भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय २१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय २१
कण्व के उपाध्याय, दीक्षित तथा पाठक आदि दस पुत्रों की उत्त्पति तथा कृष्णचैतन्य का वर्णन

सूत जी बोले — धीमान् जगन्नाथ की ऐसी बातें सुनकर प्रसन्न होकर कृष्णचैतन्य ने कहा — भगवन् ! प्राणियों के कल्याणार्थ आप ने जो कुछ कहा है, उसे और मुने ! बौद्ध की उत्पत्ति आप विस्तार पूर्वक कहने की कृपा करें ।

जगन्नाथ जी बोले — कलि के सहस्र वर्ष व्यतीत हो जाने पर इस कर्मभूमि भारत में कश्यप पुत्र कण्व मुनि का आगमन हुआ । देवकन्या आर्यावती कण्व की प्रिया स्त्री थी । उसे साथ लेकर इन्द्र की आज्ञापूर्वक शारदा (सरस्वती नदी) के तट पर वे दोनों दम्पत्ति पहुँचे । om, ॐवहीं जाकर कण्व ने नम्रतापूर्वक चारों वेदों के स्तोत्रों द्वारा कुरुक्षेत्र निवासिनी सरस्वती देवी की आराधना की, जो वहाँ महीरूप में रह रही है । उससे प्रसन्न होकर सरस्वती देवी ने वर्ष के भीतर ही आर्यसृष्टि के समृद्ध्यर्थ उन्हें शुभ वरदान प्रदान किया । पश्चात् उन दोनों स्त्री-पुरुष द्वारा आर्यबुद्धि वाले दशपुत्रों की उत्पत्ति हुई । उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ल, मिश्र, अग्निहोत्री, द्विवेदी, त्रिवेदी, पाण्डेय और चतुर्वेदी उनके नाम एवं उसी के अनुसार गुण हुए । बारह वर्ष की अवस्था में उन पुत्रों ने नम्र होकर सरस्वती देवी की आराधना की उससे प्रसन्न होकर भक्तवत्सला शारदा माता ने अपनी शक्ति द्वारा कन्याएँ उत्पन्न कर उन्हें प्रदान किया, जो उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी शुक्लानी, मिश्राणी, अग्निहोत्राणी, द्विवेदिनी, त्रिवेदिनी, पाण्डायनी, और चतुर्वेदिनी नाम से प्रख्यात हुई । इन कन्याओं ने अपने उन उपरोक्त पति की सेवाकर सोलह-सोलह पुत्रों को उत्पन्न किया, जो गोत्रवंश के प्रचारक हुए । कश्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ, वत्स, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, भृगु, अंगिरा, शृङ्गी, कात्यायन, एवं याज्ञल्वक्य क्रमशः उन पुत्रों के नामकरण हुए ।

तदुपरांत सरस्वती की आज्ञा से कण्व मिश्रदेश चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने दशसहस्र म्लेच्छों को संस्कृत भाषा द्वारा अपने वशीभूत कर पुनः उन लोगों समेत सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मवर्त प्रदेश में आगमन किया । यहाँ आने पर उन लोगों ने सरस्वती देवी की तप द्वारा आराधना की । पाँच वर्ष के उपरांत उनकी आराधना से प्रसन्न होकर सरस्वती देवी ने वहाँ प्रकट होकर पत्नी समेत उन म्लेच्छों को शूद्र वर्ण बनाया। अनन्तर बहुपुत्र वाले उन म्लेच्छों ने कार (शिल्प) वृत्ति अपनाकर अपना जीवन व्यतीत करना आरम्भ किये, उनमें दो सहस्र म्लेच्छ वैश्य हो गये थे, जिनमें सर्वश्रेष्ठ आचार्य पृथु ने जो कश्यप का सेवक था, बारह वर्ष तप द्वारा उन महामुनि की आराधना की । उस समय प्रसन्न होकर भगवान् कण्व ने वरदान प्रदान पूर्वक उन्हें राजा बनाकर राजपुत्र नामक पुर सौंप दिया । पश्चात् राजन्या नामक उनकी रानी ने मागध नामक पुत्र उत्पन्न किया जिसे कण्व ने पूर्व दिशा के मागध नामक ग्राम को सौंप दिया था । तदुपरांत कश्यपपुत्र कण्व मुनि स्वर्ग चले गये । उनके स्वर्ग यात्रा करने पर शूद्र वर्ण वाले उन म्लेच्छों ने यज्ञानुष्ठान द्वारा शचीपति इन्द्र की आराधना की । उससे दुःखी होकर भगवान् इन्द्र ने अपने बंधुओं समेत इस भूतल पर ब्राह्मण कुल में जन्म ग्रहणकर वेदों के अपहरण करने के लिए प्रयत्न करना आरम्भ किया ।

उनका नाम ‘जिन’ था तथा उनकी पत्नी का नाम ‘जयिनी’ । इस कीकट नामक प्रदेश में कश्यप और अदिति के संयोग से इन दोनों की उत्पत्ति हुई थी और लोक के मंगलार्थ आदित्यों की भी । कर्मनाशा नदी के तटपर बोधगया नामक स्थान में रहकर उन लोगों ने उन बौद्ध निपुण विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । उन लोगों ने उन शूद्रों से वेदों का अपहरण कर विशाला में पहुँचकर वहाँ के समाधिनिष्ठ मुनियों को जागृतकर सौंप दिया । पश्चात् सभी देवगण इस भूतल से प्रस्थान कर स्वर्ग चले गये । तत्पश्चात् वे म्लेच्छ तथा उनके अनुयायी वेदपाठी लोग बौद्ध हुए ।

सरस्वती जी के प्रभाव से वे ही बहुसंख्यक आर्य हुए जिन्होंने देवों एवं पितरों के उद्देश्य से हव्य, कव्य का समर्पण किया, और उससे देवों की अत्यन्त तृप्ति हुई । इस भूतलपर कलि के सत्ताईस सौ वर्ष व्यतीत होने के उपरांत बलि दैत्य की प्रेरणावश मायावी मय दानव आया, जो अत्यन्त मायावी एवं शाक्यसिंह का गुरु था । उसकी प्रख्याति गौतम के नाम से हुई जो सदैव दैत्यपक्षों के वर्धनार्थ प्रयत्न करता रहा । उसी ने समस्त तीर्थों में जाकर यंत्रों की स्थापना की थी । उसके नीचे जो कोई बौद्ध पहुँच गये वे सभी शिखा-सूत्रहीन होकर वर्ण संकर हो गये । उन आर्यों की दश कोटि संख्या थी, जो बौद्ध पथ गामी थे । शेष पाँच लाख आर्य उनके ऊपर पर्वत-शिखरों पर पहुँचे । चारों वेद के प्रभाव से अग्निवंश के चालीस राजपुत्र क्षत्रिय-गणों ने जो महान योद्धा थे, अपने यहाँ से बौद्धों को निकाल दिया । उन्होंने उन आर्यों को विन्ध्यपर्वत के दक्षिण प्रदेश में संस्कार पूर्वक निवास कराया, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को अत्यन्त दृढ़ किया । उस आर्यावर्त नामक पुण्य प्रदेश में पाँच लाख आर्य रह रहे थे ।

सूत जी बोले — इसे सुनकर यज्ञांशदेव ने जो साक्षात् नारायण रूप हैं, जगन्नाथ जी के शिष्य होकर वेदमार्ग का विस्तार करना आरम्भ किया । शुक्लदत्त के पुत्र ब्राह्मण श्रेष्ठ नित्यानन्द ने नमस्कार पूर्वक जगन्नाथ की शिष्य सेवा स्वीकार की । उस समय प्रसन्न होकर उषापति भगवान् अनिरुद्ध ने उन दोनों के मस्तक में महत्त्वपूर्ण अभिषेक (तिलक) किया । उसी समय से पृथ्वी पर महत्त्व पदवी की ख्याति हुई । गुरु एवं उनके बंधु (महाप्रभु तथा नित्यानन्द) ने प्रसन्न होकर अपने शिष्यों से कहा — उषापति एवं पद्मनाभ भगवान जगन्नाथ के बदन का दर्शन करने से लोग स्वर्ग की प्राप्ति करेंगे और जो मनुष्य सादर उनके प्रसाद का भक्षण करेगा वह कोटि जन्म तक वेदपाठी एवं महाधनतान् ब्राह्मण होता रहेगा । मार्कण्डेय वटवृक्ष के नीचे कृष्णदर्शन और समुद्रस्नान के उपरांत इन्द्रद्युम्न सरोवर में स्नान करने वाले प्राणी का पुनर्जन्म नहीं होगा । श्रद्धाभक्तिपूर्वक इस कथा का श्रवण करने वाला जगन्नाथ पुरी की यात्रा का फल प्राप्त करेगा ।

इस प्रकार अवतारित होने वाले वैष्णवों ने यज्ञांश की बातें सुनकर अन्तर्हित होकर स्वर्ग को प्रस्थान किया । विप्र ! उसी बीच कलि की प्रार्थना करने पर बलि दैत्य ने दुःख प्रकट करते हुए मय दानव से कहा — सुकन्दर (सिकन्दर) नामक म्लेच्छ को, जो मेरी वृद्धि के लिए सदैव अटूट परिश्रम करता है, शीघ्र मेरा सहायक बना दीजिये । बलि की इस बात को सुनकर वह विद्या निपुण मय दैत्य अपने सौ दैत्यगणों समेत इस कर्मभूमि भूतल पर आगमन किया । यहाँ आकर उसने म्लेच्छ जाति के दुष्टों को रेखागणित के उस समय इक्कीस अध्यायों का अध्ययन कराया । पश्चात् कलापूर्ण होने पर उन कलाविद्या विशारद म्लेच्छों ने सातों पुरियों में यंत्रों की स्थापना की जिससे म्लेच्छों की अधिक वृद्धि हुई । उन यंत्रों के नीचे जो पहुँच जाते थे, वे सभी म्लेच्छ हो जाते थे ।

इसे सुनकर आर्यवृन्दों में एक महान् शोकपूर्ण कोलाहल उत्पन्न हुआ । उसे सुनकर कृष्णचैतन्य के सेवक उन वैष्णवों ने अपने गुरु के दिव्य मंत्र के पाठपूर्वक उन पुरियों की यात्रा की ।

रामानन्द के दोनों शिष्यों ने अयोध्या में पहुँचकर उस मंत्र के विलोम पाठ द्वारा उन वैष्णवों के आकार में परिवर्तन किया । भाल में त्रिशूल का चिह्न (तिलक) जो श्वेत एवं रक्त वर्ण का होता है, कंठ में तुलसी की माला धारण किये । उनकी जिह्वा राममयी हो गई। रामानन्द के प्रभाव से अयोध्या के म्लेच्छ संयोगी वैष्णव रूप में परिवर्तित हो गये, जो गृहस्थाश्रम में रहते हुए उनके मत का अवलम्बन करते थे । इस प्रकार अयोध्या में वे आर्य मुख्य वैष्णव हुए ।

बुद्धिमान् निम्बादित्य ने अपने शिष्यों समेत काञ्चीपुरी की यात्रा की । उन्होंने राजमार्ग में उस म्लेच्छयंत्र को देखा । पश्चात् अपने गुरु मंत्र के विलोम पाठ द्वारा प्रचार करना आरम्भ किया । उनके उपदेश द्वारा वहाँ की जनता के ललाट में बांस के पत्ते के समान एक रेखा, कंठ में माला और मुख से सदैव गोपी-वल्लभ का मंत्रोचारण होने लगा । उनकी छाया में जो कोई पहुँचे सभी वैष्णव हुए । म्लेच्छ संयोगी और आर्य शुद्धवैष्णव हुए ।

विष्णु स्वामी ने अपने शिष्यगणों समेत हरिद्वार की यात्रा की । वहाँ पहुँचने पर अपने विलोम मंत्र द्वारा वहाँ के यंत्र को शुद्ध किया । उसके नीचे पहुँचने वाले वैष्णव हो जाते थे । उनके वेष में मस्तक में ऊर्ध्व-पुण्ड्र की दो रेखा थी जिसके मध्य में एक उत्तम बिन्दु रहता था । कंठ में तुलसी की गोलमाला और मुख से माधव मंत्र का सदैव उच्चारण होता था ।

मथुरा में हरिप्रिय मध्वाचार्य की यात्रा हुई । उन्होने राजमार्ग में यंत्र को देखकर उसे विलोम किया जिससे उसके नीचे पहुँचने वाले सभी वैष्णव हो जाते थे । वहाँ के वैष्णव वेश में भाल में करवीर पत्र के समान शुभ तिलक, जो नासा के आधे भाग तक स्थित रहती है, कंठ में तुलसी की माला और मुख से सदैव राधाकृष्ण का परमोत्तम नामोच्चारण होता था ।

शैवमतावलम्बी शंकराचार्य ने रामानुज की आज्ञा से अपने गणों समेत काशीपुरी की यात्रा की । वहाँ पहुँच-कर उन्होंने उस यंत्र को विलोमकर शैवों का प्रचार किया । उसके नीचे आने वाले सभी शैव हुए । उनके मस्तक में त्रिपुण्ड्र कण्ठ में रुद्राक्ष की माला, और मुख से सदैव गोविंद नाम का उच्चारण हो रहा था ।

तोतादरी में सुखी रामानुज ने प्रस्थान किया । उनके वेष में मस्तक में उर्ध्व दोनों रेखा के मध्य पीत वर्ण की एक सूक्ष्मरेखा रहती थी । कण्ठ में तुलसी की माला रहती है ।

गुणी वराहमिहिराचार्य ने उज्जयिनी में जाकर उस यंत्र को विफल करके वहाँ की जनता में शैव मत का प्रचार किया । उस वेष में भाल में चिताभस्म, कण्ठ मे रुद्राक्ष की माला और मुख में मांगलिक शिव, नाम का उच्चारण सदैव होता है ।

वाणी भूषण ने स्वयं कान्यकुब्ज (कन्नौज) में जाकर शाक्तमत का प्रचार किया, जिस वेष में अर्धचन्द्राकार पुण्ड्र रक्तचन्दन की माला, और मुख से देवी के निर्मल नाम का उच्चारण होता रहता है ।

धन्वतरि ने प्रयाग में पहुँच कर उस यंत्र के विलोम पूर्वक वहाँ की एकत्रित जनता में भाल में रक्तवर्ण के बिन्दु समेत अर्द्ध पुण्ड्र एवं कण्ठ में रक्तचन्दन की माला धारण करने का प्रचार किया ।

बुद्धिमान् भट्टोजि ने उत्पलारण्य में जाकर वहाँ की जनता में रक्तचन्दन के त्रिपुण्ड्र, कण्ठ में रुद्राक्ष की माला और विश्वनाथ जी के परमोत्तम नाम यंत्र के जप करने का प्रचार किया ।

रोपण ने इष्टिका में जाकर उस यंत्र को विफल करके वहाँ की जनता में ब्रह्ममार्ग का प्रचार किया । उसी भाँति सर्वश्रेष्ठ विष्णु भक्त जयदेव जी ने द्वारका में जाकर उस यंत्र को निष्फल करके वहाँ की जनता के मस्तक में रक्तवर्ण की रेखा, कण्ठ में पद्माक्ष की माला तथा गोविन्द नाम का उच्चारण करने का प्रचार किया। इस प्रकार उन वैष्णव, शैव, एवं शाक्त गणों की अत्यन्त अभिवृद्धि हुई । विद्वानों ने शाक्त को निर्गुण, वैष्णव को सगुण और निर्गुण सगुण मिश्रित को शैव बताया है । तदनन्तर तैतीस देवों ने समाधिस्थ होकर इस भूमि को अत्यन्त पावन किया । शान्तिपुर में नित्यानन्द नदीहा में हरि, मागधप्रदेश में कबीर, कलिंजर में रैदास, और नैमिषारण्य में सधन ने समाधिस्थ होकर उन-उन प्रदेशों को परमपवित्र किया है । विप्र ! उसी से आज भी वैष्णवों का महानगण इस भूतल पर स्थित रहकर मेरुमूर्धास्थान में यज्ञों की महान् अभिवृद्धि का रहा है। विप्र ! इस प्रकार मैंने यज्ञांशदेव का शुभ चरित तुम्हें सुना दिया, जिसके सुनने से स्त्री एवं पुरुषों को अत्यन्त पुण्य की प्राप्ति होती है । पश्चात् मय आदि दैत्यों ने पलायन कर बलि दैत्यराज के पास पहुँचकर उनसे निवेदन किया ।
(अध्याय २१)

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