शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 30
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
तीसवाँ अध्याय
ब्रह्मा तथा विष्णु का शिवलोक पहुँचना, शिवलोक की तथा शिवसभा की शोभा का वर्णन, शिवसभा के मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिव के दिव्यस्वरूप का दर्शन और शंखचूड से प्राप्त कष्टों से मुक्ति के लिये प्रार्थना

सनत्कुमार बोले — हे व्यासजी ! उस समय ब्रह्मासहित भगवान् विष्णु अत्यन्त दिव्य, निराधार एवं अभौतिक शिवलोक पहुँचकर आनन्दित तथा प्रसन्नमुख होकर भीतर गये, जो नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, महोज्ज्वल और शोभा से युक्त था ॥ १-२ ॥

शिवमहापुराण

उन्होंने गणों से सेवित, अद्भुत, अत्यन्त ऊँचे, परम सुन्दर और अत्यधिक शोभासम्पन्न पहले द्वार पर आकर श्वेत वस्त्रों से सुशोभित, रत्नमय आभूषणों से भूषित, रत्न के सिंहासन पर स्थित, पाँच मुख तथा तीन नेत्रवाले. गौर तथा सुन्दर शरीरवाले, त्रिशूल आदि धारण किये हुए और भस्म तथा रुद्राक्ष से सुशोभित महावीर द्वारपालों को देखा । तब ब्रह्मा के सहित विष्णु ने बड़ी विनम्रता के साथ उन्हें प्रणाम करके प्रभुदर्शन के निमित्त सारा वृत्तान्त बताया ॥ ३-६ ॥

तब उन्होंने आज्ञा प्रदान की और वे उनकी आज्ञा से प्रविष्ट हुए । दूसरा द्वार भी परम मनोहर, विचित्र तथा अत्यन्त प्रभायुक्त था । प्रभु के पास जाने के लिये उन्होंने वहाँ के द्वारपाल से वृत्तान्त निवेदित किया और उस द्वारपाल से आज्ञा प्राप्तकर वे अन्य द्वार में प्रविष्ट हुए ॥ ७-८ ॥ इस प्रकार पन्द्रह द्वारों में क्रम से प्रवेश करके वे पद्मयोनि एक विशाल द्वार पर पहुँचे और उन्होंने वहाँ नन्दी को देखा । उन्हें भली-भाँति नमस्कारकर तथा उनकी स्तुति करके विष्णुजी ने पूर्व की भाँति उन नन्दी से आज्ञा प्राप्तकर धीरे से प्रसन्नतापूर्वक भीतर प्रवेश किया ॥ ९-१० ॥

वहाँ पहुँचकर उन लोगों ने शिवजी की उच्च महासभा देखी, जो महाप्रभा से युक्त सुन्दर शरीरवाले, शिव के स्वरूपवाले, शुभ कान्तिवाले, दस भुजाओंवाले, पाँच मुखोंवाले, तीन नेत्रोंवाले, नीले कण्ठवाले, परम कान्ति से युक्त, रत्नमय रुद्राक्षों तथा भस्मरूप आभरणों से भूषित पार्षदों से घिरी हुई थी । वह सभा उदीयमान चन्द्रमण्डल के आकारवाली, चौकोर, मनोहर, श्रेष्ठ मणियों के हार से युक्त एवं उत्तम हीरों से सुशोभित, अमूल्य रत्नों से रचित, पद्मपत्रों से शोभित, मणियों के समूहों की मालाओं से सुशोभित, अनेक प्रकार के चित्रों से चित्रित तथा शंकरजी के इच्छानुसार पद्मरागकी श्रेष्ठ मणियोंद्वारा विरचित थी ॥ ११-१५ ॥

उस सभा में स्वर्ण के सूत्रों से पिरोये हुए अत्यन्त मनोहर चन्दन वृक्ष के पत्तों के बन्दनवार थे तथा उसमें स्यमन्तक मणिनिर्मित सैकड़ों सोपान बने हुए थे । उस सभा में इन्द्रनीलमणि के खम्भे लगे हुए थे और वह अत्यन्त मनोहर, सुसंस्कृत तथा सुगन्धित वायु से सुवासित थी । उसकी चौड़ाई हजारों योजन थी और वह अनेक सेवकों से परिपूर्ण थी । सुरेश्वर विष्णु ने उस सभा में अम्बा पार्वतीसहित भगवान् शंकर को देखा ॥ १६–१८ ॥

उस सभा के बीच में अमूल्य रत्ननिर्मित विचित्र सिंहासन पर बैठे हुए शिवजी ताराओं के बीच चन्द्रमा की की भाँति सुशोभित हो रहे थे । वे किरीट, कुण्डल एवं रत्नों की माला से सुशोभित थे, सभी अंगों में भस्म लगाये हुए थे तथा हाथों में लीलाकमल धारण किये हुए थे । वे अपने आगे होनेवाले गीत एवं नृत्य को बड़ी प्रसन्नता के साथ मुसकराते हुए देख रहे थे । वे उमापति शान्त, प्रसन्नमन तथा महान् उल्लास से युक्त थे और भगवती के द्वारा दिये गये सुगन्धित ताम्बूल का सेवन कर रहे थे । गणलोग परम भक्ति से श्वेत चँवर डुला रहे थे और सिद्धगण भक्ति से सिर झुकाये चारों ओर से उनकी स्तुति कर रहे थे । उन गुणातीत, परमेश्वर, तीनों देवताओं को उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापी, निराकार, निर्विकल्प, अपनी इच्छा से सगुण रूप धारण करनेवाले, मायारहित, अजन्मा, आदिदेव, मायाधीश, परात्पर, प्रकृति एवं पुरुष से भी परे, विशिष्ट, परिपूर्णतम, समभाववाले अपने प्रभु शिव को देखकर ब्रह्मा एवं विष्णु हाथ जोड़कर प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे — ॥ १९–२६ ॥

विष्णु और ब्रह्मा बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परब्रह्म ! हे अखिलेश्वर ! हे त्रिगुणातीत ! हे निर्व्यग्र ! हे त्रिदेवजनक ! हे प्रभो ! हम आपकी शरण में आये हैं । हे विभो ! हे परमेश्वर ! शंखचूड के द्वारा पीड़ित तथा सन्तप्त किये गये हम दुखित तथा अनाथों की रक्षा कीजिये ॥ २७-२८ ॥ यह गोलोक, जिसकी स्थिति आपके ही द्वारा है, उस गोलोक के अधिष्ठाता आपने श्रीकृष्ण को नियुक्त किया है । उनका श्रेष्ठ पार्षद सुदामा प्रारब्धवश राधिका के शाप से शंखचूड नामक दानव के रूप में उत्पन्न हुआ है । हे शम्भो ! उसने हमलोगों को नाना प्रकार की यातनाएँ देकर [स्वर्गलोक से] निकाल दिया है, अपने अधिकारों से वंचित देवतालोग पृथ्वी पर घूम रहे हैं ॥ २९-३१ ॥

हे महेशान ! आपके बिना वह अन्य देवताओं से नहीं मारा जा सकता. अतः आप उसका वध कीजिये और सभी लोकों को सुखी बनाइये । [हे प्रभो!] आप ही निर्गुण, सत्य, अनन्त एवं अनन्त पराक्रमवाले हैं । आप सगुण, प्रकृति एवं पुरुष से परे तथा सर्वत्र व्यापक हैं ॥ ३२-३३ ॥ हे प्रभो ! आप सृष्टिकाल में रजोगुण से ब्रह्मा के रूप में सृष्टि करते हैं एवं पालनकाल में सत्त्वगुण से युक्त हो विष्णु के रूप में जगत् का पालन करते हैं, प्रलयकाल में तमोगुण से युक्त हो रुद्र के रूप में इस जगत् का संहार करते हैं एवं त्रिगुण से परे चौथे शिव नामक ज्योतिःस्वरूप भी आप ही हैं । आप अपनी दीक्षा से गोलोक में गायों का पालन करते हैं तथा आपकी गोशाला में श्रीकृष्ण दिन-रात क्रीड़ा करते रहते हैं । आप सबके कारण तथा स्वामी हैं और आप ही ब्रह्मा, विष्णु तथा ईश्वर हैं, आप निर्विकारी, सदा साक्षी, परमात्मा एवं परमेश्वर हैं ॥ ३४-३७ ॥

आप दीनों एवं अनाथों के सहायक हैं, दीनों के रक्षक, दीनबन्धु, त्रिलोकेश एवं शरणागतवत्सल हैं ॥ ३८ ॥ हे गौरीश ! हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न हो जाइये और हमलोगों का उद्धार कीजिये । हे नाथ ! हमलोग आपके अधीन हैं, अत: जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा कीजिये ॥ ३९ ॥

सनत्कुमार बोले — हे व्यासजी ! इस प्रकार कहकर वे दोनों देवता-ब्रह्मा एवं विष्णु विनम्र होकर हाथ जोड़कर शिव को नमस्कार करके मौन हो गये ॥ ४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडवध के अन्तर्गत देवदेवस्तुतिवर्णन नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥

 

 

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