September 28, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 48 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः अड़तालीसवाँ अध्याय शुक्राचार्य की अनुपस्थिति से अन्धकादि दैत्यों का दुखी होना, शिव के उदर में शुक्राचार्य द्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुर के युद्ध को देखना और फिर शिव के शुक्ररूप में बाहर निकलना, शिव-पार्वती का उन्हें पुत्ररूप में स्वीकार कर विदा करना व्यासजी बोले —-हे महामुने ! रुद्र के द्वारा शुक्राचार्य के निगल लिये जाने पर महावीर उन अन्धकादि दैत्यों ने क्या किया ? आप उसे कहिये ॥ १ ॥ शिवमहापुराण सनत्कुमार बोले — शिवजी के द्वारा शुक्राचार्य के निगल लिये जाने पर दैत्य उसी प्रकार विजय की आशा से रहित हो गये, जैसे सूँड से रहित हाथी, सींग से रहित वृषभ, सिरविहीन देहसमुदाय, अध्ययन से हीन द्विज, उद्यमरहित सामर्थ्यशाली, भाग्य से रहित उद्यम, पतिविहीन स्त्री, पंख से रहित पक्षी, पुण्यरहित आयु, व्रतविहीन शास्त्रज्ञान, शूरता से रहित क्षत्रिय, सत्य से रहित धर्म और एकमात्र वैभवशक्ति के बिना समस्त क्रियाएँ अपने फलों से रहित हो जाती हैं ॥ २-५ ॥ नन्दी के द्वारा शुक्राचार्य के हरण कर लिये जाने एवं शिवजी के द्वारा उन्हें निगल लिये जाने पर युद्ध के लिये प्रयत्नशील होते हुए भी सभी दैत्य दुःख को प्राप्त हुए ॥ ६ ॥ उन्हें उत्साहरहित देखकर महान धैर्य तथा पराक्रम से युक्त अन्धक ने हुण्ड, तुहुण्ड आदि दैत्यों से इस प्रकार कहा — ॥ ७ ॥ अन्धक बोला — अपने पराक्रम से शुक्राचार्य को पकड़कर ले जाते हुए इस नन्दी ने हमलोगों को धोखा दिया है, उसने निश्चय ही हमलोगों को बिना प्राण के कर दिया है । केवल एक शुक्राचार्य के हरण कर लिये जाने से हमलोगों का धैर्य, ओज, कीर्ति, बल, तेज और पराक्रम एक साथ ही नष्ट हो गया । हमलोगों को धिक्कार है, जो कि हम कुलपूज्य, परम कुलीन, सर्वसमर्थ, रक्षक एवं गुरु की इस आपत्ति में रक्षा न कर सके ॥ ८-१० ॥ अतः तुम सब वीर गुरु के चरणकमलों का स्मरण करके बिना विलम्ब किये ही उन वीर शत्रु प्रमथगणों के साथ युद्ध करो ॥ ११ ॥ गुरु शुक्राचार्य के सुखद चरणकमलों का स्मरणकर मैं नन्दीसहित सभी प्रमथों को नष्ट कर दूंगा ॥ १२ ॥ आज मैं इन्द्रसहित देवताओं के साथ इन प्रमथगणों को मारकर इन्हें विवशकर शुक्राचार्य को इस प्रकार छुड़ाऊँगा, जिस प्रकार योगी कर्म से जीव को छुड़ा देता है ॥ १३ ॥ यद्यपि ऐसा भी सम्भव है कि हमलोगों में से शेष का पालन करनेवाले महायोगी प्रभु शुक्र स्वयं योगबल से शिवजी के शरीर से निकल जायँ ॥ १४ ॥ सनत्कुमार बोले — अन्धक की यह बात सुनकर मेघ के समान गर्जना करनेवाले निर्दय दैत्य मरने का निश्चयकर प्रमथगणों से कहने लगे — ॥ १५ ॥ आयु के शेष रहने पर प्रमथगण हमें बलपूर्वक जीत नहीं सकते, किंतु यदि आयु समाप्त हो गयी है, तो स्वामी को युद्धभूमि में छोड़कर भागने से क्या लाभ है ? ॥ १६ ॥ अत्यन्त अहंकारी जो लोग अपने स्वामी को छोड़कर चले जाते हैं, वे निश्चय ही अन्धतामिस्र नरक में गिरते हैं । युद्धभूमि से भागनेवाले अपयशरूपी अन्धकार से अपनी ख्याति को अत्यधिक मलिन करके इस लोक एवं परलोक में सुखी नहीं रहते हैं ॥ १७-१८ ॥ पुनर्जन्मरूपी मल का नाश करनेवाले धरातीर्थ—युद्धतीर्थ में यदि मनुष्य स्नान कर लेता है, तो दान, तप एवं तीर्थस्नान से क्या लाभ ? इस प्रकार उन वाक्यों पर विचारकर दैत्य तथा दानव रणभेरी बजाकर प्रमथगणों को युद्धभूमि में पीड़ित करने लगे । युद्ध में उन्होंने बाण, खड्ग, वज्र, भयंकर शिलीमुख, भुशुण्डी, भिन्दिपाल, शक्ति, भाला, परशु, खट्वांग, पट्टिश, त्रिशूल, दण्ड एवं मुसलों से परस्पर प्रहार करते हुए घोर संहार किया ॥ १९–२२ ॥ उस समय खींचे जाते हुए धनुषों, छोड़े जाते हुए बाणों, चलाये जाते हुए भिन्दिपालों एवं भुशुण्डियों का शब्द हो रहा था । रण की तुरहियों के निनादों, हाथियों के चिंघाड़ों तथा घोड़ों की हिनहिनाहटों से सर्वत्र महान् कोलाहल मच गया ॥ २३-२४ ॥ भूमि तथा आकाश के मध्य गूंजे हुए शब्दों से साहसी तथा कायर सभी को बहुत रोमांच होने लगा । वहाँ हाथी, घोड़ों की घोर ध्वनि से स्पष्ट शब्द हो रहे थे, जिनसे ध्वज एवं पताकाएँ टूट गयीं तथा शस्त्र नष्ट हो गये ॥ २५-२६ ॥ खून की धारा से रणस्थली अद्भुत हो गयी, हाथी, घोड़े एवं रथ नष्ट हो गये और युद्ध की पिपासा रखनेवाली दोनों ओर की सेनाएँ मूर्च्छित हो गयीं ॥ २७ ॥ हे मुने ! उसके बाद नन्दी आदि प्रमथगणों ने अपने बल से सभी दैत्यों को मारा और विजय प्राप्त की ॥ २८ ॥ इस प्रकार प्रमथों के द्वारा अपनी सेना को विनष्ट होता हुआ देखकर स्वयं अन्धक रथ पर आरूढ़ हो शिवगणों पर झपट पडा ॥ २९ ॥ अन्धक के द्वारा प्रयुक्त किये गये बाणों तथा अस्त्रों से प्रमथगण इस प्रकार नष्ट हो गये, जिस प्रकार वज्रप्रहार से पर्वत एवं पवन से जलरहित मेघ नष्ट हो जाते हैं ॥ ३० ॥ अन्धक ने आने-जानेवाले, दूरस्थ एवं निकटस्थ एक-एक गण को देखकर असंख्य बाणों से उन्हें विद्ध कर दिया । तब बलवान् अन्धक के द्वारा नाश को प्राप्त होती हुई अपनी सेना को देखकर स्वामीकार्तिकेय. गणेश. नन्दीश्वर. सोमनन्दी आदि एवं दूसरे भी शिवजी के वीर प्रमथ तथा महाबली गण उठे और क्रुद्ध हो युद्ध करने लगे ॥ ३१-३३ ॥ उस समय गणेश, स्कन्द, नन्दी, सोमनन्दी, नैगमेय एवं वैशाख आदि उग्र गणों ने त्रिशूल, शक्ति तथा बाणों की वर्षा से अन्धक को भी अन्धा कर दिया ॥ ३४-३५ ॥ उस समय असुरों और प्रमथगणों की सेनाओं में कोलाहल होने लगा । उस महान् शब्द के द्वारा शिवजी के उदर में स्थित हुए शुक्र अपने निकलने का रास्ता खोजते हुए शिवजी के उदर में चारों ओर इस प्रकार घूमने लगे, जिस प्रकार आधाररहित पवन इधर-उधर भटकता है । उन्होंने शिवजी के देह में सप्त पातालसहित सात लोकों को एवं ब्रह्मा, नारायण, इन्द्र, आदित्य तथा अप्सराओं के विचित्र भुवन तथा प्रमथों एवं असुरों के युद्ध को देखा ॥ ३६-३८ ॥ उन शुक्र ने शिवजी के उदर में चारों ओर सौ वर्षपर्यन्त घूमते हुए भी कहीं कोई छिद्र वैसे ही नहीं प्राप्त किया, जैसे दुष्ट व्यक्ति पवित्र व्यक्ति में कोई छिद्र नहीं देख पाता । तब शिवजी से प्राप्त किये गये योग से श्रेष्ठ मन्त्र का जप करके भृगुकुलोत्पन्न वे शुक्राचार्य शिवजी के उदर से उनके लिंगमार्ग से शुक्र (वीर्य)-रूप से निकले और उन्होंने शिवजी को प्रणाम किया । इसके बाद पार्वती ने पुत्ररूप से उन्हें ग्रहण किया और उन्हें विघ्नरहित कर दिया ॥ ३९-४१ ॥ तब लिंग से वीर्यरूप में निकले हुए शुक्र को देखकर दयासागर शिवजी हँसकर उनसे कहने लगे — ॥ ४२ ॥ महेश्वर बोले — हे भृगुनन्दन ! आप मेरे लिंग से वीर्यरूप में निकले हैं, इस कारण आपका नाम शुक्र हुआ और आप मेरे पुत्र हुए, अब जाइये ॥ ४३ ॥ सनत्कुमार बोले — शिवजी के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर सूर्य के समान कान्तिमान् शुक्र ने शिव को पुनः प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ॥ ४४ ॥ ॥ शुक्र उवाच ॥ अनंतपादस्त्वमनंतमूर्तिरनंतमूर्द्धांतकरश्शिवश्च । अनंतबाहुः कथमीदृशं त्वां स्तोष्ये ह नुत्यं प्रणिपत्य मूर्ध्ना ॥ ४५ ॥ त्वमष्टमूर्तिस्त्वमनंतमूर्तिस्त्वमिष्टदस्सर्वसुरासुराणाम् । अनिष्टदृष्टश्च विमर्दकश्च स्तोष्ये ह नुत्यं कथमीदृशं त्वाम् ॥ ४६ ॥ शुक्र बोले — आप अनन्त चरणवाले, अनन्त मूर्तिवाले, अनन्त सिरवाले, अन्त करनेवाले, कल्याणस्वरूप, अनन्त बाहुवाले तथा अनन्त स्वरूपवाले हैं, इस प्रकार सिर झुकाकर प्रणाम करने योग्य आपकी स्तुति मैं कैसे करूँ । आप अष्टमूर्ति होते हुए भी अनन्तमूर्ति हैं, आप सभी देवताओं तथा असुरों को वांछित फल देनेवाले तथा अनिष्ट दृष्टिवाले का संहार करनेवाले हैं, इस प्रकार सर्वथा प्रणाम किये जाने योग्य आपकी स्तुति मैं किस प्रकार करूँ ॥ ४५-४६ ॥ सनत्कुमार बोले — इस प्रकार शिव की स्तुतिकर उन्हें पुनः नमस्कार करके शुक्र ने शिव की आज्ञा से दानवों की सेना में इस प्रकार प्रवेश किया, जिस प्रकार मेघमाला में चन्द्रमा प्रवेश करता है ॥ ४७ ॥ [हे व्यासजी!] इस प्रकार मैंने युद्ध में शिवजी के द्वारा शुक्र के निगल जाने का वर्णन किया, अब उस मन्त्र को सुनिये, जिसे शिवजी के उदर में शुक्र ने जपा था ॥ ४८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शुक्रनिगीर्णन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४८ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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