शिवमहापुराण — कोटिरुद्रसंहिता — अध्याय 23
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
कोटिरुद्रसंहिता
तेईसवाँ अध्याय
काशीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यके प्रसंगमें काशीमें मुक्तिक्रमका वर्णन

ऋषि बोले— हे प्रभो ! हे सूतजी ! यदि वाराणसी महापुरी इतनी पवित्र है, तो आप उसका एवं अविमुक्त [ज्योतिर्लिंग]-का प्रभाव हमलोगोंसे कहिये ॥ १ ॥

सूतजी बोले— हे मुनीश्वरो ! मैं संक्षेपमें सम्यक् रीतिसे वाराणसी तथा विश्वेश्वरके अतिसुन्दर माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, आपलोग सुनें ॥ २ ॥ किसी समय पार्वतीने बड़ी प्रसन्नतासे संसारके हितकी कामनासे काशी तथा अविमुक्तका माहात्म्य शिवजीसे पूछा ॥ ३ ॥

पार्वती बोलीं— [हे शिवजी !] आप लोकहितकी कामनासे मेरे ऊपर कृपा करके इस क्षेत्रका माहात्म्य पूर्णरूपसे कहनेकी कृपा करें ॥ ४ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


सूतजी बोले— देवीका यह वचन सुनकर देवाधिदेव जगत् प्रभु ने जीवोंके कल्याणके लिये उन भवानीसे कहा- ॥ ५ ॥

परमेश्वर बोल— हे भद्रे ! तुमने लोकका कल्याण करनेवाला तथा सुखदायक शुभ प्रश्न किया है, अब मैं अविमुक्त तथा काशीके यथार्थ माहात्म्यका वर्णन करता हूँ। यह वाराणसी सदा मेरा गोपनीय क्षेत्र है और सब प्रकारसे सभी प्राणियोंके मोक्षका हेतु भी है ॥ ६-७ ॥ इस क्षेत्रमें सिद्धगण अनेक प्रकारका चिह्न धारणकर मेरे लोककी प्राप्ति करनेकी इच्छासे मेरा व्रत धारणकर सर्वदा यहाँ निवास करते हैं ॥ ८ ॥ यहाँपर वे सिद्धगण अपने मन तथा इन्द्रियोंको वशमें करके महायोगका अभ्यास करते हैं एवं भोग तथा मोक्ष देनेवाले श्रेष्ठ पाशुपतव्रतका आचरण करते हैं ॥ ९ ॥ हे महेश्वरि ! जिस कारणसे सब कुछ छोड़कर वाराणसीमें निवास करना मुझे निश्चय ही अच्छा लगता है, उसे तुम सुनो ॥ १० ॥

जो मेरा भक्त है एवं जो ज्ञानी है – वे दोनों ही मुक्तिके भागी हैं, उन्हें किसी अन्य तीर्थकी अपेक्षा नहीं रहती। उनके लिये विहित एवं अविहित दोनों ही ( प्रकारके कर्म) समान हैं ॥ ११ ॥ उन दोनोंको जीवन्मुक्त समझना चाहिये। वे जहाँ कहीं भी मरें, उन्हें शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है, मैंने यह सत्य वचन कहा है। हे देवि ! हे परम शक्तिस्वरूपिणि ! इस सर्वश्रेष्ठ अविमुक्त नामक तीर्थमें जो विशेषता है, उसे तुम ध्यान से सुनो ॥ १२-१३ ॥

सभी वर्ण तथा आश्रमके लोग; चाहे वे बालक हों, युवा हों अथवा वृद्ध हों, इस पुरीमें मरनेपर अवश्य मुक्त हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १४ ॥ हे द्विजो ! पवित्र हो, अपवित्र हो, कन्या हो या विवाहिता, विधवा, वन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता अथवा असंस्कृता, चाहे जैसी कैसी भी स्त्री हो, यदि वह इस क्षेत्रमें मर जाय, तो मुक्ति प्राप्त कर लेती है, इसमें संशय नहीं है। स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज अथवा जरायुज प्राणी [ – ये सभी ] यहाँ मरनेपर जैसा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं ॥ १५ – १७ ॥ हे देवि! यहाँ न ज्ञानकी अपेक्षा है, न भक्तिकी अपेक्षा है, न सत्कर्मकी अपेक्षा और न दानकी ही अपेक्षा है । यहाँ न संस्कारकी अपेक्षा है और न ध्यानकी ही अपेक्षा कभी है। यहाँ न नामकी अपेक्षा है । पूजा तथा उत्तम जातिकी भी कोई अपेक्षा नहीं है ॥ १८-१९ ॥

जो कोई भी मनुष्य मेरे इस मोक्षदायक क्षेत्रमें निवास करता है, वह चाहे जिस किसी प्रकारसे मरा हो, निश्चय ही मोक्षको प्राप्त कर लेता है ॥ २० ॥ हे प्रिये ! यह मेरा दिव्य पुर गुह्यसे भी गुह्यतर है । हे पार्वति ! ब्रह्मा आदि भी इसका माहात्म्य नहीं जानते हैं। अतः (सभी स्थितियोंमें मोक्ष प्रदान करनेके कारण ) यह महान् क्षेत्र अविमुक्त कहा गया है। मरनेके बाद यह नैमिषारण्य आदि क्षेत्रोंसे भी अधिक मोक्षप्रद है ॥ २१-२२ ॥ विद्वान् पुरुष धर्मका उपनिषद् सत्य, मोक्षका सारतत्त्व समत्वभाव, क्षेत्र और तीर्थका उपनिषद् अविमुक्त- क्षेत्रको कहते हैं। अपनी इच्छानुसार भोजन, शयन, क्रीड़ा आदि विविध क्रियाओंको करता हुआ भी अविमुक्तमें प्राण-त्याग करनेवाला प्राणी मोक्षका अधिकारी हो जाता है ॥ २३-२४ ॥

हजारों पाप करके पिशाच हो जाना भी अच्छा है, किंतु काशीको छोड़कर स्वर्गमें हजार इन्द्रपद श्रेष्ठ नहीं हैं । इसलिये मुनिजन पूर्ण प्रयत्नके साथ काशीपुरीका सेवन करते हैं और अव्यक्त स्वरूपवाले सदाशिवका ध्यान करते हैं ॥ २५-२६ ॥ हे प्रिये ! मनुष्य जिस-जिस फलको उद्देश्य करके यहाँ तप करते हैं, उन्हें मैं निश्चय ही वे – वे मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ, उसके बाद उन्हें अपनी सायुज्यमुक्ति तथा अभिलषित स्थान देता हूँ । यहाँ शरीरका त्याग करनेवालोंको कहीं भी कर्मका बन्धन नहीं होता है ॥ २७-२८ ॥ देवताओं तथा ऋषियोंके सहित ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और अन्य सभी महात्मा तथा दूसरे लोग भी यहाँ मेरी उपासना करते हैं ॥ २९ ॥

विषयासक्त चित्तवाला तथा धर्मरुचिसे रहित मनुष्य भी यदि इस क्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त करता है, तो वह पुनः इस संसारमें नहीं आता है, फिर ममतासे रहित, धैर्यवान्, सत्त्वगुणमें स्थित, अहंकाररहित, पुण्यात्मा तथा सर्वारम्भपरित्यागी [निष्काम कर्म करनेवाले] पुरुषोंका कहना ही क्या है, वे सभी तो मुझमें ही लीन रहते हैं ॥ ३०-३१ ॥ हजारों जन्म लेनेके पश्चात् योगी पुरुष यहाँ जन्म प्राप्त करता है, वह यहाँ मरनेपर परम मोक्ष प्राप्त करता है। हे पार्वति! यहाँपर मेरे भक्तोंने अनेक लिंग स्थापित किये हैं, जो कामनाओंको पूर्ण करनेवाले एवं मोक्ष देनेवाले हैं ॥ ३२-३३ ॥ यह क्षेत्र चारों दिशाओं में सभी ओर पाँच कोसतक फैला हुआ कहा गया है, इसमें कहीं भी मर जानेपर प्राणीको अमृतत्वकी प्राप्ति होती है ॥ ३४ ॥

जो पापरहित (पुण्यात्मा) मनुष्य यहाँ मरता है, वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है और जो पापी मरता है, वह [पहले] कायव्यूहोंको प्राप्त करता है, फिर वह यातनाको भोगकर बादमें मोक्ष प्राप्त करता है । हे सुन्दरि ! जो इस अविमुक्तक्षेत्रमें पाप करता है, वह निश्चित ही दस हजार वर्षपर्यन्त भैरवी यातना प्राप्त करके पापका फल भोगनेके अनन्तर मुक्त हो जाता है ॥ ३५-३७ ॥ इस प्रकार यहाँ पाप करनेवालोंकी जो गति होती है, उस सबको मैंने तुमसे कह दिया । इसे जानकर मनुष्यको अविमुक्तक्षेत्रका विधिवत् सेवन करना चाहिये। सौ करोड़ कल्पोंमें भी [ अपने द्वारा ] किये गये कर्मका नाश नहीं होता है, किये गये शुभ और अशुभ कर्मका फल [जीवको] अवश्य भोगना पड़ता है ॥ ३८-३९ ॥ अशुभ कर्म निश्चय ही नरकके लिये होता है एवं शुभ कर्म स्वर्गके लिये होता है । [ शुभ – अशुभ ] दोनों कर्मोंसे मनुष्यलोकमें जन्म कहा गया है ॥ ४० ॥

हे पार्वति ! शुभाशुभ कर्मके न्यूनाधिक्यसे उत्तम तथा अधम शरीर प्राप्त होते हैं, किंतु जब दोनोंका क्षय हो जाता है, तब मुक्ति होती है, यह सत्य है ॥ ४१ ॥ हे महेश्वरि ! कर्मकाण्डमें संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण–तीन प्रकारके कर्म बताये गये हैं, जो बन्धनमें डालनेवाले हैं ॥ ४२ ॥ पूर्वजन्ममें किये गये कर्मको संचित कहा गया है और जिसका इस शरीरसे भोग किया जा रहा है, वह प्रारब्ध कहा गया है। हे देवेशि ! जो इस जन्ममें शुभाशुभ कर्म इस समय किया जा रहा है, उसे विद्वज्जन क्रियमाण कहते हैं ॥ ४३-४४ ॥ प्रारब्ध कर्मका नाश [ केवल ] उसके भोगसे ही होता है, इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। संचित और क्रियमाण – इन दोनों कर्मोंका नाश पूजनादि उपायसे होता है। सम्पूर्ण कर्मोंका नाश काशीपुरीके अतिरिक्त अन्यत्र नहीं होता है। सभी तीर्थ सुलभ हैं, किंतु काशीपुरी दुर्लभ है ॥ ४५-४६ ॥

यदि पूर्वजन्ममें आदरपूर्वक काशीका दर्शन किया गया है, तभी काशीमें आकर मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। काशीमें आकर जो मनुष्य गंगास्नान करता है, उसके संचित तथा क्रियमाण कर्मका नाश जाता है ॥ ४७-४८ ॥ यह निश्चित है कि बिना भोग किये प्रारब्धकर्मका नाश नहीं होता, जब मनुष्यकी [ शास्त्रानुमोदित रीतिसे] मृत्यु होती है, तब प्रारब्धकर्मका भी क्षय हो जाता है । यदि किसीने पूर्वमें काशीसेवन किया है और उसके बाद पाप किया है, तो भी काशीसेवनरूप बलवान् बीजसे उसे काशी पुनः प्राप्त हो जाती है और तब सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं, इसलिये कर्मका निर्मूलन करनेवाली काशीका सेवन निश्चित रूपसे करना चाहिये । हे प्रिये ! जिसने एक भी ब्राह्मणको काशीवास कराया, वह स्वयं भी काशीवास पाकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ ४९–५२ ॥

जो काशीमें मरता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता, किंतु प्रयागमें फलके उद्देश्यसे मरनेपर कामनानुरूप फल प्राप्त होता है। यदि [मोक्षदायिनी ] काशी तथा [ वांछितप्रद] प्रयाग – दोनोंका मरणफल एक ही हो तो काशीमरणका अपूर्व फल मोक्ष व्यर्थ हो जायगा और प्रयागमें यदि मरणसे कामनासिद्धि न हुई तो उसका अपूर्व फल भी सिद्ध न हो सकेगा । अतः मेरी आज्ञासे साक्षात् विष्णु भगवान् नयी सृष्टि रचकर [ प्रयागमें मनुष्योंको] मनोवांछित सिद्धि प्रदान करते हैं ॥ ५३–५५ ॥

सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियो ! इस प्रकार काशीपुरीका तथा विश्वेश्वरका भी बहुत माहात्म्य है, जो सज्जनोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसके बाद मैं त्र्यम्बकेश्वरके माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर मनुष्य क्षणमात्रमें सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है ॥ ५६-५७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें काशीविश्वेश्वरज्योतिर्लिंग-माहात्म्यवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥

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