुलि से उस शिला का स्पर्श किया। उनका स्पर्श पाते ही अहल्या पद्म-गन्धा सुन्दरी नारी के रूप में परिणत हो गयी और श्रीराम को आशीर्वाद देकर वह पति के घर में चली गयी। पत्नी को पाकर गौतम ने भी श्रीरामचन्द्रजी को शुभाशीर्वाद प्रदान किया । तदनन्तर श्रीराम ने मिथिला में जाकर शिव का धनुष तोड़ा और सीता का पाणिग्रहण किया। सीता से विवाह करके राजेन्द्र श्रीराम ने परशुरामजी का दर्प चूर्ण किया और क्रीड़ा-कौतुक एवं मङ्गलाचार-पूर्वक रमणीय अयोध्यापुरी को प्रस्थान किया।

राजा दशरथ ने आदरपूर्वक सात तीर्थों का जल मँगवाया और तत्काल ही मुनीश्वरों को बुलाकर अपने पुत्र श्रीराम को राजा बनाने की इच्छा की। श्रीराम सम्पूर्ण मङ्गलाचार से सम्पन्न हो जब अधिवास-कर्म पूर्ण कर चुके, तब भरत की माता कैकेयी ईर्ष्या-जनित शोक से विह्वल हो गयी। उसने राजा दशरथ से दो वर माँगे, जिन्हें देने के लिये वे पहले प्रतिज्ञा कर चुके थे। उसने एक वर से राम का वनवास माँगा और दूसरे के द्वारा भरत का राज्याभिषेक । महाराज दशरथ प्रेम से मोहित होने के कारण वर देना नहीं चाहते थे। यह देख श्रेष्ठ बुद्धि वाले श्रीराम धर्म और सत्य के भङ्ग होने के भय से महाराज से बोले ।

श्रीराम ने कहा — तात ! सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और झूठ से बड़ा कोई पातक नहीं है । गङ्गा समान दूसरा तीर्थ नहीं है; श्रीकेशव से बढ़कर कोई देवता नहीं है; धर्म से श्रेष्ठ बन्धु नहीं है और धर्म से बढ़कर धन नहीं है। धर्म से अधिक प्रिय और उत्तम कौन है ? अतः आप यत्नपूर्वक अपने धर्म की रक्षा कीजिये । स्वधर्म की रक्षा करने पर सदा और सर्वत्र मङ्गल होता है । यश, प्रतिष्ठा, प्रताप और परम आदर की प्राप्ति होती है 1 मैं चौदह वर्षों तक गृह-सुख का परित्याग करके धर्मपूर्वक विचरता हुआ आपके सत्य की रक्षा के लिये वन में वास करूँगा । जो इच्छा या अनिच्छा से सत्य प्रतिज्ञा करके उसका पालन नहीं करता, वह अशौच का भागी होता है और वह अशौच उसके शरीर के भस्म होने तक बना रहता है। जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहते हैं, तब तक वह कुम्भीपाक नरक में यातना भोगता है । तदनन्तर मानव-योनि में उत्पन्न हो वह सात जन्मों तक गूँगा और कोढ़ी होता है ।

ऐसा कहकर श्रीराम वल्कल और जटा धारण करके सीता और लक्ष्मण के साथ विशाल वन में चले गये। मुने! इधर महाराज दशरथ ने पुत्र-शोक से अपने शरीर को त्याग दिया। श्रीरामचन्द्रजी पिता के सत्य की रक्षा के लिये वन-वन में भ्रमण करने लगे । कालान्तर में उस विशाल एवं घोर वन में घूमती हुई रावण की बहिन शूर्पणखा उधर आ निकली। उसने बड़े कौतूहल से श्रीराम को देखा। उन्हें देखते ही वह कुलटा राक्षसी काम-वेदना से पीड़ित हो गयी। उसके सारे अङ्गों में रोमाञ्च हो आया और वह मूर्च्छित हो गयी। फिर वह श्रीराम के पास गयी। शूर्पणखा सदा बने रहने वाले यौवन से युक्त, अत्यन्त प्रौढ़ और कामोन्मत्त थी । वह मन में काम-भाव ले श्रीराम से मुस्कराती हुई बोली ।

शूर्पणखा ने कहा — हे राम ! हे घनश्याम ! हे रूपधाम ! हे गुणसागर ! मेरा हृदय आपमें अनुरक्त हो गया है। आप एकान्त स्थान में मुझे स्वीकार कीजिये ।

तदनन्तर श्रीराम तथा लक्ष्मण से शूर्पणखा की तदनन्तर श्रीराम तथा लक्ष्मण से शूर्पणखा की बातचीत हुई । अन्त में लक्ष्मण ने तीक्ष्ण धार वाले अर्धचन्द्राकार बाण से उसकी नाक काट ली। उसका भाई खर-दूषण बड़ा बलवान् था । उसने आकर युद्ध किया और लक्ष्मण के अस्त्र से सेनासहित मारा जाकर यमलोक को चला गया। चौदह हजार राक्षसों तथा खर-दूषण को मारा गया देख शूर्पणखा ने रावण को फटकारा और सारा समाचार बताकर वह तत्काल पुष्करतीर्थ में चली गयी। वहाँ दुष्कर तपस्या करके उसने ब्रह्माजी से वर प्राप्त किया। उस निराहार-तपस्विनी राक्षसी को दर्शन देकर सर्वज्ञ कृपासिन्धु ब्रह्माजी ने उसके मन की बात जान ली और इस प्रकार कहा ।

ब्रह्माजी बोले — वरानने ! श्रीराम दुर्लभ हैं। उन्हें तुम प्राप्त नहीं कर सकी हो। इसीलिये यह दुष्कर तपस्या कर रही हो। इसी तरह जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ धर्मात्मा लक्ष्मण को भी प्राप्त करने में तुम्हें सफलता नहीं मिली है; अतः उधर से निराश होकर तुम तपस्या में लगी हो। तुम्हारी इस तपस्या का फल तुम्हें दूसरे जन्म में मिलेगा । जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के भी ईश्वर तथा प्रकृति से भी परे हैं, उन भगवान् श्रीकृष्ण को तुम पतिरूप में प्राप्त करोगी।

ऐसा कहकर ब्रह्माजी सानन्द अपने धाम को चले गये और शूर्पणखा ने अपने शरीर को अग्नि में विसर्जित कर दिया । वही दूसरे जन्म में कुब्जा हुई। शूर्पणखा के उकसाने से मायावी राक्षसराज रावण क्रोध से काँपने लगा । उसने माया द्वारा सीता को हर लिया। सीता को आश्रम में न देख श्रीराम मूर्च्छित हो गये। तब उनके भाई लक्ष्मण ने आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा करके उन्हें सचेत किया। मुने ! तत्पश्चात् वे जानकी की खोज के लिये दिन-रात शोकार्त हो गहन वन, पर्वत, कन्दरा, नद, नदी और मुनियों के आश्रमों में घूमने लगे। सुदीर्घ काल तक अन्वेषण करने पर भी जब उन्हें जानकी का पता न चला, तब भगवान् श्रीराम ने स्वयं ही जाकर वानरराज सुग्रीव के साथ मित्रता की और वाली को बाणों से मारकर उनका राज्य सुग्रीव को दे दिया। यह सब उन्होंने अपने मित्र के प्रति की गयी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये किया था ।

वानरराज ने सीता का पता लगाने के लिये समस्त दिशाओं में दूत भेजे और लक्ष्मण सहित श्रीराम सुग्रीव के यहाँ रहने लगे। श्रीराम ने हनुमान् जी को प्रेम-पूर्वक हृदय से लगाकर उन्हें अपनी परम दुर्लभ पद-धूलि प्रदान की और सीता के लिये पहचान के रूप में श्रेष्ठ एवं सुन्दर रत्नमयी मुद्रिका उनके हाथ में देकर अपना शुभ संदेश भी प्रदान किया, जो सीता की जीवन रक्षा का कारण बना। यह सब करने के पश्चात् उन्होंने हनुमान् जी को उत्तम दक्षिण दिशा में भेजा । हनुमान् जी रुद्र की कला से प्रकट हुए थे । वे श्रीराम का संदेश ले सीता की खोज के लिये लंका को गये । वहाँ उन्होंने अशोक-वाटिका में सीताजी को देखा, जो शोक से अत्यन्त कृश दिखायी देती थीं। अमावास्या को अत्यन्त क्षीण हुई चन्द्रकला के समान वे उपवास के कारण बहुत ही दुबली- पतली हो गयी थीं और निरन्तर भक्तिपूर्वक ‘राम राम’ का जप कर रही थीं । उनके सिर के बाल जटाओं का बोझ बन गये थे । अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति दमक रही थी। वे दिन-रात श्रीराम के चरण-कमलों का ध्यान किया करती थीं। शुद्ध भूमि पर सोती थीं। शुद्ध आचार-विचार तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली पतिव्रता थीं। उनमें महालक्ष्मी के चिह्न विद्यमान थे। वे अपने तेज से प्रकाशमान थीं। सम्पूर्ण तीर्थों को पुण्य प्रदान करने वाली थीं। उनमें दृष्टिमात्र से समस्त भुवनों को पवित्र करने की क्षमता थी । उस समय रोती हुई माता जानकी को देखकर पवननन्दन हनुमान् ने प्रसन्नता-पूर्वक उनके हाथ में वह रत्नमयी मुद्रिका दे दी । धर्मात्मा वायुपुत्र सीता की दशा देखकर उनके चरण-कमलों को पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने श्रीराम का वह संदेश सुनाया, जो सीताजी के जीवन की रक्षा करने वाला था ।

हनुमान् जी बोले — मातः ! समुद्र के उस पार श्रीराम और लक्ष्मण इस राक्षसपुरी पर चढ़ाई करने के लिये तैयार खड़े हैं । बलवान् वानरराज सुग्रीव श्रीराम के मित्र हो गये हैं । श्रीराम ने वाली का वध करके अपने मित्र सुग्रीव को निष्कण्टक राज्य दिया है। साथ ही उन्हें उनकी पत्नी भी प्राप्त करा दी है, जिसे पहले वाली ने हर लिया था । सुग्रीव ने भी धर्मतः तुम्हारे उद्धार की प्रतिज्ञा की है । उनके समस्त वानर तुम्हें खोजने के लिये सब ओर गये हैं। मुझसे तुम्हारा मङ्गलमय समाचार पा कमल-नयन श्रीराम गहरे सागर पर सेतु बाँधकर शीघ्र यहाँ आ पहुँचेंगे और पापी रावण को उसके पुत्र तथा बान्धवों सहित मारकर अविलम्ब तुम्हारा उद्धार करेंगे। आज तुम्हारे प्रसाद से इस रत्नमयी लंका को मैं बेखटके जलाकर भस्म कर दूँगा । तुम मुस्कराती हुई मेरे इस पराक्रम को देखो। सुव्रते ! मैं लंका को वानरी के बच्चे की भाँति समझता हूँ। समुद्र को मूत्र के समान और भूतल को परई की भाँति देखता हूँ । सेना सहित रावण मेरी दृष्टि में चींटियों के समूह – जैसा है। मैं आधे मुहूर्त में अनायास ही उसका संहार कर सकता हूँ; परंतु इस समय श्रीराम की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये उसे नहीं मारूँगा। महाभागे ! तुम स्वस्थ एवं निश्चिन्त हो जाओ। मेरी स्वामिनि ! भय को त्याग दो ।

वानर की बात सुनकर सीता बारंबार फूट-फूटकर रोने लगीं। राम की उन पतिव्रता पत्नी ने भयभीत-सी होकर पूछा ।

सीता बोलीं — वत्स ! क्या मेरे दारुण शोक-सागर से पीड़ित श्रीराम अभी जीवित हैं ? मेरे प्राणनाथ कौसल्या-नन्दन सकुशल हैं ? जानकी के जीवन-बन्धु इस समय शोक से कृशकाय होकर कैसे हो गये हैं? मेरे प्राणों से भी बढ़कर प्रियतम कैसे आहार करते हैं ? वे क्या खाते हैं ? क्या सचमुच समुद्र के उस पार स्वयं सीतापति विद्यमान हैं ? मेरे प्रभु शोक से नष्ट न होकर क्या सचमुच लंका पर चढ़ाई के लिये तैयार खड़े हैं ? जो स्वामी के लिये सदा दुःखरूप ही रही है, उसी मुझ पापिनी सीता को क्या वे स्मरण करते हैं ? मेरे स्वामी ने मेरे लिये कितना दुःख सहन किया है ? जो पहले मिलन में व्यवधान मानकर अपने कण्ठ में हार नहीं धारण करते थे, वे ही श्रीराम आज इतने दूर हैं ! इस समय हम दोनों के बीच में सौ योजन विशाल समुद्र व्यवधान बनकर खड़ा है। क्या मैं कभी धर्म-कर्म में संलग्न, धर्मिष्ठ, नितान्त शान्त करुणासागर प्रियतम भगवान् श्रीराम को देखूँगी ? क्या पुनः प्रभु के चरण-कमलों की सेवा कर सकूँगी ? जो मूढ़ नारी पति सेवासे वञ्चित है, उसका जीवन व्यर्थ है । जो मेरे धर्मपुत्र हैं और मेरे बिना शोकसागर में मग्न हैं, मेरा अपहरण होने से जिनके अभिमान को गहरा आघात पहुँचा है, जो वीरों में श्रेष्ठ, धर्मात्मा और देवता के समान हैं; वे मेरे स्वामी के छोटे भाई देवर लक्ष्मण क्या सचमुच जीवित हैं ? क्या यह सच है कि वे सदा मेरे उद्धार के लिये संनद्ध रहते हैं ? क्या सचमुच प्राणों से भी अधिक प्रिय, धर्मात्मा, पुण्यात्मा तथा धन्यातिधन्य वत्स लक्ष्मण को मैं पुनः देखूँगी ?

मुने ! सीता का यह वचन सुन उन्हें शुभ प्रत्युत्तर दे हनुमान् ‌ने खेल-खेल में ही लंका को जलाकर भस्म कर दिया । तदनन्तर वायुपुत्र कपिवर हनुमान् पुनः जनकनन्दिनी को धीरज दे वेगपूर्वक बिना किसी परिश्रम के उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ कमलनयन श्रीरामचन्द्रजी विराजमान थे। वहाँ उन्होंने माता मिथिलेशकुमारी का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सीता का मङ्गलमय समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्रजी रो पड़े। लक्ष्मण और सुग्रीव भी फूट-फूटकर रोने लगे । नारद! उस समय महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न समस्त वानर भी रोदन करने लगे । देवर्षे ! तदनन्तर समुद्र में सेतु बाँधकर छोटे भाई और वानर सेना सहित रघुकुल-नन्दन श्रीराम ने शीघ्र ही युद्ध के लिये तैयार हो लंका पर चढ़ाई कर दी । ब्रह्मन् ! वहाँ युद्ध करके श्रीराम ने बन्धु-बान्धवों सहित रावण को मार डाला और शुभ वेला में सीता का वहाँ से उद्धार किया।

फिर सत्यपरायणा सीता को पुष्पक विमान पर बिठाकर वे क्रीड़ा-कौतुक एवं मङ्गलाचार के साथ शीघ्रतापूर्वक अयोध्या की ओर प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचकर भगवान् राम ने सीता को हृदय से लगा क्रीड़ा की। फिर सीता और राम ने तत्काल विरह-ज्वाला को त्याग दिया। भूमण्डल पर श्रीराम सातों द्वीपों के स्वामी हुए। उनके शासनकाल में सारी पृथ्वी आधि-व्याधि से रहित हो गयी । श्रीराम के दो धर्मात्मा पुत्र हुए – कुश और लव । उन दोनों के पुत्रों और पौत्रों से सूर्यवंशी क्षत्रियों का विस्तार हुआ । वत्स नारद! इस प्रकार मैंने तुमसे मङ्गलमय श्रीरामचरित्र का वर्णन किया है। यह सुख देनेवाला, मोक्ष प्रदान करने वाला, सारतत्त्व तथा भवसागर से पार होने के लिये जहाज है । (अध्याय ६२)

1. न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम् ।
न हि गह्घासमं तीर्यं म देवः केशवात्परः ॥ २१ ॥
नास्ति धर्मात्परो बन्धुर्नास्ति धर्मात्परं धनम् ।
धर्मात्प्रियः परः को वा स्पधर्मं रक्ष यत्नतः ॥ २२ ॥
स्वधर्मे रक्षिते तात शश्वत्सर्वत्र मङ्गलम् ।
यशस्यं सुप्रतिष्ठा च प्रतापः पूजनं परम् ॥ २३ ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद श्रीरामाचरितं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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