श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-049
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
उनचासवाँ अध्याय
कीर्ति के पुत्र का राज्याभिषेक, ब्रह्माजी द्वारा विनायकलोक का तथा उसकी महिमा का वर्णन, विनायक के भक्तों को विनायकलोक की प्राप्ति
अथः एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शमीमन्दारफलवर्णनं

ब्रह्माजी बोले — दुण्ढिविनायक से इस प्रकार वरदान प्राप्त की हुई कीर्ति ने शेष रात्रि व्यतीत करके उषाकाल में स्नान किया और वह उन विनायक की मूर्ति की भलीभाँति पूजा करके अपने पुत्र के साथ अपने नगर के लिये निकल पड़ी। यद्यपि वह बहुत हर्षित थी, किंतु विनायकदेव के विरह से दुखित भी थी। वह नगर नाना प्रकार की ध्वजाओं और पताकाओं से अलंकृत था । जल के छिड़काव एवं धूप आदि से सुवासित था ॥ १-२ ॥ राजपत्नी कीर्ति और उसका पुत्र – दोनों ही ‘दुण्ढि’ नाम का जप कर रहे थे । राजा प्रियव्रत को जब यह ज्ञात हुआ कि पत्नी तथा पुत्र आ रहे हैं तो वे अपनी सेना एवं वाद्यों की ध्वनि के साथ उन दोनों को लाने के लिये गये और शीघ्र ही अत्यन्त विख्यात कर्णपुर नामक नगर में उन्हें ले आये। उन्होंने शीघ्र ही अपने पुत्र का मस्तक सूँघा और अत्यन्त सम्मान के साथ उसका आलिंगन किया ॥ ३-४ ॥

परम प्रसन्नता को प्राप्त राजा ने आनन्दविभोर होकर गद्गद वाणी में कहा —‘हे पुत्र ! क्षिप्रप्रसादन ! तुम बहुत दिनोंसे थके हुए हो ॥ ५ ॥ तुम्हें देखकर मुझे अत्यन्त आह्लाद प्राप्त हो रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मुझे अमृत की प्राप्ति हो गयी है।’ तदनन्तर राजा ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को वस्त्र तथा दक्षिणा देकर विदा किया ॥ ६ ॥ इसके अनन्तर रानी कीर्ति और राजा ने परस्पर वार्तालाप किया। रानी कीर्ति ने सम्पूर्ण वृत्तान्त राजा को पूर्णरूप से बताया ॥ ७ ॥

तदनन्तर उन दोनों ने परस्पर दाम्पत्योचित प्रीति व्यवहार के साथ हास्य एवं विनोद किया। हर्षपूर्वक एक-दूसरे को ताम्बूल खिलाया और संकोच का परित्यागकर सहशयन सम्पन्न किया ॥ ८ ॥ तदनन्तर कुछ दिन बीत जाने के अनन्तर जब राजा ने यह जान लिया कि मेरा पुत्र सभी गुणों से सम्पन्न है, विनयी है, सभी धर्मों का ज्ञाता है और नीतिशास्त्र में अत्यन्त पारंगत है, तो उन्होंने राज्याभिषेक में प्रयुक्त होने वाली समस्त सामग्रियों को एकत्र कराकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को, मित्रों को तथा सभी राजाओं को बुलाकर शुभ मुहूर्त में, उत्तम लग्न में, सातों ग्रहों के अभीष्ट स्थान में विद्यमान रहने पर पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया ॥ ९-१०१/२

राजा ने स्वस्तिवाचन कराने के अनन्तर आभ्युदयिक श्राद्ध करके विविध प्रकार के वाद्यों की ध्वनि के साथ ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद के मन्त्रों और विविध प्रकार के द्रव्यों से समन्वित जलों के द्वारा पुत्र का अभिषेक कराया ॥ ११-१२ ॥ तदनन्तर राजा ने ब्राह्मणों तथा अन्य जनों को दक्षिणा तथा रत्न प्रदानकर सन्तुष्ट किया और उन सबसे पूछकर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश होने की दीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् सभी राजाओं को विदा करके वे अपने अभीष्ट के साधन में संलग्न हो गये ॥ १३१/२

तदनन्तर राजकुमार परशुबाहु इस पृथ्वी पर शासन करने लगे। धर्मशास्त्र में प्रतिपादित नीति के अनुसार राज्य-संचालन से और अपनी उदारता से उन्होंने महान् यश अर्जित किया। वे अपने पराक्रम के बल पर तीनों लोकों में विख्यात हुए। उन्होंने मन्दारवृक्ष के काष्ठ की – विनायक की प्रतिमा बनवाकर उसे अपने कण्ठ में धारण किया। वे शमी तथा दूर्वा के बिना कभी भी उनकी पूजा नहीं करते थे ॥ १४–१६ ॥ उन्होंने धर्ममार्ग का पालन करते हुए विविध प्रकार के सुख-भोगों को भोगा तथा अनेक रानियों के साथ जीवन बिताने लगे। अनेक पुत्रों को उत्पन्नकर एवं विविध प्रकार के दानों को देकर एक हजार वर्षपर्यन्त राज्य किया, तदनन्तर पुत्र को राज्य सौंपकर वे स्वर्गलोक को गये । भगवान् ढुण्ढिविनायक का सारूप्य प्राप्तकर वे अनेक कल्पों तक स्वर्गलोक में स्थित रहे ॥ १७-१८ ॥

[ ब्रह्माजी बोले — ] हे मुने! इस प्रकार से मैंने शमी के प्रभाव का, उसके द्वारा विनायक के पूजन से प्राप्त होने वाले पुण्य का तथा मन्दार की महिमा का भी वर्णन संक्षेप में आपसे निरूपित किया । इसलिये आपके द्वारा भी शमी एवं मन्दार के द्वारा विनायक का पूजन किया जाना चाहिये, भक्तिभावपूर्वक उन इष्टदेव के लिये समर्पित किया गया पत्र-पुष्प उन्हें अमृततुल्य प्रिय प्रतीत होता है ॥ १९-२० ॥

तत्तद् देवता के लिये निषिद्ध पत्र-पुष्प अर्पित करने वाला नरक प्राप्त करता है। जिसका जो मुख्य आराध्य देवता होता है, उसके लिये विहित पत्र-पुष्पादि अर्पण करने वाला अथवा अन्य देवों को अपने अभीष्ट देव की बुद्धि से पत्र – पुष्पों को अर्पित करने वाला भक्त दोष को प्राप्त नहीं होता है, इस प्रकार गणेश, दुर्गा, शिव, विष्णु एवं सूर्य – इन पंचदेवों की आराधना से व्यक्ति अपने अभीष्ट देव को प्राप्त होता है ॥ २१-२२ ॥ सात्त्विक पूजा करने वाला सात्त्विक भक्त अपने अभीष्ट देव का तादात्म्य प्राप्त करता है, राजस पूजा करने वाला देवता का सारूप्य प्राप्त करता है, सतोगुणी उपासना एवं रजोगुणी उपासना- इन दोनों भावोंसे [मिश्रित] उपासना करनेवाला भक्त देवताके सामीप्यको प्राप्त करता है और तामसी स्वभाववाला तामसी उपासना द्वारा देवता के लोक को प्राप्त करता है। इस प्रकार सात्त्विक, राजस एवं तामस – तीनों प्रकार की भक्ति निष्फल नहीं होती ॥ २३१/२

व्यासजी बोले — हे ब्रह्मन् ! विनायक का लोक किस लोक में स्थित है, मेरे इस संशय को आप इस समय दूर करें, हे प्रभो! सब कुछ जानने वाले आपको छोड़कर मैं अन्य किससे पूछूं?॥ २४-२५ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे व्यासजी !] इस विषय में मैंने देवर्षि नारदजी को बतलाया था, उन्होंने महर्षि मुद्गल को बताया, महर्षि मुद्गल ने विनायक के उस मांगलिक लोक के विषय में काशिराज को बतलाया ॥ २६ ॥

प्राचीन समय में उन विनायक ने अपनी कामदायिनी शक्ति से स्वयं ही उस लोक का निर्माण किया और उन्होंने ‘निजलोक’ यह उसका नाम रखा ॥ २७ ॥ काशिराज ने अपने चर्मचक्षुओं से उस विनायकलोक का विमान में स्थित रहकर दर्शन किया था, जिसे प्राप्त करके स्त्री अथवा पुरुष – कोई भी हो, वह न तो दुःख प्राप्त करता है और न काम-क्रोधादि द्वन्द्वों से बाधित होता है ॥ २८ ॥ उस निजलोक में व्यक्ति ज्योतिर्मय स्वरूप को प्राप्तकर ब्रह्माजी के कल्पपर्यन्त निवास करता है और [अमृतोपम रस से पूर्ण] उस इक्षुसागर का आनन्द लेता है, जो कि वहीं पर अवस्थित है ॥ २९ ॥ वह विनायकलोक महाप्रलय की वेला में भी विद्यमान रहता है, वह अविनाशी लोक है और उन विनायकदेव का सनातन पीठ एवं निद्रास्थान है ॥ ३० ॥

वहाँ सिद्धि तथा बुद्धि नाम की उनकी दो पलियाँ उनकी सेवा करती रहती हैं, सामवेद अपनी सामध्वनियों के द्वारा उनकी महिमा का गान करते रहते हैं। मनुष्य के द्वारा जिस-जिस भी वस्तु की कामना की जाती है, वहाँ स्थित कल्पवृक्ष वह सब उन्हें प्रदान करता है ॥ ३१ ॥ उस कल्पवृक्ष के प्रभाव से वहाँ अकल्पनीय वस्तुएँ भी प्राप्त हो जाती हैं। मैंने कई बार सभी लोकों का विविध प्रकार से वर्णन किया है, किंतु गणेशजी के निजलोक का वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है। इसलिये मैंने संक्षेप में वर्णन किया है, अब आप आगे क्या सुनना चाहते हैं? ॥ ३२-३३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘शमीपत्र एवं मन्दारपुष्पसमर्पण के फल का वर्णन’ नामक उनचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४९ ॥

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