March 5, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 71 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) इकहतरवाँ अध्याय शुभ लग्न में यात्रासम्बन्धी मङ्गलकृत्य करके श्रीकृष्ण का मथुरापुरी को प्रस्थान श्रीनारायण कहते हैं — नारद! जब वायु से सुवासित, चन्दननिर्मित और फूलों से बिछी हुई शय्या पर राधिकाजी सो गयीं तथा गोपिकाएँ भी गाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयीं, तब रात में तीसरे पहर के बीत जाने पर शुभ बेला में शुभ नक्षत्र से चन्द्रमा का संयोग होने पर अमृतयोग से युक्त लग्न आया । लग्न के स्वामी शुभ ग्रहों में से कोई एक अथवा बुध थे। उस लग्न पर शुभ ग्रहों की दृष्टि थी । पापग्रहों के संयोग से जो दुर्योग या दोष आदि प्राप्त होते हैं, उनका उस लग्न में सर्वथा अभाव था । ऐसे समय में श्रीहरि ने स्वयं उठकर माता यशोदा को जगाया, मङ्गल-कृत्य करवाया और बन्धुजनों को आश्वासन दिया। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जो विश्व-ब्रह्माण्ड के स्वतन्त्र कर्ता और स्वतन्त्र पालक हैं, उन्हीं भगवान् ने राधिकाजी के भय से भीत-से होकर बाजा बजाने की मनाही कर दी। वे दोनों पैर धोकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करके चन्दन आदि से लिपे हुए शुद्ध स्थान में बैठे। उनके वामभाग में चन्दन आदि से सुसज्जित तथा फल और पल्लव से युक्त भरा हुआ कलश रखा गया । दाहिने भाग में प्रज्वलित अग्नि तथा ब्राह्मणदेवता उपस्थित हुए। सामने पति-पुत्रवती सती साध्वी स्त्री, प्रज्वलित दीपक और दर्पण प्रस्तुत किये गये । पुरोहितजी ने सुस्निग्ध दूर्वाकाण्ड, श्वेत पुष्प तथा शुभसूचक श्वेत धान्य श्यामसुन्दर के हाथ में दिये । उन सबको लेकर उन्होंने मस्तक पर रख लिया । तत्पश्चात् श्रीहरि ने घी, मधु, चाँदी, सोना और दही के दर्शन किये। ललाट में चन्दन का लेप करके गले में पुष्पमाला धारण की। गुरुजनों तथा ब्राह्मण के चरणों में भक्तिभाव से मस्तक झुकाया और शङ्खध्वनि, वेदपाठ, संगीत, मङ्गलाष्टक एवं ब्राह्मण के मनोहर आशीर्वाद बड़े आदर के साथ सुने । सर्वत्र मङ्गल प्रदान करने वाले अपने ही मङ्गलमय स्वरूप का ध्यान करके उन्होंने परम सुन्दर दाहिने पैर को आगे बढ़ाया। नासिका के वामभाग से वायु को भीतर भरकर भगवान् ने मध्यमा अंगुलि से वामरन्ध्र को दबाया और नाक के दाहिने छिद्र से उस वायु को बाहर निकाल दिया। तत्पश्चात् नन्दनन्दन नन्द के श्रेष्ठ प्राङ्गण में सानन्द आये । वे परमानन्दमय, नित्यानन्दस्वरूप तथा सनातन हैं । नित्य-अनित्य सब उन्हीं के रूप हैं। वे नित्य-बीज-स्वरूप, नित्यविग्रह, नित्याङ्गभूत, नित्येश तथा नित्यकृत्यविशारद हैं । उनके रूप, यौवन, वेश-भूषा तथा किशोर-अवस्था – सभी नित्य नूतन हैं। उनके सम्भाषण, प्रेम-प्राप्ति, सौभाग्य, सुधा-रस से सराबोर मीठे वचन, भोजन तथा पद भी नित्य नवीन हैं । इस अत्यन्त रमणीय प्राङ्गण में खड़े-खड़े मायायुक्त मायेश्वर अत्यन्त स्नेह में डूब गये । तत्पश्चात् वे वहाँ से जाने को उद्यत हुए। केले के सुन्दर खम्भों और रेशमी डोरे में गुँथे हुए आम्र-पल्लवों की बन्दनवारों से उस आँगन को सजाया गया था। विश्वकर्मा ने उसकी फर्श में पद्मराग मणि जड़ दी थी । कस्तूरी, केसर और चन्दन से उसका संस्कार किया गया था । अक्रूर तथा बान्धवजनोंसहित श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ थोड़ी देर खड़े रहे । यशोदा ने बायीं ओर से और आनन्दयुक्त नन्द ने दाहिनी ओर से आकर अपने लाला को हृदय से लगा लिया । बन्धु-बान्धवों ने उनसे प्रेमभरी बातें कीं तथा मैया और बाबा ने लाला का मुँह चूमा । (अध्याय ७१) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद यात्रामङ्गलं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related