शिवमहापुराण — शतरुद्रसंहिता — अध्याय 2४
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
शतरुद्रसंहिता
चौबीसवाँ अध्याय
भगवान् शिवके पिप्पलादावतारका वर्णन

नन्दीश्वर बोले — हे प्राज्ञ ! अब आप महेश्वरके पिप्पलाद नामक भक्तिवर्धक अन्य अवतारको अत्यन्त प्रसन्नतासे सुनिये ॥ १ ॥

महाप्रतापी, भृगुवंशमें उत्पन्न, महान् शिवभक्त तथा मुनिश्रेष्ठ जिन च्यवनपुत्र विप्र दधीचिके विषयमें मैं पहले कह चुका हूँ और जिन्होंने क्षुव के साथ युद्धमें विष्णुको पराजित किया तथा महेश्वरकी कृपा प्राप्तकर देवताओंसहित विष्णुको शाप दिया था; उनकी सुवर्चा नामक महाभाग्यवती, महापतिव्रता एवं साध्वी पत्नी थीं, जिन्होंने देवताओंको शाप दिया था । उन मुनिसे उन्हीं सुवर्चाके गर्भसे अनेक लीलाएँ करनेमें प्रवीण तेजस्वी महादेव पिप्पलाद — इस नामसे उत्पन्न हुए ॥ २—५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


सूतजी बोले — नन्दीश्वरके इस अद्भुत वचनको सुनकर हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमार कहने लगे— ॥ ६ ॥

सनत्कुमार बोले — हे महाप्राज्ञ ! हे नन्दीश्वर ! हे तात! आप साक्षात् शिवस्वरूप हैं, आप धन्य हैं तथा आप ही सद्गुरु हैं, जो कि आपने यह अद्भुत कथा सुनायी है ॥ ७ ॥ हे शिलादपुत्र ! हे तात! क्षुवके साथ संग्राममें विष्णुको जिस प्रकार शिवभक्त दधीचिने पराजित किया था तथा उन्हें शाप दिया था, उस कथाको मैंने पहले ब्रह्माजीसे सुना था ॥ ८ ॥ अब मैं [पहले] सुवर्चाके द्वारा देवताओंको दिये गये शाप [के वृत्तान्तको ] तथा बादमें कल्याणके निवासभूत पिप्पलादचरित्रको सुनना चाहता हूँ ॥ ९ ॥

सूतजी बोल— तत्पश्चात् ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारका यह शुभ वचन सुनकर शिवजीके चरणकमलका ध्यानकर शिलादपुत्र प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे — ॥ १० ॥

नन्दीश्वर बोले — हे मुनीश्वर ! किसी समय इन्द्रादि सभी देवताओंको वृत्रासुरकी सहायतासे दैत्योंने पराजित कर दिया ॥ ११ ॥ तब उन सभी देवताओंने सहसा दधीचि मुनिके आश्रममें अपने श्रेष्ठ अस्त्रोंको फेंक दिया और तत्काल पराजय स्वीकार कर ली। इसके बाद शीघ्र ही इन्द्र आदि सभी पीड़ित देवता एवं ऋषिगण ब्रह्मलोक गये तथा अपना वह दुःख निवेदित किया ॥ १२—१३ ॥ देवताओंके वचनको सुनकर लोकपितामह ब्रह्माने उनसे त्वष्टाका सारा मन्तव्य यथार्थ रूपसे कह दिया ॥ १४ ॥

[ ब्रह्माजी बोले— ] हे देवताओ ! त्वष्टा ने अपनी तपस्याके प्रभावसे आपलोगोंका वध करनेके लिये इसे उत्पन्न किया है; सम्पूर्ण दैत्योंका स्वामी यह वृत्र महान् तेजस्वी है ॥ १५ ॥ अतः आप लोग वैसा प्रयत्न कीजिये, जिस प्रकार इसका वध हो सके । हे प्राज्ञ ! मैं धर्मकी रक्षाके लिये वह उपाय आपको बता रहा हूँ; आप उसे सुनें ॥ १६ ॥ जो जितेन्द्रिय तथा तपस्वी दधीचि नामक महामुनि हैं, उन्होंने पूर्वकालमें शिवजीकी आराधनाकर वज्रके समान हड्डियोंवाला होनेका वरदान पाया था ॥ १७ ॥ आपलोग [उनके पास जाकर ] अस्थियोंके लिये याचना कीजिये, वे अवश्य दे देंगे; इसमें संशय नहीं है । इसके बाद उन अस्थियोंसे दण्डवज्रका निर्माणकर निःसन्देह वृत्रासुरका वध कीजिये ॥ १८ ॥

नन्दीश्वर बोले — [ हे मुने!] ब्रह्माका यह वचन सुनकर देवगुरु बृहस्पति तथा देवताओंको साथ लेकर इन्द्र शीघ्र ही दधीचि ऋषिके उत्तम आश्रमपर आये ॥ १९ ॥ वहाँ सुवर्चासहित मुनिको बैठे देखकर गुरु एवं देवताओंसहित इन्द्रने हाथ जोड़कर विनम्र हो आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ २० ॥ तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ उन मुनिने उनका अभिप्राय जानकर पत्नी सुवर्चाको आश्रमके भीतर भेज दिया ॥ २१ ॥ तत्पश्चात् देवताओंसहित देवराज इन्द्रने, जो स्वार्थसाधनमें बड़े दक्ष थे, अपने प्रयोजनमें तत्पर हो करके मुनीश्वरसे यह वाक्य कहा— ॥ २२ ॥

शक्र बोले— [ हे मुने!] हम देवताओं तथा ऋषियोंको यह त्वष्टा बड़ा दुःख दे रहा है । इसलिये हमलोग महाशिवभक्त, शरणागतवत्सल तथा महादानी आपकी शरणमें आये हुए हैं ॥ २३ ॥ विप्र ! आप अपनी वज्रमयी अस्थियाँ हमें प्रदान कीजिये; क्योंकि हमलोग आपकी हड्डियोंसे वज्रका निर्माणकर देवद्रोही वृत्रासुरका वध करना चाहते हैं ॥ २४ ॥

इन्द्रके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परोपकारपरायण उन मुनिने अपने स्वामी शिवका ध्यान करके [ अपना ] शरीर छोड़ दिया ॥ २५ ॥ वे मुनि कर्मबन्धनसे छुटकारा पाकर शीघ्र ही ब्रह्मलोक चले गये। उस समय वहाँ फूलोंकी वर्षा होने लगी और सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये ॥ २६ ॥ तदनन्तर इन्द्रने शीघ्र ही सुरभि गौको बुलाकर उसके द्वारा उन्हें चटवाया और उनकी अस्थियोंसे अस्त्र—निर्माण करनेके निमित्त विश्वकर्माको आज्ञा प्रदान की ॥ २७ ॥ उनकी आज्ञा प्राप्त करके विश्वकर्माने शिवजीके तेजसे अत्यन्त दृढ़ वज्रमयी उन अस्थियोंसे सम्पूर्ण अस्त्रोंका निर्माण कर दिया ॥ २८ ॥

उन्होंने उनकी रीढ़की हड्डियोंसे वज्र तथा ब्रह्म— शिर नामक बाणका निर्माण किया और अन्य अस्थियोंसे अपने तथा दूसरोंके लिये अनेक अस्त्रोंका निर्माण किया ॥ २९ ॥ हे मुने! तदनन्तर शिवजीके तेजसे वृद्धिको प्राप्त इन्द्र उस वज्रको उठाकर बड़े वेगसे वृत्रासुरपर क्रोध करके इस प्रकार दौड़े, मानो रुद्र यमकी ओर दौड़ रहे हों ॥ ३० ॥ इसके बाद उन इन्द्रने भलीभाँति सन्नद्ध होकर शीघ्रतासे उस वज्रके द्वारा उत्साहपूर्वक पर्वतशिखरके समान वृत्रासुरका सिर काट दिया ॥ ३१ ॥ हे तात! उस समय देवताओंको महान् प्रसन्नता हुई । देवता लोग इन्द्रकी स्तुति करने लगे और उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा होने लगी ॥ ३२ ॥

हे तात! मैंने प्रसंगवश आपसे इस चरित्रका वर्णन किया। अब आप मुझसे शिवजीके पिप्पलाद — अवतारको आदरपूर्वक सुनिये ॥ ३३ ॥ महात्मा मुनि दधीचिकी पतिव्रता पत्नी सुवर्चा पतिकी आज्ञासे अपने आश्रमके भीतर चली गयी थीं । हे मुनिश्रेष्ठ ! पतिकी आज्ञासे [घरमें] जाकर सम्पूर्ण गृहकार्य करके जब वे तपस्विनी पुनः लौटीं, तो अपने पतिको वहाँ न देखकर और उन देवताओंको तथा उनके अत्यन्त अशोभनीय कर्मको देखती हुई वे सुवर्चा विस्मित हो गयीं ॥ ३४—३६ ॥ देवताओंके उस सम्पूर्ण कृत्यको जानकर उस साध्वीने उस समय महान् कोप किया। इसके बाद ऋषिवरकी पत्नी सुवर्चाने अत्यधिक रुष्ट होकर उन्हें शाप दे दिया ॥ ३७ ॥

सुवर्चा बोलीं— हे देवगणो ! तुमलोग अत्यन्त दुष्ट, अपना कार्य साधनेमें दक्ष, अज्ञानी और लोभी हो, इसलिये इन्द्रसहित सभी देवता आजसे पशु हो जायँ — ऐसा उन्होंने कहा ॥ ३८ ॥

इस प्रकार उन तपस्विनी मुनिपत्नी सुवर्चाने इन्द्रसहित उन सभी देवताओंको शाप दे दिया ॥ ३९ ॥ उसके बाद उन मनस्विनी पतिव्रताने अपने पतिके लोकमें जानेकी इच्छा की और अत्यन्त पवित्र काष्ठोंकी चिता बनायी ॥ ४० ॥ उसी समय उन्हें आश्वस्त करती हुई शिवप्रेरित तथा सुखदायिनी आकाशवाणीने मुनिपत्नी उन सुवर्चासे कहा—॥ ४१ ॥

आकाशवाणी बोली — हे प्राज्ञे ! तुम दुःसाहस मत करो, मेरे उत्तम वचनको सुनो। तुम्हारे उदरमें [गर्भरूपसे] मुनिका तेज विद्यमान है; तुम उसे प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न करो। हे देवि ! उसके बाद तुम अपना अभीष्ट कार्य कर सकती हो; क्योंकि सगर्भाको सती नहीं होना चाहिये — ऐसी वेदकी आज्ञा है ॥ ४२—४३ ॥

नन्दीश्वर बोले — हे मुनीश्वर ! ऐसा कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी । तब उसे सुनकर वे मुनिकी पत्नी क्षणभरके लिये विस्मित हो गयीं ॥ ४४ ॥ तदनन्तर पतिलोक जानेकी इच्छा करती हुई महासाध्वी सुवर्चाने बैठकर पत्थरसे अपने पेटको फाड़ दिया ॥ ४५ ॥ उनके उदरसे परम दिव्य शरीरवाला तथा कान्तिमान् वह मुनिपुत्र दशों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ निकला। हे तात! दधीचिके उत्तम तेजसे प्रादुर्भूत हुआ वह पुत्र अपनी लीला करनेमें समर्थ साक्षात् रुद्रका अवतार था ॥ ४६—४७ ॥ मुनिपत्नी सुवर्चा अपने उस दिव्य रूपवान् पुत्रको देखकर और मनमें उसे साक्षात् रुद्रका अवतार समझकर बहुत प्रसन्न हुईं। हे मुनीश्वर ! उन महासाध्वीने शीघ्र ही प्रणामकर उसकी स्तुति की और उसके स्वरूपको अपने हृदयमें स्थापित कर लिया ॥ ४८—४९ ॥ तत्पश्चात् पतिलोक जानेकी इच्छावाली विमलेक्षणा माता सुवर्चा हँसकर अपने उस पुत्रसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने लगी— ॥ ५० ॥

सुवर्चा बोली — हे तात! हे परमेशान ! हे महाभाग ! तुम बहुत समयतक इस पीपलवृक्षके समीप रहो और सबको सुखी बनाओ; अब मुझे पतिलोक जानेके लिये अति प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा प्रदान करो, वहाँ रहती हुई मैं [अपने] पतिके साथ तुझ रुद्रस्वरूपका ध्यान करती रहूँगी ॥ ५१—५२ ॥

नन्दीश्वर बोले— इस प्रकार साध्वी सुवर्चाने अपने पुत्रसे ऐसा कहकर परम समाधिद्वारा पतिका ही अनुगमन किया ॥ ५३ ॥ हे मुने! इस प्रकार वे दधीचिपत्नी [सुवर्चा] शिवलोकमें जाकर अपने पतिके साथ निवास करने लगीं और आनन्दपूर्वक शिवजीकी सेवा करने लगीं ॥ ५४ ॥ इसी अवसरपर इन्द्रसहित देवगण मुनियोंके साथ आमन्त्रित हुएके समान प्रसन्न होकर बड़ी शीघ्रतासे वहाँ आये ॥ ५५ ॥

दधीचिके द्वारा सुवर्चाके गर्भसे [पुत्ररूपमें] पृथ्वीपर शिवजीको अवतरित हुआ जानकर हर्षित हो ब्रह्मा तथा विष्णु भी अपने गणोंके साथ अति प्रसन्नतापूर्वक वहाँ पहुँचे और मुनिपुत्ररूपमें अवतरित हुए उन शिवजीको देखकर सबने प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ॥ ५६—५७ ॥ मुनिसत्तम ! उस समय देवताओंने बड़ा उत्सव किया, आकाशमें भेरियाँ बजने लगीं, नर्तकियाँ प्रसन्नतासे नृत्य करने लगीं, गन्धर्वपुत्र गान करने लगे, किन्नर बाजा बजाने लगे और देवता फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ५८—५९ ॥ विष्णु आदि सभी देवताओंने पीपलवृक्षके द्वारा संरक्षित दधीचिके उस शोभासम्पन्न पुत्रका विधिवत् [जातकर्मादि] संस्कार करके पुनः उसकी स्तुति की ॥ ६० ॥ ब्रह्मदेवने प्रसन्नचित्त होकर उसका नाम ‘पिप्पलाद’ रखा और देवताओंके साथ विष्णुने ‘हे देवेश ! प्रसन्न होइये’ — ऐसा कहा ॥ ६१ ॥

इस प्रकार कहकर तथा उनसे आज्ञा लेकर ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त देवगण महोत्सव मनाकर अपने— अपने स्थानको चले गये ॥ ६२ ॥ उसके बाद रुद्रावतार महाप्रभु पिप्पलाद पीपल वृक्षके नीचे संसारहितकी इच्छासे बहुत कालतक तप करते रहे ॥ ६३ ॥ इस प्रकार लोकचर्याका अनुसरण करनेवाले उन पिप्पलादका भलीभाँति तपस्या करते हुए बहुत—सा समय व्यतीत हो गया ॥ ६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीया शतरुद्रसंहितामें पिप्पलादावतारवर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥

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