श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-052
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बावनवाँ अध्याय
काशिराज का विभिन्न लोकों का दर्शन करते हुए गणपतिधाम में पहुँचना
अथः द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
स्वानन्दभुवनप्राप्तिवर्णनं

दूत बोले — हे नृपश्रेष्ठ ! यह लोक भूत, प्रेत, पिशाच [आदि पापयोनियों ] -का [ निवास-स्थल ] है । हे भूपते ! जो लोग निन्दा, चुगलखोरी, तस्करी आदि पाप करते हैं, वे यहाँ आते हैं ॥ १ ॥

[ब्रह्माजी ने कहा — हे व्यासजी !] इसके पश्चात् सामने ही काशिराज ने असुरों तथा राक्षसों के लोकों को देखा, जहाँ विविध आकार वाले, ऊपर की ओर उठे केशों से युक्त, भयावह, विकराल – मुख और बादलोंकी-सी गर्जना करते हुए पर्वताकार वे [असुर-राक्षस आदि] विद्यमान थे। अग्निकुण्ड के सदृश देदीप्यमान उन (असुर-राक्षसादि) -को देखकर राजा ने दूतों से फिर पूछा — हे दूतो ! मैं पूछता हूँ कि यह नगर किन लोगों का है, यह बतलाइये। तब वे दूत बोले —‘[राजन्!] यह लोक दुष्ट दानवों और राक्षसों का [निवास-स्थान] है। वैदिक तथा स्मार्त आचार से परिभ्रष्ट पापकर्मा लोग यहाँ रहते हैं ‘ ॥ २–४१/२

तदुपरान्त राजा ने उस [नगर]-के आगे गन्धर्वों से सेवित लोक को देखा। उस लोक में चाँदी और सोने से निर्मित भवन थे, वहाँ की भूमि सुवर्ण तथा रत्नों से मण्डित थी। उस लोक के पुरुष तथा स्त्रियाँ नृत्य-गान आदि में निपुण और इच्छानुरूप विषय भोगों से युक्त थे ॥ ५-६ ॥ अत्यन्त सुख देने वाले उस लोक को देखकर राजा ने दूतों से फिर पूछा — ‘हे दूतो! मैं पूछता हूँ कि यह नगर किन लोगों का [निवासस्थान ] है, यह बतलाइये ‘ ॥ ७ ॥

वे दोनों बोले — [राजन् ! ] यह गन्धर्वनगर है। जो लोग देवमन्दिरों में गायन [ वादन, नृत्य आदि] करते हैं, महान् पुण्य के कारण वे ही इस उत्तम नगर को प्राप्त करते हैं। यह उत्तम नगर सिद्ध, चारण तथा गुह्यक [आदि देवयोनियों ] – की आवासभूमि है और यहाँ नानाविध व्रत-दानादिरूप पुण्यराशि के प्रभाव से ही आना सम्भव है ॥ ८-९ ॥

इसके उपरान्त उन दूतों ने राजा को इन्द्र की महिमाशालिनी, रमणीय नगरी (अमरावती) दिखलायी, जो सौ अश्वमेधयज्ञ करने पर ही सुलभ होती है ॥ १० ॥ उस नगरी में सुवर्ण, रत्न, गौ, रथ, अश्व, गज आदि के दान से तथा तीर्थस्नान आदि नानाविध पुण्यकर्मों फलस्वरूप ही जाया जाता है ॥ ११ ॥ उन दूतों ने वहाँ राजा को रमणीक इन्द्रभवन दिखलाया, उसे देखकर राजा ने दूतों से कहा कि मैंने जैसा सुन रखा था, यह वैसा ही दीख रहा है ॥ १२ ॥

दूतों ने वहाँ से आगे चलकर राजा को शोभाशाली अग्निलोक का दर्शन कराया। जहाँपर अग्नि के समान तेजस्वी अनेकों अग्निहोत्री (द्विज) शोभित हो रहे थे। वहाँ से आगे जाकर दूतों ने राजा को शुभ और अशुभ परिणामों वाले यमलोक का दर्शन कराया, जहाँ [अपने-अपने कर्मों के अनुसार] पुण्यात्मा और पापात्मा लोग जाया करते हैं ॥ १३-१४ ॥ वहाँपर [ भगवान् यमदेव] सदाचारियों को धर्मराज के [सौम्य] रूप में और दुराचारियों को [ यमराज के] क्रूर रूप में दृष्टिगोचर होते हैं । [ उस लोक में] अपने-अपने कर्मों के अनुरूप सदाचारी जन सब प्रकार के [सुखप्रद ] भोगों को और पापकर्मा प्राणी अनेक प्रकार की नारकीय यातनाओं को भोगते हैं ॥ १५१/२

[वहाँ राजा ने देखा कि कहीं पापात्मा जन] 1. कुम्भीपाक नामक नरक में पकाये जा रहे हैं, कहीं असिपत्रवन नामक नरक में उनके अंग छिन्न-भिन्न हो रहे हैं। कहीं लोहे के घनों से पापी पीटे जा रहे हैं, तो कहीं काँटों से बेधे जा रहे हैं। कुछ पापीजन तामिस्र, अन्धतामिस्र और मवाद से भरे कृमिकुण्ड आदि भयानक नरकों में गिराये जा रहे हैं । राजा ने [ नारकीय यातना भोग रहे] उन प्राणियों को देखकर ‘चलो चलो’ ऐसा कहते हुए आँखें बन्द कर लीं ॥ १६-१८ ॥ यमलोक से आगे जाकर दूतों ने राजा को कुबेर के उत्तम लोक का दर्शन कराया। वह उत्कृष्ट लोक अति अद्भुत और इन्द्रलोक से भी श्रेष्ठ था। उस लोक में चमचमाते हुए सुवर्णमय भवन थे। रत्नदान, सुवर्णदान तथा कोटि-कोटि तुलादान करके परमभाग्यवान् लोग कुबेर के उस उत्तम लोक को प्राप्त करते हैं ॥ १९-२०१/२

वहाँ से आगे चलकर दूतों ने राजा को वरुणदेवता के उत्तम लोक का दर्शन कराया, जिसकी प्राप्ति तीर्थसेवन तथा अन्नदान करने पर होती है। वह लोक कुबेरलोक से भी उत्कृष्ट है। वहाँ के निवासी जल में रहकर बिना भीगे सुखलाभ करते हैं। जो लोग बावली, कुआँ, तालाब आदि का निर्माण कराते हैं और [ प्यासे प्राणियों को ] जल देते हैं, वे ही यहाँ देखे जाते हैं ॥ २१-२२१/२

इसके उपरान्त दूतों ने राजा को सुखमय वायुलोक का दर्शन कराया। जो लोग मनमाना आचरण नहीं करते तथा ग्रीष्मकाल में कपूर-खस से सुवासित जल और व्यजन (पंखे)- ) – का दान करते हैं, उनको वायुलोक में निवास प्राप्त होता है ॥ २३-२४ ॥ [वायुलोक से] आगे चलकर दूतों ने राजा को दुर्गम सूर्यलोक का दर्शन कराया, जहाँ पर पंचाग्नितप का अनुष्ठान करने वाले तथा सूर्यदेव की उपासना में तन्मय मनुष्य और सूर्यतुल्य तेजस्वी पूर्णकाम मुनिगण निर्बाधरूप से ब्रह्माजी के सौ कल्पपर्यन्त निवास करते हैं ॥ २५-२६ ॥

तदुपरान्त दूतों ने राजा को तारागणों से परिपूर्ण चन्द्रलोक का दर्शन कराया। मौक्तिक एवं सुवर्ण का दान और सोमयाग का अनुष्ठान – इन उत्तम पुण्यकृत्यों के फलस्वरूप महात्मागण इस लोक को प्राप्त करते हैं। तदनन्तर आगे जाकर दूतों ने राजा को गोलोक दिखलाया । जो लोग ब्राह्मणों को विधि-विधान से हजारों गायें दान करते हैं, वे गायों की रोमसंख्या के तुल्य कल्पों तक गोलोक में निवास करते हैं ॥ २७–२९ ॥ वहाँ से आगे चलकर दूतों ने राजा को शाश्वत सत्यलोक का दर्शन कराया। जो लोग सत्यव्रती, वेदाध्ययन में तत्पर, सदाचारी, वेदवेत्ता, शास्त्रज्ञ तथा यज्ञानुष्ठान करने वाले हैं, एवं जो अन्नदान में निरत, तीर्थसेवी और पुराणादि के पारायण में तत्पर रहते हैं। जो ब्राह्मण दान लेने में रुचि नहीं रखते, परोपकारी, दानशील और तपोनिष्ठ हैं, ऐसे लोग सत्यलोक को प्राप्त करते हैं ॥ ३०-३२ ॥ वह सत्यलोक आठ हजार गव्यूति (सोलह हजार कोस)-के परिमाण में फैला है और उतनी ही उसकी लम्बाई भी है। वहाँ पर मुनि (ब्रह्मर्षि) – गण, राजर्षिगण, देवर्षिगण, दानव, गन्धर्व तथा अप्सराएँ ब्रह्माजी का स्तवन करते हुए भक्तिपूर्वक उनकी अहर्निश सेवा करते हैं ॥ ३३-३४ ॥ उस लोक में चारों ओर ‘इन्द्रभवन’ के समान (ऐश्वर्यमय) भवन शोभित होते हैं। सत्यलोक (के उस दिव्य वैभव) – को देखकर आश्चर्यचकित हुए राजा ने उन दूतों से पूछा — ॥ ३५ ॥

राजा ने कहा — मैं धन्य हूँ। मुझ पर दयालु गणपति ने और आप दोनों ने बड़ा अनुग्रह किया है, जो कि मैं अत्यन्त दुर्लभ इन स्वर्गादि लोकों को देख सका हूँ ॥ ३६ ॥

ब्रह्माजी बोले — तदुपरान्त दूतों ने राजा को त्रिलोकी में विख्यात वैकुण्ठलोक का दर्शन कराया। भक्तितत्पर वैष्णवजन उस लोक को प्राप्त करते हैं। वह सभी लोकों में श्रेष्ठतम है और किसी भी लोक से उसकी तुलना नहीं की जा सकती। उस लोक (के गौरव) – का वर्णन करने में अनेक मुखवाले शेषनाग अथवा स्वयं मैं ब्रह्मा भी समर्थ नहीं हूँ ॥ ३७-३८ ॥ ऊर्ज (कार्तिक मास), झष (सूर्य के मकरराशिगत होने पर) तथा मेष (सूर्य के मेषराशिगत होने पर ) – के पवित्र अवसरों पर (गंगादि जलतीर्थों में) स्नान करने वाला, तिल – अन्न का दान करने वाला, गोदान करने वाला, गीता का अनुशीलन करने वाला और प्राणिमात्र का उपकार करने वाला — ये सभी निर्बाधरूप से विष्णुलोक प्राप्त करते हैं। वह लोक पाँच हजार योजन के परिमाणवाला है। वहाँ के देदीप्यमान भवनों को विश्वकर्मा ने सोने, चाँदी और रत्नों से निर्मित किया है। उन भवनों की आभा सूर्य और चन्द्रमा के जैसी जान पड़ती है । [ वहाँ के दिव्य ] रत्नों की कान्ति से जगमगाते हुए भवनों में अन्धकार का [ स्वल्पमात्र भी ] प्रवेश नहीं होता। वहीं पर अपने पार्षदों और देवी महालक्ष्मी के साथ दैत्यशत्रु भगवान् नारायण विराजते हैं ॥ ३९-४११/२

अपनी पुण्यराशि के कारण उस वैष्णवधाम को देखकर वे नरेश आनन्दमग्न हो गये । तदुपरान्त दूतों ने राजा को भगवान् शिव की आवासभूमि कैलास के दर्शन कराये। [वह शिवधाम] सुमेरुपर्वत के दस हजार योजन विस्तार वाले शिखर पर अवस्थित है ॥ ४२-४३ ॥ जहाँ सूर्य और चन्द्रमा के सदृश ज्योतिर्मय प्रासाद शोभित होते हैं और जिसको पंचाक्षर मन्त्र तथा रुद्राध्याय का जप करने वाले एवं अनेक साधनानुष्ठानों में निरत पुण्यात्मा लोग प्राप्त करते हैं, भगवान् विनायक की कृपा से ऐसे शिवलोक का दर्शनकर राजा ने कहा कि दर्शनमात्र से ही पुण्य प्रदान करने वाले सभी देवलोकों को मैंने देख लिया है ॥ ४४-४५१/२

उस स्थान से आगे चलने पर हजार योजन तक सूर्य- चन्द्र [आदि प्रकाशक] नहीं थे [ वहाँ केवल सघन अन्धकार ही था ] । राजा उस विमान के प्रकाश के ही सहारे आगे बढ़ रहे थे, उन्हें कुछ भी दिखायी नहीं पड़ रहा था। वहाँ चारों ओर केवल बड़े-बड़े पहाड़ों-जैसे भौंरों का बादलों की गड़गड़ाहट-सा असह्य  घोष राजा को सुनायी दे रहा था ॥ ४६-४७१/२

तब राजा ने दूतों से पूछा कि ‘यह किसका शब्द सुनायी पड़ रहा है और मैं भगवान् गणपति के चरणों का प्रत्यक्ष दर्शन कब करूँगा ? ‘ ॥ ४८१/२

तभी राजा ने अपने सामने भ्रामरी नामक एक बलवती शक्ति को देखा। वह अनेक सूर्यों के सदृश तेजोमयी, भयानक आकृति वाली तथा ब्रह्माण्ड को कौर के समान निगलने की सामर्थ्यवाली थी ॥ ४९१/२

फैले हुए मुखवाली उस शक्ति को देखकर राजा मूर्च्छित हो गये। तब दूतों ने राजा को चैतन्य किया और उनको लेकर आगे चल पड़े। तदुपरान्त राजा ने उस शक्ति से भी अधिक भयावह आधारशक्ति को देखा। भ्रामरी के मस्तक पर स्थित वह प्रभामयी शक्ति विकराल केशोंवाली और लम्बी जिह्वा तथा लटकते हुए ओष्ठों से युक्त थी । उसे देखकर राजा [भय के मारे] काँपने लगे ॥ ५०–५२ ॥ दूतों के द्वारा सान्त्वना दिये जाने पर आगे बढ़ते राजा ने कामदायिनी नामक शक्ति को देखा, जो आधारशक्ति पर आरूढ़ थी और दस हजार योजन के विस्तार वाली थी । उसके श्वास-प्रश्वास से पर्वत डोलने लगते थे और उसके वज्रतुल्य कठोर शरीर में वह पुरी (गणपति का धाम) अवस्थित थी ॥ ५३-५४ ॥

तदुपरान्त दूतों ने राजा से कहा कि जिसका स्मरण करके तुम परितृप्ति का अनुभव करते हो और जो करोड़ों सूर्यों के समान तेजोमय तथा कल्याणमय है, उस स्वानन्दपत्तन (गणपतिधाम ) – का तुम दर्शन करो ॥ ५५ ॥

जिसके हजारों उत्तम प्रासाद मोती, चाँदी और सूर्यकान्तमणियों (अथवा माणिक्य)-से बनाये गये हैं और जो सुवर्ण तथा रत्नों से जटित हैं ॥ ५६ ॥ जहाँ की फर्श नीलम की है और जहाँ के लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं। पीतरत्न अर्थात् पुखराज के द्वारा बनाये गये घाटों-तटोंवाले तथा नीलाभ, शीतल, स्वच्छ जल से पूर्ण कुआँ, बावली, तालाब, सरोवर आदि जहाँ शोभित हो रहे हैं। जिनका कि जल पीने से लोगों को भूख-प्यास, बुढ़ापा, रोग आदि नहीं सताते ॥ ५७-५८ ॥ जहाँ पर विविध प्रकार के वृक्षों और लताओं से शोभायमान और अत्यन्त स्वच्छ खेल के मैदान हैं तथा जहाँ मध्याह्नकालीन करोड़ों सूर्यों के समान भासमान दिव्य ओषधियाँ (अथवा तरु-लताएँ) शोभा पाती हैं। जहाँपर रात्रि में नीचे उतरे हुए निष्कलंक चन्द्रमण्डल में विलासीजन (दर्पण की भाँति) अपना मुखावलोकन करते हैं। जहाँ की पुष्पवाटिकाओं की सुवासित वायु विलासीजनों के [विहारजनित] श्रम को दूर करती है । [ ऐसे उस गणपतिधाम के अन्तर्वर्ती] इक्षु [रस]-सागर के तट पर पहुँचकर आनन्दमग्न हुए वे [ नरेश एवं दोनों दूत] विमान से उतर गये ॥ ५९–६१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड का ‘विनायकलोकगमनवर्णन’ नामक बावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५२ ॥

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