शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 11
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
उमासंहिता
ग्यारहवाँ अध्याय
दानके प्रभावसे यमपुरके दुःखका अभाव तथा अन्नदानका विशेष माहात्म्यवर्णन

व्यासजी बोले- हे प्रभो ! पाप करनेवाले मनुष्य बड़े दुःखसे युक्त होकर यममार्गमें गमन करते हैं, अब आप उन धर्मोंको कहिये, जिनके द्वारा वे सुखपूर्वक यममार्गमें गमन करते हैं ॥ १ ॥

सनत्कुमार बोले- निश्चय ही अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मका फल बिना विचारे विवश होकर भोगना पड़ता है, अब मैं सुख प्रदान करनेवाले धर्मोंका वर्णन करूँगा। इस लोकमें जो लोग शुभ कर्म करनेवाले, शान्तचित्त एवं दयालु मनुष्य हैं, वे बड़े सुखके साथ भयानक यममार्गमें जाते हैं ॥ २-३ ॥ जो मनुष्य श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको जूता एवं खड़ाऊँका दान करते हैं, वे उत्तम घोड़ेपर बैठकर सुख- पूर्वक यमपुरीको जाते हैं। छाताका दान करनेसे मनुष्य यहाँकी भाँति छाता लगाकर [ यमलोक ] जाते हैं। शिविका (पालकी या डोली जैसी सवारी )प्रदान करनेसे प्राणी सुखपूर्वक रथसे गमन करता है ॥ ४-५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


शय्या, आसन प्रदान करनेसे प्राणी विश्राम करता हुआ सुखपूर्वक जाता है । जो लोग उद्यान लगानेवाले, छाया करनेवाले तथा मार्गमें वृक्षका आरोपण करनेवाले हैं, वे धूपमें भी कष्टरहित होकर यमपुरीको जाते हैं ॥ ६ ॥ फूलोंके बगीचे लगानेवाले मनुष्य पुष्पक विमानसे जाते हैं और देवमन्दिरका निर्माण करानेवाले [उस मार्गपर] [उत्तम] भवनोंके भीतर क्रीड़ा करते हैं । जो लोग संन्यासियोंके लिये आश्रम तथा अनाथोंके लिये अनाथालय बनवाते हैं, वे भी [उत्तमोत्तम] भवनोंमें क्रीड़ा करते हैं ॥ ७-८ ॥ देवता, अग्नि, गुरु, ब्राह्मण एवं माता – पिताकी पूजा करनेवाले मनुष्य पूजित होते हुए यथेच्छ सुखपूर्वक [ यमपुरीको] जाते हैं ॥ ९ ॥ दीपदान करनेवाले सभी दिशाओंको प्रकाशित करते हुए जाते हैं एवं आश्रयस्थान (गृह आदि) प्रदान करनेवाले नीरोग होकर सुखपूर्वक जाते हैं ॥ १० ॥

गुरुकी सेवा करनेवाले मनुष्य विश्राम करते हुए जाते हैं और वाद्य-यन्त्रोंका दान देनेवाले अपने घरके समान सुखपूर्वक [यमलोक ] जाते हैं ॥ ११ ॥ गौ प्रदान करनेवाले सभी कामनाओंसे सम्पन्न होकर जाते हैं। मनुष्य इस लोकमें जो भी अन्न, पान आदि दिये रहता है, वही [ परलोकके] मार्गमें वह प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ पैर धोनेके लिये जल प्रदान करनेसे प्राणी जलवाले मार्गसे जाता है। पैरोंमें लगानेके लिये उबटनका दान करनेवाले घोड़ोंकी पीठपर चढ़कर जाते हैं ॥ १३ ॥ हे व्यासजी ! जो पैर धोनेके लिये जल, उबटन [तेल आदि ], दीपक, अन्न एवं प्रतिश्रय (गृह आदि) प्रदान करता है, उसके पास यमराज नहीं जाते हैं ॥ १४ ॥

सोना एवं रत्नका दान करनेसे मनुष्य घोर कष्टोंको पार करता हुआ तथा चाँदी, बैल आदिका दान करनेसे वह सुखसे यमलोकको जाता है और इन सभी दानोंके कारण मनुष्य सुखपूर्वक यमलोक जाते हैं और स्वर्गमें सदा अनेक प्रकारके भोग प्राप्त करते हैं ॥ १५-१६ ॥ सभी दानोंमें अन्नदान श्रेष्ठ कहा गया है; क्योंकि यह तत्काल प्रसन्न करनेवाला, हृदयको प्रिय लगनेवाला एवं बल तथा बुद्धिको बढ़ानेवाला है ॥ १७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अन्नदानके समान कोई दूसरा दान नहीं है; क्योंकि अन्नसे ही प्राणी उत्पन्न होते हैं और उसके अभावमें मर जाते हैं ॥ १८ ॥ रक्त, मांस, चर्बी एवं शुक्र – [ ये] क्रमशः अन्नसे ही बढ़ते हैं। शुक्रसे प्राणी उत्पन्न होते हैं, इसलिये जगत् अन्नमय है अर्थात् अन्नका ही परिणाम है ॥ १९ ॥

भूखे लोग सुवर्ण, रत्न, घोड़ा, हाथी, स्त्री, माला, चन्दन आदि समस्त भोगोंके प्राप्त होनेपर भी आनन्दित नहीं होते हैं। गर्भस्थ, उत्पन्न हुए शिशु, बालक, युवा, वृद्ध, देवता, दानव तथा राक्षस- ये सब आहारकी ही विशेष आकांक्षा रखते हैं ॥ २०-२१ ॥ इस जगत् में भूखको सभी रोगों में सबसे बड़ा रोग कहा गया है, वह [ रोग ] अन्नरूपी औषधिके लेपसे नष्ट होता है, इसमें संशय नहीं है ॥ २२ ॥ क्षुधाके समान कोई दुःख नहीं है, क्षुधाके समान कोई व्याधि नहीं है, आरोग्यलाभके समान कोई सुख नहीं है एवं क्रोधके समान कोई शत्रु नहीं है । अतः अन्नदान करनेमें महापुण्य कहा गया है; क्योंकि क्षुधारूपी अग्निसे तप्त हुए सभी प्राणी मर जाते हैं ॥ २३-२४ ॥

अन्नका दान करनेवाला, प्राणदाता और प्राणदान करनेवाला सर्वस्वका दान करनेवाला कहा गया है, अतः मनुष्य अन्नदानसे सभी प्रकारके दानका फल प्राप्त करता है । जिसके अन्नसे पालित पुरुष पुष्ट होकर पुण्य संचय करता है, उसका आधा पुण्य अन्नदाताको और आधा पुण्य [स्वयं उस] कर्ताको प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है ॥ २५-२६ ॥ तीनों लोकोंमें जो भी रत्न, भोग, स्त्री, वाहन आदि हैं, उन सबको अन्नदान करनेवाला इस लोकमें तथा परलोकमें प्राप्त करता है। यह शरीर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षका परम साधन है । अतः अन्न एवं पानसे अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये ॥ २७-२८ ॥ सभी लोग अन्नकी प्रशंसा करते हैं; क्योंकि सब अन्नमें प्रतिष्ठित है। अन्नदानके समान न कोई दान हुआ है और न होगा ॥ २९ ॥

कुछ हे मुने! अन्नके द्वारा ही यह सम्पूर्ण विश्व धारण किया जाता है, अन्न ही लोकमें ऊर्जा प्रदान करनेवाला है और अन्नमें ही प्राण भी प्रतिष्ठित हैं ॥ ३० ॥ ऐश्वर्यकी कामना करनेवालेको चाहिये कि वह अपने कुटुम्बको [यत्किंचित्] दुःख देकर भी भिक्षुक तथा महात्मा ब्राह्मणको अन्नका दान करे ॥ ३१ ॥ जो व्यक्ति याचक तथा दुखी ब्राह्मणको अन्नका दान करता है, वह अपनी पारलौकिक श्रेष्ठ निधिको संचित कर लेता है ॥ ३२ ॥ ऐश्वर्यकी कामना करनेवाले गृहस्थ व्यक्तिको चाहिये कि आजीविकाहेतु यथासमय उपस्थित हुए तथा रास्तेमें थककर घर आये हुए ब्राह्मणका सत्कार करे । हे व्यासजी ! जो शीलसम्पन्न तथा ईर्ष्याशून्य होकर भोजन देनेवाला पुरुष उत्पन्न हुए क्रोधका त्यागकर [अभ्यागतकी] पूजा करता है, वह इस लोक तथा परलोकमें बहुत सुख प्राप्त करता है ॥ ३३ – ३४ ॥

कभी भी प्राप्त हुए अन्नकी निन्दा न करे और न उसे किसी तरह फेंके ही; क्योंकि चाण्डाल तथा कुत्तेके लिये भी दिया गया अन्नदान निष्फल नहीं होता है ॥ ३५ ॥ थके हुए तथा अपरिचित पथिकको जो प्रसन्नतापूर्वक अन्न प्रदान करता है, वह ऐश्वर्य प्राप्त करता है ॥ ३६ ॥ हे महामुने ! जो मनुष्य पितरों, देवताओं, ब्राह्मणों एवं अतिथियोंको अन्नोंके द्वारा सन्तुष्ट करता है, उस व्यक्तिको बहुत पुण्य मिलता है ॥ ३७ ॥ अन्न तथा जलका दान तो ब्राह्मणके लिये ही नहीं बल्कि शूद्रके लिये भी विशेष महत्त्व रखता है, [ अतएव अन्नके इच्छुकसे] गोत्र, शाखा, स्वाध्याय तथा देश नहीं पूछना चाहिये ॥ ३८ ॥ इस लोकमें ब्राह्मणके द्वारा याचना किये जानेपर जो व्यक्ति अन्नदान करता है, वह प्रलयकालतक उत्तमस्थान स्वर्गमें निवास करता है। हे विप्रो ! जिस प्रकार कल्पवृक्ष आदि वृक्ष सभी कामनाओंको देनेमें समर्थ होते हैं, उसी प्रकार अन्नदान अन्नदाताको सभी कामनाओंका फल प्रदान करता है और अन्न देनेवाले लोग आनन्दपूर्वक स्वर्गमें निवास करते हैं ॥ ३९-४० ॥

हे महामुने ! अन्न प्रदान करनेवाले व्यक्तिके लिये अन्नदानके कारण स्वर्गमें जो अतिशय दिव्य लोक बनाये गये हैं, उन्हें सुनिये। उन महात्माओंके लिये अनेक सुखोपभोगोंसे परिपूर्ण तथा स्थापत्यकलाके विविध चमत्कारोंवाले शोभायुक्त भवन स्वर्गमें प्रकाशित होते हैं ॥ ४१-४२ ॥ उनके भवनोंमें उनकी कामनाके अनुरूप फल प्रदान करनेवाले वृक्ष, सोनेकी बावली, सुन्दर कूप तथा सरोवर विद्यमान रहते हैं । वहाँ हजारों शोभामय जलप्रपात कलकल ध्वनि करते रहते हैं । खानेयोग्य भोज्य वस्तुओंके पर्वत, वस्त्र, आभूषण, दुग्ध प्रवाहित करती हुई नदियाँ, घीके पहाड़, श्वेत-पीत कान्तिवाले महल तथा सोनेके समान देदीप्यमान शय्याएँ – ये सब विद्यमान रहते हैं। अन्न प्रदान करनेवाले उन लोकोंमें जाते हैं । इसलिये यदि मनुष्य इस लोक तथा परलोकमें ऐश्वर्यकी इच्छा करता हो, तो उसे अन्नका दान [अवश्य ] करना चाहिये । अन्न प्रदान करनेवाले पुण्यात्माओंको ये परम कान्तिमय लोक प्राप्त होते हैं, इसलिये अवश्य ही मनुष्योंको विशेष रूपसे अन्नका दान करना चाहिये ॥ ४३–४७ ॥

अन्न ही साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश है, इसलिये अन्नदानके समान न कोई दान हुआ है और न होगा। बहुत बड़ा पाप करके भी जो बादमें अन्नका दान करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकको जाता है ॥ ४८-४९ ॥ अन्न, पान, अश्व, गौ, वस्त्र, शय्या, छत्र एवं आसन- ये आठ प्रकारके दान यमलोकके लिये विशेषरूपसे श्रेष्ठ कहे गये हैं ॥ ५० ॥ चूँकि इस प्रकारके विशेष दान से मनुष्य विमानद्वारा धर्मराजके लोकको जाता है, इसलिये [ अन्नादिका ] दान करना चाहिये ॥ ५१ ॥ अन्नदानके प्रभाव वर्णनसे युक्त यह आख्यान [सर्वथा] पापरहित है । जो इसे पढ़ता है या दूसरोंको पढ़ाता है, वह समृद्धिशाली हो जाता है ॥ ५२ ॥ हे महामुने ! जो श्राद्धकालमें इस प्रसंगको सुनता है अथवा ब्राह्मणोंको सुनाता है, उसके पितरोंको अक्षय अन्नदान [-का फल ] प्राप्त होता है ॥ ५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें अन्नदानमाहात्म्यवर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

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