भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १४१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १४१

शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह-शान्ति की विधि का वर्णन यह पाँच आथर्वण कल्पों —नक्षत्र, वैतान, संहिताविधि, अङ्गिरस एवं शान्तिकल्प में से प्रथम एवं पाँचवें शान्तिकल्प का समन्वित रूप है और अथर्वपरिशिष्ट, याज्ञवल्क्यस्मृति १ । २९५-३०८, वृद्धपाराशर ११, पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड ८२-८६, नारदपुराण १ । ५१, मत्स्यपुराण, अग्रिपुराण २६४-२७४ आदि में भी प्राप्त है।

युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! आप सर्वज्ञ हैं, इसलिये आप यह बतलाने की कृपा करें कि सम्पूर्ण कामनाओं की अविचल सिद्धि के लिये शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों का अनुष्ठान किस प्रकार करना चाहिये ?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! लक्ष्मी की कामनावाले अथवा शान्ति के अभिलाषी तथा वृष्टि, दीर्घायु और पुष्टि की इच्छा से युक्त मनुष्य को ग्रहयज्ञ का समारम्भ करना चाहिये । मैं सम्पूर्ण शास्त्र का अवलोकन करने के पश्चात् पुराणों एवं श्रुतियों द्वारा आदिष्ट इस ग्रह-शान्ति का संक्षिप्त वर्णन कर रहा हूँ । इसके लिये ज्योतिषी द्वारा बतलाये गये शुभ मुहूर्त में ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर ग्रहों एवं ग्रहाधिदेवों की स्थापना करके हवन प्रारम्भ करना चाहिये । om, ॐपुराणों एवं श्रुतियों के ज्ञाता विद्वानों ने तीन प्रकार के ग्रह-यज्ञ बतलाये हैं । पहला दस हजार आहुतियों का अयुतहोम, उससे बढ़कर दूसरा एक लाख आहुतियों का लक्षहोम तथा सम्पूर्ण कामनाओं का फल प्रदान करनेवाला तीसरा एक करोड़ आहुतियों का कोटिहोम होता है । दस हजार आहुतियों वाला ग्रहयज्ञ नवग्रह-यज्ञ कहलाता है । इसकी विधि जो पुराणों एवं श्रुतियों में बतलायी गयी है, प्रथम मैं उसका वर्णन कर रहा हूँ । (यजमान मण्डप-निर्माण के बाद) हवनकुण्ड की पूर्वोत्तर-दिशा में स्थापना के लिये एक वेदी का निर्माण कराये, जो दो बीता लम्बी-चौड़ी, एक बीता ऊँची, दो परिधियों से सुशोभित और चौकोर हो । उसका मुख उत्तर की ओर हो । पुनः कुण्ड में अग्नि की स्थापना करके उस वेदीपर देवताओं का आवाहन करे । इस प्रकार उस पर बत्तीस देवताओं की स्थापना करनी चाहिये ।

सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु — ये लोगों के हितकारी ग्रह कहे गये हैं । इन ग्रहों की प्रतिमा क्रमशः ताँबा, स्फटिक, रक्तचन्दन, स्वर्ण, चाँदी तथा लोहे से बनानी चाहिये । श्वेत चावलों द्वारा वेदी के मध्य में सूर्य की, दक्षिण में मंगल की, उत्तर में बृहस्पति की, पूर्वोत्तरकोण पर बुध की, पूर्व में शुक्र की, दक्षिण-पूर्वकोण पर चन्द्रमा की, पश्चिम में शनि की, पश्चिम-दक्षिणकोण पर राहु की और पश्चिमोत्तरकोण पर केतु की स्थापना करनी चाहिये । इन सभी ग्रहों में सूर्य के शिव, चन्द्रमा के पार्वती, मंगल के स्कन्द, बुध के भगवान् विष्णु, बृहस्पति के ब्रह्मा, शुक्र के इन्द्र, शनैश्चर के यम, राहु के काल और केतु के चित्रगुप्त अधिदेवता माने गये हैं । अग्नि, जल, पृथ्वी, विष्णु, इन्द्र, सौवर्ण देवता, प्रजापति, सर्प और ब्रह्मा — ये सभी क्रमशः प्रत्यधिदेवता हैं । इनके अतिरिक्त विनायक, दुर्गा, वायु, आकाश, सावित्री, लक्ष्मी तथा उमा को उनके पतिदेवताओं के साथ और अश्विनकुमारों का भी व्याहृतियों के उच्चारणपूर्वक आवाहन करना चाहिये । उस समय मंगलसहित सूर्य को लाल वर्ण का, चन्द्रमा और शुक्र को श्वेत वर्ण का, बुध और बृहस्पति को पीत वर्ण का, शनि और राहु को कृष्ण वर्ण का तथा केतु को धूम्र वर्ण का जानना और ध्यान करना चाहिये । बुद्धिमान् यज्ञकर्ता जो ग्रह जिस रंग का हो, उसे उसी रंग का वस्त्र और फूल समर्पित करे, सुगन्धित धूप दे । पुनः फल, पुष्प आदि के साथ सूर्य को गुड़ और चावल से बने हुए अन्न (खीर) का, चन्द्रमा को घी और दूध से बने हुए पदार्थ, मंगल को गोझिया का, बुध को क्षीरषष्टिक (दूधमें पके हुए साठी के चावल) का, बृहस्पति को दही-भात का, शुक्र को घी-भात का, शनैश्चर को खिचड़ी का, राहु को अजशृंगी नामक लता के फल के गूदा का और केतु को विचित्र रंगवाले भात का नैवेद्य अर्पण करके सभी प्रकार के भक्ष्य पदार्थों द्वारा पूजन करे ।

वेदी के पूर्वोत्तरकोण पर एक छिद्ररहित कलश की स्थापना करे, उसे दही और अक्षत से सुशोभित, आम्र के पल्लव से आछादित और दो वस्त्रों से परिवेष्टित करके उसके निकट फल रख दे । उसमें पञ्चरत्न डाल दे और उसे पञ्चभङ्ग (पीपल, बरगद, पाकड़, गूलर और आम के पल्लव) से युक्त कर दे । उसपर वरुण, गङ्गा आदि नदियों, सभी समुद्रों और सरोवरों का आवाहन तथा स्थापन करे । राजेन्द्र ! धर्मज्ञ पुरोहित को चाहिये कि वह हाथीसार, घुड़शाल, चौराहे, बिमवट, नदी के संगम, कुण्ड और गोशाला की मिट्टी लाकर उसे सर्वौषधिमिश्रित जल से अभिषिक्त कर यजमान के स्नान के लिये वहाँ प्रस्तुत कर दे तथा ‘यजमान के पाप को नष्ट करनेवाले सभी समुद्र, नदी, नद, बादल और सरोवर यहाँ पधारें’ ऐसा कहकर इन देवताओं का आवाहन करे । तत्पश्चात् घी, जौ, चावल, तिल आदि से हवन प्रारम्भ करे । मदार, पलाश, खैर, चिचिडा, पीपल, गूलर, शमी, दूब और कुश — ये क्रमशः नवों ग्रहों की समिधाएँ हैं । इनमें प्रत्येक ग्रह के लिये मधु, घी और दही अथवा पायस से युक्त एक सौ आठ अथवा अट्ठाईस आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिये । बुद्धिमान् पुरुष को सदा सभी कर्मों में अँगूठे के सिरे से तर्जनी के सिरे तक की मापवाली तथा बर्रोह, शाखा और पत्तों से रहित समिधाओं की कल्पना करनी चाहिये । परमार्थवेत्ता यजमान सभी देवताओं के लिये उन-उनके पृथक्-पृथक् मन्त्रों का मन्द स्वर से उच्चारण करते हुए समिधाओं का हवन करे । अनन्तर प्रत्येक देवता के लिये उसके मन्त्र द्वारा हवन करना चाहिये । ब्राह्मण को ‘आ कृष्णेन रजसा० ‘ (यजु० ३३।४३)— इस मन्त्र का उच्चारण कर सूर्य को आहुति देनी चाहिये । पुनः ‘इमं देवा० ‘ (यजु० ९।४०) इस मन्त्र से चन्द्रमा को आहुति दे । मंगल के लिये ‘अग्निर्मूर्धा० ‘ (यजु० १३ । १४) इस मन्त्र से आहुति दे । बुध के लिये ‘उद्बुध्यस्व० ‘ (यजु० १५।५४) और देवगुरु बृहस्पति के लिये ‘बृहस्पते अति० ‘ (यजु० २६ । ३) ये मन्त्र माने गये हैं । शुक्र के लिये ‘अन्नात्परि० ‘ (यजु० १९ । ७५) और शनैश्चर के लिये ‘शं नो देवीरभीष्टय० ‘ (यजु० ३६ । १२) इस मन्त्र से आहुति दे । राहु के लिये ‘कया नश्चित्र० ‘ (यजु० २७ । ३९) यह मन्त्र कहा गया है तथा केतु की शान्ति के लिये ‘केतु कृण्वन्० ‘ (यजु० २९ । ३७) इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये । चरु आदि हवनीय पदार्थों में घी मिलाकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक हवन करना चाहिये, तत्पश्चात् व्याहृतियों का उच्चारण करके घी की दस आहुतियाँ अग्नि में डाले । पुनः श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्तराभिमुख अथवा पूर्वाभिमुख बैठकर प्रत्येक देवता के मन्त्रोच्चारणपूर्वक चरु आदि पदार्थों का हवन करे ।

फिर ‘आ वो राज्ञानमध्वरस्य रुद्रं० ‘ (ऋ० ४। ३ । १, कृष्णयजु० तै० सं० १ । ३ । १४ । १) इस मन्त्र का उच्चारण कर रुद्र के लिये हवन और बलि देनी चाहिये । तत्पश्चात् उमा के लिये ‘आपो हि ष्ठा० ‘ (वाजस० सं० ११ । ५०)— इस मन्त्र से, स्वामिकार्तिकेय के लिये ‘स्यो ना० “ इस मन्त्र से, विष्णु के लिये ‘इदं विष्णुर्वि० ‘ (यजु० ५ । १५) इस मन्त्र से, ब्रह्मा के लिये ‘तमीशानम्० ‘ (वाजस० २५ । १८) इस मन्त्र से और इन्द्र के लिये ‘इन्द्रमिद्देवताय० ‘— इस मन्त्र से आहुति डाले । इसी प्रकार यम के लिये ‘आयं गौ० ‘ (यजु० ३ । ६) इस मन्त्र से हवन बतलाया गया है । काल के लिये ‘ब्रह्मजज्ञानम्० ‘ (यजु० १३ । ३) यह मन्त्र प्रशस्त माना गया है । अग्नि के लिये ‘अग्नि दूतं वृणीमहे० ‘ (ऋक् सं० १ । १२ । १) यह मन्त्र बतलाया गया है । वरुण के लिये ‘उदुत्तमं वरुणपाशम्० ‘ (ऋक् सं० १ । २४ । १५) यह मन्त्र कहा गया है । वेदों में पृथ्वी के लिये ‘पृथिव्यन्तरिक्षम्० ‘ — इस मन्त्र का पाठ है । विष्णु के लिये ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः० ‘ (वाजस० सं० ३१ । १) यह मन्त्र कहा गया है ।

हवन समाप्त हो जाने पर चार ब्राह्मण अभिषेक-मन्त्रों द्वारा उसी जलपूर्ण कलश से पूर्व अथवा उत्तर मुख करके बैठे हुए यजमान का अभिषेक करें और ऐसा कहें — ‘ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर— ये देवता आपका अभिषेक करें । जगदीश्वर वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण, सामर्थ्यशाली संकर्षण (बलराम), प्रद्युम्न और अनिरुद्ध — ये सभी आपको विजय प्रदान करें । इन्द्र, अग्नि, ऐश्वर्यशाली यम, निति, वरुण, वन, कुबेर, ब्रह्मासहित शिव, शेषनाग और दिक्पालगण — ये सभी आपकी रक्षा करें । कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, मति, बुद्धि, लज्जा, शान्ति, पुष्टि, कान्ति, तुष्टि — ये सभी माताएँ जो धर्म की पत्नियाँ हैं, आकर आपको अभिषिक्त करें । सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैशर, राहु और केतु — ये सभी ग्रह प्रसन्नतापूर्वक आपको अभिषिक्त करें । देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, ऋषि, गौ, देवमाताएँ, देवपत्नियाँ, वृक्ष, नाग, दैत्य, अप्सराओं के समूह, अस्त्र, सभी शस्त्र, नृपगण, वाहन, औषध, रत्न, (कला, काशा आदि) काल के अवयव, नदियाँ, सागर, पर्वत, तीर्थस्थान, बादल, नद — ये सभी सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि के लिये आपको अभिषिक्त करें ।

इस प्रकार श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा सर्वौषधि एवं सम्पूर्ण सुगन्धित पदार्थों से युक्त जल से स्नान करा दिये जाने के पश्चात सपत्नीक यजमान श्वेत वस्त्र धारण करके श्वेत चन्दन का अनुलेप करे और विस्मयरहित होकर शान्त चित्तवाले ऋत्विजों का प्रयत्नपूर्वक दक्षिणा आदि देकर पूजन करे तथा सूर्य के लिये कपिला गौ का, चन्द्रमा के लिये शङ्ख का, मंगल के लिये भार वहन करने में समर्थ एवं ऊँचे डीलवाले लाल रंग बैल का, बुध के लिये सुवर्ण का, बृहस्पति के लिये एक जोड़ा पीले वस्त्र का, शुक्र के लिये श्वेत रंग के घोडे का, शनैश्चर के लिये काली गौ का, राहु के लिये लोहे की बनी हुई वस्तु का और केतु लिये उत्तम बकरे के दान का विधान है । सामान को ये सारी दक्षिणाएँ सुवर्ण के साथ अथवा स्वर्णनिर्मित मूर्ति के रूप में देने चहिये अथवा जिस प्रकार गुरु (पुरोहित) प्रसन्न हों, उनके आज्ञानुसार सभी ब्राह्मणों को सुवर्ण से अलंकृत गौएँ अथवा केवल सुवर्ण दान करना चाहिये पर सर्वत्र मन्त्रोच्चारणपूर्वक ही इन सभी दक्षिणाओं के देने का विधान है ।

दान देते समय सभी देय वस्तुओं से पृथक्-पृथक् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये — कपिले ! तुम रोहिणीरूप हो, तीर्थ एवं देवता तुम्हारे स्वरूप हैं तथा तुम सम्पूर्ण देव की पूजनीया हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो । शङ्ख ! तुम पुण्यों के भी पुण्य और मङ्गलों के भी मङ्गल हो । भगवान् विष्णु ने तुम्हें अपने हाथ में धारण किया है, इसलिये तुम मुझे शान्ति प्रदान करो । जगत् को आनन्दित करनेवाले वृषभ ! तुम वृषरूप से धर्म और अष्टमूर्ति शिवजी के वाहन हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो । सुवर्ण ! तुम ब्रह्मा के आत्मस्वरूप, अग्नि के स्वर्णमय बीज और अनन्त पुण्य के प्रदाता हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो । दो पीले वस्त्र अर्थात् पीताम्बर भगवान् श्रीकृष्ण को परम प्रिय हैं, इसलिये विष्णो ! उसको दान करने से आप मुझे शान्ति प्रदान करे । अश्व ! तुम अश्वरूप से विष्णु हो, अमृत से उत्पन्न हुए हो तथा सूर्य एवं चन्द्रमा के नित्य वाहन हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो । पृथ्वी ! तुम समस्त धेनुस्वरूपा, कृष्ण (गोविन्द) नामवाली और सदा सम्पूर्ण पापों को हरण करनेवाली हो, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो । लौह ! चूंकि विश्व के सभी सम्पादित होनेवाले लौह-कर्म हल एवं अस्त्र आदि सारे कार्य सदा तुम्हारे ही अधीन हैं, इसलिये तुम मुझे शान्ति प्रदान करो । छाग ! चूँकि तुम सम्पूर्ण यज्ञों के मुख्य अङ्गरूप से निर्धारित हो और अग्निदेव के नित्य वाहन हो, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो । गौ ! चूंकि गौओं के अङ्गों में चौदहों भुवन निवास करते हैं, इसलिये तुम मेरे लिये इहलोक एवं परलोक में भी कल्याण प्रदान करें । जिस प्रकार भगवान् केशव तथा शिव की शय्या कभी शून्य नहीं रहती, बल्कि लक्ष्मी तथा पार्वती से सदा सुशोभित रहती है, वैसे ही मेरे द्वारा भी दान की गयी शय्या जन्म-जन्म में सुख से सम्पन्न रहे । जैसे सभी रत्नों में समस्त देवता निवास करते हैं, वैसे ही रत्न-दान करने से वे देवता मुझे शान्ति प्रदान करें । सभी दान भूमिदान के सोलहवीं कला की भी समता नहीं कर सकते, अतः भूमि-दान करने से मुझे इस लोक में शान्ति प्राप्त हो ।’ इस प्रकार कृपणता छोड़कर भक्तिपूर्वक रत्न, सुवर्ण, वस्त्रसमूह, धूप, पुष्पमाला और चन्दन आदि से ग्रहों की पूजा करनी चाहिये ।

राजन् ! अब आप भक्तिपूर्वक ग्रहों के स्वरूपों को सुनें (चित्र-प्रतिमादि विधानों में) —
पद्मासनः पद्मकरः पशुगर्भसमद्युतिः ।
सप्ताश्वः सप्तरज्जुश्च द्विभुजः स्यात्सदा रविः ॥
श्वेतः श्वेताम्बरधरो दशाश्वः श्वेतभूषणः ।
गदापाणिर्द्विबाहुश्च कर्तव्यो वरदः शशी ॥
रक्तमाल्याम्बरधरः कर्णिकारसमद्युतिः ।
खड्गचर्मगदापाणिर्विधेयो भूमिनन्दनः ॥
पीतमाल्याम्बरधरः पीतगन्धानुलेपनः ।
काञ्चने च रथे दिव्ये शोभमानो बुधः सदा ॥
देवदैत्यगुरू तद्वत्पीतश्वेतौ चतुर्भुजौ ।
दण्डिनौ वरदौ कार्यों साक्षसूत्रकाण्डलू ॥
इन्द्रनीलद्युतिः शूली वरदो गृध्रवाहनः ।
बाणबाणासनधरः कर्तव्योऽर्कसुतः सदा ॥
शार्दूलवदनः खड्गी वर्मी शूली वरप्रदः ।
नीलसिंहासनस्थश्च राहुरत्र प्रशस्यते ॥
धूम्रा द्विवाहवः सर्वे गदिनो विकृताननाः ।
गृघ्रासनरता नित्यं केतवः स्युर्वरप्रदाः ॥
(उत्तरपर्व १४१ । ७१-७८)

सूर्यदेव की दो भुजाएँ निर्दिष्ट हैं, वे कमल के आसन पर विराजमान रहते हैं, उनके दोनों हाथों में कमल सुशोभित रहते हैं । उनकी कान्ति कमल के भीतरी भागकी-सी है और वे सात घोड़ों तथा सात रस्सियों से जुते रथ पर आरूढ रहते हैं । चन्द्रमा गौरवर्ण, श्वेत वस्त्र और श्वेत अश्वयुक्त हैं तथा उनके आभूषण भी श्वेत वर्ण के हैं । धरणीनन्दन मंगल की चार भुजाएँ हैं । वे अपने चारों हाथों में खड्ग, ढाल, गदा तथा वरद-मुद्रा धारण किये हैं, उनके शरीर की कान्ति कनेर के पुष्प-सरीखी है । वे लाल रंग की पुष्पमाला और वस्त्र धारण करते हैं । बुध पीले रंग की पुष्पमाला और वस्त्र धारण करते हैं । पीत चन्दन से अनुलिप्त हैं । वे दिव्य सोने के रथ पर विराजमान हैं । देवताओं और दैत्यों के गुरु वृहस्पति और शुक्र की प्रतिमाएँ क्रमशः पीत और श्वेत वर्ण की होनी चाहिये । उनके चार भुजाएँ हैं, जिनमें वे दण्ड, रुद्राक्ष की माला, कमण्डलु और वरमुद्रा धारण किये रहते हैं । शनैश्वर की शरीर-कान्ति इन्द्रनीलमणिकी-सी है । वे गीध पर सवार होते हैं और हाथ में धनुष-बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण किये रहते हैं । राहु का मुख सिंह के समान भयंकर हैं । उनके हाथों में तलवार, कवच, त्रिशूल और वरमुद्रा शोभा पाती है तथा वे नीले रंग के सिंहसन पर आसीन होते हैं । ध्यान (प्रतिमा) में ऐसे ही राहु प्रशस्त माने गये हैं । केतु बहुतेरे हैं । उन सबकी दो भुजाएँ हैं । उनके शरीर आदि धूम्रवर्ण के हैं । उनके मुख विकृत हैं । वे दोनों हाथों में गदा एवं वरमुद्रा धारण किये हैं और नित्य गीध पर समासीन रहते हैं । इन सभी लोक-हितकारी ग्रहों को किरीट से सुशोभित कर देना चाहिये तथा इन सबकी ऊँचाई अपने हाथ के प्रमाण से एक सौ आठ अङगुल (साढ़े चार हाथ) की होनी चाहिये ।

हे पाण्डुनन्दन ! यह मैंने आपको नवग्रहों का स्वरूप बतलाया है । विद्वान् पुरुष को चाहिये कि ऐसी प्रतिमा बनाकर इनकी पूजा करे । जो मनुष्य उपर्युक्त विधि से ग्रहों की पूजा करता है, वह इस लोक में सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है तथा अन्त में स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । यदि किसी निर्धन मनुष्य को कोई ग्रह नित्य पीड़ा पहुँचा रहा हो तो उस बुद्धिमान् को चाहिये कि उस ग्रह की यलपूर्वक भलीभाँति पूजा करके तत्पश्चात् शेष ग्रहों की भी अर्चना करे, क्योंकि ग्रह, गौ, राजा और ब्राह्मण-ये विशेषरूप से पूजित होने पर रक्षा करते हैं, अन्यथा अवहेलना किये जाने पर जलाकर भस्म कर देते हैं । इसलिये वैभव की अभिलाषा रखनेवाले मनुष्य को दक्षिणा से रहित यज्ञ नहीं करना चाहिये, क्योंकि भरपूर दक्षिणा देने से (यज्ञ का प्रधान) देवता भी संतुष्ट हो जाता है । नवग्रहों के यज्ञ में यह दस हजार आहुतियों वाला हवन ही होता है । इसी प्रकार विवाह, उत्सव, यज्ञ, देवप्रतिष्ठा आदि कर्मों में तथा चित्त की उद्विग्नता एवं आकस्मिक विपत्तियों में भी यह दस हजार आहुतियोंवाला हवन ही बतलाया गया है । इसके बाद अब मैं एक लाख आहुतियोंवाले यज्ञ की विधि बतला रहा हूँ, सुनिये ।

विद्वानों ने सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि के लिये लक्षहोम का विधान किया है, क्योंकि यह पितरों को परम प्रिय और साक्षात् भोग एवं मोक्षरूपी फल का प्रदाता है । बुद्धिमान् यजमान को चाहिये कि ग्रहबल और ताराबल को अपने अनुकूल पाकर ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन कराये और अपने गृह के पूर्वोत्तर दिशा में अथवा शिवमन्दिर के समीपवर्ती भूमि पर विधानपूर्वक एक मण्डप का निर्माण कराये, जो दस हाथ अथवा आठ हाथ लम्बा-चौड़ा चौकोर हो तथा उसका मुख (प्रवेशद्वार) उत्तर दिशा की ओर हो । उसकी भूमि को यत्नपूर्वक पूर्वोत्तर दिशा की ओर ढालू बना देना चाहिये ।

तदनन्तर मण्डप के पूर्वोत्तर भाग में यथार्थ लक्षणों से युक्त एक सुन्दर कुण्ड तैयार कराये । परिमाण से कम अथवा अधिक परिमाण में बना हुआ कुण्ड अनेकों प्रकार का भय देनेवाला हो जाता है, इसलिये शान्तिकुण्ड को परिमाण के अनुकूल ही बनाना चाहिये । ब्रह्मा ने लक्षहोम को अयुतहोम से दसगुना अधिक फलदायक बतलाया है, इसलिये इसे प्रयत्नपूर्वक आहुतियों और दक्षिणाओं द्वारा सम्पादित करना चाहिये । लक्षहोम में कुण्ड चार हाथ लम्बा और दो हाथ चौड़ा होता है, उसके भी मुखस्थान पर योनि बनी होती है और वह तीन मेखलाओं से युक्त होता है । देवताओं की स्थापना के लिये एक वेदी का भी विधान बतलाया है, जो तीन परिधियों से युक्त हों । इनमें पहली परिधि दो अङ्गुल ऊँची शेष दो एक-एक अङ्गुल ऊँची होनी चाहिये । विद्वानों ने इन सबकी चौड़ाई दो अङ्गुल की बतलायी है । वेदी के ऊपर दस अङ्गुल ऊँची एक दीवाल बनायी जाय, उसी पर पहले की ही भाँति फूल और अक्षतों से देवताओं का आवाहन किया जाय । राजेन्द्र ! अधिदेवताओं एवं प्रत्यधि-देवताओं सहित सभी ग्रहों को सूर्य के सम्मुख ही स्थापित करना चाहिये, उत्तराभिमुख अथवा पराङ्मुख नहीं । लक्ष्मीकामी मनुष्य को इस यज्ञ में (सभी देवताओं के अतिरिक्त) गरुड की भी पूजा करनी चाहिये । (उस समय ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये-) ‘गरुड ! तुम्हारे शरीर से सामवेद की ध्वनि निकलती रहती है, तुम भगवान् विष्णु के वाहन और नित्य विषरूप पाप को हरनेवाले हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो ।’

तत्पश्चात् पहले की तरह कलश की स्थापना करके हवन आरम्भ करे । एक लाख आहुतियों से हवन करने के पश्चात् पुनः समिधाओं की संख्या के बराबर और अधिक आहुतियाँ डाले । फिर अग्नि के ऊपर घृतकुम्भ से वसोर्धारा गिराये । (वसोधरा की विधि यह है-) भुजा-बराबर लम्बी गूलर की लकड़ी से, जो खोखली न हो तथा सीधी एवं गीली हो, स्रुवा बनवाकर उसे दो खम्भों पर रखकर उसके द्वारा अग्नि के ऊपर सम्यक् प्रकार से घी की धारा गिराये । उस समय अग्निसूक्त (ऋ० सं० १ । १), विष्णुसूक्त (वाजसं० ५ । १-२२), रुद्रसूक्त (वही १६) और इन्दु (सोम) -सूक्त (ऋ० १ । ९१) पाठ करना चाहिये तथा महावैश्वानर साम और ज्येष्ठसाम का गान करना चाहिये । तदुपरान्त पूर्ववत् यजमान स्नान कर स्वस्तिवाचन कराये तथा काम-क्रोध रहित होकर शान्तचित्त से पूर्ववत् ऋत्विजों को पृथक्-पृथक् दक्षिणा प्रदान करे । नवग्रहयज्ञ के अयुतहोम में चार वेदवेत्ता ब्राह्मणों को अथवा श्रुति के जानकार एवं शान्त स्वभाववाले दो ही ऋत्विजों को नियुक्त करना चाहिये । विस्तार में नहीं फंसना चाहिये ।

इसी प्रकार लक्षहोम में अपने सामर्थ्य के अनुकूल मात्सररहित होकर दस, आठ अथवा चार ऋत्विजों को नियुक्त करना चाहिये । पाण्डवश्रेष्ठ ! सम्पत्तिशाली यजमान को यथाशक्ति भक्ष्य पदार्थ, आभूषण, वस्त्रसहित शय्या, स्वर्णनिर्मित कड़े, कुण्डल और अँगूठी आदि सभी वस्तुएँ लक्षहोम में नवग्रहयज्ञ से दसगुनी अधिक देनी चाहिये । मनुष्य को कृपणतावश दक्षिणारहित यज्ञ नहीं करना चाहिये । जो लोभ अथवा अज्ञान से भरपूर दक्षिणा नहीं देता, उसका कुल नष्ट हो जाता है । समृद्धिकामी मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार अन्न का दान करना चाहिये, क्योंकि अन्न-दानरहित किया हुआ यज्ञ दुर्भिक्षरूप फल का दाता हो जाता है । अन्नहीन यज्ञ राष्ट्र को, मन्त्रहीन ऋत्विज् को और दक्षिणारहित यज्ञ यज्ञकर्ता को जलाकर नष्ट कर देता है । इस प्रकार (विधिहीन) यज्ञ के समान अन्य कोई शत्रु नहीं है । अल्प धनवाले मनुष्य को कभी लक्षहोम नहीं करना चाहिये, क्योंकि यज्ञ में (दक्षिणा आदि के लिये) प्रकट हुआ विग्रह सदा के लिये कष्टकारक हो जाता है । स्वल्प सम्पत्तिवाला मनुष्य केवल पुरोहित की अथवा दो या तीन ब्राह्मणों की भक्ति के साथ विधिपूर्वक पूजा करे अथवा एक ही वेदज्ञ ब्राह्मण की भक्ति के साथ दक्षिणा आदि से प्रयत्नपूर्वक अर्चना करे, बहुतों के चक्कर में न पड़े । अधिक सम्पत्ति होने पर लक्षहोम करना चाहिये, क्योंकि यह अधिक लाभदायक हैं । इसका विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है । वह आठ सौ कल्पों तक शिवलोक वसुगण, आदित्यगण और मरुद्गणों द्वारा पूजित होता है तथा अन्त में मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य किसी विशेष कामना से इस लक्षहोम को विधिपूर्वक सम्पन्न करता है, उसे उस कामना की प्राप्ति तो हो ही जाती हैं, साथ ही यह अविनाशी पद को भी प्राप्त कर लेता है । इसका अनुष्ठान करने से पुत्रार्थी को पुत्र की प्राप्ति होती हैं, धनार्थी धन लाभ करता है, भार्यार्थी सुन्दर पत्नी, कुमारी कन्या सुन्दर पति, राज्य से भ्रष्ट हुआ राजा राज्य और लक्ष्मी का अभिलाषी लक्ष्मी प्राप्त करता है । इस प्रकार मनुष्य जिस वस्तु की अभिलाषा करता है, उसे वह प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो जाती है । जो निष्कामभाव से इसका अनुष्ठान करता है, वह परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
(अध्याय १४१)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.