॥ श्रीकृष्ण – दशाक्षर मन्त्र प्रयोगः ॥

दशाक्षर मन्त्र – “गोपीजन वल्लभाय स्वाहा ।”
श्रीकृष्णमन्त्र – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा — यह श्रीकृष्ण का दशाक्षर मन्त्र है । इससे दृष्टादृष्ट सभी प्रकार के फल प्राप्त होते हैं । ऐहिक और पारलौकिक दोनों ही शुभ फल प्राप्त होते हैं । इस मन्त्र के पहले ‘क्लीं’ बीज लगाकर ‘क्लीं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ से जप-पूजा आदि करे । राशि-नक्षत्रादि चक्र के विचार में क्लीं को छोड़कर विचार करे ।

इसके विषय में बृहत् गौतमीय तन्त्र में वर्णन है कि भोग-मोक्षप्रद यह दशाक्षर मन्त्र लुप्तबीज है । अतः कामबीज ‘क्लीं’ लगाकर जप आदि करना चाहिये । यह मन्त्र कामबीज से युक्त होकर ही फल प्रदान करता है; अन्यथा फल प्रदान नहीं करता ।

पूजाविधि — विष्णुमन्त्रोक्त वैष्णवार्चन और प्रातःकृत्यादि से तत्त्वन्यासान्त तक के कर्मों को करके प्राणायाम करे । जैसे — ‘क्लीं’ का एक बार जप करते हुए दाँईं नासा से पूरक करे, बीस बार जप करते हुए कुम्भक करे और एक बार जप करते हुए वामनासा से रेचक करे । फिर सात बार जप करते हुए बाँईं नासा में पूरक करे । बीस बार जपते हए कुम्भक करे और दाँयीं नासा से एक बार जपते हए रेचक करे । फिर दाँई नासा से रेचक, बीस जप से कुम्भक एवं एक-एक जप से बाँईं नासा से रेचक करे । सभी प्रकार के कृष्णमन्त्रों में क्लीं बीज या मूल मन्त्र से प्राणायाम करे ।

क्रमदीपिका में वर्णन है कि जिस मन्त्र का जप करना हो, उसी मन्त्र से प्राणायाम करना चाहिये । यदि दशाक्षर मन्त्र का जप करना हो तो दशाक्षर मन्त्र से ही प्राणायाम करे; किन्तु पूरक, कुम्भक और रेचक अट्ठाईस बार करना पड़ता है । अट्ठारह अक्षर वाले मन्त्र के जप में बारह बार पूरक, कुम्भक और रेचक करना चाहिये । एक-एक पूरक, कुम्भक और रेचक से एक प्राणायाम होता है । इसी प्रकार तीन प्राणायाम करना आवश्यक हैं । अन्य किसी मन्त्र के जप में मन्त्रवर्ण की संख्या के अनुसार पूरक, कुम्भक और रेचक करना होता है; लेकिन कृष्णमन्त्र का नियम है कि दाँयें से पूरक, सुषुम्ना से कुम्भक और बाँयें से रेचक करे। अन्य देवता के सम्बन्ध में यह नियम नहीं है ।

इसके बाद पीठन्यास करके केशर और मध्य में विमलादि पीठशक्तियों का न्यास करे । तब ऋष्यादि न्यास करे ।

विनियोग – अस्य श्रीगोपालमन्त्रस्य नारदऋषिविराट्छन्दः श्रीकृष्णो देवता क्लीं बीजं स्वाहा शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥

 ऋष्यादि न्यास — नारदऋषये नमः शिरसि । विराट् छन्दसे नमः मुखे । श्रीकृष्णदेवतायै नमः हृदि । क्लीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयोः । विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

‘मन्त्राधिष्ठात्री देवतायै दुर्गायै नमः’ से दुर्गा को नमस्कार करके “ॐ गोपीजनवल्लभाय ॐ” से दोनों हाथों के मध्य, पृष्ठ और पार्श्वों में तीन-तीन बार न्यास करे । तब सृष्टि, स्थिति और संहारन्यास करे । ये तीनों प्रकार के न्यास मन्त्रवर्णों से होते हैं, जैसे —
सृष्टिन्यासदक्षांगुष्ठे – ॐ गों ॐ नमः । दक्षतर्जन्यां – ॐ पीं ॐ नमः । दक्षमध्यमायां – ॐ जं ॐ नमः । दक्षानामायां – ॐ नं ॐ नमः । दक्षकनिष्ठायां – ॐ वं ॐ नमः । वामकनिष्ठायां – ॐ ल्लं ॐ नमः । वामानामायां -ॐ भां ॐ नमः । वाममध्यमायां – ॐ यं ॐ नमः । वामतर्जन्यां – ॐ स्वां ॐ नमः । वामांगुष्ठे – ॐ हां ॐ नमः ।
उक्त सृष्टिन्यास को दक्षांगुष्ठ से आरम्भ करके वामांगुष्ठ से होते हुए कनिष्ठा तक करने से स्थितिन्यास होता है । जैसे —
दक्षाङ्गुष्ठे – ॐ गों ॐ नमः । दक्षतर्जन्यां – ॐ पीं ॐ नमः । दक्षमध्यमायां – ॐ जं ॐ नमः । दक्षानामायां – ॐ नं ॐ नमः । दक्षकनिष्ठायां – ॐ वं ॐ नमः ।
वामाङ्गुष्ठे -ॐ ल्लं ॐ नमः । वामतर्जन्यां – ॐ भां ॐ नमः । वाममध्यमायां – ॐ यं ॐ नमः । वामानामायां – ॐ स्वां ॐ नमः । वामकनिष्ठायां – ॐ हां ॐ नमः ।
संहारन्यास — वामांगुष्ठ से प्रारम्भ करके दक्षकनिष्ठा से होते हुए अंगुष्ठ तक न्यास करने से संहारन्यास होता है । जैसे —
वामांगुष्ठे – ॐ हां ॐ नमः । वामानामायां – ॐ स्वां ॐ नमः । वाममध्यमायां – ॐ यं ॐ नमः । वामतर्जन्यां – ॐ भां ॐ नमः । वामकनिष्ठायां – ॐ ल्लं ॐ नमः । दक्षकनिष्ठायां – ॐ वं ॐ नमः । दक्षानामायां – ॐ नं ॐ नमः । दक्षमध्यमायां – ॐ जं ॐ नमः । दक्षतर्जन्यां – ॐ पी ॐ नमः । दक्षांगुष्ठे – ॐ गों ॐ नमः ।
इस प्रकार सृष्टि, स्थिति और संहारन्यास करके पुन: सृष्टि और स्थितिन्यास करे । कुल पाँच न्यास करना आवश्यक होता है ।
गौतमीय तन्त्र में लिखा है कि संहृति न्यास से सभी दोषों से मुक्ति मिलती है । सृष्टि और स्थितिन्यास से ज्ञान होता है । उक्त पाँच न्यासों में से ब्रह्मचारी के लिये सृष्टि, स्थिति, संहृति और स्थिति – चार न्यास करना आवश्यक है । गृहस्थ और सस्त्रीक वानप्रस्थी के लिये सृष्टि, स्थिति, संहृति, सृष्टि, स्थिति — पाँचो न्यास करना जरूरी है । मुनिगण और वैरागी के लिए सृष्टिद्ध स्थिति और संहति – तीनों न्यास विहित हैं, किन्तु उक्त तीनों न्यासों को कामना के अनुसार करना चाहिये । पञ्चविध न्यास करने में असमर्थ होने पर एक ही न्यास से सिद्धि मिलती है अर्थात् तीनों न्यास अवश्य करणीय हैं । तब निम्नवत् दशाक्षरन्यास करे —
गों नमो दक्षांगुष्ठे । पीं नमो तर्जन्याम् । जं नमो मध्यमायाम् । नं नमो अनामिकायाम् । वं नमो कनिष्ठायाम् । ल्लं नमो वामांगुष्ठे । भां नमो वामतर्जन्याम् । यं नमो वाममध्यमायाम् । स्वां नमो वामानामायाम् । हां नमो वामकनिष्ठायाम् ।
गों नमः हृदि । पीं नमः शिरसि । जं नमः शिखायां । नं नमः सर्वाङ्गे । वं नमः दिक्षु । ल्लं नमः दक्षपार्श्वे । भां नमः वामपार्श्वे । यं नमः कटिदेशे । स्वां नमः पृष्ठे । हां नमः मूर्ध्नि ।
इसके बाद पञ्चाङ्गन्यास करे; जैसे —
पञ्चाङ्गन्यास –
आचक्राय स्वाहा अंगुष्ठाभ्यां नमः । हृदयाय नमः।
विचक्राय स्वाहा तर्जनीभ्यां नमः । शिरसे स्वाहा ।
सुचक्राय स्वाहा मध्यमाभ्यां नमः । शिखायै वषट ।
त्रैलोक्य रक्षण चक्राय स्वाहा अनामिकाभ्यां नमः । कवचाय हुँ ।
असुरान्तक चक्राय स्वाहा कनिष्ठिकाभ्यां नमः । अस्त्राय फट ।

बिन्दुयुक्त अं आं इं ईं …….. लं क्षं प्रत्येक पचास मातृकावर्ण के साथ आदि और अन्त में मूल मन्त्र जोड़कर मातृकोक्त न्यासस्थानों में न्यास करे; जैसे —
ब्रह्मरन्ध्रे – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा अं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ।
मुखे – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा आं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ।
दक्षनेत्रे – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा इं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ।
वामनेत्रे – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ईं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ।
दक्षकणे – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा उं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ।
इसी प्रकार सभी मातृकाओं से करे ।
केश से पैर तक और पैर से केश तक ‘ॐ गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ से तीन बार व्यापक न्यास करे । तब संहार-सृष्टिभेद से दश तत्त्वन्यास करे —
संहारन्यास
पादयोः- गों नमः पराय पृथिवीतत्त्वात्मने नमः । लिंगे – पीं नमः पराय जलतत्त्वात्मने नमः । हृदि – जं नमः पराय वायतत्त्वात्मने नमः । मुखे – नं नमः पराय तेजस्तत्त्वात्मने नमः । शिरसि – वं नमः पराय आकाशतत्त्वात्मने नमः । हृदि – ल्लं नमः पराय अहंकारतत्त्वात्मने नमः । हृदि – मां नमः पराय महत्तत्त्वात्मने नमः । सर्वगात्रे – यं नमः पराय प्रकृतितत्त्वात्मने नमः । सर्वगात्रे – स्वां नमः पराय पुरुषतत्त्वात्मने नमः । सर्वगात्रे – हां नमः पराय परतत्त्वात्मने नमः ।
सृष्टिन्यास
सर्वगात्रे – हां नमः परतत्त्वात्मने नमः । सर्वगात्रे – स्वां नमः पराय पुरुषतत्त्वात्मने नमः । सर्वगात्रे यं नमः पराय प्रकृतितत्त्वात्मने नमः । हदि – भां नमः पराय महत्तत्त्वात्मने नमः । हृदि – ल्लं नमः पराय अहङ्कारतत्त्वात्मने नमः । शिरसि – वं नमः पराय आकाशतत्त्वात्मने नमः । मुखे – नं नमः पराय वायुतत्त्वात्मने नमः । हृदि – जं नमः पराय तेजस्तत्त्वात्मने नमः । लिंगे – पीं नमः पराय जलतत्त्वात्मने नमः । पादयोः – गों नम पराय पृथ्वीतत्त्वात्मने नमः ।

निबन्ध ग्रन्थ के अनुसार सृष्ट्यादि न्यासों में अंगुलि-नियम इस प्रकार का है । मस्तक में मध्यमा से, नेत्रों में मध्यमा-तर्जनी से, कानों में तर्जनी-मध्यमा-अनामिका-कनिष्ठा से, नासिका में अंगुष्ठ-अनामा से, मुख में सर्वांगुलियों से, हृदय में अंगुष्ठ-तर्जनी से, नाभि-कान-लिंग में अंगुष्ठ-मध्यमा से, जानु में तर्जनी-मध्यमा-अनामा-कनिष्ठा से और दोनों पैरों में सभी अंगुलियों से न्यास करे । सृष्टि-स्थिति आदि न्यासों में स्थान और वर्ण का परिवर्तन है । लेकिन अंगुलि और स्थान में परिवर्तन नहीं है ।
सृष्टिक्रमन्यास
शिरसि -गों नमो मध्यमायाम् । नेत्रयो: – पीं नमस्तर्जनी-मध्यमाभ्याम् । कर्णयोः – जं नमः अंगुष्ठरहिताभिरंगुलीभिः । घ्राणे – नं नमोऽङ्गुष्ठानामिकाभ्याम् । मुखे – वं नमः सर्वाङ्गुलीभिः । हृदि – ल्लं नमोऽङ्गुष्ठतर्जनीभ्याम् । नाभौ – भां नम: अंगुष्ठमध्यमाभ्याम् । लिंगे – यं नमोऽङ्गुष्ठरहिताभिरंगुलीभिः । जानुनि – स्वां नमोऽङ्गुष्ठरहिताभिरंगुलीभिः । पादयोः–हां नमः सर्वांगुलीभिः ।
स्थितिक्रमन्यास
हृदि – गों नमोऽङ्गुष्ठतर्जनीभ्याम् । नाभौ — पीं नमोऽङ्गुष्ठमध्यमाभ्याम् । लिङ्गे – जं नमोऽङ्गुष्ठरहिताभिरंगुलीभिः । जानुनोः – नं नमोऽङ्गुष्ठरहिताभिरङ्गुलीभिः । पादयोः – वं नम: सर्वाङ्गुलीभिः । शिरसि – ल्लं मनो मध्यमाभ्याम् । नेत्रयोः – भां नमो मध्यमातर्जनीभ्याम् । कर्णयोः – यं नमोऽङ्गरहिताभिरङ्गुलीभिः । घ्राणे – स्वां नमोऽङ्गुष्ठानामिकाभ्याम् । मुखे – हां नमः सर्वाङ्गुलीभिः ।
संहारक्रमन्यास
पादयोः – गों नम: सर्वाङ्गुलीभिः । जानुनी — पीं नमः अङ्गुष्ठरहिताभिरङ्गुलीभिः । लिंगे – जं नमोऽङ्गुष्ठरहिताभिरङ्गुलीभिः । नाभो — नं नमोऽङ्गुष्ठमध्यमाभ्याम् । हृदि – वं नमोऽङ्गुष्ठतर्जनीभ्याम् । मुखे – ल्लं नमो सर्वांगुलीभिः । घ्राणे – भां नमो अंगुष्ठानामिकाभ्याम् । कर्णयोः – यं नमो अङ्गुष्ठरहिताभिरङ्गुलीभिः । नेत्रयोः – स्वां नमो मध्यमातर्जनीभ्याम् । मूर्ध्नि – हां नमो मध्यमाभ्याम् ।

पुनः सृष्टि-स्थितिन्यास करे । विद्यार्थी ब्रह्मचारी को सृष्टि-स्थिति-संहारन्यास करके पुनः सृष्टि-स्थिति न्यास करना चाहिये । यति और वैरागी सृष्टि-स्थिति-संहारन्यास करे । अतः विद्यार्थी-ब्रह्मचारी चतुर्विध, गृहस्थ पञ्चविध और यति तथा वैरागी को त्रिविध न्यास करना चाहिये ।
इसके बाद विभूतिपञ्जर न्यास करे । इस न्यास से ऐश्वर्य की वृद्धि होती है ।
विभूतिपञ्जरन्यास
आधारे-गों नमः । लिङ्गे-पी नमः । नाभौ-जं नमः । हृदि-नं नमः । गले-वं नमः । मुखे-ल्लं नमः । अंसयो:-भां नमः यं नमः । ऊर्वो:-स्वां नमः हां नमः। कन्धयोः-गों नमः । नाभौ—पी नमः । कुक्षौ—जं नमः । हृदि-नं नमः । स्तनयो:-वं नमः ल्लं नमः । पार्श्वयोः – भां नमः यं नमः । श्रोत्रयो:-स्वां नमः हां नमः । शिरसि-गों नमः । मुखे-पी नमः । नेत्रयोः-जं नमः नं नमः । कर्णयो:-वं नम: ल्लं नमः । नासापुटयो:-भां नम: यं नमः । कपोलयोः-स्वां नमः हां नमः । दक्षहस्तमूले-गों नमः । मध्यसन्धौ-पीं नमः । मणिबन्धे-जं नमः । अङ्गुलिमूले-नं नमः । अङ्गुल्यग्रे-वं नमः । अङ्गुष्ठ-ल्लं नमः । तर्जन्यां-भां नमः । मध्यमायां-यं नमः । अनामिकायां-स्वां नमः । कनिष्ठायां-हां नमः ।
इसी प्रकार वाम हस्त, दक्ष पाद और वाम पाद के उक्त दसो स्थानों में ‘गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ से न्यास करे
मूर्ध्नि-गों नमः । मूर्धापूर्वे-पीं नमः । मूर्धादक्षिणे-जं नमः । मूर्धापश्चिमे—नं नमः । मूर्धोत्तरे-वं नमः । मूर्ध्नि-ल्लं नमः । भुजयो:-भां नमः यं नमः । ऊर्वो:-स्वां नमः हां नमः । शिरसि-गों नमः । नेत्रयो:-पीं नमः । मुखे-जं नमः । कण्ठे-नं नमः । हृदि-वं नमः । जठरे-ल्लं नमः । मूलाधारे भां नमः । लिङ्गे-यं नमः । जानुनि-स्वां नमः । पादयोः-हां नमः । श्रोत्रयोः-गों नमः । गण्डयो:–पीं नमः । अंसयो:-जं नमः । स्तनयो:-नं नमः । पार्श्वयो-वं नमः । लिङ्गे-ल्लं नमः । ऊर्वो:-भां नमः । जानुनि-यं नमः । जंघयोः-स्वां नमः । पादयोः–हां नमः ।
इसके बाद पूर्वोक्त प्रणाली से मूर्तिपञ्जर न्यास के बाद मूर्तिपञ्जर के सृष्टि-स्थिति न्यास करके निम्न न्यास करे । इसके बाद दशांग न्यास और पञ्चाङ्ग न्यास करे, यह गौतमतन्त्र के मतानुसार है ।

दशांग न्यास
हृदि-गों नमः । शिरसि—पीं नमः । शिखायां-जं नमः । सर्वाङ्गे-नं नमः । दिक्षु-वं नमः । दक्षपार्श्वे-ल्लं नमः । वामपार्श्वे-भां नमः । कटिदेशे-यं नमः । पृष्ठे-स्वां नमः ।
मूर्ध्नि-हां नमः ।
पञ्चाङ्ग न्यास-
आचक्राय स्वाहा हृदयाय नमः । विचक्राय स्वाहा शिरसे स्वाहा । सचक्राय स्वाहा शिखायै वषट् । त्रैलोक्यरक्षणचक्राय स्वाहा कवचाय हुं । असुरान्तकचक्राय स्वाहा अस्त्राय फट् ।
तब ॐ किरीट-केयूर-हार-मकर-कुण्डल-शंख-चक्र-गदा-पद्म-हस्त-श्रीवत्स-वक्ष-श्रीभूमि-सहितस्वात्मज्योतिर्मय-दीप्तकराय सहस्रादित्यतेजसे नमः से व्यापक न्यास करके वेणु-विल्वादि मुद्रायें दिखाते हुए ‘ॐ नमः सुदर्शनाय अस्त्राय फट्’ से दिग्बन्ध करके ध्यान करे —

स्मरेद् वृन्दावने रम्ये मोहयन्तमनारतम् ।
गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं गोप-कन्या-सहस्रशः ॥
आत्मनो वदनाम्भोजे प्रेरिताक्षिमधुव्रताः ।
पीड़िता कामवाणेन चिरमाश्लेषणोत्सुका: ॥
मुक्ताहार-लसत्पीन-तुङ्ग-स्तन-भरानताः ।
स्रस्तधम्मिल-वसना मद-स्खलित-भाषणा ॥
दन्त-पंक्ति-प्रभोद्भासिस्पन्दमानाधराञ्चिताः ।
विलोभयन्ती-विविधैर्विभ्रमैर्भावगर्वितैः ॥

सुन्दर वृन्दावन में कमलनयन गोविन्द सहस्रों गोपकन्याओं को निरन्तर मुग्ध कर रहे हैं । गोपियाँ श्रीकृष्ण के मुखकमल की ओर अपने नेत्ररूपी भौरों को प्रेरित कर रही हैं । गोपियाँ कामवाण से पीड़ित होकर श्रीकृष्ण के आलिंगन के लिये अतीव उत्सुक हैं । मोतियों के हार से सुशोभित स्थल उन्नत उरोजों के भार से वे झुकी हई हैं । उनके वस्त्र और कंचुकी ढीले पड़ गये हैं । आनन्दातिरेक से वे अटपट वाणी बोल रही हैं । उज्ज्वल दाँतों की पंक्ति की चमक से प्रकाशमान उनके होठ कम्पित हैं । विविध प्रकार की विलासपूर्ण भाव-भंगिमाओं से वे श्रीकृष्ण को लुभा रही हैं ।

फुल्लेन्दीवरकान्तिमिन्दुवदनं बर्हावतंसप्रियम्
श्रीवत्साङ्कमुदारकौस्तुभधरं पीताम्बरं सुन्दरम् ।
गोपीनां नयनोत्पलार्चिततनुं गोगोपसंघावृतम्
गोविन्दं कलवेणुवादनपरं दिव्याङ्गभूषं भजे ॥

विकसित नीलकमल के समान श्रीकृष्ण के शरीर की शोभा है । चन्द्रमा के समान उज्ज्वल मुख है । शिर मोरपंख से विभूषित है । वक्ष पर श्रीवत्स, कण्ठ में कौस्तुभमणि है । सुन्दर पीले वस्त्र हैं । गोपियों के नेत्रकमलों द्वारा पूजित शरीर, गायों और ग्वालों के समूह से घिरे, वंशी से मधुर ध्वनि करने में तत्पर, दिव्य अलंकारों से विभूषित गोविन्द का मैं भजन करता हूँ ।

ध्यान के बाद मानसोपचारों से पूजन करे । शंखस्थापन करे । विष्णुमन्त्रोक्त पीठपूजा कर पुनः ध्यान-आवाहनादि से पञ्च पुष्पाञ्जलि अर्पण तक के सभी कार्य करे । देवशरीर में सृष्टि-स्थिति, दशांग, पञ्चाङ्ग न्यास के स्थानों में न्यासमन्त्रों से पूजा करके निम्न प्रकार से पूजा करे —
मुखे ॐ वेणवे नमः । हृदि ॐ वनमालायै नमः । ॐ कौस्तुभाय नमः । ॐ श्री वत्साय नमः ।

तब पाँच पुष्पाञ्जलियाँ देकर कृष्ण के दक्ष पार्श्व में श्वेत चन्दनयुक्त श्वेत तुलसी और वाम पार्श्व में रक्त चन्दनयुक्त रक्ततुलसी मूल मन्त्र से प्रदान करे । शिर पर दो तुलसीपत्र, दो कनैल-पुष्प और दो कमलपुष्प प्रदान करे । देव पर सभी प्रकार के पुष्पों का अर्पण करे ।

गौतमीय तन्त्र में वर्णन है कि भगवान का दक्षिण भाग अक्षय निर्मलम्वरूप है । वाम भाग रजोगुणमयी नित्या रक्षिणी मूर्ति है । इसी से दाँईं ओर श्वेत चन्दनयुक्त श्वेत तुलसी और बॉईं ओर रक्त चन्दनयुक्त रक्ततुलसी प्रदान करने का विधान है ।

॥ अथ यंत्र आवरण पूजनम् ॥
अष्टदल एवं भूपूर युक्त यंत्र बनायें । अष्टदल के पत्रों के मूलभाग को केशर कहते हैं । बाहर के चतुर्द्वार युक्त परिधि को भूपूर कहते है ।

प्रथमावरणम् – यंत्र मध्य में उपर्युक्त ध्यान मन्त्र से देव का आवाहन करें मूर्ति पूजा करें । इसके बाद केशरों में पूजन करें ।
कर्णिका में पूर्वे ॐ दामाय नमः । दक्षिणे ॐ सुदामाय नमः । पश्चिमे ॐ वासुदेवाय नमः । उत्तरे ॐ किङ्किण्यै नमः ।
केशरों में अग्निकोण में ॐ आचक्राय स्वाहा हृदयाय नमः । नैऋत्य में ॐ विचक्राय स्वाहा शिरसे स्वाहा । वायव्य में ॐ सचक्राय स्वाहा शिखायै वषट । ईशान में ॐ त्रैलोक्यरक्षणचक्राय स्वाहा कवचाय हुं । चारो दिशाओं में ॐ असुरान्तकचक्राय स्वाहा अस्त्राय फट् से पूजन करे ।
(चक्रों का पूजन यन्त्र में षट्कोण हो तो उसमें भी किया जा सकता है। अस्त्राय फट् से पूजन अग्रभाग कोण में होगा।)

द्वितीयावरणम् – अष्टदल के दलों में पूर्वादि क्रम से इनका पूजन करे – ॐ रुक्मिण्यै नमः । ॐ सत्यभामायै नमः । ॐ नाग्नजित्यै नमः । ॐ सुनन्दायै नमः । ॐ मित्रविन्दायै नमः । ॐ सुलक्षणायै नमः । ॐ जाम्बवत्यै नमः । ॐ सुशीलायै नमः ।

तृतीयावरणम् – दलों के अग्रभाग में पूर्वादि क्रम से इन सबों का पूजन करे – ॐ वासुदेवाय नमः । ॐ देवक्यै नमः । ॐ नन्दाय नमः । ॐ यशोदायै नमः । ॐ बलभद्राय नमः । ॐ सुभद्रायै नमः । ॐ गोपेभ्यो नमः । ॐ गोपीभ्यो नमः ॥

चतुर्थावर्णम् – अष्टदल और भूपुर के मध्य में पूर्वादि क्रम से इनका पूजन करे – ॐ मन्दाराय नमः । ॐ सन्तानकाय नमः । ॐ पारिजाताय नमः । ॐ कल्पवृक्षाय नमः । ॐ हरिचन्दनाय नमः ।

पञ्चमावरणम् – पूर्वादि दिशाओं में – ॐ श्रीकृष्णाय नमः । ॐ वासुदेवाय नमः । ॐ देवकीनन्दनाय नमः । ॐ नारायणाय नमः । ॐ यदुश्रेष्ठाय नमः । ॐ वार्ष्णेयाय नमः । ॐ धर्मसंस्थापनाय नमः । ॐ असुराक्रान्तभारहारिणे नमः ।

षष्ठमावरणम् – भूपूर में दशों दिक्पालों एवं आयुधों का पूजन करें । देव का अर्चन कर पुष्पाञ्जलि प्रदान करें ।

गौतमीय तन्त्र में लिखा है कि पूरे आवरण-पूजन करने में अशक्त हो तो अंगपूजा और इन्द्रादि लोकपालों एवं वज्रादि आयुधों की पूजा करे । इस प्रकार श्रीकृष्णार्चन करने से काम्य विषय के साथ मोक्ष भी प्राप्त करता है । इस पूजा को करने में भी यदि असमर्थ हो तो केवल ॐ कृष्णाय नमः इत्यादि के क्रम से कृष्णाष्टक पूजा करे । इससे भी वह सफल मनोरथ होता है । तदनन्तर धूपादि विसर्जनान्त कर्म करके पूजा पूर्ण करे ।

इस दशाक्षर मन्त्र का पुरश्चरण दश लाख जप से होता है । घी, मधु और शक्करयुक्त नव रक्त पद्मों से एक लाख हवन करे । अष्टादशाक्षर मन्त्र (क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनचल्लभाय स्वाहा) के पुरश्चरण में पाँच लाख जप एवं पूर्वोक्त द्रव्य से पचास हजार हवन करे। कमल का अभाव हो तो शक्कर-घी-युक्त पायस से हवन करे।

“मन्त्र महोदधि” में ध्यान मन्त्र भिन्न है तथा काम्य प्रयोग भी दिये गये हैं ।
ध्यानम् –
वृन्दारण्यगकल्पपादपतले सद्रत्नपीठेम्बुजे
शोणाभे वसुपत्रके स्थितमजं पीताम्बरालंकृतम् ।
जीमूताभमनेकभूषणयुतं गोगोपगोपीवृतं
गोविन्दं स्मरसुन्दरं मुनियुतं वेणुं रणन्तं स्मरेत् ॥

वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे निर्मित सुन्दर मणिपीठ पर, रक्तवर्ण के अष्टदल कमल पर विराजमान, पीताम्बरालंकृत, बादलों के समान कान्ति वाले, अनेक आभूषणों को धारण किए हुये, गो, गोप एवं गोपियों से घिरे हुये, कामदेव से भी अधिक सुन्दर, मुनिगणों से संयुक्त वंशी बजाते हुये श्रीगोविन्द का स्मरण करना चाहिए ॥
इस प्रकार गोपाल का ध्यान कर एक लाख जप करना चाहिए । फिर कमल पुष्पों से उसका दशांश होम करना चाहिए तथा पूर्वोक्त वैष्णव पीठ पर नन्दनन्दन श्रीगोपालकृष्ण का पूजन करना चाहिए ॥
काम्य प्रयोग –
ज्वर से मुक्त होने के लिए गुडूची ( गिलोय ) के टुकड़ों से होम करे ॥
दो मित्रों में द्वेष कराने के लिए कृष्णद्वेषी तथा महाजुआरी रुक्म तथा बलभद्र का ध्यान कर गोबर के गोल-गोल कण्डो से होम करना चाहिए ॥
शत्रु को शान्त करने के लिए नीम के तेल में डुबोई बहेड़े की लकड़ी से रात्रि में १० हजार की संख्या में होम करना चाहिए ॥
विद्वान् साधक स्वयं में कृष्ण की भावना कर तथा शत्रु में मञ्च से गिराये गये, चोटी पकड़कर खींचे जाते हुये गतप्राण कंस की भावना करते हुये इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करे तथा रात्रि में शत्रु के जन्मनक्षत्र के वृक्ष की समिधाओं से होम करना चाहिए । ऐसा करने से उग्रतम शत्रु भी मर जाता है ॥
विद्या प्राप्ति हेतु पलाश के फूलों से एक लाख आहुतियाँ देनी चाहिए ।
राई मिश्रित चावल एवं श्वेत पुष्पादि द्वारा लगातार ७ दिन तक हवन कर उसका भस्म मस्तक में लगावे तो वह मनुष्य युवतियों के समूहों को तथा पुरुषों को अपने वश में कर लेता हैं ॥
इस मन्त्र से एक हजार बार अभिमन्त्रित कर फूल, वस्त्र, अञ्जन, ताम्बूल या चन्दन जिस व्यक्ति को दिया जाय वह सपुत्र पशु एवं बान्धव सहित शीघ्र ही वशवर्ती हो जाता है ॥
जो व्यक्ति वृन्दावन में गोपियों द्वारा गुणगान किए जाने वाले श्रीकृष्ण का स्मरण कर अपामार्ग की समिधाओं से हवन करता है वह सारे जगत् को अपने वश में कर लेता है ॥
जो व्यक्ति भक्ति में तत्पर हो रास लीला के मध्य में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करता है वह ६ महीनों के भीतर अपनी मन चाही कन्या से विवाह करता है ॥
जो कन्या कदम्ब वृक्ष पर बैठे श्रीकृष्ण का ध्यान कर प्रतिदिन एक हजार की संख्या में जप करती है वह ४६ दिन के भीतर मनोनुकूल पति प्राप्त करती है ॥
मधु सहित विल्व वृक्ष का पत्र, फल या समिधाओं से अथवा शर्करा युक्त कमल पुष्पों का होम करने से व्यक्ति धनवान् हो जाता है, इस विषय में विशेष क्या कहें भगवान् गोपालकृष्ण का यह मन्त्र मनुष्यों की सारी कामनायें पूर्ण करता हैं ॥

मेरु-तन्त्र में — ‘गोपीजनवल्लभाय स्वाहा मन्त्रो दशाक्षरः । नारदोस्य मुनिः प्रोक्तो विराट् छन्द उदाहृतम् ॥ देवता नन्दपुत्रः क्लीं बीजं शक्तिः शिखिप्रिया ।’ तथा ध्यान भी भिन्न है यथा —
पूर्व वृन्दावनं रम्यं स्मरेत्पुष्पविराजितम्,
तस्मिन्वने कल्पतरूं नवपल्लवशोभितम् ॥
षडूर्मिरहितां ध्यायेत्तस्याधस्ताद्वसुन्धराम्,
माणिक्यकुट्टिमं तत्र योगपीठं विचिन्तयेत् ॥
पद्ममष्टदलं तत्र यथोक्तं रत्नपर्णकम्,
तस्य मध्ये सुखासीनं कृष्णं ध्यायेदनन्यधीः ॥
उद्यदादित्यसङ्काशं प्रसन्नवदनं विभुम्,
इन्द्रनीलमणिप्रख्यं स्निग्धदीर्घ शिरोरुहम् ॥
मायूरेण सुपिच्छेन राजमानशुभाङ्गकम्,
कुटिलालकविभ्राजदास्यं कर्णकतोत्पलम् ॥
गोरोचनाक्ततिलकं पूर्णचन्द्रनिभं स्मरेत्,
पद्मनेत्रं दीप्तमणिं मकराकृतिकुण्डलम् ॥
क्षुद्रघण्टिकया बद्धकटिं ग्रैवेयराजितम्,
चक्रशङ्खलसत्पद्मामृतकुण्डाम्बरादिभिः ॥
कुलिशप्रमुखैश्विह्नैरङ्कितस्वच्छपत्तलम् ॥ ६७९ ॥
मुखाम्बुजसमायुक्तवंशच्छिद्रार्पितांगुलिम् ॥
स्व-व्यस्यैश्च गायद्भिर्धृत्यद्भिः विभाषणैः,
नानावेषधरैर्बालैः संस्तुवद्भिः समावृतम् ॥

 

 

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