शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 12
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] बारहवाँ अध्याय
ब्रह्माजीकी मानसी सृष्टि, ब्रह्माजीकी मूर्च्छा, उनके मुखसे रुद्रदेवका प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजीके द्वारा आठ नामोंसे महेश्वरकी स्तुति तथा रुद्रकी आज्ञासे ब्रह्माद्वारा सृष्टि – रचना

वायु बोले- इसके पश्चात् बुद्धिपूर्विका सृष्टिका चिन्तन करते हुए उन ब्रह्माजीको ध्यानकालमें तमोमय मोहकी प्राप्ति हुई। उस समय उन महात्मासे तम, मोह, महामोह, तामिस्र, अन्धतामिस्र नामक पंचपर्वा अविद्या उत्पन्न हुई ॥ १–२ ॥ उस समय उन अभिमानी ब्रह्माके ध्यान करते रहनेपर यह सर्ग पाँच प्रकारसे प्रकट हुआ, यह सभी ओरसे अन्धकारसे पूर्णतः उसी प्रकार व्याप्त था, जैसे कुम्भ बीजको आवृत किये रहता है ॥ ३ ॥ वह बाहर – भीतरसे प्रकाशरहित, निश्चल तथा संज्ञाहीन था, अतः उसमें होनेवालोंकी बुद्धि, मुख तथा इन्द्रियाँ—ये सब ढँके हुए थे । अतः आवृत स्वरूपवाले
वे सब नग कहे गये और यह सर्ग मुख्य सर्ग कहलाया । तब इस प्रकारके उस प्रथम सर्गको अनुपयोगी देखकर ब्रह्मा अप्रसन्नमन होकर दूसरे सर्गका विचार करने लगे । तब उस सर्गका ध्यान करते हुए ब्रह्माका तिर्यक्स्रोत नामक सर्ग उत्पन्न हुआ ॥ ४–६ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


वे पशु-पक्षी आदि भीतरसे प्रकाश (ज्ञान) – युक्त तथा बाहरसे अज्ञानयुक्त थे, अतः उन्होंने भी सन्मार्गको ग्रहण नहीं किया ॥ ७ ॥ तब उसे भी अनुपयोगी समझकर वे दूसरे प्रकारकी सृष्टि करनेका विचार करने लगे । उन्होंने सत्त्वगुणयुक्त ऊर्ध्वस्रोत नामक देवसर्ग प्रारम्भ किया। वे देवता स्वभावसे ही सुख तथा प्रीतिसे परिपूर्ण, बाहर-भीतरसे अज्ञानरहित तथा ज्ञानसम्पन्न हुए ॥ ८-९ ॥ इसके बाद ब्रह्माजीके ध्यान करते समय अव्यक्तसे अर्वाक्स्रोत (संसारकी ओर सृष्टिप्रवाहवाला), [पुरुषार्थोंको] सिद्ध करनेवाला किंतु महान् दुःखोंसे युक्त मनुष्य नामक सर्ग उत्पन्न हुआ। वे [मनुष्य ] बाहर-भीतरसे ज्ञानयुक्त और तमोगुण तथा रजोगुणवाले थे। पाँचवाँ अनुग्रह नामक सर्ग विपर्यय, शक्ति, तुष्टि तथा सिद्धिके द्वारा चार प्रकारसे बँटा हुआ व्यवस्थित था। [इस सर्गके अन्तर्गत जिनकी उत्पत्ति हुई ] वे सब अपरिग्रही, संविभागरत, खाने-पीनेवाले तथा शीलरहित भूत-प्रेत आदि कहे गये ॥ १०–१२ ॥

परमेष्ठी ब्रह्माका पहला सर्ग महत्तत्त्वका है। तन्मात्राओंका जो दूसरा सर्ग है, वह भूतसर्ग कहा जाता है । तीसरा वैकारिक सर्ग इन्द्रियोंका कहा गया है। प्रकृतिकी यह सृष्टि बुद्धिपूर्वक हुई, यह जो चौथा मुख्य सर्ग है, इसके अन्तर्गत मुख्य रूपसे स्थावर कहे गये हैं ॥ १३–१५ ॥ तिर्यक् स्रोत नामक सर्ग पाँचवाँ है, जो तिर्यक् योनियोंका सर्ग कहा गया है। जो ऊर्ध्वस्रोत नामक छठा सर्ग है, वह देवसर्ग कहा गया है ॥ १६ ॥ इसके बाद जो सातवाँ अर्वाक्स्रोत सर्ग है, वह मनुष्योंका सर्ग है। आठवाँ अनुग्रह सर्ग है तथा नौवाँ कौमार सर्ग कहा गया है । जो प्रथम तीन प्राकृत सर्ग हैं, वे अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्त हुए हैं। मुख्य आदि पाँच वैकारिक सर्ग बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त हुए हैं ॥ १७ – १८ ॥

इसके अनन्तर प्रजापति ब्रह्माने सर्वप्रथम अपने ही समान मानसपुत्रों सनन्दन, सनक, विद्वान् सनातन, ऋभु और सनत्कुमारको उत्पन्न किया। उन सभीको योगी, वीतराग तथा अभिमानरहित जानना चाहिये । ईश्वरमें आसक्त मनवाले उन सबका मन सृष्टिकार्यमें नहीं लगा ॥ १९–२०१/ २ ॥ सृष्टिकी अपेक्षासे रहित उन सनक आदिके चले जानेपर सृष्टि करनेकी इच्छावाले ब्रह्माने महान् तप किया । इस प्रकार बहुत समयतक तप करते हुए ब्रह्माको जब कोई भी फल नहीं मिला, तब दुःखके कारण उन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ ॥ २१ – २२१/२ ॥ क्रोधसे आविष्ट उन ब्रह्माके नेत्रोंसे आँसूकी बूँदें गिरने लगीं, तब उन आँसूकी बूँदोंसे भूत-प्रेत उत्पन्न हुए । अपने आँसुओंसे उत्पन्न उन सभीको देखकर ब्रह्मदेवने अपनी निन्दा की । उस समय क्रोध और अमर्षके कारण उनको तीव्र मूर्च्छा आ गयी और मूर्च्छित तथा क्रोधाविष्ट प्रजापतिने अपने प्राण त्याग दिये ॥ २३–२५ ॥

तब प्राणोंके अधिष्ठाता भगवान् नीललोहित रुद्र उनपर असीम कृपा करनेके लिये उन प्रभु ब्रह्माजीके मुखसे प्रकट हुए। उत्पन्न होकर उन सामर्थ्यशाली रुद्रने स्वयंको ग्यारह भागोंमें विभक्त कर लिया। तत्पश्चात् भगवान् शिवने उन एकादश रुद्रोंसे कहा- हे पुत्रो ! मैंने लोकके कल्याणके लिये तुमलोगोंकी सृष्टि की है, अतः तुमलोग समस्त लोकोंकी स्थापना, उनके कल्याण तथा प्रजासन्तानकी वृद्धिके लिये आलस्यरहित होकर प्रयत्न करो ॥ २६–२८१/२ ॥ तब इस प्रकार कहे गये वे सभी रुद्र रोने लगे और चारों ओर भागने लगे । रुदन करने और भागनेके कारण वे रुद्र नामसे प्रसिद्ध हुए। जो रुद्र हैं, वे ही प्राण हैं, जो प्राण हैं, वे ही महामना रुद्र हैं ॥ २९-३० ॥ इसके पश्चात् दयालु ब्रह्मपुत्र महेश्वरने मरे हुए परमेष्ठी ब्रह्मदेवको पुनः प्राण प्रदान किये ॥ ३१ ॥

ब्रह्माजीके शरीरमें पुनः प्राणसंचार हो जानेसे प्रसन्नमुखवाले विश्वेश्वर रुद्र ब्रह्माजीसे उत्तम वचन कहने लगे—हे विरिंचे! हे जगद्गुरो ! हे महाभाग ! भय मत कीजिये, भय मत कीजिये | हे सुव्रत ! मैंने आपको प्राणदान दिया है, अतः सुखपूर्वक उठिये ॥ ३२-३३ ॥ इसके पश्चात् स्वप्नके अनुभवके समान उस मनोहर वाक्यको सुनकर विकसित कमलके समान नेत्रोंसे शिवजीकी ओर धीरे-धीरे देख करके लौटे हुए प्राणवाले ब्रह्मदेवने हाथ जोड़कर उन्हें उद्देश्य करके कोमल तथा गम्भीर वाणीमें कहा – आप अपने दर्शनमात्रसे मेरे मनको आह्लादित कर रहे हैं । आप कौन हैं, जो सम्पूर्ण जगत् के रूपमें स्थित हैं, क्या वे ही भगवान् आप ग्यारह रूपोंमें प्रकट हुए हैं ? ॥ ३४–३६ ॥

उनके उस वचनको सुनकर देवताओंके स्वामी महेश्वरने अपने परम सुखद हाथोंसे ब्रह्माजीका स्पर्श करते हुए कहा- मुझ परमात्माको अपने पुत्ररूपमें आया हुआ समझिये और ये एकादश रुद्र आपकी रक्षाहेतु यहाँ आये हैं। अतः मेरे अनुग्रहसे इस तीव्र मूर्च्छाका त्याग करके जागिये और पूर्वकी भाँति प्रजाओंकी सृष्टि कीजिये ॥ ३७–३९ ॥ भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर विश्वात्मा ब्रह्मा प्रसन्नचित्त हो गये और आठ नामों [ वाले स्तोत्र ]- से परमेश्वरकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥

ब्रह्मोवाच ।
नमस्ते भगवन् रुद्र भास्करामिततेजसे ।
नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मने ।
शर्वाय क्षितिरूपाय नन्दीसुरभये नमः ॥ ४१ ॥
ईशाय वसवे तुभ्यं नमस्स्पर्शमयात्मने ।
पशूनां पतये चैव पावकायातितेजसे ।
भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय ते नमः ॥ ४२ ॥
उग्रायोग्रस्वरूपाय यजमानात्मने नमः ।
महादेवाय सोमाय नमोस्त्वमृतमूर्तये ॥
४३ ॥

ब्रह्माजी बोले – हे भगवन् ! रुद्र ! अमित तेजस्वी, सूर्यमूर्ति आप ईशानको नमस्कार है । रसस्वरूप जलमय विग्रहवाले आप भवदेवताको नमस्कार है । सर्वदा गन्ध गुणसे समन्वित पृथ्वीरूपधारी आप शर्वको नमस्कार है । स्पर्शमय वसु [वायु]-रूपधारी, उग्रस्वरूप आप उग्रको नमस्कार है । यजमानमूर्ति आप पशुपतिको नमस्कार है अतीव तेजोमय अग्निमूर्ति आप रुद्रको नमस्कार है । शब्दतन्मात्रा से युक्त आकाशमूर्ति आप भीमको नमस्कार है। सोमस्वरूप अमृतमूर्ति आप महादेव शिवजीको नमस्कार है ॥ ४१–४३ ॥

इस प्रकार लोकपितामह ब्रह्मा विश्वेश्वर महादेवकी स्तुतिकर अत्यन्त विनीत वाणीसे उनकी प्रार्थना करने लगे । हे भगवन् ! हे भूतभव्येश ! हे मेरे पुत्र महेश्वर ! हे कामनाशक ! आप सृष्टिके निमित्त मेरे शरीरसे उत्पन्न हुए हैं । हे जगत्प्रभो ! इस महान् कार्यमें संलग्न मेरी सभी जगह श्रेष्ठ सहायता कीजिये और श्रेष्ठ प्रजाओंकी सृष्टि कीजिये ॥ ४४-४६ ॥

उनके द्वारा इस प्रकार प्रार्थित हुए त्रिपुरमर्दन शंकर रुद्रदेवने ‘ठीक है’ – ऐसा कहकर उनकी बात स्वीकार कर ली। इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्मदेव उन हर्षित रुद्रका अभिनन्दन करके सृष्टि करनेके लिये उनकी आज्ञा लेकर अन्य प्रजाओंकी रचना करने लगे ॥ ४७-४८ ॥ ब्रह्माने मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि, वसिष्ठको अपने मनसे उत्पन्न किया, फिर उन्होंने धर्म तथा संकल्पकी रचना की ॥ ४९ ॥

सबसे पहले ब्रह्माजीके ये बारह पुत्र कहे गये हैं । ये सभी पुराणपुरुष और गृहस्थधर्मका पालन करनेवाले हैं, जो रुद्रके साथ उत्पन्न हुए हैं ॥ ५० ॥ देवगणोंसहित इनके बारह दिव्य वंश कहे गये हैं । वे सभी प्रजावान्, क्रियावान् तथा महर्षियोंसे विभूषित हैं। तत्पश्चात् जलमें स्थित हुए रुद्रसहित ब्रह्माजीने देवता, असुर, पितर तथा मनुष्य – इन चारोंको रचनेकी इच्छा की ॥ ५१-५२ ॥ अतः सृष्टिके लिये ब्रह्माजीने समाधिस्थ होकर चित्तको एकाग्र किया। उन्होंने अपने मुखसे देवगणोंको, कक्षसे पितरोंको, जघनदेशसे सभी असुरोंको तथा शिश्नभागसे मनुष्योंको उत्पन्न किया। उनके गुदास्थानसे भूखे राक्षस उत्पन्न हुए । उनके वे पुत्र तमोगुण तथा रजोगुणसे समन्वित महाबली निशाचर हुए । इसी प्रकार सर्प, यक्ष, भूत तथा गन्धर्व उत्पन्न हुए ॥ ५३-५५ ॥

उन्होंने पक्षभागसे शब्द करनेवाले पक्षियोंको तथा अन्य पक्षियोंको छातीसे उत्पन्न किया, मुखसे अजोंको तथा पार्श्वस्थानसे सर्पोंको उत्पन्न किया। उन्होंने पैरसे घोड़े, हाथी, शरभ, गवय, मृग, ऊँट, खच्चर, बारहसिंघा तथा अन्य पशु जातियोंको उत्पन्न किया ॥ ५६-५७ ॥ रोमावलियोंसे ओषधियों और फल – मूलोंका प्राकट्य हुआ । ब्रह्माजीके पूर्ववर्ती मुखसे गायत्री छन्द, ऋग्वेद, त्रिवृत् स्तोम, रथन्तर साम तथा अग्निष्टोम नामक यज्ञकी उत्पत्ति हुई। उनके दक्षिण मुखसे यजुर्वेद, त्रिष्टुप् छन्द, पंचदश स्तोम, बृहत्साम और उक्थ नामक यज्ञकी उत्पत्ति हुई। उन्होंने अपने पश्चिम मुखसे सामवेद, जगती छन्द, सप्तदश स्तोम, वैरूप्य साम और अतिरात्र नामक यज्ञको प्रकट किया। उनके उत्तरवर्ती मुखसे एकविंश स्तोम, अथर्ववेद, आप्तोर्याम नामक याग, अनुष्टुप्छन्द और वैराज नामक सामका प्रादुर्भाव हुआ । उनके अंगोंसे और भी बहुत-से छोटे-बड़े प्राणी उत्पन्न हुए ॥ ५८–६२ ॥

उन्होंने यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सराओंके समुदाय, मनुष्य, किंनर, राक्षस, पक्षी, पशु, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर-जंगम जगत् की रचना की । उनमेंसे जिन्होंने जैसे-जैसे कर्म पूर्वकल्पोंमें अपनाये पुनः-पुनः सृष्टि होनेपर उन्होंने फिर उन्हीं कर्मोंको अपनाया। [नूतन सृष्टि होनेपर भी वे प्राणी] अपनी पूर्व भावनासे भावित होकर हिंसा-अहिंसासे युक्त मृदु- कठोर, धर्म-अधर्म तथा सत्य और मिथ्या कर्मको अपनाते हैं; क्योंकि पहलेकी वासनाके अनुकूल कर्म ही उन्हें अच्छे लगते हैं ॥ ६३-६५१/२ ॥ इस प्रकार विधाताने ही स्वयं इन्द्रियोंके विषय, भूत और शरीर आदिमें विभिन्नता एवं व्यवहारकी सृष्टि की है। उन पितामहने कल्पके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके नाम, रूप तथा कार्य – विस्तारको वेदोक्त वर्णनके अनुसार ही निश्चित किया । ऋषियोंके नाम तथा जीविका – साधक कर्म भी उन्होंने वेदोंके अनुसार ही निर्दिष्ट किये ॥ ६६–६८ ॥ अपनी रात्रिके व्यतीत होनेपर अजन्मा ब्रह्माने स्वरचित प्राणियोंको वे ही नाम और कर्म दिये, जो पूर्वकल्पमें उन्हें प्राप्त थे। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओंके पुनः-पुनः आनेपर उनके चिह्न और नाम-रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं, उसी प्रकार युगादिकालमें भी उनके पूर्वभाव ही दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार स्वयम्भू ब्रह्माजीकी लोकसृष्टि उन्हींके विभिन्न अंगोंसे प्रकट हुई है ॥ ६९-७० ॥

महत् से लेकर विशेषपर्यन्त सब कुछ प्रकृतिका विकार है। यह प्राकृत जगत् चन्द्रमा और सूर्यकी प्रभासे उद्भासित, ग्रह और नक्षत्रोंसे मण्डित, नदियों, पर्वतों तथा समुद्रोंसे अलंकृत और भाँति-भाँतिके रमणीय नगरों एवं समृद्धिशाली जनपदोंसे सुशोभित है। [इसीको ब्रह्माजीका वन या ब्रह्मवृक्ष कहते हैं ] ॥ ७१-७२ ॥ उस ब्रह्मवनमें अव्यक्त एवं सर्वज्ञ ब्रह्मा विचरते हैं । वह सनातन ब्रह्मवृक्ष अव्यक्तरूपी बीजसे प्रकट एवं ईश्वरके अनुग्रहपर स्थित है । बुद्धि इसका तना और बड़ी-बड़ी डालियाँ है । इन्द्रियाँ भीतरके खोखले हैं। महाभूत इसकी सीमा हैं । विशेष पदार्थ इसके निर्मल पत्ते हैं। धर्म और अधर्म इसके सुन्दर फूल हैं। इसमें सुख और दुःखरूपी फल लगते हैं तथा यह सम्पूर्ण भूतोंके जीवनका सहारा है ॥ ७३–७५ ॥ ब्राह्मणलोग द्युलोकको उनका मस्तक, आकाशको नाभि, चन्द्रमा और सूर्यको नेत्र, दिशाओंको कान और पृथ्वीको उनके पैर बताते हैं । वे अचिन्त्यस्वरूप महेश्वर ही सब भूतोंके निर्माता हैं । उनके मुखसे ब्राह्मण प्रकट हुए हैं। वक्ष:स्थलके ऊपरी भागसे क्षत्रियोंकी उत्पत्ति हुई है, दोनों जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार उनके अंगोंसे ही सम्पूर्ण वर्णोंका प्रादुर्भाव हुआ है ॥ ७६-७७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें सृष्टिवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

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