ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 63
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
तिरेसठवाँ अध्याय
कंस के द्वारा रात में देखे हुए दुःस्वप्नों का वर्णन और उससे अनिष्ट की आशङ्का

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! इधर मथुरा में राजा कंस बुरे सपने देख विशेष चिन्ता में पड़कर अत्यन्त भयभीत हो उद्विग्न हो उठा। उसकी खाने-पीने की रुचि जाती रही। उसके मन में किसी प्रकार की उत्सुकता नहीं रह गयी । वह अत्यन्त दुःखी हो पुत्र, मित्र, बन्धु-बान्धव तथा पुरोहित को सभा में बुलाकर उनसे इस प्रकार बोला ।

कंस ने कहा — मैंने आधी रात के समय जो बुरा सपना देखा है, वह बड़ा भयदायक है; इस सभा में बैठे हुए समस्त विद्वान्, बन्धु-बान्धव और पुरोहित उसे सुनें । मेरे नगर में एक अत्यन्त वृद्धा और काले शरीर वाली स्त्री नाच कर रही है । वह लाल फूलों की माला पहने, लाल चन्दन लगाये तथा लाल वस्त्र धारण किये स्वभावतः अट्टहास कर रही है। उसके एक हाथ में तीखी तलवार है और दूसरे में भयानक खप्पर । वह जीभ लपलपाती हुई बड़ी भयंकर दिखायी देती है । इसी तरह एक दूसरी काली स्त्री है, जो काले कपड़े पहने हुई है। देखने में महाशूद्री विधवा जान पड़ती है। उसके केश खुले हैं और नाक कटी हुई है । वह मेरा आलिङ्गन करना चाहती है। उसने मलिन वस्त्रखण्ड, रूखे केश तथा चूर्ण तिलक धारण कर रखे हैं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पुरोहित सत्यकजी ! मैंने देखा है कि मेरे कपाल और छाती पर ताड़ के पके हुए काले रंग के छिन्न-भिन्न फल बड़ी भारी आवाज के साथ गिर रहे हैं। एक मैला-कुचैला विकृत आकार तथा रूखे केश वाला म्लेच्छ मुझे आभूषण बनाने के निमित्त टूटी-फूटी कौड़ियाँ दे रहा है । एक पति-पुत्रवाली दिव्य सती स्त्री ने अत्यन्त रोष से भरकर बारंबार अभिशाप दे भरे हुए घड़े को फोड़ डाला है । यह भी देखा कि महान् रोष से भरा हुआ एक ब्राह्मण अत्यन्त शाप दे मुझे अपनी पहनी हुई माला, जो कुम्हलाई नहीं थी और रक्त चन्दन से चर्चित थी, दे रहा है । यह भी देखने में आया कि मेरे नगर में एक-एक क्षण अङ्गार, भस्म तथा रक्त की वर्षा हो रही है । मुझे दिखायी दिया कि वानर, कौए, कुत्ते, भालू, सूअर और गदहे विकट आकार में भयानक शब्द कर रहे हैं। सूखे काष्ठों की राशि जमा है, जिसकी कालिमा मिटी नहीं है।

अरुणोदय की बेला में मुझे बंदर और कटे हुए नख दृष्टिगोचर हुए। मेरे महल से एक सती स्त्री निकली, जो पीताम्बर धारण किये, श्वेत चन्दन का अङ्गराग लगाये, मालती की माला धारण किये रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी । उसके हाथ में क्रीड़ा-कमल शोभा पा रहा था और भालदेश सिन्दूर-बिन्दु से सुशोभित था । वह रुष्ट हो मुझे शाप देकर चली गयी। मुझे अपने नगर में कुछ ऐसे पुरुष प्रवेश करते दिखायी दिये, जिनके हाथों में फंदा था। उनके केश खुले हुए थे । वे अत्यन्त रूखे और भयंकर जान पड़ते थे । घर-घर में एक नंगी स्त्री मन्द मुसकान के साथ नाचती दिखायी देती है, जिसके केश खुले हैं और आकार बड़ा विकट है। एक नंगी विधवा महाशूद्री, जिसकी नाक कटी हुई है और जो अत्यन्त भयंकर है, मेरे अङ्गों तेल लगा रही है। अतिशय प्रातः काल में मैंने कुछ ऐसी विचित्र स्त्रियाँ देखीं, जो बुझे हुए अङ्गार (कोयले) लिये हुए थीं । उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था तथा वे सम्पूर्ण अङ्गों में भस्म लगाये हुए मुस्करा रही थीं। सपने में मुझे नृत्य-गीत से मनोहर लगने वाला विवाहोत्सव दिखायी दिया। कुछ ऐसे पुरुष भी दृष्टिगोचर हुए, जिनके कपड़े और केश भी लाल थे। एक नंगा पुरुष दीखा, जो देखने में भयंकर था, जो कभी रक्त-वमन करता, कभी नाचता, कभी दौड़ता और कभी सो जाता था। उसके मुख पर सदा मुस्कराहट दिखायी देती थी । बन्धुओ ! एक ही समय आकाश में चन्द्रमा और सूर्य दोनों के मण्डल पर सर्वग्रास ग्रहण लगा दृष्टिगोचर हुआ है।

पुरोहितजी ! मैंने स्वप्न में उल्कापात, धूमकेतु, भूकम्प, राष्ट्र-विप्लव, झंझावात और महान् उत्पात देखा है । वायु के वेग से वृक्ष झोंके खा रहे थे। उनकी डालियाँ टूट-टूटकर गिर रही थीं । पर्वत भी भूमि पर ढहे दिखायी देते थे । घर-घर में ऊँचे कद का एक नंगा पुरुष नाच रहा था, जिसका सिर कटा हुआ था । उस भयानक पुरुष के हाथ में नरमुण्डों की माला दिखायी देती थी । सारे आश्रम जलकर अङ्गार के भस्म से भर गये थे और सब लोग चारों ओर हाहाकार करते दिखायी देते थे ।

नारद! यों कहकर राजा कंस सभा में चुप हो गया। वह स्वप्न सुनकर सब भाई-बन्धु सिर नीचा किये लंबी साँस खींचने लगे। अपने यजमान कंसके शीघ्र होने वाले विनाश को जानकर पुरोहित सत्यक तत्काल अचेत से हो गये । राजभवन की स्त्रियाँ तथा कंस के माता-पिता शोक से रोने लगे। सबको यह विश्वास हो गया कि अब शीघ्र ही कंस का विनाशकाल स्वयं उपस्थित होने वाला है ।  (अध्याय ६३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद कंसदुःखप्न-कथनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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