भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ७९ से ८१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ७९ से ८१
अखण्ड-द्वादशी, मनोरथ-द्वादशी एवं तिल-द्वादशी-व्रतों का विधान

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — श्रीकृष्ण ! व्रतोपवास, दान, धर्म आदि में जो कुछ वैकल्य अर्थात् किसी बात की न्यूनता रह जाय तो क्या फल होता है ? इसे आप बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! राज्य पाकर भी जो निर्धन, उत्तम रूप पाकर भी काने, अंधे, लँगड़े हो जाते हैं, वे सब धर्म-वैकल्य के प्रभाव से ही होते हैं ।om, ॐ धर्म-वैकल्य से ही स्त्री-पुरुषों में वियोग एवं दुर्भगत्व होता है, उत्तम कुल में जन्म पाकर भी लोग दुःशील हो जाते हैं, धनाढ्य होकर भी धन का भोग तथा दान नहीं कर सकते तथा वस्त्र-आभूषणों से हीन रहते हैं । वे सुख प्राप्त नहीं कर पाते । अतः यज्ञ में, व्रत में और भी अन्य धर्म-कृत्यों में कभी कोई त्रुटि नहीं होने देनी चाहिये ।

युधिष्ठिर ने पुनः कहा — भगवन् ! यदि कदाचित् उपवास आदि में कोई त्रुटि हो ही जाय तो उसके निवारणार्थ क्या करना चाहिये ?

श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! अखण्ड द्वादशी व्रत करने से सभी प्रकार की धार्मिक त्रुटियाँ दूर हो जाती हैं । अब आप उसका भी विधान सुनें । मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को स्नानकर जनार्दन भगवान् का भक्तिपूर्वक पूजन कर उपवास रखना चाहिये और नारायण का सतत स्मरण करते रहना चाहिये । जितेन्द्रिय पुरुष पञ्चगव्य-मिश्रित जल से स्नान करके जौ और व्रीहि (धान) से भरा पात्र ब्राह्मण को दान करे और फिर भगवान् से यह प्रार्थना करे —

“सप्तजन्मनि यत्किंचिन्मया खण्डव्रतं कृतम् ।
भगवन् त्वत्प्रसादेन तदखण्डमिहास्तु मे ॥
यथाखण्डं जगत् सर्व त्वयैव पुरुषोत्तम ।
तथाखिलान्यखण्डानि ब्रतानि मम सन्तु वै ॥”
(उत्तरपर्व ७९ । १४-१५)

‘भगवन् ! मुझसे सात जन्मों में जो भी व्रत करने में न्यूनता हुई हो, वह सब आपके अनुग्रह से परिपूर्ण हो जाय । पुरुषोत्तम ! जिस प्रकार आपसे यह सारा जगत् परिपूर्ण है, उसी प्रकार मेरे खण्डित सभी व्रत पूर्ण हो जायें ।’

इस व्रत में चार महीने में व्रत की पारणा करनी चाहिये । चैत्रादि चार मास के अनन्तर दूसरी पारणा कर सत्तू-पात्र ब्राह्मण को देने का विधान है । श्रावणादि चार मास के अनन्तर तीसरा पारण कर नारायण का पूजन करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार सुवर्ण, चाँदी, मृत्तिका अथवा पलाश-पत्र के पात्र में घृत-दान करना चाहिये । संवत्सर पूर्ण होने पर जितेन्द्रिय बारह ब्राह्मण को खीर का भोजन कराकर वस्त्राभूषण देकर त्रुटियों के लिये क्षमा माँगनी चाहिये । इसमें आचार्य का विधिपूर्वक पूजन करने का भी विधान है । इस तरह से जो अखण्ड-द्वादशी का व्रत करता है, उसके सात जन्म तक किये हुए व्रत सम्पूर्ण फलदायक हो जाते हैं । अतः स्त्री-पुरुषों को व्रत का वैकल्य दूर करने के लिये अवश्य हीं इस व्रत को सम्पादित करना चाहिये ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने पुनः कहा — महाराज ! स्त्री अथवा पुरुष दोनों को फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को उपवास कर जगत्पति भगवान् का पूजन-भजन
और उठते-बैठते नित्य हरि का स्मरण करते रहना चाहिये । द्वादशी के दिन प्रभात में ही स्नान-पूजन तथा घृत से हवन के बाद ब्राह्मण को दक्षिणा देने का विधान है । तदनन्तर भगवान् अपने अभीष्ट मनोरथों की संसिद्धि के लिये प्रार्थना करनी चाहिये । तत्पश्चात् हविष्य-भोजन ग्रहण करना चाहिये । इस व्रत में फाल्गुन से ज्येष्ठ तक प्रथम चार महीनों में रक्तपुष्प, गुगल-धूप और हविष्यान्न-नैवेद्य से भगवान् की पूजा-अर्चना के बाद गोशृङ्गछालित जल तथा हविष्यान्न ग्रहण करने का विधान है । फिर आषाढ़ से आश्विन तक चार महीनों में चमेली के पुष्प, धूप और शाल्यन्न (साठी धान) आदि के नैवेद्य द्वारा भगवान् की पूजा-स्तुति करने के बाद कुशोदक का प्राशन तथा निवेदित नैवेद्य भक्षण करना चाहिये । कार्तिक से माघ मास तक तीसरी पारणा में जपापुष्प (अड़हुल), उत्तम धूप और कसार के नैवेद्य से नारायण के पूजनोपरान्त गोमूत्र-प्राशन तथा कसार भक्षण करने का विधान है । प्रतिमास ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिये । वर्ष के अन्त्त में एक कर्ष (माशा) सुवर्ण की भगवान् नारायण की प्रतिमा का पूजन कर, दो बस्त्र और दक्षिणा सहित ब्राह्मण को निवेदित करना चाहिये । इसके साथ बारह ब्राह्मण को भी भोजन कराकर प्रत्येक को अन्न, जल का घट, छतरी, जूता, वस्त्र और दक्षिणा देनी चाहिये । इस द्वादशीव्रत के करने से सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं । इसीसे इसका नाम मनोरथ-द्वादशी हैं । इन्द्र को त्रैलोक्य का राज्य भी इसी व्रत के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ है । शुक्राचार्य ने धन तथा महर्षि धौम्य ने निर्विघ्न विद्या प्राप्त की है । अन्य श्रेष्ठ पुरुषों ने तथा स्त्रियों ने भी इस व्रत के प्रभाव से अपने अभीष्ट मनोरथों को प्राप्त किया है । जो कोई भी जिस-किसी अभिलाषा से इस व्रत को करता है, उसे वह अवश्य प्राप्त होती है । जो पुरुष भगवान् पुरुषोत्तम का पूजन नहीं करते, गौ, ब्राह्मण आदि की सेवा नहीं करते और मनोरथ-द्वादशी का व्रत नहीं रखते, वे किसी भी प्रकार से अपना अभीष्ट-फल प्राप्त नहीं कर सकते ।

राजा युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! थोडे से परिश्रम से अथवा स्वल्पदान से सभी पाप कट जायें ऐसा कोई उपाय आप बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले —
महाराज ! तिल-द्वादशी नामक एक व्रत है, जो परम पवित्र है और सभी पापों का नाश करनेवाला है । माघ मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को जब मूल अथवा पूर्वाषाढ़ नक्षत्र प्राप्त हो, तब उसके एक दिन पूर्व अर्थात् एकादशी को उपवास रखकर व्रत ग्रहण करना चाहिये । द्वादशी को भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन कर ब्राह्मण को कृष्ण तिलों का दान करना चाहिये । व्रती को भी स्नानकर काले तिल का ही भोजन करना चाहिये । इस प्रकार एक वर्ष तक प्रत्येक कृष्ण द्वादशी में व्रत कर अन्त में तिलों से पूर्ण कृष्णवर्ण के कुम्भ, पकवान, छत्र, जूता, वस्त्र और दक्षिणा बारह ब्राह्मणों को देना चाहिये । इन तिलों के बोने से जितने तिल उत्पन्न होते हैं, उतने वर्षपर्यन्त इस व्रत को करनेवाला स्वर्ग में पूजित होता है और किसी जन्म में अंध, बधिर, कुष्ठी आदि नहीं होता, सदा नीरोग रहता है । इस तिल-दान से बड़े-बड़े पाप कट जाते हैं । इस व्रत में न बहुत परिश्रम है और न ही बहुत अधिक व्यय । इसमें तिलों से ही स्नान, तिल-दान और तिल ही भोजन करने पर अवश्य सद्गति मिलती है ।
(अध्याय ७९-८१)यह कथा ब्रह्मपुराणमें भी आयी है।

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