October 11, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — कैलाससंहिता — अध्याय 15 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण कैलाससंहिता पन्द्रहवाँ अध्याय तिरोभावादि चक्रों तथा उनके अधिदेवताओं आदिका वर्णन ईश्वर बोले – हे वरानने ! इसके बाद सदाशिवसे जिस प्रकार महेश्वरादि व्यूहचतुष्टयकी उत्पत्ति होती है, उस उत्तम सृष्टि-पद्धतिको मैं कह रहा हूँ ॥ १ ॥ आकाशके अधिपति प्रभु सदाशिव समष्टिस्वरूप हैं। महेश्वरादि चाररूप (महेश्वर, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा) उन्हींकी व्यष्टि हैं । महेश्वरकी उत्पत्ति सदाशिवके हजारवें भागसे होती है । पुरुषके अनन्तरूप होनेसे वे वायुके अधिपति हैं ॥ २-३ ॥ वे वामभागमें मायाशक्तिसे युक्त, सकल तथा क्रियाओंके स्वामी हैं । ईश्वर आदि चारोंका समूह इन्हींका व्यष्टिरूप है । ईश, विश्वेश्वर, परमेश, सर्वेश्वर- यह उत्तम तिरोधानचक्र है ॥ ४-५ ॥ तिरोभाव भी दो प्रकारका है, एक रुद्र आदिके रूपमें दिखायी पड़ता है और दूसरा जीवसमूहके विस्तारके रूपमें देहभावसे स्थित है ॥ ६ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ यह शरीर तभीतक रहता है, जबतक पुण्य और पाप जीवमें रहता है । इसकी अवधि कर्मसाम्यपर्यन्त है । कर्मसाम्य होनेपर वह जीव अनुग्रहमय परमात्मामें मिलकर एक हो जाता है ॥ ७ ॥ उसमें सर्वेश्वर आदि जो चार देवता कहे गये हैं, वे साक्षात् परब्रह्मात्मक, निर्विकल्प एवं निरामय हैं ॥ ८ ॥ तिरोभावात्मक चक्र शान्तिकलामय है, यह उत्तम पद महेश्वरसे अधिष्ठित है । यह पद [ तिरोभावात्मक चक्र ] ही महेश्वरके चरणोंकी सेवा करनेवालोंका प्राप्य है तथा शिवोपासकोंको [ अधिकारके अनुसार ] क्रमशः सालोक्य आदि मुक्तियाँ प्रदान करनेवाला है ॥ ९-१० ॥ रुद्रमूर्तिकी उत्पत्ति महेश्वरके हजारवें अंशसे हुई है, वे अघोर वदनके आकारवाले तथा तेजस्तत्त्वके स्वामी हैं ॥ ११ ॥ सबका संहार करनेवाले वे प्रभु अपने वामभागमें गौरीशक्तिसे युक्त हैं तथा शिवादि चार रूप इन्हींके व्यष्टिरूप हैं । हे मुनीश्वर ! शिव, हर, मृड और भव-[इनसे युक्त] यह सुप्रसिद्ध, अद्भुत तथा महादिव्य ‘संहार’ नामक चक्र है ॥ १२-१३ ॥ विद्वानोंने उस संहारचक्रको नित्य आदिके भेदसे तीन प्रकारका कहा है। नित्य वह है, जिसमें जीव सुषुप्तिमें रहता है। सृष्टिके निमित्तभूत ( संहारचक्र) – को नैमित्तिक कहते हैं और उस [ जगत् ] -के विलयको महाप्रलय कहते हैं- इसका वेदमें निर्देश है । जब जीव संसारमें जन्म-दुःखादिसे श्रान्त हो जाता है, उस समय हे मुनिश्रेष्ठ ! उस जीवकी विश्रान्ति और उसके कर्मपरिपाकके लिये अमित तेजस्वी रुद्रने तीन प्रकारके संहारोंकी कल्पना की है ॥ १४- १६ ॥ ये तीनों प्रकारके संहारकृत्य रुद्रके ही कहे गये हैं । संहारकालमें भी उन विभुके सृष्टि आदि पाँच कार्योंका यह समुदाय (सृष्टि, स्थिति, लय, तिरोभाव, अनुग्रह रहता है। हे मुने! सृष्टि आदि) पाँच कृत्योंके वे भव आदि देवता कहे गये हैं, जो परब्रह्मके स्वरूप और लोकपर अनुग्रह करनेवाले हैं ॥ १७-१८ ॥ यह संहार नामक चक्र विद्यारूप और कलामय है यह निरामय पद रुद्रसे अधिष्ठित है ॥ १९ ॥ रुद्राराधनमें निरत चित्तवाले रुद्रोपासकोंके लिये यह पद ही प्राप्य है तथा उन्हें सालोक्यमुक्तिके क्रमसे शिवसायुज्य प्रदान करनेवाला है ॥ २० ॥ रुद्रमूर्तिके हजारवें भागसे विष्णुकी उत्पत्ति हुई है, वे वामदेवचक्र आत्मारूप तथा जलतत्त्वके अधिपति हैं। वे बायें भागमें रमाशक्तिसे समन्वित, सबकी रक्षा करनेवाले, महान्, चार भुजाओंवाले, कमलसदृश नेत्रवाले, श्यामवर्ण तथा शंख आदि चिह्नोंको धारण करनेवाले हैं ॥ २१-२२ ॥ व्यष्टिकी दशामें इन्हींके वासुदेव आदि चार रूप होते हैं, जो उपासनापरायण वैष्णवोंको मुक्ति प्रदान करते हैं। यह उत्तम स्थितिचक्र वासुदेव, अनिरुद्ध, संकर्षण तथा प्रद्युम्न नामसे विख्यात है ॥ २३-२४॥ उत्पन्न किये गये जगत् की स्थिति – सम्पादन तथा ब्रह्माके साथ [अपने कर्मके अनुसार ] फलका भोग करनेवाले जीवोंका आरब्ध कर्मके भोगपर्यन्त पालन करना – यह रक्षा करनेवाले विष्णुका कृत्य कहा गया है। स्थितिमें भी विभु विष्णुके सृष्टि आदि पाँच कृत्य हैं, उसमें प्रद्युम्न आदि वे पाँच देवता हो गये हैं, जो सर्वदा निर्विकल्प, निरातंक तथा मुक्तिरूप आनन्दको देनेवाले हैं ॥ २५—२७ ॥ हे ब्रह्मन् ! यह प्रतिष्ठा नामक स्थितिचक्र जनार्दनसे अधिष्ठित है तथा परम पद कहा जाता है ॥ २८ ॥ विष्णुके चरणकमलोंकी सेवा करनेवालोंके लिये यही पद प्राप्तव्य है, वैष्णवोंका यह चक्र सालोक्य आदि मुक्तिपद देनेवाला है । विष्णुके हजारवें भागसे पितामह उत्पन्न हुए हैं, जो सद्योजात नामक शिवके मुखरूप हैं और पृथ्वीतत्त्वके नायक हैं ॥ २९-३० ॥ वे वामभागमें सरस्वतीसे युक्त, सृष्टिकर्ता, जगत् के स्वामी, चतुर्मुख, रक्तवर्ण तथा रजोगुणवाले हैं ॥ ३१ ॥ हिरण्यगर्भ आदि चार इन्हींके व्यष्टिरूप हैं, जो हिरण्यगर्भ, विराट्, पुरुष और काल नामवाले हैं ॥ ३२ ॥ हे ब्रह्मन् ! यह सृष्टिचक्र ब्रह्मपुत्र [भृगु] आदि ऋषियोंसे सेवित, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और परिवार-सुखको प्रदान करनेवाला है ॥ ३३ ॥ प्रकृतिमें लीन हुए जीवके कर्मभोगके निमित्त बाहरसे भोगके साधनभूत स्त्री- पुत्र और उनके फलोंको लाकर संयुक्त करनेका नाम सृष्टि है, इसे पितामहका कृत्य कहा गया है । विद्वानोंके मतमें यही जगत्-सृष्टिकी क्रिया है, यह व्यूह सुख देनेवाला है ॥ ३४-३५ ॥ हे मुने! जगत् की सृष्टिमें भी उन ईश्वरके ये पाँच कृत्य हैं, उसके काल आदि देवता कहे गये हैं ॥ ३६ ॥ विद्वानोंने इसको निवृत्ति नामक सृष्टिचक्र कहा है । यह सुन्दर पद पितामहसे अधिष्ठित है ॥ ३७ ॥ ब्रह्मदेवमें मन लगानेवाले मनुष्योंको यही पद प्राप्त करना चाहिये, यह पैतामह अर्थात् ब्रह्मोपासकोंको सालोक्य आदि पद देनेवाला है । महेशादिके क्रमसे चार चक्रोंका यह समुदाय गौणीवृत्ति अर्थात् पारम्परिक सम्बन्धसे प्रणवका ही बोध करानेवाला कहा गया है । हे मुने! वेदोंमें प्रसिद्ध वैभववाला यह जगच्चक्र पंचारचक्र कहा जाता है, श्रुति इस चक्रकी स्तुति करती है ॥ ३८–४० ॥ यह एकमात्र जगच्चक्र केवल शिवशक्तिसे विजृम्भित है। सृष्टि आदि पाँच अवयववाला होनेसे इस जगच्चक्रको पंचार कहा जाता है । निरन्तर लय और उदयको प्राप्त हुआ यह जगच्चक्र घूमते हुए अलातचक्रके समान अविच्छिन्न प्रतीत हो रहा है, यह चारों ओर विद्यमान है, इसलिये इसे चक्र कहा गया है ॥ ४१-४२ ॥ स्थूल सृष्टिके दिखायी देनेके कारण इसे पृथु भी कहा जाता है । परम तेजस्वी हिरण्यमय शिवजीका शक्ति-कार्यरूपी यह चक्र हिरण्य ज्योतिवाला है । यह [हिरण्यमय जगच्चक्र] जलसे व्याप्त है, जल अग्निसे व्याप्त है, अग्नि वायुसे व्याप्त है, वायु आकाशसे व्याप्त है, आकाश भूतादिसे व्याप्त है, भूतादि महत्तत्त्वसे आवृत हैं और महत्तत्त्व सर्वदा अव्यक्तसे आवृत है, हे मुने! आस्तिक आचार्योंने इसीको ब्रह्माण्ड कहा है ॥ ४३–४६ ॥ इस संसारचक्रकी रक्षाके लिये सात आवरण कहे गये हैं । संसारचक्रसे दस गुना अधिक जलतत्त्व है । इसी प्रकार ऊपर-ऊपरके आवरण नीचेके आवरणकी अपेक्षा दस गुना अधिक हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मणोंको उसे ही ब्रह्माण्ड जानना चाहिये ॥ ४७-४८ ॥ इसी अर्थको समझकर ब्रह्माण्डरूप चक्रके समीप जलके होनेसे श्रुतिने भी जगत्को जलमध्यशायी कहा है । अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टिके द्वारा एकमात्र शिव ही अपनी शक्तिसे युक्त होकर निरन्तर लीला करते रहते हैं ॥ ४९-५० ॥ हे मुने! यहाँ बहुत कहनेसे क्या लाभ, मैं आपसे सारतत्त्व कह रहा हूँ कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शक्तिमान् शिवरूप ही है – यह सुनिश्चित है ॥ ५१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें उपासनामूर्तिवर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Please follow and like us: Related