December 21, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (मध्यमपर्व — प्रथम भाग) अध्याय – ९ पूर्त-कर्म – निरूपण सूतजीने कहा — ब्राह्मणों ! युगान्तर में ब्रह्माजी ने जिस अन्तर्वेदि और बहिर्वेदि की बात बतलायी है, वह द्वापर और कलियुग के लिये अत्यन्त उत्तम मानी गयी है । जो कर्म ज्ञान-साध्य हैं, उसे अन्तर्वेदि कहते हैं । देवता की स्थापना और पूजा बहिर्वेदि (पूर्त) — कर्म है । वह बहिर्वेदि — कर्म दो प्रकार का हैं — कुआँ, पोखरा, तालाब आदि खुदवाना और ब्राह्मणों को संतुष्ट करना तथा गुरु-जनों की सेवा ।निष्काम-भाव-पूर्वक किये गये कर्म तथा व्यसन-पूर्वक किया गया हरिस्मरणादि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदि-कर्मों के अन्तर्गत आते हैं, इनके अतिरिक्त अन्य कर्म बहिर्वेदि-कर्म कहलाते है । धर्म का कारण राजा होता है, इसलिये राजा को धर्म का पालन करना चाहिये और राजा का आश्रय लेकर प्रजा को भी बहिर्वेदि (पूर्त)— कर्म सतासी (८७) प्रकार के कहे गये हैं, फिर भी इनमें तीन प्रधान है — देवता का स्थापन, प्रासाद और तडाग आदि का निर्माण । इसके अतिरिक्त गुरुजनों की पूजापुर्वक पितृपूजा देवताओं का अधिवासन और उनकी प्रतिष्ठा, देवता-प्रतिमा-निर्माण तथा वृक्षारोपण आदि भी पूर्त-कर्म हैं । देवताओं की प्रतिष्ठा उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ-भेद से तीन प्रकार की होती है । प्रतिष्ठा में पूजा, हवन तथा दान आदि ये तीन कर्म प्रधान है । तीन दिनों में सम्पन्न होनेवाले प्रतिष्ठा-विधानों में अट्ठाईस देवताओं की पूजा तथा जापकरूप में सोलह ब्राह्मण रखकर प्रतिष्ठा करानी चाहिये । प्रतिष्ठा की यह उत्तम विधि कही गयी है । ऐसा करने से अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । मध्यम प्रतिष्ठा-विधि में यजन करनेवाले चार विद्वान् ब्राह्मण तथा तेईस देवता होता हैं । इसमें नवग्रह, दिक्पाल, वरूण, पृथ्वी, शिव आदि देवताओं की एक दिन में ही पूजा सम्पन्न कर देवता की प्रतिष्ठा की जाती है । जो मात्र गणपति, ग्रह-दिक्पाल-वरुण और शिव की अर्चना कर प्रतिष्ठा विधान किया जाता है, वह कनिष्ठ विधि है । क्षुद्र देवताओं की भी प्रतिमाएँ नाना प्रकार के वृक्षों की लकड़ियों से बनायी जाती है ।नवीन तालाब, बावली, कुण्ड और जल-पौंसरा आदि का निर्माण कर संस्कार-कार्य के लिये गणेशादि–देव-पूजन तथा हवनादि कार्य करने चाहिये । तदनन्तर उनमें वापी, पुष्करिणी (नदी) आदि का पवित्र जल तथा गङ्गाजल डालना चाहिये । एकसठ (६१) हाथ का प्रासाद उत्तम तथा इससे आधे प्रमाण का मध्यम और इसके आधे प्रमाण से निर्मित प्रासाद कनिष्ठ माना जाता है । ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाले को देवताओं की प्रतिमा के मानसे प्रासाद का निर्माण करना चाहिये । नूतन तडाग का निर्माण करनेवाला अथवा जीर्ण तडाग का नवीन रूप में निर्माण करनेवाला व्यक्ति अपने सम्पूर्ण कुल का उद्धार कर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । वापी, कूप, तालाब, बगीचा तथा जल के निर्गम-स्थान को जो व्यक्ति बार-बार स्वच्छ या संस्कृत करता हैं, वह मुक्तिरूप उत्तम फल प्राप्त करता है । जहाँ विप्रों एवं देवताओं का निवास हो, उनके मध्यवर्ती स्थान में वापी, तालाब आदि का निर्माण मानवों को करना चाहिये । नदी के तट पर और श्मशान के समीप उनका निर्माण न करे । जो मनुष्य वापी, मन्दिर आदि की प्रतिष्ठा नहीं करता, उसे अनिष्ट का भय होता है तथा वह पाप का भागी भी होता है । अतः जन-संकुल गाँवों के समीप बड़े तालाब, मन्दिर, कूप आदि का निर्माण कर उनकी प्रतिष्ठा शास्त्र-विधि से करनी चाहिये । उनके शास्त्रीय-विधि से प्रतिष्ठित होने पर उत्तम फल प्राप्त होते हैं । अतएव प्रयत्नपूर्वक मनुष्य न्यायोपार्जित धन से शुभ मुहूर्त में शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक प्रतिष्ठा करे । भगवान् के कनिष्ठ, मध्यम या श्रेष्ठ मन्दिर को बनानेवाला व्यक्ति विष्णुलोक को प्राप्त होता है और क्रमिक मुक्ति को प्राप्त करता है । जो व्यक्ति गिरे हुए या गिर रहे अर्थात् जीर्ण मन्दिर का रक्षण करता है, वह समस्त पुण्यों का फल प्राप्त करता है । जो व्यक्ति विष्णु, शिव, सूर्य, ब्रह्मा, दुर्गा तथा लक्ष्मीनारायण आदि के मन्दिरों का निर्माण कराता है, वह अपने कुल का उद्धार कर कोटि कल्प तक स्वर्गलोक में निवास करता है । उसके बाद वहाँ से मृत्युलोक में आकर राजा या पूज्यतम धनी होता है ।जो भगवती त्रिपुरसुन्दरी के मन्दिर में अनेक देवताओं की स्थापना करता है, वह सम्पूर्ण विश्व में स्मरणीय हो जाता है और स्वर्गलोक में सदा पूजित होता है । जल की महिमा अपरम्पार है । परोपकार या देव-कार्य में एक दिन भी किया गया जल का उपयोग मातृकुल, पितृकुल, भार्याकुल तथा आचार्यकुल की अनेक पीढ़ियों को तार देता है । उसका स्वयं का भी उद्धार हो जाता है । अविमुक्त दशार्णव तीर्थ मे देवार्चन करनेसे अपना उद्धार होता है तथा अपने पितृ-मातृ आदि कुलों को भी वह तार देता है । जल के ऊपर तथा प्रासाद (देवालय)- के ऊपर रहने के लिये घर नहीं बनवाना चाहिये । प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित शिवलिङ्ग को कभी उखाड़ना नहीं चाहिये । इसी प्रकार अन्य देव-प्रतिमाओं और पूजित देव-वृक्षों को चालित नहीं करना चाहिये । उसे चालित करनेवाले व्यक्ति को रौरव नरक की प्राप्ति होती हैं, परन्तु यदि नगर या ग्राम उजड़ गये हों, अपना स्थान किसी कारण छोड़ना पड़े या विप्लव मचा हो तो उसकी पुनः प्रतिष्ठा बिना विचार के करनी चाहिये । शुभ मुहूर्त के अभाव में देवमन्दिर तथा देववृक्ष आदि स्थापित नहीं करने चाहिये । बाद में उन्हें हटाने पर ब्रह्महत्या का दोष लगता है । देवताओं के मन्दिर के सामने पुष्करिणी आदि बनाने चाहिये । पुष्करिणी बनानेवाला अनन्त फल प्राप्तकर ब्रह्मलोक से पुनः नीचे नहीं आता । (अध्याय ९) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय २ से ३ 4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ४ 5. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ५ 6. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ६ 7. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ७ से ८ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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