शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 18
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] अठारहवाँ अध्याय
दक्षके शिवसे द्वेषका कारण

ऋषि बोले- पूर्वकालमें दक्षकी पुत्री सती देवी दक्षसे उत्पन्न हुए अपने शरीरका त्यागकर किस तरह हिमालयपत्नी मेनामें जन्म लेकर हिमालयकी पुत्री हुईं ? महात्मा दक्षने रुद्रकी निन्दा क्यों की और उसमें क्या कारण था, जिससे रुद्रदेवको निन्दित होना पड़ा ? शिवजीके शापके कारण चाक्षुष मन्वन्तरमें दक्षकी पुनः उत्पत्ति कैसे हुई ? हे वायुदेव ! यह सब बताइये ॥ १-३ ॥

वायुदेव बोले- सुनिये, अत्यन्त तुच्छ स्वभाववाले दक्ष पाप एवं प्रमादके कारण जिस तरह जगत् के देवताओंको निन्दितकर कलंकके भागी बने, उन सभी कथाओंको मैं आपलोगोंसे कह रहा हूँ ॥ ४ ॥ पूर्व समयमें कभी शिवजीके दर्शनके लिये देवता, असुर, सिद्ध एवं महर्षिगण हिमालयके शिखरपर गये ॥ ५ ॥ हे द्विजश्रेष्ठो ! वहाँ दिव्य आसनपर विराजमान शंकर एवं देवीने उन देवता आदिको दर्शन दिया ॥ ६ ॥ उस समय देवताओंके साथ दक्ष भी अपनी पुत्री सती तथा जामाता शंकरको देखनेके लिये गये हुए थे ॥ ७ ॥ उस समय देवीके साथ स्थित भगवान् सदाशिव अपनी स्वरूपमहिमामें निमग्न होनेके कारण (लोकव्यवहारमें अनासक्त होनेसे) आये हुए पितृतुल्य श्वशुर दक्षका देवताओंकी अपेक्षा विशेष आदर करना चाहिये, इस बातका तनिक भी स्मरण न कर सके ॥ ८ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


भगवान् सदाशिव तथा सतीकी परम महिमासे अपरिचित तथा सती देवीको केवल पुत्री समझनेवाले दक्ष [इसी कारण] सतीसे द्वेष करने लगे ॥ ९ ॥ इसी वैरभावके कारण तथा दुर्भाग्यसे प्रेरित हुए [ यज्ञ ] – दीक्षित दक्षने द्वेषवश न केवल शिवजीको अपितु अपनी पुत्रीको भी यज्ञमें आमन्त्रित नहीं किया ॥ १० ॥ जितने भी अन्य जामाता थे, उन सभीको बुलाकर दक्षने पृथक्-पृथक् उनका अत्यधिक सत्कार किया ॥ ११ ॥ तब नारदजीके मुखसे अपने पिताके यज्ञमें उन सभीको गया हुआ सुनकर रुद्राणी भी रुद्रदेवको सूचितकर पिताके भवन जाने लगीं ॥ १२ ॥ [ उनकी यात्राके लिये आया हुआ जो विमान था, वह ] चारों ओर खिड़कियोंवाला, सभी प्रकारके लक्षणोंसे समन्वित, सुखपूर्वक आरोहणके लिये अतीव योग्य, मनको मोहित करनेवाला, सर्वोत्तम, तप्त स्वर्णके समान देदीप्यमान, विचित्र रत्नोंसे परिष्कृत, मोतियोंसे युक्त वितानसे सुशोभित, मालाओंसे अलंकृत, विचित्र तप्त स्वर्ण-जैसी कान्तिवाली खूटियोंसे युक्त, सैकड़ों रत्नजटित स्तम्भोंसे आवृत, हीरेसे निर्मित सीढ़ियोंवाला, मँगोंके तोरणसे सुशोभित स्तम्भवाला, बिछे हुए पुष्पोंसे युक्त विचित्र रत्नोंके आसनसे शोभायमान, हीरेकी जालियोंवाला, दोषरहित मणियोंसे निर्मित फर्शवाला था, जिसमें मणिमय मनोहर दण्ड लगा था और जो महावृषभके चिह्नसे अंकित था, ऐसे मेघसदृश उज्वल ध्वजसे अलंकृत पूर्वभागवाले, रत्नजटित कंचुकसे ढँके हुए देहवाले तथा हाथमें बेंत धारण किये हुए दुर्धर्ष गणेश्वरोंसे अधिष्ठित महाद्वारवाले, मृदंग-ताल-गीत- वेणु – वीणावादनमें प्रवीण तथा मनोहर वेष धारण की हुई बहुत-सी स्त्रियोंसे घिरे हुए तथा अपने पास लाये गये उस दिव्य विमानपर महादेवी अपनी प्रिय सखियोंके साथ आरूढ़ हुईं ॥ १३ – १९१/२ ॥

उस समय दो सुन्दर रुद्रकन्याएँ हीरेसे जटित दण्डवाले दो मनोहर चामर हाथोंमें लेकर उनके दोनों ओरसे डुला रही थीं। उस समय दोनों चामरोंके मध्य देवीका मुखमण्डल इस प्रकार शोभायमान होने लगा, जैसे परस्पर लड़ते हुए दो हंसोंके मध्य कमल सुशोभित हो रहा हो । सुमालिनीने प्रेमसे परिपूर्ण होकर भगवती सतीके शिरोभागमें चन्द्रके समान मनको मुग्ध करनेवाले छत्रको लगाया। वह मोतीकी झालरोंसे सुसज्जित था । देवीके मुखमण्डलपर वह समुज्ज्वल मनोहर छत्र इस तरह शोभायमान हो रहा था, मानो अमृतकलशके ऊपर चन्द्रमा सुशोभित हो रहा हो । देवी सतीके सम्मुख बैठी मन्द मुसकान करती हुई शुभावती पासेके खेलद्वारा सती देवीका मनोविनोद कर रही थी । सुयशा देवीकी रत्नजटित सुन्दर पादुका अपने वक्षःस्थलसे लगाकर उनकी सेवा कर रही थी । स्वर्णके समान अंगवाली कोई दूसरी सखी हाथमें उज्ज्वल दर्पण धारण की हुई थी । किसी सखीने तालवृन्त धारण कर रखा था तो कोई पानदान लिये हुए थी । एक सुन्दरीने हाथमें मनोहर क्रीडाशुक धारण कर रखा था ॥ २० – २७ ॥

कोई मनको मुग्ध करनेवाले सुगन्धित पुष्प तथा कोई कमलनयना स्त्री आभूषणोंकी पेटी लिये हुए थी । किसीके हाथमें सुगन्धित आलेप, उत्तम फूल एवं सुन्दर अंजन था । इसी तरह अन्यान्य दासियाँ उन महादेवीको चारों ओरसे घेरकर अपने-अपने अनुकूल कार्योंमें लगकर उनकी सेवा कर रही थीं। वे परमेश्वरी उनके बीचमें इस तरह अत्यधिक सुशोभित हो रही थीं, जिस तरह तारोंके समूहके मध्यमें शरत्कालीन चन्द्ररेखा सुशोभित होती है ॥ २८-३०१/२ ॥ इसके पश्चात् शंखध्वनिके होते ही महान् ध्वनि करनेवाले, प्रस्थानके सूचक नगाड़े बज उठे। ताल और स्वरसे समन्वित दूसरे भी सुमधुर बाजे और बिना आघातके सैकड़ों काहल नामक बाजे भी बजने लगे ॥ ३१ – ३२१/२ ॥ उस समय महादेवके समान अमित तेजस्वी एक हजार आठ सौ गणेशोंके समूह अस्त्र-शस्त्रसे युक्त हो उनके आगे चलने लगे । उन गणोंके मध्यमें बैलपर सवार देववन्दित श्रीमान् गणपति सोमनन्दी हाथीपर आरूढ़ देवगुरु बृहस्पतिके समान चलने लगे ॥ ३३ – ३४१/२ ॥

उस समय आकाशमें कानोंको सुख देनेवाले देवगणोंके नगाड़े बजने लगे। सभी मुनिगण नाचने लगे, सिद्ध और योगी हर्षित हो उठे एवं बादल वितानके ऊपर पुष्पवृष्टि करने लगे। मार्गमें अनेक देवताओं तथा अन्य लोगोंसे मिलती हुई वे महेश्वरी थोड़ी देरमें अपने पिता दक्षके घर पहुँच गयीं । उन्हें देखकर अपनी मृत्युके वशीभूत हुए दक्ष कुपित हो उठे और उन्होंने सतीका उतना भी सत्कार नहीं किया, जितना कि उनकी छोटी बहनोंका किया था। इसके बाद उन चन्द्रमुखी सती देवीने सभामें विराजमान अपने पिता दक्षसे युक्तियुक्त, उदार तथा धैर्ययुक्त वाणीमें कहा- ॥ ३५–३९ ॥

देवी बोलीं- हे तात ! ब्रह्मासे लेकर पिशाचपर्यन्त जिनकी आज्ञाका पालन करते हैं, आपने इस समय उन देवाधिदेवकी विधिपूर्वक अर्चना नहीं की । उनकी पूजाकी बात तो छोड़िये, आपको मुझ ज्येष्ठ पुत्रीका सत्कार भी क्या इसी तरह करना चाहिये ? आपने मेरा सत्कार न करके निन्दित कार्य किया है ॥ ४०-४१ ॥

सती देवीने जब उनसे इस प्रकार कहा, तब दक्षने क्रोधसे व्याकुल होकर कहा- ये मेरी पुत्रियाँ तुम्हारी अपेक्षा श्रेष्ठ, विशिष्ट और पूज्य हैं । इनके जो पति हैं, वे भी मेरे लिये अत्यन्त माननीय हैं और वे सभी तुम्हारे पति त्रिनेत्र शिवसे गुणोंमें बहुत अधिक हैं । जिनकी तुम आश्रिता हो, वे शिव स्तब्ध और तमोगुणी हैं। मैंने तुम्हारा अपमान इसीलिये किया; क्योंकि शिव मेरे अनुकूल नहीं हैं ॥ ४२–४४ ॥

इस तरह दक्षके कहनेपर यज्ञमें जो सदस्य स्थित थे, उन सभीको सुनाते हुए वे देवी अपने पिता दक्षसे कहने लगीं – हे दक्ष ! आपने सर्वथा निर्दोष साक्षात् लोकमहेश्वर मेरे पतिको वचनोंद्वारा अकारण दूषित बताया है ॥ ४५-४६ ॥ विद्याकी चोरी करनेवाला, गुरुद्रोही एवं वेद तथा ईश्वरकी निन्दा करनेवाला – ये सभी पापी दण्डके योग्य हैं, ऐसी वेदाज्ञा है। इसलिये दैवयोगसे आपको उसी महापापके समान ही दारुण दण्ड सहसा प्राप्त होगा । आपने देवाधिदेव सदाशिवकी पूजा नहीं की, अतः आपका दूषित कुल नष्ट हो गया – ऐसा समझिये ॥ ४७–४९ ॥

इस तरह क्रोधित हुई सती देवीने निर्भय होकर अपने पितासे ऐसा कहकर उनसे सम्बन्धित शरीरको त्याग दिया और हिमालयपर्वतपर चली गयीं ॥ ५० ॥ पुण्य फलोंकी समृद्धिवाले श्रीमान् पर्वतश्रेष्ठ हिमालयने उन भगवतीकी प्राप्तिके लिये सुदीर्घकालपर्यन्त दुष्कर तप किया था। इसीलिये उन ईश्वरीने उन पर्वतराज हिमालयपर अनुग्रह किया और योगमायाके द्वारा अपनी इच्छासे उन्हें अपना पिता बनाया ॥ ५१-५२ ॥ जिस समय सती भयसे व्याकुल दक्षकी निन्दा करके गयीं, उसी समय मन्त्र तिरोहित हो गये और वह यज्ञ विनष्ट हो गया । शिवजीने देवीके गमनका समाचार सुनकर दक्ष तथा ऋषियोंपर अत्यधिक क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया । हे दक्ष ! आपने मेरे कारण दोषरहित सतीका अपमान किया और पतियोंसहित अपनी अन्य सभी पुत्रियोंका सत्कार किया, अतः आपके ये सभी अयोनिज जामाता वैवस्वत मन्वन्तरमें ब्रह्माजीके द्वारा प्रवर्तित यज्ञोंमें उत्पन्न होंगे और आप चाक्षुष मन्वन्तरमें प्राचीनबर्हिके पौत्र तथा प्रचेताओंके पुत्र होकर मनुष्योंके राजा बनेंगे। हे दुर्मते! मैं उस समय आपके धर्म, अर्थ, कामसे युक्त कार्योंमें बारंबार विघ्न डालूँगा ॥ ५३-५८ ॥

जिस समय अमित तेजस्वी रुद्रने दक्षके प्रति ऐसा कहा, उसी समय दुखी दक्ष ब्रह्मदेवसे उत्पन्न अपने देहका त्यागकर पृथ्वीपर गिर पड़े। इसके पश्चात् वही प्राचेतस दक्ष चाक्षुष मन्वन्तरमें प्राचेतस नामसे प्रचेताओंके पुत्र और प्राचीनबर्हिके पौत्रके रूपमें पृथ्वीपर उत्पन्न हुए ॥ ५९-६० ॥ वे भृगु आदि महर्षि भी वैवस्वत मन्वन्तरके ब्रह्माजीके यज्ञमें वरुणके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए ॥ ६१ ॥ तब वैवस्वत मन्वन्तरमें उन दुरात्मा दक्षके धर्मार्थ प्रवृत्त होनेपर महादेवने विघ्न किया ॥ ६२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें सतीदेहत्याग नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

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