शिवमहापुराण — कैलाससंहिता — अध्याय 07
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
कैलाससंहिता
सातवाँ अध्याय
शिवजीके विविध ध्यानों तथा पूजा – विधिका वर्णन

ईश्वर बोले— साधकको अपनी बायीं ओर चौकोर मण्डलका निर्माण करना चाहिये । उस मण्डलकी प्रणवके द्वारा पूजाकर अस्त्रमन्त्रसे शोधितकर आधारसहित शंख स्थापित करे । इस प्रकार मण्डलमें स्थित शंखका प्रणवसे पूजन करे। सबसे पहले चन्दनादिके द्वारा सुवासित जलसे शंखको पूर्ण करके सात बार प्रणवद्वारा अभिमन्त्रितकर गन्ध, पुष्प आदिसे उसका पूजन करे और धेनुमुद्रा तथा शंखमुद्राका प्रदर्शन करे ॥ १-३ ॥ उसके आगे चतुष्कोणका निर्माण करे । उसके बीचमें अर्धचन्द्र तथा उसके मध्यभागमें त्रिकोण बनाये, फिर उस त्रिकोणमें षट्कोणात्मक वृत्त बनाये। इस प्रकार मण्डलकी परिकल्पना करे। मण्डलका गन्ध, पुष्पादिद्वारा प्रणवसे पूजन करके वहाँपर आधारयुक्त अर्घ्यपात्र स्थापितकर उसे जलसे परिपूर्णकर गन्धादिसे अर्चित करे और उसमें कुशाका अग्रभाग, अक्षत, जौ, व्रीहि, तिल, घृत, पीली सरसों, पुष्प और भस्मका निक्षेपकर सद्योजातादि षडंग मन्त्रों और प्रणवमन्त्रसे पूजा करे। उस अर्घ्यपात्रकी गन्ध, पुष्पादिसे पूजाकर कवचसे अभिमन्त्रित करना चाहिये ॥ ४–८ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


अस्त्रमन्त्रसे उसका अवगुण्ठन करके रक्षाहेतु धेनुमुद्रा प्रदर्शित करना चाहिये, फिर अस्त्रमन्त्रद्वारा उसका, अपना तथा गन्धादि पूजनसामग्रीका प्रोक्षण करे । उसके अनन्तर कमलकी ईशान दिशामें स्थित कमलपर ओंकारका उच्चारण करके ‘गुर्वासनाय नमः ‘ – इस प्रकार कहकर आसन प्रदान करनेकी भावना करे और गुरुके उपदेशानुसार वहाँ गुरुमूर्तिकी परिकल्पना करे ॥ ९-११ ॥ ‘ॐ गुं गुरुभ्यो नमः ‘ – इस मन्त्रका उच्चारणकर गुरुका आवाहन करे तथा दक्षिणाभिमुख स्थित हुए उनका ध्यान करे।

सुप्रसन्नमुखं सौम्यं शुद्धस्फटिकनिर्मलम् ।
वरदाभयहस्तं च द्विनेत्रं शिवविग्रहम् ॥ १३ ॥

जो प्रसन्नमुख हैं, सौम्य एवं शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल हैं तथा हाथमें वर एवं अभयमुद्राको धारण किये हुए हैं, जिनके दो नेत्र हैं और जो साक्षात् शिवस्वरूप हैं ।

इस प्रकार गुरुका ध्यानकर क्रमशः गन्ध-पुष्पादिसे उनका पूजन करे, फिर उस पद्मके नैर्ऋत्यकोणमें स्थित पद्मपर गणेशके आसनके ऊपर गणपतिमूर्तिकी परिकल्पना करे और ‘गणानां त्वा०’ – – इस मन्त्रसे गणपतिका आवाहन करे, तदुपरान्त एकाग्रचित्त होकर इस प्रकार उनका ध्यान करे-

रक्तवर्णं महाकायं सर्वाभरणभूषितम् ।
पाशांकुशेष्टदशनान्दधानङ्करपङ्कजैः ॥ १६ ॥
गजाननम्प्रभुं सर्वविघ्नौघघ्नमुपासितुः ।

वे रक्तवर्णवाले, विशालकाय, सम्पूर्ण आभूषणोंसे अलंकृत, चारों हाथोंमें क्रमशः पाश- अंकुश, अक्षमाला तथा वर-मुद्रा धारण किये हुए हैं, वे गजानन प्रभु ध्यान करनेवाले उपासकोंके सम्पूर्ण विघ्नोंको नष्ट करनेवाले हैं । इस प्रकार गणपतिका ध्यानकर गन्ध – पुष्पादि उपचारोंसे उनका पूजन करे ॥ १२–१७ ॥ केला, नारिकेल, आम्रफल, लड्डू तथा फलसहित नैवेद्य समर्पितकर नमस्कार करे । पद्मके वायव्यकोणवाले कमलपर संकल्पपूर्वक स्कन्दके लिये आसन प्रदान करे और स्कन्दकी मूर्ति बनाकर बुद्धिमान् साधक उसीमें उनका आवाहन करे ॥ १८-१९ ॥

स्कन्दगायत्रीका उच्चारण करनेके अनन्तर कुमारका इस प्रकार ध्यान करे –

उद्यदादित्यसंकाशं मयूरवरवाहनम् ॥ २० ॥
चतुर्भुजमुदाराङ्गं मुकुटादिविभूषितम् ।
वरदाभयहस्तं च शक्तिकुक्कुटधारिणम् ॥ २१ ॥

जो उदीयमान सूर्यके समान तेजस्वी तथा श्रेष्ठ मयूरके आसनपर स्थित हैं । जो चार भुजाओंसे युक्त, परम कृपालु, मुकुट आदि आभूषणोंसे सुशोभित और अपने चारों हाथोंमें वर- अभय मुद्रा, शक्ति तथा कुक्कुट धारण किये हुए हैं ॥ २०-२१ ॥ इस प्रकार ध्यान करके गन्ध, पुष्पादि पूजोपचार सामग्रीसे विधिपूर्वक उनकी पूजा करे। इसके बाद पूर्वद्वारके दाहिनी ओर रहनेवाले अन्तःपुर के रक्षक साक्षात् नन्दीश्वरकी भलीभाँति पूजा करे।

चामीकराचलप्रख्यं सर्वाभरणभूषितम् ॥ २३ ॥
बालेन्दुमुकुटं सौम्यं त्रिनेत्रं च चतुर्भुजम् ।
दीप्तशूलमृगीटंकहेमवेत्रधरं विभुम् ॥ २४ ॥
चन्द्रबिम्बाभवदनं हरिवक्त्रमथापि वा ।
उत्तरस्यान्तथा तस्य भार्यां च मरुतां सुताम् ॥ २५ ॥
सुयशां सुव्रतामम्बापादमण्डनतत्पराम् ।

जो सोनेके पर्वतके समान, सम्पूर्ण आभरणोंसे विभूषित, बालचन्द्रयुक्त मुकुट धारण किये हुए, सौम्यमूर्ति, त्रिनेत्र, चतुर्भुज, अपनी भुजाओंमें देदीप्यमान शूल, मृगमुद्रा, टंक तथा सुवर्णका वेत्र धारण किये हुए हैं; चन्द्रबिम्बकी-सी प्रभासे युक्त तथा वानरके मुखसदृश जिनका मुख है – ऐसे नन्दीकी तथा उनके उत्तरकी ओर मरुतोंकी कन्या सुयशा, जो नन्दीश्वरकी भार्या हैं, जो अत्यन्त पतिव्रता तथा पार्वतीजीके चरणोंको [आलता आदिसे] अलंकृत करनेमें तत्पर रहती हैं, उनका भी गन्ध, पुष्पादि उपहारोंसे पूजन करे ॥ २२–२६ ॥ तत्पश्चात् अस्त्रमन्त्र पढ़कर शंखोदकसे उस पद्मका प्रोक्षण करे । यथाक्रम आधारादि आसनका भी निर्माण करे । पृथ्वीके नीचे श्यामवर्णकी कल्याणकारिणी आधारशक्तिका ध्यान करे । उसके आगे ऊपरकी ओर मुख किये कुण्डलके आकारवाले उन अनन्त भगवान् का ध्यान करे – ॥ २७-२८ ॥

धवलं पंचफणिनं लेलिहानमिवाम्बरम् ।’ जिनका शरीर धवल वर्णका है, जो पाँच फणवाले हैं और जो मानो आकाशको चाट – से रहे हैं। तत्पश्चात् उस आधारशक्तिके ऊपर चार पादवाला एक श्रेष्ठ सिंहासन स्थापित करे । उस सिंहासनके चारों पादोंके नाम आग्नेय आदि कोणोंके क्रमसे धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य हैं। उनका वर्ण श्वेत, पीत, रक्त तथा श्याम है ॥ २९-३० ॥ उसके अनन्तर पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे उत्तरदिशापर्यन्त अधर्म आदिका आवाहन करे और लाजावर्तमणिके समान कान्तिमय उन अनन्तदेवके शरीरकी भावना करे। उसके अनन्तर कमलके अधश्छद, ऊर्ध्वछद, कन्द, नाल, कण्टक, दल और कर्णिकामें इस प्रकार भावनाकर क्रमशः उनका अर्चन करे ॥ ३१-३२ ॥ दलोंमें आठों सिद्धियों तथा केसरोंमें रुद्रा, वामा आदि आठों शक्तियोंकी पूर्व आदिके क्रमसे चतुर्दिक् भावना करे। कर्णिकामें वैराग्य और बीजोंमें नौ शक्तियोंकी भावना करे। इसी प्रकार वामादि शक्तियोंकी पूर्वादि दिशाओंमें कल्पनाकर बादमें मनोन्मनीकी कल्पना करे ॥ ३३-३४ ॥

कन्दमें शिवात्मक धर्म, नालमें शिवाश्रयभूत ज्ञान, कर्णिकाके ऊपर आग्नेयमण्डल, चन्द्रमण्डल तथा सूर्यमण्डलका ध्यान करे ॥ ३५ ॥ आत्मा, विद्या तथा शिव – इन तीन तत्त्वोंकी कल्पना करनेके अनन्तर सभी आसनोंके ऊपर सुखकर, चित्र-विचित्र पुष्पोंसे उद्भासित तथा परव्योमावकाश नामवाली विद्याके द्वारा अत्यन्त प्रकाशमान आसनकी मूर्तिके उद्देश्यसे पुष्प अर्पित करते हुए परिकल्पना करे ॥ ३६-३७ ॥ तत्पश्चात् आधारशक्तिसे आरम्भकर शुद्धविद्या आसन (विशुद्ध ज्ञानासन ) – पर्यन्त ओंकारसहित चतुर्थी विभक्तिके अन्तमें ‘नमः’ लगाकर नाममन्त्रोंका उच्चारण करके विद्वान् साधक पूजन करे, यही विधिक्रम सर्वत्र है । मुद्रावित् पुरुष अंग, मुख तथा कलाके भेदसे उन सद्योजातादि पाँचों ब्रह्मदेवताओंको पूर्ववत् उनकी मूर्तिमें क्रमशः विन्यस्त करे, फिर पुष्पांजलि हाथमें लेकर देवताका आवाहन करे ॥ ३८–४० ॥

‘सद्योजातं प्रपद्यामि’ से लेकर ‘शिवो मे अस्तु सदाशिवोम्’ यहाँतक मन्त्रका उच्चारण करते हुए मूलाधारसे उठे हुए नादका बारह चक्रोंकी ग्रन्थियोंको भेदकर ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त उच्चारणकर ओंकारसे प्रत्यक्ष होनेवाले शिवका इस प्रकार ध्यान करे –

शुद्धस्फटिकसंकाशं देवं निष्कलमक्षरम् ॥ ४२ ॥
कारणं सर्वलोकानां सर्वलोकमयं परम् ।
अन्तर्बहिः स्थितं व्याप्य ह्यणोरल्पं महत्तमम् ॥ ४३ ॥
भक्तानामप्रयत्नेन दृश्यमीश्वरमव्ययम् ।
ब्रह्मेन्द्रविष्णुरुद्राद्यैरपि देवैरगोचरम् ॥ ४४ ॥
वेदसारञ्च विद्वद्भिरगोचरमिति श्रुतम् ।
आविर्मध्यान्तरहितं भेषजं भवरोगिणाम् ॥ ४५ ॥

 वे सदाशिव शुद्ध स्फटिकके समान वर्णवाले, निष्कल, अक्षर, सभी लोकोंके कारण, सर्वलोकमय, परम तत्त्व, बाहर तथा भीतर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित, अणुसे अणु तथा महान्से महान्, भक्तोंको बिना प्रयत्न दिखायी पड़नेवाले, ईश्वर, अव्यय, ब्रह्मा- इन्द्र – विष्णु – रुद्र आदि देवगणोंको भी दिखायी न देनेवाले, वेदोंके सारस्वरूप, विद्वानोंके द्वारा अगोचर सुने जानेवाले, आदि-मध्य-अन्तरहित और भवरोगियोंके लिये औषधस्वरूप हैं ।

इस प्रकार एकाग्रचित्त हो परमेश्वरका ध्यान करके पृथक् पृथक् मुद्राओंका प्रदर्शन करते हुए उनका आवाहन, स्थापन, सन्निरोध, निरीक्षण तथा नमस्कार करे ॥ ४१ – ४६ १/२ ॥ सकल तथा निष्कल दोनों ही स्वरूपोंवाले साक्षात् सदाशिव देवका इस प्रकार ध्यान करे –

शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रसन्नं शीतलद्युतिम् ।
विद्युद्वलयसंकाशं जटामुकुटभूषितम् ॥ ४८ ॥
शार्दूलचर्मवसनं किंचित्स्मितमुखाम्बुजम् ।
रक्तपद्मदलप्रख्यपाणिपादतलाधरम् ॥ ४९ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्नं सर्वाभरणभूषितम् ।
दिव्या युधकरैर्युक्तं दिव्यगन्धानुलेपनम् ॥ ५० ॥
पञ्चवक्त्रन्दशभुजञ्चन्द्रखण्डशिखामणिम् ।
अस्य पूर्वमुखं सौम्यं बालार्कसदृशप्रभम् ॥ ५१ ॥
त्रिलोचनारविन्दाढ्यं बालेन्दुकृतशेखरम् ।
दक्षिणं नीलजीमूतसमानरुचिरप्रभम् ॥ ५२ ॥
भ्रुकुटीकुटिलं घोरं रक्तवृत्तत्रिलोचनम् ।
दंष्ट्रा करालं दुष्प्रेक्ष्यं स्फुरिताधरपल्लवम् ॥ ५३ ॥
उत्तरं विद्रुमप्रख्यं नीलालकविभूषितम् ।
सद्विलासन्त्रिनयनं चन्द्रार्द्धकृतशेखरम् ॥ ५४ ॥
पश्चिमम्पूर्णचन्द्राभं लोचनत्रितयोज्ज्वलम् ।
चन्द्रलेखाधरं सौम्यं मन्दस्मितमनोहरम् ॥ ५५ ॥
पञ्चमं स्फटिकप्रख्यमिन्दुरेखासमुज्ज्वलम् ।
अतीवसौम्यमुत्फुल्ललोचनत्रितयोज्ज्वलम् ॥ ५६ ॥
दक्षिणे शूलपरशुवज्रखड्गानलोज्ज्वलम् ॥ ५७ ॥
पूर्व्वे पिनाकनाराचघण्टा पाशांकुशोज्ज्वलम् ।
निवृत्त्याजानुपर्य्यंतमानाभि च प्रतिष्ठया ॥ ५८ ॥
आकण्ठं विद्यया तद्वदाललाटं तु शान्तया ।
तदूर्ध्वं शान्त्यतीताख्यकलया परया तथा ॥ ५९ ॥
पञ्चाध्वव्यापिनं तस्मात्कलापञ्चकविग्रहम् ।
ईशानमुकुटं देवम्पुरुषाख्यम्पुरातनम् ॥ ६० ॥
अघोरहृदयं तद्वद्वामगुह्यं महेश्वरम् ।
सद्योजातं च तन्मूर्तिमष्टत्रिंशत्कलामयम् ॥ ६१ ॥
मातृकामयमीशानम्पञ्चब्रह्ममयन्तथा ।
ॐकाराख्यमयं चैव हंसन्यासमयन्तथा ॥ ६२ ॥
पञ्चाक्षरमयन्देवं षडक्षरमयन्तथा ।
अङ्गषट्कमयञ्चैव जातिषट्कसमन्वितम् ॥ ६३ ॥

 वे शुद्ध स्फटिकके समान स्वच्छ, [सर्वदा] प्रसन्न, शीतल कान्तिसे युक्त, विद्युत् के वलयके सदृश, जटारूपी मुकुटसे सुशोभित, व्याघ्र- चर्मका वस्त्र धारण किये हुए, मन्द हास्यसे युक्त मुखकमलवाले, रक्तकमलकी पंखुड़ीके समान प्रतीत होते हुए करतल-पदतल तथा अधरवाले, सम्पूर्ण लक्षणोंसे सम्पन्न, सभी आभरणोंसे विभूषित, हाथोंमें दिव्य आयुध धारण किये हुए, दिव्य गन्धका लेप लगाये हुए, पाँच मुख तथा दस भुजाओंवाले और सिरपर अर्धचन्द्ररूप मणिको धारण किये हुए हैं ॥ ४७ – ५०१ / २ ॥ इनका पूर्व दिशाका मुख सौम्य, बालसूर्यके समान कान्तिमान्, कमलके समान तीन नेत्रोंसे युक्त तथा बालचन्द्रसे सुशोभित मस्तकवाला है, इनका दक्षिण- मुख नील मेघके समान सुन्दर कान्तिवाला, टेढ़ी भ्रुकुटीयुक्त, भयानक, लाल तथा गोल तीन नेत्रोंसे युक्त, दाढ़ोंके कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, कठिनाईसे देखा जानेयोग्य तथा फड़कते ओठोंसे युक्त है, इनका उत्तरमुख मूँगे समान रक्ताभ, नीलवर्णकी अलकावलीसे सुशोभित, सुन्दर विलासयुक्त, तीन नेत्रोंसे युक्त तथा अर्धचन्द्रसे शोभित मस्तकसे समन्वित है। इनका पश्चिममुख पूर्णचन्द्रके समान मनोहर, तीन नेत्रोंसे उज्ज्वल, चन्द्ररेखाको धारण करनेवाला, सौम्य एवं मन्द हास्यके कारण मनोहर है, इनका पाँचवाँ मुख स्फटिकके समान स्वच्छ, चन्द्ररेखाके द्वारा उद्भासित, अत्यन्त सौम्य तथा खिले हुए तीन नेत्रोंसे भासमान है, इनके दक्षिणका भाग शूल, परशु, वज्र, खड्ग एवं अग्निसे उद्भासित है और वामभाग पिनाक नामक धनुष, बाण, घण्टा, पाश एवं अंकुशसे देदीप्यमान है, वे जानुपर्यन्त निवृत्ति नामक कलासे, नाभिपर्यन्त प्रतिष्ठा नामक कलासे, कण्ठपर्यन्त विद्या नामक कलासे, ललाटपर्यन्त शान्ता नामक कलासे तथा उसके ऊपर शान्त्यतीता नामक परा कलासे युक्त हैं ॥ ५१–५९ ॥ भगवान् शिवका अड़तीस कलाओंसे समन्वित स्वरूप पंचाध्वव्यापी तथा वैसे ही पंचकलामय विग्रहवाला है। इन पुरातन महेश्वरदेवके मन्त्रात्मक श्रीविग्रहका ईशानमन्त्र शिरोमुकुट, तत्पुरुषमन्त्र मुख, अघोरमन्त्र हृदय, वैसे ही गुह्यदेश वामदेवमन्त्र तथा चरण सद्योजात मन्त्र है । वे मातृकामय, पंच ब्रह्ममय, ओंकारमय तथा हंसन्यासमय हैं; वे पंचाक्षरमय, षडक्षरमय, छः अंगोंसे युक्त तथा छ: जातियोंसे युक्त हैं ॥ ६० – ६३ ॥

हे प्रिये ! इस प्रकार मेरा ध्यानकर मेरे वामभागमें मनोन्मनीस्वरूपा आप गौरीका ‘गौरीर्मिमाय’ इस मन्त्रके आदिमें ओंकार लगाकर भक्तिपूर्वक आवाहन करके पूर्ववत् नमस्कारपर्यन्त पूजन करे । हे ईश्वरि ! हे देवेशि ! । तब एकाग्रमन हो साधक इस प्रकार तुम्हारा ध्यान करे—

प्रफुल्लोत्पलपत्राभां विस्तीर्णायतलोचनाम् ।
पूर्णचन्द्राभवदनान्नील कुंचितमूर्द्धजाम् ॥ ६६ ॥
नीलोत्पलदलप्रख्याञ्चन्द्रार्धकृतशेखराम् ।
अतिवृत्तघनोत्तुंगस्निग्धपीनपयोधराम् ॥ ६७ ॥
तनुमध्याम्पृथुश्रोणीम्पीतसूक्ष्मतराम्बराम् ।
सर्वाभरणसम्पन्नां ललाटतिलकोज्ज्वलाम् ॥ ६८ ॥
विचित्रपुष्पसंकीर्णकेशपाशोपशोभिताम् ।
सर्वतोऽनुगुणाकारां किंचिल्लज्जानताननाम् ॥ ६९ ॥
हेमारविन्दं विलसद्दधानां दक्षिणे करे ।
चण्डवच्चामरं हस्तं न्यस्यासीनां सुखासने ॥ ७० ॥

खिले हुए कमलके समान कान्तियुक्त एवं विस्तीर्ण तथा दीर्घ जिनके नेत्र हैं, पूर्ण चन्द्रके समान मुख तथा केश नीले एवं घुँघराले हैं, जिनके शरीरका वर्ण नील कमलके समान है, जिनके मस्तकपर अर्धचन्द्र विराज रहा है, जिनका वक्षःस्थल अत्यन्त उत्तुंग, घन, स्निग्ध तथा वृत्ताकार है, जिनकी कटि अत्यन्त सूक्ष्म तथा श्रोणिप्रदेश स्थूल है, जो पीत और सूक्ष्म वस्त्र धारण की हुई हैं, जो सर्वाभरणभूषित हैं तथा मस्तकपर उज्ज्वल तिलकसे युक्त हैं, जिनके केशपाश सुन्दर पुष्पसे ग्रथित हैं, जो सभी गुणोंसे सम्पन्न हैं, कुछ-कुछ लज्जासे जिनका मुख नीचेकी ओर झुका हुआ है, जो अपने दाहिने हाथमें सुवर्ण कमल धारण की हुई हैं और जो हाथमें चामरदण्ड लेकर सुखासनपर विराजमान हैं ॥ ६४–७० ॥

हे देवेशि ! इस प्रकार स्थिरचित्त होकर मेरा तथा तुम्हारा ध्यान करके ओंकारसे प्रोक्षणादिपूर्वक शंखके जलसे स्नान कराये। ‘ भवे भवे नातिभवे’ इस मन्त्रसे पाद्य अर्पित करे, ‘वामदेवाय नमः ‘ – इस मन्त्रको पढ़कर आचमन प्रदान करे, ‘ज्येष्ठाय नमः ‘ – ऐसा कहकर शुभ वस्त्र प्रदान करे तथा ‘ श्रेष्ठाय नमः ऐसा कहकर यज्ञोपवीत प्रदान करे ॥ ७१–७३ ॥

इसके बाद ‘रुद्राय नमः ‘ इस प्रकार कहकर पुनः आचमन कराये, ‘कालाय नमः ‘ – ऐसा कहकर भलीभाँति निर्मित उत्तम गन्ध प्रदान करे । ‘कलविकरणाय नमः’ ऐसा कहकर अक्षत प्रदान करे तथा ‘बलविकरणाय नमः’ ऐसा उच्चारणकर पुष्प अर्पित करे । ‘बलाय नमः’ ऐसा बोलकर यत्नपूर्वक धूप दे और ‘बलप्रमथनाय नमः’ ऐसा कहकर उत्तम दीप प्रदान करे ॥ ७४–७६ ॥ षडंग ब्रह्म मन्त्रों, मातृकासहित प्रणव, शिव और शक्तिसहित क्रमसे मुझे तथा आपको मुद्रा दिखाये । हे सुन्दरि! उसके बाद पहले मेरा पूजन करे तथा बादमें तुम्हारा पूजन करे । जब तुम्हारी पूजा करे, तब स्त्रीलिंग पदोंका प्रयोग करे। हे पार्वति ! मात्र इतना ही भेद है और कुछ नहीं ॥ ७७–७९ ॥

इस प्रकार भलीभाँति विधिके अनुसार ध्यान और पूजनकर बुद्धिमान् पुरुष मेरी आवरणपूजा आरम्भ करे ॥ ८० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें शिवध्यानपूजनवर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

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