ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 70
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
सतरवाँ अध्याय
अक्रूरजी के शुभ स्वप्न तथा मङ्गलसूचक शकुन का वर्णन, उनका रासमण्डल और वृन्दावन का दर्शन करते हुए नन्दभवन में जाना, नन्द द्वारा उनका स्वागत-सत्कार, उन्हें श्रीकृष्ण के विविध रूपों में दर्शन, उनके द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति तथा श्रीकृष्ण को मथुरा चलने की सलाह देना, गोपियों द्वारा अक्रूर का विरोध और उनके रथ का भञ्जन, श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना और आकाश से दिव्य रथ का आगमन

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! कंस से व्रज में जाने की आज्ञा पाकर अक्रूरजी अपने घर गये और उत्तम मिष्टान्न खाकर शय्या पर सोये । उन्होंने सुवासित जल पीकर कपूर मिला हुआ पान खाया और सुखपूर्वक निद्रा ली । तदनन्तर रात के पिछले पहर में जब कि बाजे आदि की ध्वनि नहीं होती थी; उन्होंने एक सुन्दर सपना देखा । ऐसा सपना, जिसकी पुराणों और श्रुतियों में प्रशंसा की गयी है। अक्रूरजी नीरोग थे। उनकी शिखा बँधी हुई थी। उन्होंने दो वस्त्र धारण कर रखे थे। वे सुन्दर शय्या पर सोये थे। उनके मन में उत्तम स्नेह उमड़ रहा था और वे चिन्ता तथा शोक से रहित थे ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मुने ! उन्होंने स्वप्न में पहले एक ब्राह्मण-बालक को देखा, जिसकी किशोर अवस्था और अङ्गकान्ति श्याम थी। वह दो भुजाओं से विभूषित था। उसके हाथों में मुरली थी। वह पीत वस्त्र धारण करके वनमाला से सुशोभित था । उसके सारे अङ्ग चन्दन से चर्चित थे । मालती की माला उसकी शोभा बढ़ाती थी। वह भूषण के योग्य और उत्तम मणिरत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित था। उसके मस्तक पर मोरपंख का मुकुट शोभा दे रहा था। मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही थी और नेत्र कमलों की शोभा को लज्जित कर रहे थे। इसके बाद उन्होंने पति और पुत्रों से युक्त, पीताम्बरधारिणी तथा रत्नमय आभूषणों से विभूषित एक सुन्दरी सती को देखा, जिसके एक हाथ में जलता दीपक था और दूसरे में श्वेत धान्य । उसका मुख शरद् ऋतु के चन्द्रमा को तिरस्कृत कर रहा था। वह सुन्दरी सती मुस्कराती हुई वर देने को उद्यत थी। इसके बाद उन्हें शुभाशीर्वाद देते हुए एक ब्राह्मण, श्वेत कमल, राजहंस, अश्व तथा सरोवर के दर्शन हुए। उन्होंने फल और फूलों से लदे हुए आम, नीम, नारियल, विशाल आक और केले के वृक्ष का सुन्दर एवं मनोहर चित्र भी देखा। उन्हें यह भी दिखायी दिया कि सफेद साँप मुझे काट रहा है और मैं पर्वत पर खड़ा हूँ । उन्होंने कभी अपने को वृक्ष पर, कभी हाथी पर, कभी नाव पर और कभी घोड़े की पीठ पर बैठे देखा । कभी देखा कि मैं वीणा बजा रहा हूँ और खीर खा रहा हूँ। कमल के पत्ते पर परोसा हुआ प्रिय अन्न दही, दूध के साथ ले रहा हूँ। कभी देखा कि मेरे अङ्गों में कीड़े और विष्ठा लग गये हैं और मैं रोता-रोता मोहित हो रहा हूँ। कभी ‘ उन्हें अपने हाथों में श्वेत धान्य और श्वेत पुष्प दिखायी दिया तथा कभी उन्होंने अपने-आपको चन्दन से चर्चित देखा। कभी अपने-आपको अट्टालिका पर और कभी समुद्र में देखा । शरीर में रक्त लगा है; अङ्ग-अङ्ग छिन्न-भिन्न एवं क्षत- विक्षत हो रहा है और उसमें मेद तथा पीब लिपटे हुए हैं – यह बात देखने में आयी । तदनन्तर चाँदी, सोना, उज्ज्वल मणिरत्न, मुक्ता, माणिक्य, भरे हुए कलश का जल, बछड़ा सहित गौ, साँड़, मोर, तोता, सारस, हंस, चील, खंजरीट, ताम्बूल, पुष्पमाला, प्रज्वलित अग्नि, देवपूजा, पार्वती की प्रतिमा, श्रीकृष्ण की प्रतिमा, शिवलिङ्ग, ब्राह्मण- बालिका, सामान्य बालिका, फली और पकी हुई खेती, देवस्थान, सिंह, बाघ, गुरु और देवताके दर्शन हुए।

ऐसा स्वप्न देख प्रातः काल उठकर उन्होंने इच्छानुसार आह्निक कृत्यों का सम्पादन किया । इसके बाद उद्धव से स्वप्न का सारा वृत्तान्त कहा और उनकी आज्ञा ले गुरु एवं देवता की पूजा करके मन-ही-मन श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए वहाँ से यात्रा की । नारद! रास्ते में भी उन्हें ऐसे ही मङ्गल-योग्य, शुभदायक, मनोवाञ्छित फल देने वाले, रमणीय तथा मङ्गलसूचक शकुन अपने सामने दृष्टिगोचर हुए। बायीं तरफ उन्हें मुर्दा, सियारिन, भरा घड़ा, नेवला, नीलकण्ठ, दिव्याभूषणों से विभूषित पति-पुत्रवती साध्वी स्त्री, श्वेत पुष्प, श्वेत माला, श्वेत धान्य तथा खञ्जरीट के शुभ दर्शन हुए। दाहिनी ओर उन्होंने जलती आग, ब्राह्मण, वृषभ, हाथी, बछड़े सहित गाय, श्वेत अश्व, राजहंस, वेश्या, पुष्पमाला, पताका, दही, खीर, मणि, सुवर्ण, चाँदी, मुक्ता, माणिक्य, तुरंत का कटा हुआ मांस, चन्दन, मधु, घी, कृष्णसार मृग, फल, लावा, सरसों, दर्पण, विचित्र विमान, सुन्दर दीप्तिमती प्रतिमा, श्वेत कमल, कमलवन, शङ्ख, चील, चकोर, बिलाव, पर्वत, बादल, मोर, तोता और सारस के दर्शन किये तथा शङ्ख, कोयल एवं वाद्यों की मङ्गलमयी ध्वनि सुनी । श्रीकृष्ण-महिमा के विचित्र गान, हरिकीर्तन और जय-जयकार के शब्द भी उनके कानों में पड़े।

ऐसे शुभ शकुन देख-सुनकर अक्रूर का हृदय हर्ष से खिल उठा। उन्होंने श्रीहरि का स्मरण करके पुण्यमय वृन्दावन में प्रवेश किया। सामने देखा रमणीय रासमण्डल शोभा पाता है, जो मन को अभीष्ट है। चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, पुष्प तथा चन्दन का स्पर्श करके बहने वाली वायु उस स्थान को सुवासित कर रही है। केले के खम्भे तथा मङ्गल-कलश रासमण्डल की शोभा बढ़ा रहे हैं। रेशमी सूत में गुँथे हुए आम्रपल्लवों की सुन्दर बन्दनवारें भी इस रम्य प्रदेश की श्रीवृद्धि कर रही हैं । सारा शोभनीय रासमण्डल सब ओर से पद्मरागमणि द्वारा निर्मित है तथा तीन करोड़ रत्नमय मन्दिर एवं लाखों रमणीय कुञ्ज-कुटीर उसकी शोभा बढ़ाते हैं । रासमण्डल तथा वृन्दावन की शोभा देखकर जब अक्रूर कुछ दूर आगे गये तो उन्हें अपने समक्ष नन्दरायजी का परम उत्तम सुरम्य व्रज दिखायी दिया, जो विष्णु के निवास स्थान – वैकुण्ठधाम के समान सुशोभित था । उसमें रत्नों की सीढ़ियाँ लगी थीं। रत्नों के बने हुए खम्भों से वह बड़ा दीप्तिमान् दिखायी देता था । भाँति-भाँति के विचित्र चित्र उसका सौन्दर्य बढ़ा रहे थे । श्रेष्ठ रत्नों के मण्डलाकार घेरे से वह घिरा हुआ था । विश्वकर्मा द्वारा रचित वह नन्दभवन मणियों के सारभाग से खचित (जड़ा हुआ ) था । दरवाजे पर जो मार्ग दिखायी दिया, उसके द्वारा अक्रूर ने राजद्वार के भीतर प्रवेश किया। वह द्वार पताकाओं तथा रत्नों की झालरों से सजा था। मुक्ता और माणिक्य से विभूषित था । रत्नों के दर्पण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे तथा रत्नों से जटित होने के कारण उस द्वार की विचित्र शोभा होती थी । वहाँ रत्नमयी वीथियों की रचना की गयी थी तथा मङ्गल-कलशों से सुसज्जित वह द्वार मङ्गलमय दिखायी देता था ।

अक्रूर का आगमन सुनकर नन्दजी बड़े प्रसन्न हुए और बलराम तथा श्रीकृष्ण को साथ ले उनकी अगवानी के लिये गये। नन्दजी के साथ वृषभानु आदि गोप भी थे। नर्तकी, भरा हुआ घड़ा, गजराज तथा श्वेत धान्य को आगे करके काली गौ, मधुपर्क, पाद्य तथा रत्नमय आसन आदि साथ ले नन्दजी विनीत एवं शान्तभाव से मुस्कराते हुए आगे बढ़े। वे गोपगणों तथा बालकों सहित आनन्दमग्न हो रहे थे। महाभाग अक्रूर को देख नन्दजी ने तत्काल ही उन्हें हृदय से लगा लिया । सब गोपों ने मस्तक झुकाकर अक्रूर को प्रणाम किया और आशीर्वाद लिये। मुने! उन सबका परस्पर संयोग बड़ा ही गुणवान् हुआ । अक्रूर ने बारी-बारी से श्रीकृष्ण और बलराम को गोद में उठा लिया तथा उनके गाल चूमे। उस समय उनका सारा अङ्ग पुलकित था । नेत्रों से अश्रुधारा झर रही थी । हृदय में आह्लाद उमड़ा आ रहा था। अक्रूर कृतार्थ हो गये। उनका मनोरथ सिद्ध हो गया।

उन्होंने दो भुजाओं से सुशोभित श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की ओर एक क्षण तक देखा, जो पीताम्बर धारण किये मालती की माला से विभूषित थे। उनके सारे अङ्ग चन्दन से चर्चित थे । उन्होंने हाथ में वंशी ले रखी थी। ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवता तथा सनकादि मुनीन्द्र जिनकी स्तुति करते हैं और गोप कन्याएँ जिनकी ओर सदा निहारती रहती हैं; उन परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण को अक्रूर ने एक क्षण तक अपनी गोद में देखा। वे मुस्करा रहे थे । तत्पश्चात् उन्होंने चतुर्भुज विष्णु के रूप में उनको सामने खड़े देखा । लक्ष्मी और सरस्वती – ये दो देवियाँ उनके अगल- बगल में खड़ी थीं। वे वनमाला से विभूषित थे। सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षद उनकी सेवामें उपस्थित थे। सिद्धों के समुदाय भक्तिभाव से नम्र हो उन परात्पर प्रभु की सेवा कर रहे थे। फिर, दूसरे ही क्षण अक्रूर ने श्रीकृष्ण को महादेवजी के रूप में देखा। उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे । अङ्गकान्ति शुद्ध स्फटिक मणि के समान उज्ज्वल थी । नागराज के आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते थे। दिशाएँ ही उनके लिये वस्त्र का काम देती थीं। योगियों में श्रेष्ठ वे परब्रह्म शिव अपने अङ्गों में भस्म रमाये, सिर पर जटा धारण किये और हाथ में जप – माला लिये ध्यान में स्थित थे । तदनन्तर एक ही क्षण में श्रीकृष्ण उन्हें ध्यानपरायण एवं मनीषियों में श्रेष्ठ चतुर्भुज ब्रह्मा के रूप में दृष्टिगोचर हुए। फिर कभी धर्म, कभी शेष, कभी सूर्य, कभी सनातन ज्योति: स्वरूप और कभी कोटि-कोटि कन्दर्पनिन्दक, परम शोभासम्पन्न एवं कामिनियों के लिये कमनीय प्रेमास्पद के रूप में दिखायी दिये। इस रूप में नन्दनन्दन का दर्शन करके अक्रूर ने उन्हें छाती से लगा लिया ।

नारद! नन्दजी के दिये हुए रमणीय रत्नसिंहासन पर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को बिठाकर भक्तिभाव से उनकी परिक्रमा करके पुलकित – शरीर हो अक्रूर ने पृथ्वी पर माथा टेक उन्हें प्रणाम किया और स्तुति प्रारम्भ की।

॥ अक्रूर कृत श्रीकृष्ण स्तोत्र ॥

॥ अक्रूर उवाच ॥
नमः कारणरूपाय परमात्मस्वरूपिणे
सर्वेषामपि विश्वानामीश्वराय नमो नमः ।
पराय प्रकृतेरीश परात्परतराय च ॥ ५७ ॥
निर्गुणाय निरीहाय नीरूपाय स्वरूपिणे ।
सर्वदेवस्वरूपाय सर्वदेवेश्वराय च ॥ ५८ ॥
सर्वदेवाधिदेवाय विश्वादिभूतरूपिणे ।
असंश्येषु च विश्वेषु ब्रह्मविष्णुशिवात्मक ॥ ५९ ॥
स्वरूपायाऽऽदिबीजाय तदीशविश्वरूपिणे ।
नमो गोपाङ्गनेशाय गणेशेश्वररूपिणे ॥ ६० ॥
नमः सुरगणेशाय राधेशाय नमो नमः ।
राधारमणरूपाय राधारूपधराय च ॥ ६१ ॥
राधाराध्याय राधायाः प्राणाधिकतराय च ।
राधासाध्याय राधाधिदेवप्रियतमाय च ॥ ६२ ॥
राधाप्राणाधिदेवाय विश्वरूपाय ते नमः ।
वेदस्तुतात्मवेदज्ञरूपिणे सर्ववेदिने ॥ ६३ ॥
वैदाधिष्ठातृदेवाय वेदबीजाय ते नमः ।
यस्य लोमसु विश्वानि चासंख्यानि च नित्यशः ॥ ६४ ॥
महद्विष्णोरीश्वराय विश्वेशाय नमो नमः ।
स्वयं प्रकृतिरूपाय प्राकृताय नमो ॥ ६५ ॥
प्रकृतीश्वररूपाय प्रधानपुरूषाय च ।

अक्रूर बोले — जो सबके कारण, परमात्मस्वरूप तथा सम्पूर्ण विश्वके ईश्वर हैं, उन श्रीकृष्ण को बारंबार नमस्कार है। सर्वेश्वर ! आप प्रकृति से परे, परात्पर, निर्गुण, निरीह, निराकार, साकार, सर्वदेवस्वरूप, सर्वदेवेश्वर, सम्पूर्ण देवताओं के भी अधिदेवता तथा विश्व के आदिकारण हैं; आपको नमस्कार है । असंख्य ब्रह्माण्डों में आप ही ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप में निवास करते हैं। आप ही सबके आदिकारण हैं । विश्वेश्वर और विश्व दोनों आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। गोपाङ्गनाओं के प्राणवल्लभ ! आपको नमस्कार है। गणेश और ईश्वर आपके ही रूप हैं । आपको नमस्कार है । आप देवगणों के स्वामी तथा श्रीराधा के प्राणवल्लभ हैं; आपको बारंबार नमस्कार है । आप ही राधारमण तथा राधा का रूप धारण करते हैं । राधा के आराध्य देवता तथा राधिका के प्राणाधिक प्रियतम भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। राधा के वश में रहनेवाले, राधा के अधिदेवता और राधा के प्रियतम ! आपको नमस्कार है। आप राधा के प्राणों के अधिष्ठाता देवता हैं तथा सम्पूर्ण विश्व आपका ही रूप है; आपको नमस्कार है। वेदों ने जिनकी स्तुति की है, वे परमात्मा तथा वेदज्ञ विद्वान् भी आप ही हैं। वेदों के ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण आप वेदी कहे गये हैं; आपको नमस्कार है । वेदों के अधिष्ठाता देवता और बीज भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। जिनके रोमकूपों में असंख्य ब्रह्माण्ड नित्य निवास करते हैं, उन महाविष्णु के ईश्वर आप विश्वेश्वर को बारंबार नमस्कार है । आप स्वयं ही प्रकृतिरूप और प्राकृत पदार्थ हैं । प्रकृति के ईश्वर तथा प्रधान पुरुष भी आप ही हैं आपको बारंबार नमस्कार है ।

इस प्रकार स्तुति करके अक्रूरजी नन्दरायजी के सभा-भवन में मूर्च्छित हो गये और सहसा भूमि पर गिर पड़े। उसी अवस्था में पुनः उन्होंने अपने हृदय में और बाहर भी सब ओर उन श्यामसुन्दर सर्वेश्वर परमात्मा को देखा। वे ही विश्व में व्याप्त थे और वे ही विश्वरूप में प्रकट हुए थे ।

नारद! अक्रूरजी को मूर्च्छित हुआ देख नन्दजी ने आदरपूर्वक उठाया और रमणीय रत्नसिंहासन पर बिठा दिया । तत्पश्चात् उन्होंने अक्रूर से सारा वृत्तान्त पूछा और बारंबार कुशलप्रश्न करते हुए उन्हें मिष्टान्न भोजन कराया। अक्रूर ने कंस का सारा वृत्तान्त कह सुनाया और यह भी कहा कि अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाने के लिये बलराम और श्रीकृष्ण को वहाँ अवश्य चलना चाहिये । जो अक्रूर द्वारा किये गये इस स्तोत्र का एकाग्रचित्त होकर पाठ करता है, वह पुत्रहीन हो तो पुत्र पाता है और भार्याहीन हो तो उसे प्रिय भार्या की उपलब्धि होती है । निर्धन को धन, भूमिहीन को उर्वरा भूमि, संतानहीन को संतान और प्रतिष्ठारहित को प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है और जो यशस्वी नहीं है, वह भी अनायास ही महान् यश प्राप्त कर लेता है ।

तदनन्तर अक्रूरजी रात के समय अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो रमणीय चम्पा की शय्या पर श्रीकृष्ण को छाती से लगाकर सोये । प्रातःकाल सहसा उठकर परम उत्तम आह्निक कृत्य का सम्पादन करके उन्होंने जगदीश्वर श्रीकृष्ण तथा बलराम को अपने रथ पर बिठाया। पाँच प्रकार के गव्य (दूध, दही, माखन, घी और छाँछ) तथा नाना प्रकार के परम दुर्लभ द्रव्य रखवाये। वृषभानु, नन्द, सुनन्द तथा चन्द्रभानु गोप को भी साथ ले लिया। उस समय व्रजराज नन्द गोप ने आनन्दमग्न हो नाना प्रकार के वाद्य – मृदङ्ग, मुरज (ढोल), पटह, पणव, ढक्का, दुन्दुभि, आनक, सज्जा, संनहनी, कांस्य – पट्ट (झाँझ), मर्दल और मण्डवी आदि बजवाये । बाजों की ध्वनि और बलराम तथा श्रीकृष्ण के जाने का समाचार सुन श्रीकृष्ण को रथ पर बैठे देख गोपियाँ प्रणय-कोप से पीड़ित हो उनके पास आ पहुँचीं।

ब्रह्मन् ! श्रीकृष्ण के मना करने पर भी श्रीराधा की प्रेरणा से उन गोपकिशोरियों ने पैरों के आघात से राजा कंस के उस रथ को अनायास ही तोड़ डाला। उस पर बैठे हुए सब गोप हाहाकार करने लगे और बलवती गोपियाँ श्रीकृष्ण को गोद में लेकर चली गयीं। किसी गोपी ने क्रोधपूर्वक क्रूर अक्रूर को बहुत फटकारा। कुछ गोपियाँ अक्रूर को वस्त्र से बाँधकर वहाँ से चल दीं। बेचारे अक्रूर को बड़ा कष्ट प्राप्त हुआ । यह देख माधव राधा के निकट गये और पुनः उन्हें समझाने लगे । उन्होंने आध्यात्मिक योग द्वारा विनय और आद रके साथ अक्रूर को भी समझाया और श्रीराधा को आश्वासन दिया। इसी समय आकाश से एक दिव्य रथ भूतल पर आया, जो मन्त्र से प्रेरित होकर चलता था। वह विचित्र वस्त्रों से सुशोभित था । श्रीहरि ने अपने सामने खड़े हुए उस रथ को देखा। उसमें श्रेष्ठ मणिरत्न जड़े हुए थे । वह रथ विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया था । उसे देखकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण माता के घर में आये । वहाँ भाई सहित भगवान् माधव, जिनके चरणों की वन्दना, मुनीन्द्र, देवेन्द्र, ब्रह्मा, शिव और शेष आदि करते हैं, खा-पीकर सुख से सोये । (अध्याय ७०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद गोपीविषयो नाम सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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