ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 78
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
अठहत्तरवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण के द्वारा नन्द को आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश, बाईस प्रकार की सिद्धि, सिद्धमन्त्र तथा अदर्शनीय वस्तुओं का वर्णन

नन्दजी बोले — जगन्नाथ श्रीकृष्ण ! मैंने अच्छे स्वप्नों का वर्णन सुना। यह वेदों का सारभाग तथा लौकिक- वैदिक नीति का सारतत्त्व है । वत्स ! अब मैं उन स्वप्नों को सुनना चाहता हूँ, जिन्हें देखने से पाप होता है। अथवा जिस कर्म के करने से पाप होता है, उसका वर्णन करो। वेद का अनुसरण करने वाले संतप्त मनुष्य तुम्हारे मुख से वेद-शास्त्रों की बातें सुनना चाहते हैं; क्योंकि तुम वेदों के जनक हो और वैदिक सत्पुरुषों, ब्रह्मा आदि देवताओं, मुनियों तथा तीनों लोकों के भी जन्मदाता हो। वत्स! अपने वियोग से तुमने मेरे हृदय में दाह उत्पन्न कर दिया है; किंतु इस समय तुम्हारे मुखारविन्द से जो प्रमाणभूत वचनामृत सुनने को मिला है, उससे मेरा तन, मन अभिषिक्त हो उठा है। तुम्हारा जो चरणकमल सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों को देनेवाला है तथा ब्रह्मा आदि देवता स्वप्न में भी जिसका दर्शन नहीं कर पाते हैं; वही आज मेरी आँखों के सामने है । आज के बाद मुझ पातकी को तुम्हारे चरणारविन्दों का दर्शन कहाँ मिलेगा? मेरा यह मल-मूत्रधारी शरीर अपने कर्मबन्धन से बँधा हुआ है। बेटा ! अब ऐसा दिन कब प्राप्त होगा, जब कि ब्रह्मा आदि देवताओं के भी स्वामी तुमसे बातचीत करने का शुभ अवसर मुझ जैसे पापी को सुलभ होगा ? महेश्वर! कृपानाथ! मुझ पर कृपा करो। मैंने अपना बेटा समझकर तुम्हारे साथ जो दुर्नीतिपूर्ण व्यवहार किया है; मेरे उस अपराध को क्षमा कर दो। ब्रह्मा, शिव, शेषनाग और मुनि भी तुम्हारे चरणारविन्दों का चिन्तन करते हैं । सरस्वती और श्रुति भी तुम्हारी स्तुति करने में जडवत् हो जाती हैं; फिर मेरी क्या बिसात है ?

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यों कहकर नन्दजी दुःख और शोक से व्याकुल हो गये। पुत्रवियोग से विह्वल हो रोते-रोते उन्हें मूर्च्छा आ गयी । यह देख जगत्पति भगवान् श्रीकृष्ण संत्रस्त हो उन्हें यत्नपूर्वक समझाने-बुझाने लगे। उन्होंने नन्द को परम उत्तम आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया।

श्रीभगवान् ने कहा — पिताजी ! लोक में जितने जन्मदाता पिता हैं, उन सबमें तुम्हारा श्रेष्ठ स्थान है । सर्वश्रेष्ठ व्रजेश्वर ! होश में आओ और उत्तम कल्याणमय ज्ञान सुनो। यह श्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञान ज्ञानियों के लिये भी परम दुर्लभ है । वेद-शास्त्र में भी गोपनीय कहा गया है । केवल तुम्हीं को इसका उपदेश दे रहा हूँ। तात ! एकाग्रचित्त हो प्रसन्नतापूर्वक इस ज्ञान को सुनो और इसका मनन करो। इसके अभ्यास से जन्म, मृत्यु और जरारूपी रोग से छुटकारा मिल जाता है। महाराज व्रजराज ! सुस्थिर होओ और इस ज्ञान को पाकर शोक- मोह से रहित एवं परमानन्द में निमग्न हो अपने व्रज को पधारो ।

यह समस्त चराचर जगत् जल के बुलबुलेकी भाँति नश्वर है; प्रातःकालिक स्वप्न की भाँति मिथ्या और मोह का ही कारण है । पाञ्च-भौतिक शरीर एवं संसार के निर्माण का हेतु भी मिथ्या एवं अनित्य है । माया से ही मनुष्य इसे सत्य मान रहा है । वह समस्त कर्मों में काम, क्रोध, लोभ और मोह से वेष्टित है और माया से सदा मोहित, ज्ञानहीन एवं दुर्बल है। निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, पिपासा, क्षमा, श्रद्धा, दया, लज्जा, शान्ति, धृति, पुष्टि और तुष्टि आदि से भी वह आवृत है । जैसे वृक्ष काक आदि पक्षियों का आश्रय है; उसी प्रकार मन, बुद्धि, चेतना, प्राण, ज्ञान और आत्मासहित सम्पूर्ण देवता शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं।

मैं सर्वेश्वर ही पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ। ब्रह्मा मन हैं, सनातनी प्रकृति बुद्धि हैं, प्राण विष्णु हैं तथा चेतना और उसकी अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं । शरीर में मेरे रहने से ही सबकी स्थिति है । मेरे चले जाने पर वे भी सब-के-सब चले जाते हैं । हम सबके त्याग देने पर शरीर तत्काल गिर जाता है; इसमें संशय नहीं है। उसके पाँचों भूत उसी क्षण समष्टिगत पाँचों भूतों में विलीन हो जाते हैं । नाम केवल संकेत रूप है। वह निष्फल और मोह का कारण है । तात ! अज्ञानियों को ही शरीर के लिये शोक होता है; ज्ञानियों को किञ्चिन्मात्र भी दुःख नहीं होता । निद्रा आदि जो शक्तियाँ हैं; वे सब प्रकृति की कलाएँ हैं । काम, क्रोध लोभ और मोह के साथ जो पाँचवाँ अहंकार है; वे सब अधर्म के अंश हैं । सत्त्व आदि तीन गुण क्रमशः विष्णु, ब्रह्मा तथा रुद्र के अंश हैं । ज्योतिर्मय शिव ज्ञानस्वरूप हैं और मैं निर्गुण आत्मा हूँ। जब प्रकृति में प्रवेश करता हूँ तो मैं सगुण कहा जाता हूँ । विष्णु, ब्रह्मा तथा रुद्र आदि सगुण विषय हैं। मेरे अंशभूत धर्म, शेषनाग, सूर्य और चन्द्रमा आदि विषयी कहे गये हैं। इसी प्रकार समस्त मुनि, मनु तथा देवता आदि मेरे कलांशरूप हैं ।

मैं समस्त शरीरों में व्याप्त हूँ; तथापि उनके द्वारा सम्पादित होने वाले सम्पूर्ण कर्मों से निर्लिप्त हूँ । मेरा भक्त जीवन्मुक्त होता है तथा वह जन्म, मृत्यु और जरा का निवारण करनेवाला है। भक्त सम्पूर्ण सिद्धों का स्वामी, श्रीमान्, कीर्तिमान्, विद्वान्, कवि, बाईस प्रकार का सिद्ध और समस्त कर्मों का निराकरण करने वाला है। उस सिद्ध भक्त को मैं स्वयं प्राप्त होता हूँ; क्योंकि वह मेरे सिवा दूसरी किसी वस्तु की इच्छा ही नहीं करता । तात! सिद्धियों का साधन करने वाला सिद्ध उन सिद्धियों के ही भेद से बाईस प्रकार का होता है । मेरे मुख से उसका परिचय सुनो और सिद्धमन्त्र ग्रहण करो । अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, कामावसायिता, दूर-श्रवण, परकाय-प्रवेश, मनोयायित्व, सर्वज्ञत्व, अभीष्ट-सिद्धि, अग्नि-स्तम्भ, जल-स्तम्भ, चिरजीवित्व, वायु-स्तम्भ, क्षुत्पिपासा-निद्रा-स्तम्भन (भूख-प्यास तथा नींद का स्तम्भन ), वाक्-सिद्धि, इच्छानुसार मृत प्राणी को बुला लेना, सृष्टिकरण और प्राणों का आकर्षण — ये बाईस प्रकार की सिद्धियाँ हैं । सिद्ध मन्त्र इस प्रकार है — ‘ॐ सर्वेश्वरेश्वराय सर्वविघ्नविनाशिने मधुसूदनाय स्वाहा’। यह मन्त्र अत्यन्त गूढ़ है और सबकी मनोवाञ्छा पूर्ण करने के लिये कल्पवृक्ष के समान है । सामवेद में इसका वर्णन है । यह सिद्धों की सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाला है । इस मन्त्र के जप से योगी, मुनीन्द्र और देवता सिद्ध होते हैं। सत्पुरुषों को एक लाख जप करने से ही यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है। यदि नारायणक्षेत्र में हविष्यान्नभोजी होकर इसका जप किया जाय तो शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है ।

तात ! तुम काशी के मणिकर्णिकातीर्थ में जाकर इसका जप करो। मैं तुम्हें नारायणक्षेत्र बतलाता हूँ, सुनो। गङ्गा के जलप्रवाह से चार हाथ की भूमि को ‘नारायणक्षेत्र’ कहा है। उसके नारायण ही स्वामी हैं; दूसरा कोई कदापि नहीं है । वहाँ मनुष्य की मृत्यु होने पर उसे ज्ञान एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है । वहाँ व्रत के बिना भी मन्त्र जप करने से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है । व्रजनाथ ! व्रज को जाओ और उसे पवित्र करो ।

तात! जिनके दर्शन से पाप होता है; उन्हें बताता हूँ, सुनो। दुःस्वप्न केवल पाप का बीज और विघ्न का कारण होता है। गौ और ब्राह्मण की हत्या करने वाले कृतघ्न, कुटिल, देवमूर्ति-नाशक, माता-पिता के हत्यारे, पापी, विश्वासघाती, झूठी गवाही देने वाले, अतिथि के साथ छल करने वाले, ग्राम-पुरोहित, देवता तथा ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाले, पीपल का पेड़ काटने वाले, दुष्ट, शिव और विष्णु की निन्दा करने वाले, दीक्षारहित, आचारहीन, संध्यारहित द्विज, देवता के चढ़ावे पर गुजारा करने वाले और बैल जोतने वाले ब्राह्मण को देखने से पाप लगता है। पति-पुत्र से रहित, कटी नाक वाली, देवता और ब्राह्मण की निन्दा करने वाली, पति-भक्ति-हीना, विष्णुभक्तिशून्या तथा व्यभिचारिणी स्त्री के दर्शन से भी पाप होता है । सदा क्रोधी, जारज, चोर, मिथ्यावादी, शरणागत को यातना देने वाले, मांस चुराने वाले, शूद्रजातीय स्त्री से सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मण, ब्राह्मणीगामी शूद्र, सूदखोर द्विज और अगम्या स्त्री के साथ समागम करनेवाले दुष्ट नराधम को भी देखने से पाप लगता है।

माता, सौतेली माँ, सास, बहिन, गुरुपत्नी, पुत्रवधू, भाई की स्त्री, मौसी, बूआ, भांजे की स्त्री, मामी, परायी नवोढा, चाची, रजस्वला, पितामही और नानी — ये सामवेद में अगम्या बतायी गयी हैं। सत्पुरुषों को इन सबकी रक्षा करनी चाहिये । कामभाव से इनका दर्शन और स्पर्श करने पर मनुष्य ब्रह्महत्या का भागी होता है; अतः दैववश यदि इनकी ओर दृष्टि चली जाय तो सूर्यदेव का दर्शन करके श्रीहरि का स्मरण करे। जो कामनापूर्वक इन पर कुदृष्टि डालते हैं, वे निन्दनीय होते हैं।

व्रजेश्वर ! इसलिये शाप  से डरे हुए साधु पुरुष इनकी ओर कुदृष्टि नहीं डालते। विद्वान् पुरुष ग्रहण के समय सूर्य और चन्द्रमा को नहीं देखते। प्रथम, अष्टम, सप्तम, द्वादश, नवम और दशम स्थान सूर्य हों तो सूर्य का तथा जन्म नक्षत्र में और अष्टम एवं चतुर्थ स्थान में चन्द्रमा हों तो चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिये । भाद्रपदमास के शुक्ल और कृष्णपक्ष की चतुर्थी को उदित हुए चन्द्रमा को नष्टचन्द्र कहा गया है; अतः उसका दर्शन नहीं करना चाहिये । मनीषी पुरुषों ने ऐसे चन्द्रमा का परित्याग किया है । तात ! यदि कोई उस दिन जान-बूझकर चन्द्रमा को देखता है तो वह उसे अत्यन्त दुष्कर कलङ्क देता है। यदि कोई मनुष्य अनिच्छा से उक्त चतुर्थी के चन्द्रमा को देख ले तो उसे मन्त्र से पवित्र किया हुआ जल पीना चाहिये। ऐसा करने से वह तत्काल शुद्ध हो भूतल पर निष्कलङ्क बना रहता है । जल को पवित्र करने का मन्त्र इस प्रकार है-

सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥

 ‘सुन्दर सलोने कुमार ! इस मणि के लिये सिंह ने प्रसेन को मारा है और जाम्बवान् ने उस सिंह का संहार किया है; अतः तुम रोओ मत। अब इस स्यमन्तकमणि पर तुम्हारा ही अधिकार है । ‘ इस मन्त्र से पवित्र किया हुआ उत्तम जल अवश्य पीना चाहिये । तात ! ये सारी बातें तुम्हें बतायी गयीं। अब तुमसे और क्या कहूँ ?       (अध्याय ७८ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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