शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 44
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
उमासंहिता
चौवालीसवाँ अध्याय
व्यासजीकी उत्पत्तिकी कथा, उनके द्वारा तीर्थाटनके प्रसंगमें काशीमें व्यासेश्वरलिंगकी स्थापना तथा मध्यमेश्वरके अनुग्रहसे पुराणनिर्माण

मुनि बोले – हे महाबुद्धे ! हे सूत ! हे दयासागर ! हे स्वामिन्! हे प्रभो ! अब आप व्यासजीकी उत्पत्तिके विषयमें कहिये और अपनी परम कृपासे हमलोगोंको कृतार्थ कीजिये ॥ १ ॥ व्यासजीकी माता कल्याणमयी सत्यवती कही गयी हैं और उन देवीका विवाह राजा शान्तनु से हुआ था ॥ २ ॥ महायोगी व्यास उनके गर्भमें पराशरसे किस प्रकार उत्पन्न हुए? इस विषयमें [हमलोगोंको ] महान् सन्देह है, आप उसे दूर कीजिये ॥ ३ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


सूतजी बोले – [ हे मुनियो ! ] किसी समय तीर्थयात्रापर जाते हुए योगी पराशर अकस्मात् यमुनाके रम्य तथा सुन्दर तटपर पहुँचे । तब उन धर्मात्माने भोजन करते हुए निषादराजसे कहा- तुम मुझे शीघ्र ही नावसे यमुनाके उस पार ले चलो ॥ ४-५ ॥ इस प्रकार उन मुनिद्वारा कहे जानेपर उस निषादने अपनी मत्स्यगन्धा नामक कन्यासे कहा- हे पुत्र ! तुम शीघ्र ही नावसे इन्हें पार ले जाओ । हे महाभागे ! दृश्यन्तीके गर्भसे उत्पन्न हुए ये तपस्वी चारों वेदोंके पारगामी विद्वान् एवं धर्मके समुद्र हैं, ये इस समय यमुना पार करना चाहते हैं ॥ ६-७ ॥ पिताके इतना कहनेपर मत्स्यगन्धा सूर्यके समान कान्तिवाले उन महामुनिको नावमें बैठाकर पार ले जाने लगी। जो कभी अप्सराओंके रूपको देखकर भी विमोहित नहीं हुए, वे महायोगी पराशरमुनि कालके प्रभावसे उस (मत्स्यगन्धा)-के प्रति आसक्त हो उठे ॥ ८-९ ॥

उन मुनिने उस मनोहर दाश – कन्याको ग्रहण करनेकी इच्छासे अपने दाहिने हाथसे उसके दाहिने हाथका स्पर्श किया। तब विशाल नयनोंवाली उस कन्याने मुसकराकर उनसे यह वचन कहा – हे महर्षे ! आप ऐसा निन्दनीय कर्म क्यों कर रहे हैं ? ॥ १०-११ ॥ हे महामते! आप वसिष्ठके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हैं और मैं निषादकन्या हूँ, अतः हे ब्रह्मन् ! हम दोनोंका संग कैसे सम्भव है? ॥ १२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! मनुष्य – जन्म ही दुर्लभ है, विशेषकर ब्राह्मणजन्म तो और भी दुर्लभ है और उसमें भी तपस्वी होना तो अति दुर्लभ है। आप विद्या, शरीर, वाणी, कुल एवं शीलसे युक्त होकर भी कामबाणके वशीभूत हो गये, यह तो महान् आश्चर्य है !॥ १३-१४ ॥

इन योगीके शापके भयसे अनुचित कर्म करनेमें प्रवृत्त इनको इस पृथ्वीपर कोई भी रोक पानेमें समर्थ नहीं है – ऐसा मनमें विचारकर उसने महामुनिसे कहा – हे स्वामिन्! जबतक मैं आपको पार नहीं ले चलती, तबतक आप धैर्य धारण कीजिये ॥ १५-१६ ॥

सूतजी बोले- उसकी यह बात सुनकर योगिराज पराशरने शीघ्र ही उसका हाथ छोड़ दिया और पुनः नदीके पार चले गये ॥ १७ ॥ उसके अनन्तर कामके वशीभूत हुए मुनिने पुनः उसका हाथ पकड़ा, तब काँपती हुई उस कन्याने उन करुणासागरसे कहा—हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं दुर्गन्धियुक्त तथा काले वर्णवाली निषादकन्या हूँ और आप परम उदार विचारवान् योगिश्रेष्ठ हैं । काँच और कांचनके समान हम दोनोंका संयोग उचित नहीं है । समान जाति एवं रूपवालोंका संग सुखदायक होता है ॥ १८ – २० ॥

उसके ऐसा कहनेपर उन्होंने क्षणमात्रमें उसे योजनमात्रतक सुगन्धि फैलानेवाली, रम्य रूपवाली तथा मनोरम कामिनी बना दिया ॥ २१ ॥ इसके बाद मोहित हुए उन मुनिने उसे पुनः पकड़ लिया, तब ग्रहण करनेकी इच्छावाले उन मुनिकी ओर देखकर वासवीने पुन: कहा – रात्रिमें प्रसंग करना चाहिये, दिनमें उचित नहीं है – ऐसा वेदने कहा है । दिनमें प्रसंग करनेसे महान् दोष होता है तथा दुःखदायी निन्दा भी होती है। अतः जबतक रात न हो, तबतक प्रतीक्षा कीजिये, यहाँ मनुष्य देख रहे हैं और विशेषकर मेरे पिता तो नदीतटपर ही स्थित हैं ॥ २२–२४ ॥

उसकी यह बात सुनकर उन मुनिश्रेष्ठने शीघ्रतासे अपने पुण्यबलसे कोहरेका निर्माण कर दिया ॥ २५ ॥ अन्धकारके कारण रात्रिसदृश प्रतीत होनेवाले उस उत्पन्न हुए कोहरेको देखकर संसर्गके प्रति आश्चर्यचकित हुई उस निषाद – कन्याने पुन: कहा- हे योगिन् ! आप तो अमोघवीर्य हैं । हे स्वामिन्! मेरा संगकर आप तो चले जायँगे और यदि मैं गर्भवती हो गयी तो मेरी क्या गति होगी ? हे महाबुद्धे ! इससे मेरा कन्याव्रत नष्ट हो जायगा, तब सभी लोग मेरी हँसी करेंगे और मैं अपने पितासे क्या कहूँगी ? ॥ २६–२८ ॥

पराशर बोले – हे बाले ! हे प्रिये ! तुम इस समय मेरे साथ अनुरागसहित स्वच्छन्द होकर रमण करो, तुम अपनी अभिलाषा बताओ, मैं उसे पूर्ण करूँगा । मेरी आज्ञाको सत्य करनेसे तुम सत्यवती नामवाली होगी और सम्पूर्ण योगीजन तथा देवगण तुम्हारी वन्दना करेंगे ॥ २९-३० ॥

सत्यवती बोली – [ हे महर्षे ! ] यदि मेरे माता- पिता एवं पृथ्वीके अन्य मनुष्य इस कृत्यको न जानें तथा मेरा कन्याधर्म नष्ट न हो तो आप मुझे ग्रहण करें और हे नाथ! मेरा पुत्र आपके समान ही अद्भुत शक्तिसम्पन्न हो । मेरे शरीरमें सुगन्धि तथा नवयौवन सदा बना रहे ॥ ३१-३२ ॥

पराशर बोले – हे प्रिये ! सुनो, तुम्हारा सारा मनोरथ पूर्ण होगा। तुम्हारा पुत्र विष्णुके अंशसे युक्त तथा महायशस्वी होगा ॥ ३३ ॥ मैं जो इस समय मुग्ध हुआ हूँ, उसमें निश्चय ही कुछ कारण समझो। अप्सराओंके रूपको देखकर भी मेरा मन कभी मोहित नहीं हुआ, किंतु मछलीके समान गन्धवाली तुम्हें देखकर मैं मोहके वशीभूत हो गया हूँ । हे बाले! ललाटमें लिखी हुई ब्रह्मलिपि अन्यथा होनेवाली नहीं है। हे वरारोहे ! तुम्हारा पुत्र पुराणोंका कर्ता, वेदशाखाओंका विभाग करनेवाला और तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध कीर्तिवाला होगा ॥ ३४-३६ ॥

हे महामुने! ऐसा कहकर मनोहर अंगोंवाली उस मत्स्यगन्धाका संगकर योगप्रवीण पराशरजी यमुनामें स्नानकर शीघ्र चले गये । उसके अनन्तर उस कन्याने शीघ्र ही गर्भ धारण किया और यमुनाके द्वीपमें सूर्यके समान प्रभावाले तथा कामदेवके समान सुन्दर पुत्रको उत्पन्न किया ॥ ३७-३८ ॥ वह [बालक] अपने बायें हाथमें कमण्डलु और दाहिने हाथमें श्रेष्ठ दण्ड धारण किये हुए, पीतवर्णकी जटाओंसे सुशोभित और महान् तेजोराशिवाला था ॥ ३९ ॥ उत्पन्न होते ही उस तेजस्वीने अपनी मातासे कहा – हे मातः ! तुम अपने यथेष्ट स्थानको जाओ, अब मैं भी जाता हूँ। हे मातः ! जब कभी भी तुम्हारा कोई अभीष्ट कार्य हो, तब तुम्हारे द्वारा स्मरण किये जानेपर मैं तुम्हारी इच्छाकी पूर्तिके लिये उपस्थित हो जाऊँगा ॥ ४०-४१ ॥

ऐसा कहकर उस महातपस्वीने अपनी माताके चरणों में प्रणाम किया और तप करनेके लिये पापनाशक तीर्थमें चला गया ॥ ४२ ॥ सत्यवती भी पुत्रस्नेहसे व्याकुल होकर अपने पुत्रके चरित्रका स्मरण करती हुई तथा अपने भाग्यकी सराहना करती हुई पिताके पास चली गयी ॥ ४३ ॥ द्वीपमें उत्पन्न होनेके कारण उस बालकका नाम द्वैपायन हुआ और वेद – शाखाओंका विभाग करनेके कारण वह वेदव्यास कहा गया ॥ ४४ ॥ धर्म-अर्थ-काम-मोक्षको देनेवाले तीर्थराज प्रयाग, नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, गंगाद्वार, अवन्तिका, अयोध्या, मथुरा, द्वारका, अमरावती, सरस्वती, सिन्धुसंगम, गंगासागरसंगम, कांची, त्र्यम्बक, सप्तगोदावरीतट, कालंजर, प्रभास, बदरिकाश्रम, महालय, ॐकारेश्वरक्षेत्र, पुरुषोत्तमक्षेत्र, गोकर्ण, भृगुकच्छ, भृगुतुंग, पुष्कर, श्रीपर्वत और धारातीर्थ आदि तीर्थोंमें जाकर वहाँ विधिपूर्वक स्नानकर उस ( सत्यवतीनन्दन) – ने उत्तम तपस्या की ॥ ४५–४९ ॥

इस प्रकार अनेक देशोंमें स्थित अनेक तीर्थोंमें भ्रमण करते हुए वे कालीपुत्र व्यास वाराणसीपुरीमें जा पहुँचे, जहाँ कृपानिधि साक्षात् विश्वेश्वर तथा महेश्वरी अन्नपूर्णा अपने भक्तोंको अमृतत्व प्रदान करनेके लिये विराजमान हैं ॥ ५०-५१ ॥ वाराणसीतीर्थमें पहुँचकर मणिकर्णिकाका दर्शन करके उन मुनीश्वरने करोड़ों जन्मोंमें अर्जित पापोंका परित्याग किया ॥ ५२ ॥ इसके बाद उन्होंने विश्वेश्वर आदि सम्पूर्ण लिंगोंका दर्शनकर वहाँके समस्त कुण्ड, वापी, कूप तथा सरोवरोंमें स्नान करके, सभी विनायकोंको नमस्कार करके, सभी गौरियोंको प्रणामकर, पापभक्षक कालराज भैरवका पूजन करके, यत्नपूर्वक दण्डनायकादि गणोंका स्तवन करके, आदिकेशव आदि केशवोंको सन्तुष्टकर, लोलार्क आदि सूर्योंको बार-बार प्रणाम करके और सावधानीसे समस्त तीर्थोंमें पिण्डदानकर व्यासेश्वर नामक लिंगको स्थापित किया, हे ब्राह्मणो ! जिसके दर्शनसे मनुष्य सम्पूर्ण विद्याओंमें बृहस्पतिके समान [ निपुण] हो जाता है ॥ ५३-५७ ॥

भक्तिपूर्वक विश्वेश्वर आदि लिंगोंका पूजन करके वे बार-बार विचार करने लगे कि कौन – सा लिंग शीघ्र सिद्धि प्रदान करनेवाला है, जिसकी आराधनाकर मैं सम्पूर्ण विद्याओंको प्राप्त करूँ तथा जिसके अनुग्रहसे मुझे पुराण – रचनाकी शक्ति प्राप्त हो ? श्रीमओंकारेश्वर, कृत्तिवासेश्वर, केदारेश्वर, कामेश्वर, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचन, कालेश, वृद्धकालेश, कलशेश्वर, ज्येष्ठेश, जम्बुकेश, जैगीषव्येश्वर, दशाश्वमेधेश्वर, द्रुमचण्डेश, दृक्केश, गरुडेश, गोकर्णेश, गणेश्वर, प्रसन्नवदनेश्वर, धर्मेश्वर, तारकेश्वर, नन्दिकेश्वर, निवासेश्वर, पत्रीश्वर, प्रीतिकेश्वर, पर्वतेश्वर, पशुपतीश्वर, हाटकेश्वर, बृहस्पतीश्वर, तिलभाण्डेश्वर, भारभूतेश्वर, महालक्ष्मीश्वर, मरुतेश्वर, मोक्षेश्वर, गंगेश्वर, नर्मदेश्वर, कृष्णेश्वर, परमेशान, रत्नेश्वर, यामुनेश्वर, लांगलीश्वर, प्रभु श्रीमद्विश्वेश्वर, अविमुक्तेश्वर, विशालाक्षीश्वर, व्याघ्रेश्वर, वराहेश्वर, विद्येश्वर, वरुणेश्वर, विधीश्वर, हरिकेशेश्वर, भवानीश्वर, कपर्दीश्वर, कन्दुकेश्वर, अजेश्वर, विश्वकर्मेश्वर, वीरेश्वर, नादेश, कपिलेश, भुवनेश्वर, वाष्कुलीश्वर महादेव, सिद्धीश्वर, विश्वेदेवेश्वर, वीरभद्रेश्वर, भैरवेश्वर, अमृतेश्वर, सतीश्वर, पार्वतीश्वर, सिद्धेश्वर, मतंगेश्वर, भूतीश्वर, आषाढीश्वर, प्रकाशेश्वर, कोटिरुद्रेश्वर, मदालसेश्वर, तिलपर्णेश्वर, हिरण्यगर्भेश्वर एवं श्रीमध्यमेश्वर इत्यादि कोटिलिंगोंमें मैं किसकी उपासना करूँ? ॥ ५८–७३ ॥

इस प्रकारकी चिन्तामें मग्न हुए शिवभक्तिपरायण- चित्तवाले व्यासजी क्षणभर ध्यानसे चित्तको स्थिरकर विचार करने लगे। ओह ! मैं तो भूल गया था, अब जान लिया, निश्चय ही मेरी अभिलाषा पूर्ण हो गयी । सिद्धोंसे पूजित एवं धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष देनेवाला यह मध्यमेश्वरलिंग है, जिसके दर्शन एवं स्पर्शसे चित्त निर्मल हो जाता है और जहाँ स्वर्गका द्वार सर्वदा खुला रहता है ॥ ७४–७६ ॥ अविमुक्त नामक महाक्षेत्र तथा सिद्धक्षेत्रमें वह मध्यमेश्वर नामक श्रेष्ठ लिंग है ॥ ७७ ॥ काशीमें मध्यमेश्वर लिंगसे बढ़कर और कोई लिंग नहीं है, जिसका दर्शन करनेके लिये प्रत्येक पर्वपर देवतालोग भी स्वर्गसे आते हैं । अतः मध्यमेश्वर नामक लिंगकी सेवा करनी चाहिये, हे विप्रो ! इसकी आराधना करनेसे अनेक लोगोंको सिद्धि प्राप्त हुई है ॥ ७८-७९ ॥ शिवजी अपनी पुरीके लोगोंको सुख देनेके लिये काशीके मध्यमें प्रधानरूपसे स्थित हैं, अतः वे मध्यमेश्वर कहे जाते हैं ॥ ८० ॥

तुम्बुरु नामक गन्धर्व एवं देवर्षि नारद इनकी आराधनाकर गानविद्यामें विशारद हो गये। इन्हींकी आराधना करके विष्णु मोक्ष देनेवाले हुए तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र स्रष्टा, पालक तथा संहारक हुए, कुबेर धनाध्यक्ष एवं वामदेव महाशैव हो गये तथा [ पूर्वमें ] सन्तानरहित खट्वांग नामके राजा सन्तानयुक्त हो गये ॥ ८१–८३ ॥ कोयलके समान स्वरवाली चन्द्रभागा नामक अप्सरा नृत्य करती हुई इस लिंगमें अपने [ भक्ति ] भावके कारण सशरीर विलीन हो गयी । गोपिकाके पुत्र श्रीकरने मध्यमेश्वरकी आराधना करके दयालु चित्तवाले शिवका गाणपत्यपद प्राप्त किया ॥ ८४-८५ ॥ दैत्यपूजित भार्गव तथा देवपूजित बृहस्पति मध्यमेश्वरकी कृपासे विद्याओंमें पारंगत हो गये ॥ ८६ ॥

अतः मैं भी यहाँ मध्यमेश्वरकी आराधनाकर पुराण रचनेकी शक्ति शीघ्र ही निश्चित रूपसे प्राप्त करूँगा ॥ ८७ ॥ धैर्यशाली, व्रतनिष्ठ, सत्यवतीपुत्र व्यासने ऐसा विचारकर भागीरथीके जलमें स्नानकर [ मध्यमेश्वरके पूजनका ] नियम ग्रहण किया ॥ ८८ ॥ व्यासजी कभी पत्तेका भक्षण कर रह जाते, कभी फल एवं शाकाहार करते। कभी वायु पीते, कभी जल पीते एवं कभी निराहार ही रह जाते थे, इन नियमोंद्वारा वे धर्मात्मा योगी अनेक प्रकारके वृक्षोंके फलोंसे तीनों समय मध्यमेश्वरका पूजन करने लगे ॥ ८९-९० ॥

इस प्रकार आराधना करते हुए बहुत दिन बीत जानेपर एक दिन जब व्यासजी प्रातः काल गंगास्नानकर पूजनके लिये मध्यमेश्वरमें गये, उसी समय उन पुण्यात्माने शिवलिंगके बीचमें भक्तोंको अभीष्ट वर देनेवाले ईशान मध्यमेश्वरका दर्शन प्राप्त किया।

उमाभूषितवामांगं व्याघ्रचर्म्मोत्तरीयकम् ।
जटाजूटचलद्गंगातरंगैश्चारुविग्रहम् ॥ ९३ ॥
लसच्छारदबालेन्दुचन्द्रिकाचन्दितालकम् ।
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं कर्पूरार्जुनविग्रहम् ॥ ९४ ॥
कर्णान्तायतनेत्रं च विद्रुमारुणदच्छदम् ।
पंचवर्षाकृति बालं बालकोचितभूषणम् ॥ ९५ ॥
दधानं कोटिकन्दर्प्पदर्पहानि तनुद्युतिम् ।
नग्रं प्रहसितास्याब्जं गायन्तं साम लीलया ॥ ९६ ॥
करुणापारपाथोधिं भक्तवत्सलनामकम् ।
आशुतोषमुमाकान्तं प्रसादसुमुखं हरम् ॥ ९७ ॥

उनके वामांगमें उमा सुशोभित हो रही थीं, वे व्याघ्रचर्मका उत्तरीय धारण किये हुए थे, जटाजूटमें निवास करनेवाली गंगाकी चलायमान तरंगोंसे उनका विग्रह शोभित हो रहा था, शोभायमान शारदीय बालचन्द्रमाकी चन्द्रिकासे उनके अलक शोभा पा रहे थे, कर्पूरके समान स्वच्छ, समग्र शरीरमें भस्मका लेप लगा हुआ था, उनकी बड़ी-बड़ी आँखें कानोंतक फैली हुई थीं, उनके ओष्ठ विद्रुमके सदृश अरुण थे, बालकोंके योग्य भूषणोंसे युक्त शिवजी पाँच वर्षके बालककी-सी आकृतिवाले थे, करोड़ों कामदेवोंके अभिमानको दूर करनेवाली शरीरकान्तिको धारण किये हुए थे, वे नग्न थे, हँसते हुए मुखकमलसे वे लीलापूर्वक सामवेदका गान कर रहे थे, वे [ व्यासजी ] इस प्रकार करुणाके अगाध सागर, भक्तवत्सल, आशुतोष, योगियोंके लिये भी अज्ञेय, दीनबन्धु, चैतन्यस्वरूप, कृपादृष्टिसे निहारते हुए उमापतिको देखकर प्रेमसे गद्गद वाणीद्वारा उनकी स्तुति करने लगे ॥ ९१–९८ ॥

वेदव्यास उवाच ।
देवदेव महाभाग शरणागतवत्सल ।
वाङ्मनः कर्मदुष्पाप योगिनामप्यगोचर ॥ ९९ ॥
महिमानं न ते वेदा विदामासुरुमापते ।
त्वमेव जगतः कर्ता धर्ता हर्ता तथैव च ॥ १०० ॥
त्वमाद्यः सर्वदेवानां सच्चिदानंद ईश्वरः ।
नामगोत्रे न वा ते स्तः सर्वज्ञोऽसि सदाशिव ॥ १०१ ॥
त्वमेव परमं ब्रह्म मायापाशनिवर्तकः ।
गुणत्रयैर्न लिप्तस्त्वं पद्मपत्रमिवांभसा ॥ १०२ ॥
न ते जन्म न वा शीलं न देशो न कुलं च ते ।
इत्थं भूतोपीश्वरत्वं त्रिलोक्याः काममावहे ॥ १०३ ॥
न च ब्रह्मा न लक्ष्मीशो न च सेन्द्रा दिवौकसः ।
न योगीन्द्रा विदुस्तत्त्वं यस्य तं त्वामुपास्महे ॥ १०४ ॥
त्वत्तः सर्वं त्वं हि सर्वं गौरीशस्त्वं पुरान्तकः ।
त्वं बालस्त्वं युवा वृद्धस्तं त्वां हृदि युनज्म्यहम् ॥ १०५ ॥
नमस्तस्मै महेशाय भक्तध्येयाय शम्भवे ।
पुराणपुरुषायाद्धा शंकराय परात्मने ॥ १०६ ॥

वेदव्यासजी बोले – हे देवदेव ! हे महाभाग ! हे शरणागतवत्सल! वाणी – मन एवं कर्मसे दुष्प्राप्य तथा योगियोंके लिये भी अगोचर हे उमापते ! वेद भी आपकी महिमा नहीं जानते। आप ही इस जगत्के कर्ता, पालक और हर्ता हैं ॥ ९९-१०० ॥ हे सदाशिव ! आप ही सभी देवताओंमें आदिदेव, सच्चिदानन्द तथा ईश्वर हैं, आपका नाम – गोत्र कुछ भी नहीं है, आप सर्वज्ञ हैं । आप ही मायापाशको नष्ट करनेवाले परब्रह्म हैं और आप जलसे [ निर्लिप्त ] कमलपत्रकी भाँति तीनों गुणोंसे लिप्त नहीं हैं ॥ १०१ – १०२ ॥ आपका जन्म, शील, देश और कुल कुछ भी नहीं है, इस प्रकारके होते हुए भी आप परमेश्वर त्रैलोक्यकी कामनाओंको पूर्ण करते हैं ॥ १०३ ॥ हे प्रभो ! ब्रह्मा, विष्णु एवं इन्द्रसहित देवता भी जिन आपके तत्त्वको नहीं जानते, ऐसे आपकी उपासना मैं किस प्रकार करूँ? आपसे ही सब कुछ है और आप ही सब कुछ हैं, आप ही गौरीश तथा त्रिपुरान्तक हैं । आप बालक, वृद्ध तथा युवा हैं, ऐसे आपको मैं हृदयमें धारण करता हूँ ॥ १०४-१०५ ॥ मैं भक्तोंके ध्येय, शम्भु, पुराणपुरुष, शंकर तथा परमात्मा उन महेश्वरको नमस्कार करता हूँ ॥ १०६ ॥

इस प्रकार स्तुतिकर वे ज्यों ही दण्डवत् पृथ्वीपर गिरे, तभी प्रसन्नचित्त उस बालकने वेदव्याससे कहा- हे योगिन् ! तुम्हारे मनमें जो भी इच्छा हो, उसे वररूपमें माँगो, मेरे लिये कुछ भी अदेय नहीं है; क्योंकि मैं भक्तोंके अधीन हूँ ॥ १०७-१०८ ॥ तब प्रसन्न मनवाले महातपस्वी व्यासने उठकर कहा- हे प्रभो ! सब कुछ जाननेवाले आपसे कौन बात छिपी हुई है। आप सर्वान्तरात्मा, भगवान्, शर्व एवं सर्वप्रद हैं, अतः इस प्रकारकी दैन्यकारिणी याचनामें मुझे क्यों नियुक्त कर रहे हैं? ॥ १०९-११० ॥ इसके बाद निर्मल चित्तवाले उन व्यासजीका यह वचन सुनकर बालकरूपधारी महादेवजी मन्द मन्द मुसकराकर कहने लगे – ॥ १११ ॥

बालक शिव बोले – हे ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! आपने जो अभिलाषा अपने मनमें की है, वह निश्चित रूपसे शीघ्र ही पूर्ण होगी, इसमें संशय नहीं है ॥ ११२ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैं अन्तर्यामी ईश्वर [ स्वयं ] आपके कण्ठमें स्थित हो इतिहास – पुराणोंका निर्माण आपसे कराऊँगा ॥ ११३ ॥ आपने जो यह पवित्र अभिलाषाष्टक स्तोत्र कहा है, शिवस्थानमें निरन्तर एक वर्षतक तीनों कालों में इसका पाठ करनेसे सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी ॥ ११४ ॥ इस स्तोत्रका पाठ मनुष्योंकी विद्या तथा बुद्धिको बढ़ानेवाला होगा। यह सम्पूर्ण सम्पत्ति, धर्म एवं मोक्षको देनेवाला है ॥ ११५ ॥ प्रात:काल उठकर भलीभाँति स्नान करके शिवलिंगका अर्चनकर वर्षभर इस स्तोत्रका पाठ करनेवाला मूर्ख व्यक्ति भी बृहस्पतिके समान हो जायगा ॥ ११६ ॥ स्त्री हो या पुरुष जो भी नियमपूर्वक शिवलिंगके समीप एक वर्षपर्यन्त इस स्तोत्रका जप – पाठ करेगा, उसकी विद्या एवं बुद्धिमें वृद्धि होगी ॥ ११७ ॥

ऐसा कहकर बालकरूपधारी वे महादेव उसी शिवलिंगमें अदृश्य हो गये और व्यासजी भी अश्रुपात करते हुए शिवप्रेममें निमग्न हो गये ॥ ११८ ॥ इस प्रकार मध्यमेश्वर महेशसे वर प्राप्तकर व्यासजीने
अपनी लीलासे अठारह पुराणोंकी रचना की । ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, भविष्य, नारदीय, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, स्कन्द तथा ब्रह्माण्ड – ये [ अठारह ] पुराण कहे गये हैं। शिवजीका यश सुननेवाले मनुष्योंको ये पुराण यश तथा पुण्य प्रदान करते हैं ॥ ११९ – १२२ ॥

सूतजी बोले- हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! आपने जिन अठारह पुराणोंके नाम कहे हैं, अब उनका निर्वचन कीजिये ॥ १२३ ॥

व्यासजी बोले – [हे सूत!] यही प्रश्न ब्रह्मयोनि तण्डीने नन्दिकेश्वरसे किया था, तब उन्होंने जो उत्तर दिया था, उसीको मैं कह रहा हूँ ॥ १२४ ॥

नन्दिकेश्वर बोले— हे तण्डि मुने ! साक्षात् चतुर्मुख ब्रह्मा स्वयं जिसमें वक्ता हैं, उस प्रथम पुराणको इसीलिये ब्रह्मपुराण कहा गया है ॥ १२५ ॥ जिसमें पद्मकल्पका माहात्म्य कहा गया है, वह दूसरा पद्मपुराण कहा गया है ॥ १२६ ॥ पराशरने जिस पुराणको कहा है, वह विष्णुका ज्ञान करानेवाला पुराण विष्णुपुराण कहा गया है । पिता एवं पुत्रमें अभेद होनेके कारण यह व्यासरचित भी माना जाता है ॥ १२७ ॥ जिसके पूर्व तथा उत्तरखण्डमें शिवजीका विस्तृत चरित्र है, उसे पुराणज्ञ शिवपुराण कहते हैं ॥ १२८ ॥ जिसमें भगवती दुर्गाका चरित्र है, उसे देवीभागवत नामक पुराण कहा गया है ॥ १२९ ॥

नारदजीद्वारा कहा गया पुराण नारदीय पुराण कहा जाता है। हे तण्ड मुने! जिसमें मार्कण्डेय महामुनि वक्ता हैं, उसे सातवाँ मार्कण्डेयपुराण कहा गया है । अग्निद्वारा कथित होनेसे अग्निपुराण एवं भविष्यका वर्णन होनेसे भविष्यपुराण कहा गया है ॥ १३० – १३१ ॥ ब्रह्मके विवर्तका आख्यान होनेसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है तथा लिंगचरित्रका वर्णन होनेसे लिंगपुराण कहा जाता है ॥ १३२ ॥ हे मुने! भगवान् वराहका वर्णन होनेसे बारहवाँ वाराहपुराण है, जिसमें साक्षात् महेश्वर वक्ता हैं और स्वयं स्कन्द श्रोता हैं, उसे स्कन्दपुराण कहा गया है। वामनका चरित्र होनेसे वामनपुराण है । कूर्म का चरित्र होनेसे कूर्मपुराण है तथा मत्स्यके द्वारा कथित [ सोलहवाँ] मत्स्यपुराण है ॥ १३३-१३४ ॥ जिसके वक्ता स्वयं गरुड हैं, वह [ सत्रहवाँ ] गरुडपुराण है । ब्रह्माण्डके चरित्रका वर्णन होनेके कारण [अठारहवाँ] ब्रह्माण्डपुराण कहा गया है ॥ १३५ ॥

सूतजी बोले – [ हे शौनक ! ] मैंने यही प्रश्न बुद्धिमान् व्यासजीसे किया था, तब उनसे मैंने सभी पुराणोंका निर्वचन सुना ॥ १३६ ॥ इस प्रकार सत्यवतीके गर्भसे पराशरके द्वारा उत्पन्न हुए व्यासजीने पुराणसंहिता तथा उत्तम महाभारतकी रचना की । हे ब्रह्मन् ! प्रथम सत्यवतीका संयोग पराशरसे और उसके बाद शान्तनु से हुआ, इसमें सन्देह मत कीजिये ॥ १३७-१३८॥

यह आश्चर्यकारिणी उत्पत्ति सकारण कही गयी है । महान् पुरुषोंके चरित्रमें बुद्धिमानोंको गुणोंको ही ग्रहण करना चाहिये। जो [ मनुष्य ] इस परम रहस्यको सुनता है अथवा पढ़ता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर ऋषिलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ १३९-१४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें व्यासोत्पत्तिवर्णन नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४४ ॥

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