श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-050
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पचासवाँ अध्याय
महर्षि मुद्गल द्वारा काशिराज को विनायक के लोक ‘स्वानन्दभुवन’ का परिचय बना सदैव वहाँ विद्यमान रहने वाले विनायक के स्वरूप का निरूपण करना, मुद्गलजी के उपदेश से काशिराज द्वारा गणेशोपासना और अन्त में विनायक – लोक को प्राप्त करना
अथः पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
गणेशलोकवर्णनं

व्यासमुनि बोले — [हे ब्रह्मन्!] काशिराज ने महर्षि मुद्गलजी के उपदेश से किस प्रकार विनायक के उस उत्तम स्थान को प्राप्त किया, इसे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥

ब्रह्माजी बोले — तीर्थयात्रा के प्रसंग से एक बार महर्षि मुद्गल काशिराज के पास गये । राजा ने उनका आतिथ्य- सम्मान करके उन सर्वज्ञ मुनि मुद्गल से पूछा — ॥ २ ॥

राजा बोले — विनायक का लोक कौन-सा है ? और मेरे द्वारा उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? ॥ २१/२

मुद्गल बोले — [हे राजन्!] स्वानन्दभुवन तथा निजलोक- ये दो अत्यन्त प्रसिद्ध नाम विनायकलोक के हैं । जब देवान्तक तथा नरान्तक नाम के दो दैत्य उत्पन्न होंगे, तब विनायक भी उनके वध के लिये मनुष्यरूप में अवतरित होंगे ॥ ३-४१/२

वे पराक्रमी विनायक अपनी इच्छा के अनुसार इस मनुष्यलोक में बालकरूप से अद्भुत पराक्रमशाली लीला करेंगे। हे राजन्! जब आप अपने पुत्र के विवाह के उद्देश्य से उन्हें अपने घर लायेंगे, तो उस समय वे [ अपना लोकोत्तर ] पुरुषार्थ प्रदर्शित करेंगे और [लीलावश] भगवद्भक्त निर्धन ‘शुक्ल’ नामक ब्राह्मण के घर में भोजन करके उन्हें देवराज इन्द्र के लिये भी दुर्लभ अमोघ लक्ष्मी प्रदान करेंगे [तथा और भी बहुत-सी लीलाएँ करेंगे ], , हे काशिराज ! हे महाबाहु ! तब (उसी समय) आप उनकी भक्ति के प्रभाव से विनायक निजलोक को प्राप्त करेंगे ॥ ५-८ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर मुनि मुद्गल के चले जाने पर महान् बुद्धिमान् काशिराज गणेशजी की भक्ति करते हुए समय की प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर बहुत दिन बीत जाने पर लीला के लिये विग्रह धारण करनेवाले वे प्रभु विनायक कश्यप के घर में अवतीर्ण हुए ॥ ९-१० ॥ उन्होंने अनेकों दैत्यों का वध किया और नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ कीं। शुक्ल ब्राह्मण के घर में भोजन करके उन्होंने शीघ्र ही उसके दारिद्र्य का हरण कर लिया । तदनन्तर वे काशिराज के भवन में [पुनः लौट] गये। उन्होंने [उसी अवतारकाल में] देवान्तक तथा नरान्तक नामक महाबलशाली दो दैत्यों का वध किया ॥ ११-१२ ॥

तत्पश्चात् वे विनायकदेव क्षीरसागर के मध्य स्थित अपने ‘स्वानन्दभुवन’ नामक लोक को चले गये। तब से काशिराज विनायक के विरह से दुखी होकर सदा उनका स्मरण-ध्यान किया करते थे ॥ १३ ॥ वे अपनी राजसभा के मध्य किसी पुरुष को यह समझकर आलिंगन कर लेते थे कि यही विनायक है । वे सम्पूर्ण जगत् को विनायकरूप समझते थे ॥ १४ ॥ वे दिन-रात ध्यान में उनका दर्शन करते हुए विनायकमय ही हो गये थे। कभी वे निराहार ही रह जाते थे । उन दिनों कभी वे अपनी रुचि के अनुसार एक ग्रासमात्र ही भोजन करते, कभी वे हँसने लगते तो कभी नाचने लगते ॥ १५-१६ ॥ स्वप्न में वे उन विनायक का दर्शन करके बहुत समय तक सोते ही रह जाते थे । राजा की इस प्रकार की अन्यमनस्कता की स्थिति देखकर उनके मन्त्रीगण अत्यन्त चिन्तित हो उठे ॥ १७ ॥

वे यह सोचने लगे कि यदि लोग राजा की इस प्रकार की मन:स्थिति के विषय में जान जायँगे तो शत्रुओं की सेना आक्रमण कर सकती है। इस प्रकार की चिन्ता करते हुए जब मन्त्रीगण राजा के दरबार में उपस्थित थे, तो उसी समय महर्षि मुद्गल अपना ध्यान भंग कर राजा के पास आये। उन मुनि के दर्शन से चेतना को प्राप्त हुए राजा ने उन्हें प्रणाम किया ॥ १८-१९ ॥ उन्हें आसन पर बैठाकर राजा ने यथाविधि उनका पूजन किया और फिर हाथ जोड़कर कहने लगे — ‘हे मुने! आपके दर्शन से आज मेरा वंश धन्य हो गया, मेरा जन्म लेना सफल हो गया, मेरे माता-पिता धन्य हो गये, मेरा भवन धन्य हो गया और मेरे नेत्र धन्य हो गये । जिनकी कृपा से मनुष्यों को संसार से तारने वाला परम स्थान प्राप्त होता है और जिनकी अवमानना से महान् दुःख की प्राप्ति होती है, उन्हीं आपका मैंने बड़े ही पुण्य के प्रभाव से आज दर्शन किया है ।’ तदनन्तर उनकी वाणी से परम सन्तुष्ट होकर वे ब्राह्मण मुद्गल उनसे बोले — ॥ २०-२२ ॥

 मुद्गल बोले — [हे राजन्!] आप-जैसा विनीत स्वभाववाला व्यक्ति न तो मैंने देखा है और न आप-जैसे व्यक्ति के विषय में कुछ सुना ही है। आपके द्वारा किये गये पूजन से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। मैं आपके मनोरथ को पूर्ण करूँगा ॥ २३ ॥

ब्रह्माजी बोले — महर्षि मुद्गल के वचन से परम सन्तुष्टि को प्राप्त काशिराज उनसे बोले — ‘हे मुने! मैं इसी शरीर से विनायक के धाम स्वानन्दभुवन को प्राप्त करना चाहता हूँ और वहाँ चिरकाल तक रहना चाहता हूँ । मुझे अन्य किसी सम्पदा की आवश्यकता नहीं है । ‘ तदनन्तर महर्षि मुद्गल उनसे बोले — ‘मैं आपकी वाणी से सन्तुष्ट हूँ। हे राजन्! आप अपने इसी पांचभौतिक जड़ देह से विनायकजी के ‘स्वानन्दभुवन’ नामक उस लोक को प्राप्त करेंगे, जो जन्म-मरण के बन्धन से सर्वथा रहित है। वहाँ पाँच हजार वर्षों तक अनेक प्रकार की सम्पदाओं का उपभोग करने के अनन्तर आप ब्रह्माजी के एक कल्पपर्यन्त परम आनन्द को प्राप्त करेंगे’ ॥ २४–२७ ॥

राजा बोले — मुने ! विनायक का वह लोक कैसा है ? उसका क्या नाम है ? आप सत्य-सत्य बतायें । उस लोक में किस पुण्य के द्वारा जाना होता है। मैंने अन्य लोकों के विषय में तो बहुत कुछ सुन रखा है, पर इस लोक को मैं नहीं जानता ॥ २८ ॥

मुद्गलजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, मैंने महर्षि कपिलजी के मुख से उस लोक की महिमा को सुना है। आपने जिन लोकों के विषय में सुना है, वे सामान्यतः प्रसिद्ध हैं ॥ २९ ॥ हे भूपते ! इस गणेशलोक की गति अत्यन्त गहन है। इस स्वानन्दभुवन लोक का एक नाम दिव्यलोक है और दूसरा नाम निजलोक है। हे महामते ! उस लोक में भगवान् विनायक कामदायिनी नामक पीठ में विराजमान रहते हैं, वह पाँच हजार योजन के विस्तार वाला है। वहाँ की भूमि रत्नमयी तथा सुवर्णमयी है। वहाँ वे विनायक दिशाओं को प्रकाशित करते हुए सुशोभित होते हैं। स्वानन्दभुवन नाम का वह दिव्य लोक इक्षुसागर के मध्य में स्थित है ॥ ३०-३२ ॥ न वेदों के पारायण से, न दान से, न व्रत-यज्ञ और जप से, न ही विविध प्रकार की तपस्याओं के द्वारा कभी भी वह लोक प्राप्त किया जा सकता है। भगवान् विनायक की कृपा और उनकी निरन्तर भक्ति से ही वह प्राप्त होता है । विघ्नराट् विनायक वहाँ समष्टि तथा व्यष्टिरूप से निरन्तर विद्यमान रहते हैं ॥ ३३-३४ ॥

वे विनायक अपने पैरों से सातों पातालों को व्याप्त करके स्थित हैं । वे शेषनाग के सहस्र सिरों को तथा जल में स्थित कूर्म को [ आक्रान्त किये हुए हैं ।] उन्होंने कानों के द्वारा सभी दिशाओं को व्याप्त कर रखा है। बालों के द्वारा आकाशमण्डल को धारण करके वे आधारकमल पर विद्यमान हैं। पुण्यात्माजन भ्रूमध्य में स्थित अग्निचक्र में विद्यमान द्विदल कमल में उनका ध्यान करते हैं ॥ ३५-३६ ॥ खेचरी मुद्रा से समन्वित सिद्ध साधक ही उनका ध्यान कर सकता है, दूसरा और कोई ध्यान में समर्थ नहीं हो पाता। प्रभा से सुशोभित सहस्र दलों वाला जो ब्रह्माण्ड कमल है, उस ब्रह्माण्डकमल में वे विनायक तेजोरूप से स्थित रहते हैं। इसी प्रकार हृदय में स्थित द्वादशदल कमल में, नाभिचक्र में स्थित दशदल कमल में, लिंगदेश में स्थित शुभ षड्दल कमल और कण्ठदेश में स्थित षोडशदल कमल में वे विघ्नराट् तेजः स्वरूप में देदीप्यमान होकर उसी तरह सर्वत्र विद्यमान रहते हैं, जैसे कि सत्यलोक में ब्रह्मा विद्यमान रहते हैं ॥ ३७–३९ ॥

द्वादशदल कमल वैकुण्ठ है, वहाँ भगवान् विष्णु सदा विद्यमान रहते हैं, कण्ठ में स्थित षोडशदल कमल में पंचवक्त्र भगवान् शिव अपने गणों के साथ उसी प्रकार निवास करते हैं, जैसे कि कैलास में रहते हैं ॥ ४० ॥ चन्द्रमा, सूर्य तथा अग्नि- ये विनायक के तीन नेत्र हैं। सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डल उनका उदरदेश है । वे विनायक इक्कीस स्वर्गों में व्याप्त हैं । औषधियाँ उनके रोम हैं । नदियाँ तथा सागर उनके पसीने की बूँद के रूप में भासित होते हैं। उनके प्रत्येक रोम के अन्तर्गत [ अनन्तानन्त ] ब्रह्माण्ड धूलिकणों के समान अवस्थित हैं ॥ ४१-४२ ॥ तैंतीस करोड़ देवता और जो हजारों प्रकार के जीव हैं, वे उनके प्रत्येक रोमकूप में उसी प्रकार आभासित होते हैं, जैसे कि गूलर में बैठे हुए मच्छर ॥ ४३ ॥

हे राजन्! अब मैं विनायक के उस लोक की रचना के विषय में संक्षेप में बताता हूँ । मेरुपर्वत का जो उच्च शिखर है, वह कैलासशिखर के समान है। वह हजार योजन ऊँचा है। वह जनशून्य तथा श्रेष्ठ मुनिजनों के लिये भी अगम्य है। वहाँ पर एक उच्च शक्ति है, जिसका नाम भ्रामिका है ॥ ४४-४५ ॥ उस शक्ति के चारों ओर विशुद्ध तेजवाले भ्रमर गुंजन करते रहते हैं। उस भ्रामिका शक्ति के ऊपर पद्मासन पर आधारशक्ति स्थित है, जो स्वर्णिम आभावाली है। उस आधारशक्ति के मस्तक पर कामदायिनी नामक शक्ति है, उसकी आभा करोड़ों सूर्यों के समान है, उसी के मस्तक पर बृहत्तम गणपतिपीठ अवस्थित है ॥ ४६-४७ ॥ वह अत्यन्त विकराल जटाओं के भार को धारण किये रहती है तथा [वैसे ही विकराल मुख से युक्त है ।] वह हजारों सूर्यों के समान प्रकाशमान है और अपनी आभा दसों दिशाओं को द्योतित करती रहती है। उस (पीठ) का विस्तार दस हजार योजन है, उतनी ही उसकी चौड़ाई भी है। उस पीठ के मध्य में एक योजन चौड़ा स्वानन्दभुवन नामक लोक है, जो असंख्यों सूर्यों के समान आभावाला है । वहाँ पर स्वर्ण तथा रत्नों से निर्मित असंख्य गृह हैं, जो गज- मुक्ता के समान प्रभा से सम्पन्न हैं । वह स्वानन्दभुवन नामक विनायकधाम दुःख तथा मोह से रहित है, उन विनायक की कृपा से ही वह लोक प्राप्त हो सकता है। उस स्वानन्दभुवन से उत्तर दिशा में श्रेष्ठ इक्षुसागर है ॥ ४८-५१ ॥

उस इक्षुसागर के मध्य में सहस्रदलकमल से समन्वित एक मंगलमयी पद्मिनी (पुष्करिणी) है, उस (पुष्करिणी) – के मध्य में सहस्र दलों वाला एक कमल उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार कि चन्द्रमा [ आकाशमण्डल-में] शोभित होता है। उस सहस्रदल कमल की कर्णिका में एक शय्या है, जो रत्नों तथा स्वर्ण से निर्मित है। हे राजन् ! उसी तल्प में दिव्य वस्त्रों को धारण किये हुए
भगवान् विनायक शयन करते हैं ॥ ५२-५३ ॥ उनकी सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो पत्नियाँ बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक सदैव उनके चरणों को दबाया करती हैं । सामवेद मूर्तिमान् विग्रह धारणकर भक्तिपूर्वक उनकी महिमा का गान करते रहते हैं। सभी शास्त्र मूर्तिमान् होकर उनका स्तवन करते रहते हैं। सभी पुराण उनके सद्गुणों का वर्णन करते रहते हैं ॥ ५४-५५ ॥

उस स्वानन्दभुवन में सहस्रदल की कर्णिका में स्थित तल्प के ऊपर भगवान् विनायक बालरूप धारण कर विराजमान रहते हैं। वे अपनी सूँड़ से सुशोभित रहते हैं। उनके सभी अंग अत्यन्त कोमल हैं। उनकी आभा अरुणवर्ण की है। उनके नेत्र विशाल हैं। वे दाँतवाले हैं। उन्होंने मुकुट तथा कुण्डल धारण कर रखे हैं। उनके मस्तक पर कस्तूरी का तिलक सुशोभित है । स्वतः प्रकाशमान वे विनायक दिव्य मालाओं तथा वस्त्रों को धारण किये हुए हैं, उनके शरीर पर दिव्य गन्धों का अनुलेपन लगा हुआ है ॥ ५६-५७ ॥ वे मोतियों तथा मणियों की माला धारण किये हैं, जिसमें अनेक रत्न लगे हुए हैं। वे विनायक अनन्त कोटि सूर्यों के समान ओज से सम्पन्न हैं और उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र सुशोभित है। वे विनायक भगवान् स्मरणमात्र करने से मनुष्यों के पापों को उसी प्रकार तत्क्षण विनष्ट कर देते हैं, जैसे कि गंगाजी करती हैं । हे राजन् ! उनकी शय्या के दोनों ओर तेजोवती तथा ज्वालिनी नामक दो शक्तियाँ सदैव स्थित रहती हैं, जो सहस्रों सूर्यों के समान प्रभावाली हैं ॥ ५८-५९१/२

उस स्वानन्दभुवन नामक लोक में न तो शीत है, न वृद्धावस्था है, न थकावट है, न स्वेद है और न तन्द्रा ही है । वहाँ भूख एवं प्यास तथा दुःख कभी भी नहीं होता है। अपने पुण्य के प्रभाव से जो व्यक्ति वहाँ निवास करते हैं, वे सदा ही आनन्द- सरोवर में निमग्न रहते हैं; क्योंकि वहाँ विश्व में व्याप्त रहनेवाले, बालक का स्वरूप धारण किये हुए तथा विश्व को जानने वाले भगवान् श्रीविनायक सर्वदा विद्यमान रहते हैं ॥ ६०-६११/२

मुद्गलजी बोले — हे राजन्! इस प्रकार मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान् गणेशजी के लोक का वर्णन किया, अब आप भी अनन्य भक्तिपूर्वक उन विनायक की आराधना करें ॥ ६२१/२

ब्रह्माजी बोले — [हे व्यासजी!] ऐसा कहकर महर्षि मुद्गल अपने स्थान को चले गये। इधर काशिराज भी गणेशजी की आराधना में तत्पर हो गये । उन्होंने पाँच हजार वर्ष तक राज्य किया, तदनन्तर वे इसी शरीर से विमान में आरूढ़ होकर भगवान् विनायक के उस स्वानन्दभुवन नामक धाम में गये ॥ ६३-६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘गणेशलोकवर्णन’ नामक पचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५० ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.