ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 73
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
तिहतरवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण का नन्द को अपना स्वरूप और प्रभाव बताना; गोलोक, रासमण्डल और राधा-सदन का वर्णन; श्रीराधा के महत्त्व का प्रतिपादन तथा उनके साथ अपने नित्य सम्बन्ध का कथन और दिव्य विभूतियों का वर्णन

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर शोक सेआतुर और पुत्र-वियोग से कातर हो फूट-फूटकर रोते हुए चेष्टा-शून्य पिता नन्द को श्रीकृष्ण और बलराम ने आध्यात्मिक आदि दिव्य योगों द्वारा सानन्द समझाना आरम्भ किया ।

श्रीभगवान् बोले — बाबा ! प्रसन्नतापूर्वक मेरी बात सुनो। शोक छोड़ो और हर्ष को हृदय में स्थान दो। मैं जो ज्ञान देता हूँ, इसे ग्रहण करो । यह वही ज्ञान है, जिसे पूर्वकाल में मैंने पुष्कर में ब्रह्मा, शेष, गणेश, महेश (शिव), दिनेश (सूर्य), मुनीश और योगीश को प्रदान किया था । यहाँ कौन किसका पुत्र, कौन किसका पिता और कौन किसकी माता है ? यह पुत्र आदि का सम्बन्ध किस कारण से है ? जीव अपने पूर्वकृत कर्म से प्रेरित हो इस संसार में आते और परलोक में जाते हैं । कर्म के अनुसार ही उनका विभिन्न स्थानों में जन्म होता है । कोई जीव अपने शुभकर्म से प्रेरित हो योगीन्द्रों के कुल में जन्म लेता है और कोई राज-रानियों के पेट से उत्पन्न होता है। कोई ब्राह्मणी, क्षत्रिय, वैश्या अथवा शूद्राओं के गर्भ से जन्म ग्रहण करता है; किसी-किसी की उत्पत्ति पशु, पक्षी आदि तिर्यक् योनियों में होती है । सब लोग मेरी ही माया से विषयों में आनन्द लेते हैं और देह-त्यागकाल में विषाद करते हैं । बान्धवों के साथ बिछोह होने पर भी लोगों को बड़ा कष्ट होता है । संतान, भूमि और धन आदि का विच्छेद मरण से भी अधिक कष्टदायक प्रतीत होता है । मूढ़ मनुष्य ही सदा इस तरह के शोक से ग्रस्त होता है; विद्वान् पुरुष नहीं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

जो मेरा भक्त है, मेरे भजन में लगा है, मेरा यजन करता है, इन्द्रियों को वश में रखता है, मेरे मन्त्र का उपासक है और निरन्तर मेरी सेवामें संलग्न रहता है; वह परम पवित्र माना गया है । मेरे भय से ही यह वायु चलती है, सूर्य और चन्द्रमा प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं, इन्द्र भिन्न-भिन्न समयों में वर्षा करते हैं, आग जलाती है और मृत्यु सब जीवों में विचरती है । मेरा भय मानकर ही वृक्ष समयानुसार पुष्प और फल धारण करता है। वायु बिना किसी आधार के चलती है । वायु के आधार पर कच्छप, कच्छप के आधार पर शेष और शेष के आधार पर पर्वत टिके हुए हैं। पंक्तिबद्ध विद्यमान सात पाताल पर्वतों के सहारे स्थित हैं। पातालों से जल सुस्थिर है और जल के ऊपर पृथ्वी टिकी हुई है। पृथ्वी सात स्वर्गों की आधारभूमि है। ज्योतिश्चक्र अथवा नक्षत्रमण्डल ग्रहों के आधार पर स्थित हैं; परंतु वैकुण्ठ बिना किसी आधार के ही प्रतिष्ठित है । वह समस्त ब्रह्माण्डों से परे तथा श्रेष्ठ है। उससे भी परे गोलोकधाम है।

वह वैकुण्ठधाम से पचास करोड़ योजन ऊपर बिना आधार के ही स्थित है । उसका निर्माण दिव्य चिन्मय रत्नों के सारतत्त्व से हुआ है। उसके सात दरवाजे हैं। सात सार हैं । वह सात खाइयों से घिरा हुआ है। उसके चारों ओर लाखों परकोटे हैं। वहाँ विरजा नदी बहती है । वह लोक मनोहर रत्नमय पर्वत शतशृङ्ग से आवेष्टित है । शतशृङ्ग का एक-एक उज्ज्वल शिखर दस-दस हजार योजन लंबा-चौड़ा है। वह पर्वत करोड़ों योजन ऊँचा है। उसकी लंबाई उससे सौगुनी है और चौड़ाई एक लाख योजन है । उसी धाम में बहुमूल्य दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित चन्द्रमण्डल के समान गोलाकार रासमण्डल है; जिसका विस्तार दस हजार योजन है । वह फूलों से लदे हुए पारिजात-वन से, एक सहस्र कल्पवृक्षों से और सैकड़ों पुष्पोद्यानों से घिरा हुआ है । वे पुष्पोद्यान नाना प्रकार के पुष्पसम्बन्धी वृक्षों से युक्त होने के कारण फूलों से भरे रहते हैं; अतएव अत्यन्त मनोहर प्रतीत होते हैं । उस रासमण्डल में तीन करोड़ रत्ननिर्मित भवन हैं, जिनकी रक्षा में कई लाख गोपियाँ नियुक्त हैं। वहाँ रत्नमय प्रदीप प्रकाश देते हैं । प्रत्येक भवन में रत्ननिर्मित शय्या बिछी हुई है । नाना प्रकार की भोगसामग्री संचित है । रासमण्डल के सब ओर मधु की सैकड़ों बावलियाँ हैं । वहाँ अमृत की भी बावलियाँ हैं और इच्छानुसार भोग के सभी साधन उपलब्ध हैं । गोलोक में कितने गृह हैं, यह कौन बता सकता है ?

वहाँ केवल राधा का जो सुन्दर, रमणीय एवं उत्तम निवास-मन्दिर है, वह बहुमूल्य रत्ननिर्मित तीन करोड़ भव्य भवनों से शोभित है। जिनकी कीमत नहीं आँकी जा सकती, ऐसे रत्नों द्वारा निर्मित चमकीले खम्भों की पंक्तियाँ उस राधाभवन को प्रकाशित करती हैं। वह भवन नाना प्रकार के विचित्र चित्रों द्वारा चित्रित है। अनेक श्वेत चामर उनकी शोभा बढ़ाते हैं । माणिक्य और मोतियों से जटित, हीरे के हारों से अलंकृत तथा रत्नमय प्रदीपों से प्रकाशित राधामन्दिर रत्नों की बनी हुई सीढ़ियों से अत्यन्त सुन्दर जान पड़ता है। बहुमूल्य रत्नों के पात्र और शय्याओं की श्रेणियाँ उस भवन की शोभा बढ़ाती हैं। तीन खाइयों, तीन दुर्गम द्वारों और सोलह कक्षाओं से युक्त राधाभवन के प्रत्येक द्वार पर और भीतर नियुक्त हुई सोलह लाख गोपियाँ इधर-उधर घूमती रहती हैं। उन सबके शरीर पर अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र शोभा पाते हैं । वे रत्नमय अलंकारों से अलंकृत हैं। उनकी अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान उद्भासित होती है । वे शत-शत चन्द्रमाओं की मनोरम आभा से सम्पन्न हैं। राधिका के किंकर भी ऐसे ही और इतने ही हैं। इन सबसे भरा हुआ उस भवन का अन्तःपुर बड़ा सुन्दर लगता है। उस भवन का आँगन बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित है। वह राधाभवन अत्यन्त मनोहर, अमूल्य रत्नमय खम्भों के समुदाय से सुशोभित, फल-पल्लवसंयुक्त, रत्ननिर्मित मङ्गल-कलशों से अलंकृत और रत्नमयी वेदिकाओं से विभूषित है । सुन्दर एवं बहुमूल्य रत्नमय दर्पण उसकी शोभा बढ़ाते हैं । अमूल्य रत्नों से निर्मित वह सुन्दर सदन सब भवनों में श्रेष्ठ है ।

वहाँ श्रीराधारानी रत्नमय सिंहासनपर विराजमान होती हैं। लाखों गोपियाँ उनकी सेवामें रहती हैं । वे करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं की शोभा से सम्पन्न हैं । श्वेत चम्पा के समान उनकी गौर कान्ति है । वे बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित आभूषणों से विभूषित हैं । अमूल्य रत्नजटित वस्त्र पहने, बायें हाथ में रत्नमय दर्पण तथा दाहिने में सुन्दर रत्नमय कमल धारण करती हैं। उनके ललाट में अनार के फूल की भाँति लाल और अत्यन्त मनोहर सिन्दूर शोभित होता है । उसके साथ ही कस्तूरी और चन्दन के सुन्दर बिन्दु भी भालदेश का सौन्दर्य बढ़ाते हैं । वे सिर पर बालों का चूड़ा धारण करती हैं, जो मालती की माला से अलंकृत होता है । ऐसी राधा गोलोक में गोपियों द्वारा सेवित होती हैं। उनकी सेवामें रहने वाली गोपियाँ भी उन्हीं के समान हैं । वे हाथ में श्वेत चँवर लिये रहती हैं और बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित आभूषणों से विभूषित होती हैं । समस्त देवियों में श्रेष्ठ वे राधा ही मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं।

वे सुदाम के शापसे इस समय भूतल पर वृषभानु-नन्दिनी के रूप में अवतीर्ण हुई हैं। मेरे साथ उनका अब सौ वर्षों तक वियोग रहेगा। पिताजी ! इन्हीं सौ वर्षों की अवधि में मैं भूतल का भार उतारूंगा । तदनन्तर निश्चय ही श्रीराधा, तुम, माता यशोदा, गोप, गोपीगण, वृषभानुजी, उनकी पत्नी कलावती तथा अन्य बान्धवजनों के साथ मैं गोलोक को चलूँगा। बाबा ! यही बात तुम प्रसन्नतापूर्वक मैया यशोदा से भी कह देना । महाभाग ! शोक छोड़ो और व्रजवासियों के साथ व्रज को लौट जाओ। मैं सबका आत्मा और साक्षी हूँ ।

सम्पूर्ण जीवधारियों के भीतर रहकर भी उनसे निर्लिस हूँ । जीव मेरा प्रतिबिम्ब है; यही सर्वसम्मत सिद्धान्त है । प्रकृति मेरा ही विकार है अर्थात् वह प्रकृति भी मैं ही हूँ। जैसे दूध में धवलता होती है। दूध और धवलता में कभी भेद नहीं होता । जैसे जल में शीतलता, अग्नि में दाहिका शक्ति, आकाश में शब्द, भूमि में गन्ध, चन्द्रमा में शोभा, सूर्य में प्रभा और जीव में आत्मा है; उसी प्रकार राधा के साथ मुझको अभिन्न समझो। तुम राधा को साधारण गोपी और मुझे अपना पुत्र न जानो। मैं सबका उत्पादक परमेश्वर हूँ और राधा ईश्वरी प्रकृति है ।

बाबा ! मेरी सुखदायिनी विभूति का वर्णन सुनो, जिसे पहले मैंने अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी को बताया था। मैं देवताओं में श्रीकृष्ण हूँ । गोलोक में स्वयं ही द्विभुजरूप से निवास करता हूँ और वैकुण्ठ में चतुर्भुज विष्णुरूप से । शिवलोक में मैं ही शिव हूँ। ब्रह्मलोक में ब्रह्मा हूँ | तेजस्वियों में सूर्य हूँ । पवित्रों में अग्नि हूँ । द्रव पदार्थों में जल हूँ । इन्द्रियों में मन हूँ। शीघ्रगामियों में समीर (वायु) हूँ। दण्ड प्रदान करने वालों में मैं यम हूँ । कालगणना करने वालों में काल हूँ। अक्षरों में अकार हूँ । सामों में साम हूँ, चौदह इन्द्रों में इन्द्र हूँ । धनियों में कुबेर हूँ । दिक्पालों में ईशान हूँ । व्यापक तत्त्वों में आकाश हूँ । जीवों में सबका अन्तरात्मा हूँ । आश्रमों में ब्रह्मतत्त्वज्ञ संन्यास आश्रम हूँ। धनों में मैं सर्वदुर्लभ बहुमूल्य रत्न हूँ। तैजस पदार्थों में सुवर्ण हूँ । मणियों में कौस्तुभ हूँ । पूज्य प्रतिमाओं में शालग्राम तथा पत्तों में तुलसीदल हूँ । फूलों में पारिजात, तीर्थों में पुष्कर, वैष्णवों में कुमार, योगीन्द्रों में गणेश, सेनापतियों में स्कन्द, धनुर्धरों में लक्ष्मण, राजेन्द्रों में राम, नक्षत्रों में चन्द्रमा, मासों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसन्त, दिनों में रविवार, तिथियों में एकादशी, सहनशीलों में पृथ्वी, बान्धवों में माता, भक्ष्य वस्तुओं में अमृत, गौ से प्रकट होने वाले खाद्यपदार्थों में घी, वृक्षों में कल्पवृक्ष, कामधेनुओं में. सुरभि, नदियों में पापनाशिनी गङ्गा, पण्डितों में पाण्डित्यपूर्ण वाणी, मन्त्रों में प्रणव, विद्याओं में उनका बीजरूप तथा खेत से पैदा होने वाली वस्तुओं में धान्य हूँ।

फलवान् वृक्षों में पीपल, गुरुओं में मन्त्रदाता गुरु, प्रजापतियों में कश्यप, पक्षियों में गरुड़, नागों में अनन्त (शेषनाग), नरों में नरेश, ब्रह्मर्षियों में भृगु, देवर्षियों में नारद, राजर्षियों में जनक, महर्षियों में शुक, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिलमुनि, बुद्धिमानों में बृहस्पति, कवियों में शुक्राचार्य, ग्रहों में शनि, शिल्पियों में विश्वकर्मा, मृगों में मृगेन्द्र, वृषभों में शिववाहन नन्दी, गजराजों में ऐरावत, छन्दों में गायत्री, सम्पूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, समुद्रों में जलनिधि, पर्वतों में सुमेरु, रत्नवान् शैलों में हिमालय, प्रकृतियों में देवी पार्वती तथा देवियों में लक्ष्मी हूँ ।

मैं नारियों में शतरूपा, अपनी प्रियतमाओं में राधिका तथा साध्वी स्त्रियों में निश्चय ही वेदमाता सावित्री हूँ । दैत्यों में प्रह्लाद, बलिष्ठों में बलि, ज्ञानियों में भगवान् नारायण ऋषि, वानरों में हनुमान्, पाण्डवों में अर्जुन, नागकन्याओं में मनसा, वसुओं में द्रोण, बादलों में द्रोण, जम्बूद्वीप के नौ खण्डों में भारतवर्ष, कामियों में कामदेव, कामुकी स्त्रियों में रम्भा और लोकों में गोलोक हूँ, जो समस्त लोकों में उत्तम और सबसे परे है। मातृकाओं में शान्ति, सुन्दरियों में रति, साक्षियों में धर्म, दिन के क्षणों में संध्या, देवताओं में इन्द्र, राक्षसों में विभीषण, रुद्रों में कालाग्निरुद्र, भैरवों में संहारभैरव, शङ्खों में पाञ्चजन्य, अङ्गों में मस्तक, पुराणों में भागवत, इतिहासों में महाभारत, पाञ्चरात्रों में कापिल, मनुओं में स्वायम्भुव, मुनियों में व्यासदेव, पितृपत्नियों में स्वधा, अग्निप्रियाओं में स्वाहा, यज्ञों में राजसूय, यज्ञपत्नियों में दक्षिणा, अस्त्र-शस्त्रज्ञों में जमदग्निनन्दन महात्मा परशुराम, पौराणिकों में सूत, नीतिज्ञों में अङ्गिरा, व्रतों में विष्णुव्रत, बलों में दैवबल, ओषधियों में दूर्वा, तृणों में कुश, धर्मकर्मों में सत्य, स्नेहपात्रों में पुत्र, शत्रुओं में व्याधि, व्याधियों में ज्वर, मेरी भक्तियों में दास्य-भक्ति, वरों में वर, आश्रमों में गृहस्थ, विवेकियों में संन्यासी, शस्त्रों में सुदर्शन और शुभाशीर्वादों में कुशल हूँ।

ऐश्वर्यों में महाज्ञान, सुखों में वैराग्य, प्रसन्नता प्रदान करने वालों में मधुर वचन, दानों में आत्मदान, संचयों में धर्मकर्म का संचय, कर्मों में मेरा पूजन, कठोर कर्मों में तप, फलों में मोक्ष, अष्ट सिद्धियों में प्राकाम्य, पुरियों में काशी, नगरों में काञ्ची, देशों में वैष्णवों का देश और समस्त स्थूल आधारों में मैं ही महान् विराट् हूँ। जगत् ‌में जो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ हैं; उनमें मैं परमाणु हूँ। वैद्यों में अश्विनीकुमार, भेषजों में रसायन, मन्त्रवेत्ताओं में धन्वन्तरि, विनाशकारी दुर्गुणों में विषाद, रागों में मेघ – मलार, रागिनियों में कामोद, मेरे पार्षदों में श्रीदामा, मेरे बन्धुओं में उद्धव, पशुजीवों में गौ, वनों में चन्दन, पवित्रों में तीर्थ और निःशंकों में वैष्णव हूँ; वैष्णव से बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है । विशेषतः वह जो मेरे मन्त्र की उपासना करता है, सर्वश्रेष्ठ है । मैं वृक्षों में अंकुर तथा सम्पूर्ण वस्तुओं में उनका आकार हूँ । समस्त भूतों में मेरा निवास है, मुझमें सारा जगत् फैला हुआ है । जैसे वृक्ष में फल और फलों में वृक्ष का अंकुर है, उसी प्रकार मैं सबका कारणरूप हूँ; मेरा कारण दूसरा नहीं है। मैं सबका ईश्वर हूँ, मेरा ईश्वर दूसरा कोई नहीं है । मैं कारण का भी कारण हूँ। मनीषी पुरुष मुझे ही सबके समस्त बीजों का परम कारण बताते हैं । मेरी माया से मोहित हुए पापीजन मुझे नहीं जान पाते हैं। मैं सब जन्तुओं का आत्मा हूँ; परंतु दुर्बुद्धि और दुर्भाग्य से वञ्चित पापग्रस्त जीव मुझ अपने आत्मा का भी आदर नहीं करते । जहाँ मैं हूँ, उसी शरीर में सब शक्तियाँ और भूख-प्यास आदि हैं; मेरे निकलते ही सब उसी तरह निकल जाते हैं, जैसे राजा के पीछे-पीछे उसके सेवक । व्रजराज नन्दजी ! मेरे बाबा! इस ज्ञान को हृदय में धारण करके व्रज को जाओ और राधा तथा यशोदा मैया को इसका उपदेश दो ।

इस ज्ञान को भली-भाँति समझकर नन्दजी अपने अनुगामी व्रजवासियों के साथ व्रज को लौट गये । वहाँ जाकर उन्होंने उन दोनों नारी-शिरोमणियों से उस ज्ञान की चर्चा की। नारद! वह महाज्ञान पाकर सब लोगोंने अपना शोक त्याग दिया। श्रीकृष्ण यद्यपि निर्लिप्त हैं, तथापि माया के स्वामी हैं; इसलिये माया से अनुरक्त जान पड़ते हैं । यशोदाजी ने पुनः नन्दरायजी को माधव के पास भेजा। उनकी प्रेरणा से फिर आकर नन्दजी ने ब्रह्माजी के द्वारा किये गये सामवेदोक्त स्तोत्र से परमानन्दस्वरूप नन्दनन्दन माधव की स्तुति की। तत्पश्चात् वे पुत्र के सामने खड़े हो बार-बार रोदन करने लगे।     (अध्याय ७३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद नन्दादिणोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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