शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 46
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
उमासंहिता
छियालीसवाँ अध्याय
महिषासुरके अत्याचारसे पीड़ित ब्रह्मादि देवोंकी प्रार्थनासे प्रादुर्भूत महालक्ष्मीद्वारा महिषासुरका वध

ऋषि बोले – [ हे राजन् ! ] पूर्व समयमें दैत्यवंशशिरोमणि रम्भ नामक दैत्य था, उससे महिष नामक महातेजस्वी दानव उत्पन्न हुआ। उस दैत्यराज महिषने युद्धमें सभी देवताओंको जीत लिया और स्वर्गलोकमें इन्द्रासनपर बैठकर राज्य करने लगा ॥ १-२ ॥ तब पराजित हुए देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये । ब्रह्मा भी उन्हें लेकर वहाँ गये, जहाँ शिव और विष्णु स्थित थे। वहाँ जाकर सभी देवता शंकर एवं केशवको नमस्कारकर अपना सारा वृत्तान्त भलीभाँति क्रमसे कहने लगे—॥ ३-४ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


हे भगवन्! दुष्टात्मा महिषासुरने संग्राममें हमलोगोंको जीतकर स्वर्गलोकसे निकाल दिया है। अब हमलोग मनुष्यलोकमें घूम रहे हैं, किंतु कहीं भी शान्ति नहीं मिलती। उसने इन्द्र आदि प्रमुख देवताओंकी कौन- कौन – सी दुर्गति नहीं की । दैत्यपक्षको अभय देनेवाला वह पापात्मा असुर सूर्य, चन्द्रमा, वरुण, कुबेर, यम, इन्द्र, अग्नि, पवन, गन्धर्व, विद्याधर एवं चारण- इन देवताओं तथा अन्य देवगणोंके विधेय कर्मको स्वयं सम्पन्न करता है। इसलिये आपकी शरणमें आये हुए हम देवताओंकी आप दोनों रक्षा करें और शीघ्र ही उस दैत्यके वधका उपाय सोचें, आप दोनों हमलोगोंके प्रभु हैं ॥ ५-९ ॥

देवगणोंका वचन सुनकर क्रोधसे घूरते हुए विष्णु और शिव अत्यन्त कुपित हुए। उस समय कुपित विष्णु तथा शिवके मुखसे और अन्य देवताओंके शरीरसे तेज निकला ॥ १०-११ ॥ दुर्गाध्यानपरायण सभी देवगणोंने उस अतिशायि तेजसमूहको दसों दिशाओंमें देदीप्यमान देखा ॥ १२ ॥ सभी देवगणोंके शरीरसे उत्पन्न वह भयंकर तेज एकत्रित होकर साक्षात् महिषमर्दिनी स्त्रीके रूपमें परिणत हो गया ॥ १३ ॥ देवीका कान्तिमान् मुख शिवजीके तेजसे उत्पन्न हुआ । यमके तेजसे केश और विष्णुके तेजसे उनकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं ॥ १४ ॥ चन्द्रमाके तेजसे उनके दोनों स्तन, इन्द्रके तेजसे कटिप्रदेश एवं वरुणके तेजसे जंघा तथा ऊरु उत्पन्न हुए। पृथ्वीके तेजसे नितम्ब, ब्रह्माके तेजसे दोनों चरण, सूर्यके तेजसे पैरोंकी अँगुलियाँ, इन्द्रके तेजसे हाथोंकी अँगुलियाँ, कुबेरके तेजसे नासिका, प्रजापतिके तेजसे दाँत, अग्निके तेजसे तीनों नेत्र, सन्ध्याके तेजसे उनकी दोनों भौंहें और पवनके तेजसे दोनों कान एवं अन्य सभी देवगणोंके तेजसे [ प्रकट अवयवोंसे युक्त] वे कमलनिवासिनी महालक्ष्मी आविर्भूत हुईं ॥ १५–१८ ॥

इस प्रकार समस्त देवगणोंकी तेजोराशिसे उन देवीको प्रकट हुआ देखकर सम्पूर्ण देवता अत्यन्त हर्षित हो गये । उसके बाद उन देवीको अस्त्रहीन देखकर ब्रह्मा आदि देवगणोंने उन शिवाको शस्त्रयुक्त करनेका मनमें विचार किया ॥ १९-२० ॥ शिवजीने महेश्वरीको अपना त्रिशूल दिया, भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें शंख एवं सुदर्शन चक्र दिया तथा पाश धारण करनेवाले वरुणने पाश दिया ॥ २१ ॥ अग्निने शक्ति, पवनने धनुष-बाणोंसे परिपूर्ण तरकस और शचीपति इन्द्रने वज्र एवं घण्टा दिया। यमराजने कालदण्ड, प्रजापतिने अक्षमाला, ब्रह्मदेवने कमण्डलु तथा सूर्यने समस्त रोमकूपोंमें रश्मियाँ अर्पित कीं ॥ २२-२३ ॥ कालने खड्ग एवं उज्ज्वल ढाल दी, क्षीरसागरने गलेकी मनोहर माला, कभी जीर्ण न होनेवाले दो वस्त्र, चूडामणि, कुण्डल, कटक, अर्धचन्द्र, केयूर, दो मनोहर नूपुर, ग्रीवाके आभूषण तथा समस्त अँगुलियोंके लिये अँगूठियाँ दीं। विश्वकर्माने उन्हें मनोहर परशु प्रदान किया और साथ ही अनेक अस्त्र तथा अभेद्य कवच भी प्रदान किया ॥ २४–२६ ॥

समुद्रने सुरम्य, सरस माला तथा कमलपुष्प प्रदान किये। हिमालयने इन्हें सिंह तथा अनेक प्रकारके रत्न दिये और कुबेरने मधुसे भरा पात्र दिया ॥ २७-२८ ॥ सभी सर्पोंके अधिपति शेषने विचित्ररचनायुक्त तथा अनेक उत्तम मणियोंसे जटित नागहार उन्हें दिया॥ २९॥ इस प्रकार इन देवताओं तथा दूसरे देवगणोंके द्वारा प्रदत्त भूषणों एवं आयुधोंसे सत्कृत हुई देवीने ऊँचे स्वरसे बार-बार अट्टहासपूर्वक गर्जना की ॥ ३० ॥ उनके इस भीषण नादसे सारा आकाशमण्डल पूर्ण हो गया और ऐसी प्रतिध्वनि हुई कि त्रैलोक्य विक्षुब्ध हो उठा। चारों समुद्र चंचल हो गये और पृथ्वी भी डगमगाने लगी। इसके बाद महिषासुरसे पीड़ित हुए देवगणोंने जय-जयकार किया ॥ ३१-३२ ॥ तदनन्तर वे सभी देवता भक्तियुक्त गद्गद वाणीमें महालक्ष्मीस्वरूपिणी पराशक्ति अम्बिकाकी स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥

लोकको इस प्रकार संक्षुब्ध देखकर देवताओंके शत्रु असुरगण अपने सैनिकोंके साथ अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त होकर संग्रामके लिये उद्यत हो गये ॥ ३४ ॥ तब महिषासुर भी उस शब्दको लक्ष्यकर क्रोधसे कुपित हो दौड़ पड़ा और उसने अपनी कान्तिसे तीनों लोकोंको व्याप्त करती हुई देवीको देखा ॥ ३५ ॥ इसी बीच महिषासुरके द्वारा पालित करोड़ों महावीर शस्त्र धारण किये हुए वहाँ पहुँच गये ॥ ३६ ॥
चिक्षुर, चामर, उदग्र, कराल, उद्धत, वाष्कल, ताम्र, उग्रास्य, उग्रवीर्य, बिडाल, अन्धक, दुर्धर, दुर्मुख, त्रिनेत्र और महाहनु – ये तथा अन्य युद्धविशारद और शस्त्रास्त्रविद्यामें पारंगत अनेक वीर समरमें देवीके साथ युद्ध करने लगे। इस प्रकार युद्ध करते हुए उन दोनों पक्षोंका भयावह समय बीत गया ॥ ३७–३९ ॥ शत्रुवर्गके द्वारा छोड़े गये अनेक शस्त्रास्त्रोंके समूह महामायाके प्रभावसे क्षणमात्रमें ही विनष्ट हो गये ॥ ४० ॥ तत्पश्चात् देवीने सैन्यसहित चिक्षुर आदि प्रमुख शत्रुओंपर गदा, बाण, त्रिशूल, शक्ति एवं परशुसे प्रहार किया ॥ ४१ ॥

इस प्रकार युद्ध करते-करते जब महिषासुरकी सारी सेना नष्ट हो गयी, तब वह दैत्य देवीके निःश्वाससे उत्पन्न हुए गणोंको आक्रान्त करने लगा । उसने कुछ गणोंपर खुरसे, कुछपर अपनी दोनों सींगोंसे, किसीपर पूँछसे और किसीपर तुण्डसे बार-बार प्रहार करना आरम्भ किया ॥ ४२-४३ ॥ इस प्रकार देवीके गणोंको मारकर वह असुरराज देवीके सिंहको मारने दौड़ा और अत्यधिक कुपित हो गया। क्रोधके कारण वह महापराक्रमी महिषासुर खुरोंसे पृथ्वीको खोदने लगा और सींगोंसे पर्वतोंको उखाड़कर फेंकने लगा तथा घनघोर गर्जना करने लगा ॥ ४४-४५ ॥ हे नृपसत्तम ! उस महिषासुरके द्वारा चारों ओर वेगसे दौड़ते हुए फेंके गये बड़े-बड़े पहाड़ ऊपरसे पृथ्वीपर गिरने लगे ॥ ४६ ॥

उसकी सींगोंसे विदीर्ण हुए बादल खण्ड-खण्ड हो गये और पूँछसे ताडित हो समुद्र चारों ओरके किनारोंको तोड़कर इधर-उधर बहने लगे ॥ ४७ ॥ इस प्रकार क्रुद्ध हुए उस महिषासुरको देखकर देवताओंको अभयदान देनेवाली अम्बिकाने उसके वधका उपाय किया ॥ ४८ ॥ उन ईश्वरीने अपना पाश उठाकर महिषासुरके ऊपर फेंककर जब उसे बाँधना चाहा, तब महिषासुरने अपना महिषरूप त्याग दिया और उसी क्षण सिंहका रूप धारण कर लिया, इसके बाद जबतक देवीने तलवारसे उसके सिरपर प्रहार किया, तबतक वह मायावी खड्गधारी पुरुष हो गया ॥ ४९-५० ॥ इसके बाद ढाल एवं तलवार लिये हुए उस पुरुषपर जब देवीने बाणोंसे प्रहार किया, तब उसने हाथीका रूप धारणकर अपनी सूँड़से देवीके सिंहपर प्रहार करना आरम्भ किया ॥ ५१ ॥

इसके बाद देवीने अपने महाखड्गसे उसकी सूँड़ काट दी, तब उस राक्षसने पुनः अपना महिषरूप धारण कर लिया और सारे चराचर जगत्‌को क्षुब्ध करने लगा । यह देख महामानिनी चण्डिकाको अपार क्रोध हुआ और घूर्णित नेत्रोंवाली वे बार – बार मधुपान करने लगीं तथा अट्टहास करने लगीं। इसके बाद बल और पराक्रमसे मतवाला वह असुर गर्जना करने लगा ॥ ५२–५४ ॥ वह असुर पर्वतोंको उखाड़कर उनके ऊपर फेंकने लगा । तब उन देवीने बाणसमूहके प्रहारोंसे उन्हें शीघ्र ही चूर-चूर कर डाला । उसके अनन्तर मधुके मदसे आरक्त मुखवाली तथा विह्वल इन्द्रियोंवाली देवी मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगीं – ॥ ५५-५६ ॥

देवी बोलीं- हे मूर्ख ! हे हतबुद्धि ! तुम व्यर्थ हठ क्यों कर रहे हो? त्रैलोक्यमें कोई भी असुर मेरे सामने टिक नहीं सकता है ॥ ५७ ॥

ऋषि [ सुमेधा ] बोले- ऐसा कहकर समस्त कलामयी उन देवीने कूदकर उस दैत्यको पैरोंसे दबाकर भयंकर त्रिशूलसे उसके कण्ठपर प्रहार किया ॥ ५८ ॥ तत्पश्चात् देवीके चरणोंसे दबा हुआ और देवीके पराक्रमसे विवश हुआ वह अपने मुखसे आधा निकल आया, वह महाधम दैत्य अपने आधे रूपसे निकलकर देवीके साथ पुनः संग्राम करने लगा । तब देवीने अपने महाखड्गसे उसका सिर काटकर पृथ्वीतलपर गिरा दिया ॥ ५९-६० ॥ उसके बाद महिषासुरके गण ‘हाय-हाय’ शब्दका उच्चारण करके मुख नीचे किये हुए भयभीत होकर ‘रक्षा करो, रक्षा करो’ – ऐसा कहते हुए युद्धभूमिसे भाग गये। तब इन्द्र आदि सभी देवता देवीकी स्तुति करने लगे, गन्धर्व गीत गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥ ६१-६२ ॥

हे राजन्! इस प्रकार मैंने आपसे महालक्ष्मीकी उत्पत्ति कही, अब आप स्वस्थचित्तसे सरस्वतीकी उत्पत्तिका वृत्तान्त श्रवण कीजिये ॥ ६३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें महिषासुरवधके उपाख्यानमें महालक्ष्मीका अवतारवर्णन नामक छियालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४६ ॥

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