शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 09
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
नौवाँ अध्याय
कामदेव द्वारा भगवान् शिव को विचलित न कर पाना, ब्रह्माजी द्वारा कामदेव के सहायक मारगणों की उत्पत्ति; ब्रह्माजी का उन सबको शिव के पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेव का वापस अपने आश्रम को लौटना

ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! अनुचरों के साथ उस काम के शिवस्थान में पहुँच जाने पर अद्भुत चरित्र हुआ, उसे सुनिये ॥ १ ॥ सभी लोगों को मोहित करनेवाले उस महावीर काम ने वहाँ पहुँचकर अपना प्रभाव फैला दिया और सभी प्राणियों को मोहित कर लिया ॥ २ ॥ हे मुने ! वसन्त ने भी महादेवजी को अपना मोहित करनेवाला प्रभाव दिखाया, जिससे समस्त वृक्ष एक साथ ही फूलों से लद गये । उस समय काम ने रति के साथ [शिव को मोहित करने के लिये] अनेक यत्न किये, जिससे सभी जीव उसके वशीभूत हो गये, किंतु गणों सहित शिवजी उसके वश में नहीं हुए ॥ ३-४ ॥

शिवमहापुराण

हे मुने ! [इस प्रकार चेष्टा करते हुए] जब वसन्तसहित उस काम के समस्त प्रयत्न निष्फल हो गये, तब वह अहंकाररहित हो गया और लौटकर अपने स्थान पर चला गया । हे मुने ! मुझ ब्रह्मा को प्रणामकर उदासीन तथा अभिमानरहित वह कामदेव गद्गद वाणी से मुझसे कहने लगा — ॥ ५-६ ॥

काम बोला — हे ब्रह्मन् ! शिव को मोहित नहीं किया जा सकता; क्योंकि वे योगपरायण हैं । उन शिव को मोहित करने की शक्ति न मुझमें है और न अन्य किसी में है ॥ ७ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैंने मित्र वसन्त तथा रति के साथ उन्हें मोहित करने के अनेक उपाय किये, किंतु शिव में वे सभी निष्फल हो गये । हे ब्रह्मन् ! हमलोगों ने शिवजी को मोहित करने के लिये जिन उपायों को किया, उन विविध उपायों को मैं बता रहा हूँ, हे मुने ! हे तात ! आप सुनिये — ॥ ८-९ ॥

जब शिवजी संयमित होकर समाधि लगाकर बैठे हुए थे, तब मैं मोहित करनेवाली वेगवान्, सुगन्धयुक्त तथा शीतल वायु से त्रिनेत्र महादेव रुद्र को विचलित करने लगा ॥ १०-११ ॥ मैं अपने धनुष तथा पाँचों पुष्प-बाणों को लेकर उनके चारों ओर छोड़ता हुआ उनके गणों को मोहित करने लगा । [उस प्रदेश में] मेरे प्रवेश करते ही समस्त प्राणी मोहित हो गये, किंतु गणोंसहित भगवान् शिव विकारयुक्त नहीं हुए ॥ १२-१३ ॥ हे विधे ! जब वे प्रमथाधिपति शिव हिमालय के शिखर पर गये, तब मैं भी वसन्त और रति के साथ वहाँ पहुँच गया ॥ १४ ॥ जब वे मेरु पर्वत पर और नागकेसर पर्वत पर गये, तो मैं वहाँ भी गया । जब वे कैलास पर्वत पर गये, तब मैं भी वहाँ पर गया ॥ १५ ॥

जब वे किसी समय समाधि से मुक्त हो गये, तो मैंने उनके सामने दो चक्र रचे । वे दोनों चक्र स्त्री के हावभावयुक्त दोनों कटाक्ष थे । मैंने दाम्पत्यभाव का अनुकरण करते हुए उन नीलकण्ठ महादेव के सामने नाना प्रकार के भाव उत्पन्न किये ॥ १६-१७ ॥ पशुओं तथा पक्षियों ने भी उनके सामने स्थित होकर गणोंसहित शिवजी को मोहित करने के लिये मोहकारी भाव प्रदर्शित किये ॥ १८ ॥ रसोत्सुक हुए मयूर के जोड़े ने अनेक प्रकार की गतियों का सहारा लेकर विविध प्रकार के भाव उनके आगे-पीछे प्रदर्शित किये, किंतु मेरे बाणों को कभी भी अवकाश नहीं मिला, मैं यह सत्य कह रहा हूँ । हे लोकेश ! शिवजी को मोहित करने की शक्ति मुझमें नहीं है ॥ १९-२० ॥

इस वसन्त ने भी उन्हें मोहित करने के लिये जो-जो उचित उपाय किये हैं, हे महाभाग ! उन्हें आप सुनें, मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ ॥ २१ ॥ इस वसन्त ने श्रेष्ठ चम्पक, केसर, बाल [इलायची], कटहल, गुलाब, नागकेसर, पुन्नाग, किंशुक, केतकी, मालती, मल्लिका, पर्णभार एवं कुरबक आदि पुष्पों को जहाँ भी शिवजी बैठते थे, वहीं विकसित कर दिया ॥ २२-२३ ॥ इस वसन्त ने शिवजी के आश्रम में तालाब के सभी फूले हुए कमलों को मलय पवनों से यत्नपूर्वक अत्यन्त सुगन्धित कर दिया ॥ २४ ॥ सभी लताएँ फूल से युक्त और अंकुर-समूह के साथ सन्निकट के वृक्षों में बड़े प्रेम से लिपट गयीं ॥ २५ ॥ सुगन्धित पवनों से खिले हुए फूलों से युक्त उन वृक्षों को देखकर मुनि भी काम के वशीभूत हो गये, फिर अन्य की तो बात ही क्या ! ॥ २६ ॥

इतना होने पर भी मैंने शंकरजी के मोहित होने का न कोई लक्षण देखा, न तो उनमें कोई काम का भाव ही उत्पन्न हुआ । [इतना सब कुछ करनेपर भी] शंकर ने मेरे ऊपर रंचमात्र भी क्रोध नहीं किया ॥ २७ ॥ इस प्रकार सब कुछ देखकर तथा उनकी भावना को जानकर मैं शिवजी को मोहित करने के प्रयास से विरत हो गया, उसका कारण आपसे निवेदन कर रहा हूँ ॥ २८ ॥
समाधि छोड़ देने पर हमलोग उनकी दृष्टि के सामने क्षणमात्र भी टिक नहीं सकते, उन रुद्र को कौन मोहित कर सकता है ? ॥ २९ ॥ हे ब्रह्मन् ! जलती हुई अग्नि के समान प्रकाशित नेत्रोंवाले तथा जटा धारण करने से महाविकराल उन कैलासपर्वतनिवासी शिवजी को देखकर उनके सामने कौन खड़ा रह सकता है ? ॥ ३० ॥

ब्रह्माजी बोले – इस प्रकार काम के वचन को सुनकर मैं चतुरानन ब्रह्मा चिन्तामग्न हो गया और बोलने की इच्छा करते हुए भी कुछ बोल न सका ॥ ३१ ॥ मैं कामदेव शिव को मोहित करने में समर्थ नहीं हूँ । हे मुने ! उसका यह वचन सुनकर मैं बड़े दुःख के साथ उष्ण श्वास लेने लगा ॥ ३२ ॥

उस समय मेरे निःश्वास अनेक रूपोंवाले, महाबलवान्, लपलपाती जीभवाले, चंचल तथा अत्यन्त भयंकर गणों के रूप में परिणत हो गये ॥ ३३ ॥ उन गणों ने भेरी, मृदंग आदि अनेक प्रकार के असंख्य विकराल, महाभयंकर बाजे बजाना प्रारम्भ किया । मेरे निःश्वास से उत्पन्न वे महागण मुझ ब्रह्मा के सामने ही मारो, काटो – ऐसा बोलने लगे ॥ ३४-३५ ॥ मारो, काटो – ऐसा बोलनेवाले उन गणों के शब्दों को सुनकर वह काम मुझ ब्रह्मा से कहने लगा ॥ ३६ ॥ हे मुने ! हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार उस काम ने मेरी आज्ञा लेकर उन सभी गणों की ओर देखकर उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए गणों के सामने ही मुझसे कहना प्रारम्भ किया — ॥ ३७ ॥

काम बोला — हे ब्रह्मन् ! हे प्रजानाथ ! हे सृष्टि के प्रवर्तक ! ये कौन विकराल एवं भयंकर वीर उत्पन्न हो गये ? ॥ ३८ ॥ हे विधे ! ये कौन-सा कार्य करेंगे तथा कहाँ निवास करेंगे और इनका क्या नाम है ? उन्हें आप मुझे बताइये तथा इनको कार्य में नियुक्त कीजिये ॥ ३९ ॥ हे देवेश ! इनको अपने कार्य में नियुक्तकर और इनके नाम रखकर तथा स्थानों की व्यवस्था करके यथोचित कृपा करके मुझे आज्ञा दीजिये ॥ ४० ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! उस काम की बात सुनकर उनके कार्य आदि का निर्देश करते हुए लोककर्ता मैंने काम से कहा — ॥ ४१ ॥

हे काम ! उत्पन्न होते ही इन सबने बारंबार मारय-मारय [मारो-मारो]-इस प्रकार का शब्द कहा है, इसलिये इनका नाम ‘मार’ होना चाहिये ॥ ४२ ॥ हे काम ! अपनी पूजा के बिना ये गण अनेक प्रकार की कामनाओं में रत मनवाले प्राणियों के कार्यों में सर्वदा विघ्न किया करेंगे ॥ ४३ ॥ हे कामदेव ! तुम्हारे अनुकूल रहना ही इनका मुख्य कार्य होगा और ये तुम्हारी सहायता में सदा तत्पर रहेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ४४ ॥ जब-जब और जहाँ-जहाँ तुम अपने कार्य के लिये जाओगे, तब-तब वहाँ-वहाँ ये तुम्हारी सहायता के लिये जायँगे ॥ ४५ ॥ ये तुम्हारे अस्त्रों से वशवर्ती प्राणियों के चित्त में सदैव भ्रान्ति उत्पन्न करेंगे और ज्ञानियों के ज्ञानमार्ग में विघ्न डालेंगे ॥ ४६ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनिसत्तम ! मेरे इस वचन को सुनकर रति और वसन्तसहित वह कामदेव कुछ प्रसन्नमुख हो गया ॥ ४७ ॥ मेरी बात को सुनकर वे सभी गण अपने-अपने स्वरूप से मुझे तथा कामदेव को चारों ओर से घेरकर बैठ गये । इसके बाद मुझ ब्रह्मा ने काम से प्रेमपूर्वक कहा — [हे मदन !] मेरी बात मानो, तुम इन गणों को साथ लेकर शिव को मोहित करने के लिये पुनः जाओ ॥ ४८-४९ ॥ अब तुम इन मारगणों के साथ मन लगाकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे स्त्री ग्रहण करने के लिये शिवजी को मोह हो जाय । हे देवर्षे ! मेरी बात सुनकर काम गौरव का ध्यान रखते हुए मुझे प्रणाम करके विनयपूर्वक मुझसे पुनः यह वचन कहने लगा – ॥ ५०-५१ ॥

काम बोला — हे तात ! मैंने शिव को मोहित करने के लिये भली-भाँति यत्नपूर्वक उपाय किये, किंतु उनको मोह नहीं हुआ, न आगे होगा और वर्तमान में भी वे मोहित नहीं हैं ॥ ५२ ॥ किंतु आपकी वाणी का गौरव मानकर इन मारगणों को देखकर आपकी आज्ञा से मैं पुनः वहाँ पत्नीसहित जाऊँगा ॥ ५३ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैंने मन में यह निश्चय कर लिया है कि उन्हें मोह नहीं होगा और हे विधे ! मुझे यह शंका है कि [इस बार] कहीं वे मेरे शरीर को भस्म न कर दें ॥ ५४ ॥

हे मुनीश्वर ! ऐसा कहकर वह कामदेव वसन्त, रति तथा मारगणों को साथ लेकर भयपूर्वक शिवजी के स्थान पर गया ॥ ५५ ॥ [वहाँ जाकर] कामदेव ने पहले के समान ही अपना प्रभाव दिखाया तथा वसन्त ने भी अनेक प्रकार की बुद्धि का प्रयोग करते हुए बहुत उपाय किये, मारगणों ने भी वहाँ बहुत उपाय किये, किंतु परमात्मा शंकर को कुछ भी मोह न हुआ ॥ ५६-५७ ॥
तब वह कामदेव लौटकर पुनः मेरे पास आया । समस्त मारगण भी अभिमानरहित तथा उदास होकर मेरे सामने खड़े हो गये ॥ ५८ ॥ हे तात ! तब उदास और गर्वरहित कामदेव ने मारगणों तथा वसन्त के साथ मेरे सामने खड़े होकर प्रणाम करके मुझसे कहा — ॥ ५९ ॥

‘हे विधे ! मैंने शिवजी को मोहित करने के लिये पहले से भी अधिक प्रयत्न किया, किंतु ध्यानरत चित्तवाले उन शिव को कुछ भी मोह नहीं हुआ ॥ ६० ॥ उन दयालु ने मेरे शरीर को भस्म नहीं किया, इसमें मेरे पूर्वजन्म का पुण्य ही कारण है । वे प्रभु सर्वथा निर्विकार हैं । हे ब्रह्मन् ! यदि आपकी ऐसी इच्छा है कि महादेवजी दारपरिग्रह करें, तो मेरे विचार से आप गर्वरहित होकर दूसरा उपाय कीजिये’ ॥ ६१-६२ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर कामदेव मुझे प्रणाम करके गर्व का खण्डन करनेवाले दीनवत्सल शम्भु का स्मरण करता हुआ परिवारसहित अपने आश्रम को चला गया ॥ ६३ ॥’

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में कामप्रभाव एवं मारगणोत्पत्तिवर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥

 

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