श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-053
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
तिरपनवाँ अध्याय
काशिराज का गणपतिधाम में भगवान् विनायक का दर्शन करना और उनकी स्तुति करना
अथः त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
काशिराजस्य स्वानन्दप्राप्तिवर्णनं

ब्रह्माजी बोले — उन लोगों ने पुण्यराशि के कारण मिलने वाले उस इक्षुसागर के रस का भलीभाँति पान किया । इक्षुसाग रके मध्य में एक निर्मल पुष्करिणी थी, जिसमें सूर्य के समान भासमान और हजारों पंखुड़ियों वाला एक उत्तम कमल था। उस कमल के मध्य में उन विनायकदेव का अत्यन्त मनोहर पर्यंक स्थित था ॥ १-२ ॥ पर्यंक पर दिव्य आस्तरण (बिछौना) बिछा हुआ था और वह दिव्य धूपों से सुवासित था। उसपर नानाविध दिव्य पुष्प बिखेरे गये थे तथा उसमें जटित उत्तम कान्ति वाली रत्नराशि की आभा सभी दिशाओं और विदिशाओं (दिक्कोण ईशान आदि) – को उद्भासित कर रही थी। ऐसे उस पर्यंक पर सोये हुए विनायकदेव पर व्यजन डुलाये जा रहे थे ॥ ३-४ ॥

वे विनायकदेव करोड़ों चन्द्रमाओंकी-सी कान्ति वाले, विविध अलंकारों से मण्डित तथा सर्पों से विभूषित थे । उनकी सूँड़ केले के तने-जैसी थी और उसमें [एकमात्र] दाँत शोभा पा रहा था। ओढ़े हुए दिव्याम्बर से वे आवृत थे। उनके ललाट पर [तीसरा] नेत्र और सिर पर मुकुट शोभायमान था। उन्होंने [कानों में] कुण्डल, [हाथों में] बाजूबन्द, [अँगुलियों में] अँगूठी और [कटिदेश में ] बहुमूल्य करधनी को धारण कर रखा था ॥ ५-६ ॥

उनके सिद्धिप्रदायक चरणों को सिद्धिदेवी और बुद्धिदेवी दबा रही थीं तथा अणिमा एवं गरिमा नामक सिद्धियाँ उन पर श्वेत चामर डुलाने में निरत थीं । ज्वालिनी और तेजिनी नामक शक्तियाँ जगमगाती हुई-सी [मानो वहाँ प्रकाश फैलाने के लिये] उनके दोनों ओर अवस्थित थीं। भगवान् विनायक दिव्य गन्धानुलेपन से अनुलिप्त एवं दिव्य मालाओं से अलंकृत थे ॥ ७-८ ॥ महिमा तथा प्रथिमा नामक सिद्धियाँ उनके समक्ष जल एवं निष्ठीवनपात्र (पीकदान) और रत्नजटित सुवर्णमय छत्र लिये खड़ी थीं ॥ ९ ॥

[वहाँ पहुँचकर ] वे दूत काशिराज का हाथ पकड़कर विनायकदेव के समक्ष गये और वार्तालाप का अवसर देखने लगे, तभी भगवान् जग गये ॥ १० ॥ उन दूतों ने विनायकदेव को प्रणाम करके निवेदन किया कि आपकी आज्ञा से इन्हें हम लिवा लाये हैं — ऐसा कहकर उनके आदेश की प्रतीक्षा करते हुए वे दोनों दूर खड़े हो गये ॥ ११ ॥

प्रबुद्ध हुए उन विनायकदेव को राजा ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और अत्यन्त प्रीति से बोले ‘आज मेरा वंश धन्य हो गया, मेरे माता-पिता, जन्म लेना, विद्या, तपस्या, नेत्र और पुत्र आदि भी धन्य हैं; क्योंकि ब्रह्माजी के द्वारा जिनका ध्यान किया जाता है, ऐसे अपने चरणयुगल का [आपने] हमें दर्शन कराया है ॥ १२-१३ ॥ मैंने जैसा वैभव [यहाँ का] देखा है, वैसा तो ब्रह्मलोक, कैलास, इन्द्रलोक आदि किसी भी लोक में नहीं दिखायी देता’ ॥ १४ ॥

तदुपरान्त उन विनायक ने दूतों को बैठने की आज्ञा दी। जब दूत बैठ गये, तब राजा ने विनायक को [उन्हीं पूर्वपरिचित] बालक के रूप में देखा, जिन्होंने नरान्तक और देवान्तक नामक दैत्यों का वध किया था। उन मृदुलदेह, हिम और कर्पूर के समान शुभ्र, अत्यन्त गौर तथा दो भुजाओं से युक्त [बालरूप] विनायक को देखकर राजा कुछ भी बोल न सके। आँसुओं से उनका गला भर आया। काशिराज ने आनन्दाश्रुओं की धारा से विनायकदेव के चरणयुगल को भिगो दिया ॥ १५–१७ ॥ राजा के अलौकिक भक्तिभाव को जानकर विघ्न- विनायक ने उन्हें उठाया और आलिंगन किया । [तब काशिराज ने भी] विनायक के मस्तक को वैसे ही सूँघा, जैसे सुदीर्घकालोपरान्त समागत पुत्र का मस्तक पिता सूँघता है। तब विनायकदेव का भी गला आँसुओं से भर आया और वे तथा राजा दोनों ही रोमांचित हो उठे। आनन्दसिन्धु में निमग्न हुए उन दोनों को योगियों की भाँति शरीर का भान न रहा ॥ १८-१९ ॥

इसके पश्चात् [ प्रकृतिस्थ होने पर ] बालरूपी विनायक ने राजा से कहा — ‘हे तात! आपके घर में खेल-खेल में मैंने अनेक बार सदसद् व्यवहार किया है, वह सब आप सहन करते रहे । मैंने वहाँ बहुत-से दैत्यों का वध किया, भूमि का भार नष्ट किया, सत्पुरुषों की रक्षा तथा धर्ममर्यादा की स्थापना की। तदुपरान्त मैं आपसे आज्ञा लेकर जन्मदाता पिता कश्यपजी के पास चला गया ॥ २०-२२ ॥ उनको प्रणाम करके मैं समस्त वैभवों से परिपूर्ण इस अपने धाम में आ गया। [यहाँ पर] आपके ही विषय में सोचता हुआ मैं कहीं भी शान्ति न पा सका । तब आपके आदिभाव अर्थात् मेरे प्रति वात्सल्यमूलक भक्तिभाव को जानकर मैंने मुनिश्रेष्ठ मुद्गल को आपके घर भेजा और उनकी कृपा से आपने और स्वयं उन मुद्गलमुनि ने भी इस स्थान को प्राप्त किया है, यह स्थान तो श्रेष्ठ मुनिजनों तथा ब्रह्मा आदि देवताओं के लिये भी सर्वदा अलभ्य ही है’ ॥ २३–२५ ॥

ब्रह्माजी बोले — उन विनायक के वचनामृत का पानकर और बार-बार उनकी वन्दना करके काशिराज अपनी बुद्धि के अनुसार स्तवन करने लगे ॥ २६ ॥

॥ नृप उवाच ॥
नमामि ते नाथ पदारविन्दं ब्रह्मादिभिर्ध्येयतमं शिवाय ।
यत्पद्मपाशासिपरश्वधादिसुचिन्हितं विघ्नहरं निजानाम् ॥ २७ ॥
यदर्च्यते विष्णुशिवादिभिः सुरैरनेककार्यार्थकरैर्नरैश्च ।
अनेकशो विघ्नविनाशदक्षं संसारतप्तामृतवृष्टिकारि ॥ २८ ॥
नमामि ते नाथ मुखारविन्दं त्रिलोचनं वह्निरवीन्दुतारम् ।
कृपाकटाक्षामृतसेचनेन तापत्रयोन्मूलनदृष्टशक्ति ॥ २९ ॥
नमामि ते नाथ करारविन्दमनेकहेतिक्षतदैत्यसङ्घम् ।
अनेकभक्ताभयदं सुरेश संसारकूपोत्तरणावलम्बम् ॥ ३० ॥
त्वमेव सत्त्वात्मतया बिभर्षि सृजस्यजो राजसतामवाप्य ।
तमोगुणाधारतया च हंसि चराचरं ते वशगं गणेश ॥ ३१ ॥
यः शुद्धचेता भजतेनिशं त्वामाक्रम्य विघ्नान् परिधावसि त्वम् ।
स त्वां वशे कृत्य सुखं हि शेते वत्सं यथा गौरिव धावसि त्वम् ॥ ३२ ॥
येऽन्ये भजन्तः समवाप्य तापान् संसारचक्रे बहुधा भ्रमन्तः ।
कदापि तेऽनुग्रहमाप्य तेऽपि भजन्ति मानुष्यमवाप्य तेऽपि ॥ ३३ ॥
धरारजः कोऽपि मिमीत नाके तारा गणं वारिमुचां च धाराः ।
नालं गुणानां गणानां हि कर्तुं शेषो विधाता तव वर्षपूगैः ॥ ३४ ॥
निराकृतेस्ते यदि नाकृतिः स्यादुपासनाकर्मविधिर्वृथा स्यात् ।
गुणप्रपञ्चः प्रकृतेर्विलासो जनस्य भोगश्च तथा कथं स्यात् ॥ ३५ ॥
सत्सङ्गतिश्चेत्सदनुग्रहः स्यात्सकर्मनिष्ठा सदनुस्मृतिश्च ।
चित्तस्य शुद्धिर्महती कृपा ते ज्ञानं विमुक्तिश्च न दुर्लभा स्यात् ॥ ३६ ॥

राजा बोले — हे नाथ! जो कमल, पाश, खड्ग, परशु आदि के चिह्नों से युक्त हैं, ब्रह्मा आदि देवगण अपने कल्याण हेतु एकमात्र जिनका ही ध्यान किया करते हैं और जो भक्तों के विघ्नों का ध्वंस कर देते हैं, आपके उन चरणारविन्दों की मैं वन्दना करता हूँ ॥ २७ ॥ [हे नाथ!. मैं आपके उन चरणकमलों की वन्दना करता हूँ,] जो विष्णु, शिव आदि देवताओं तथा नानाविध अभीष्टसिद्धि के अभिलाषी मनुष्यों के द्वारा बारम्बार पूजित होते हैं और विघ्नों का नाश करने में कुशल एवं सांसारिक तापों से सन्तप्त प्राणियों पर कृपामृत की वर्षा करने वाले हैं ॥ २८ ॥ हे नाथ! कृपाकटाक्षरूपी अमृतवर्षण से तीनों तापों का शमन करने की जिसमें प्रत्यक्ष सामर्थ्य गोचर होती है, आपके उस अग्नि-सूर्य-चन्द्रात्मक तीन नेत्रों वाले मुखारविन्द की मैं वन्दना करता हूँ ॥ २९ ॥ हे नाथ! हे सुरेश्वर ! जो नानाविध अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा दैत्यसमूह को विनष्ट करने वाला, अनेकों भक्तों को निर्भय करने वाला और संसाररूपी कूप से निकलने का सहारा है, मैं आपके उस करारविन्द की वन्दना करता हूँ ॥ ३० ॥

हे गणपति! आप [अजन्मा हैं तथापि ] सत्त्वगुण का आश्रय लेकर [ विष्णुरूप से प्रजाओं का ] भरण-पोषण करते हैं, रजोगुण का आश्रय लेकर [ब्रह्मा के रूप में विश्वप्रपंच की] रचना करते हैं और तमोगुण का आश्रय लेकर [रुद्ररूप से ब्रह्माण्ड का] संहार करते हैं । यह चराचर जगत् आपके ही नियन्त्रण में है ॥ ३१ ॥ जो निर्मलचित्त व्यक्ति आपका अहर्निश भजन करता है, आप उसके विघ्नों को आक्रान्त करके [भक्तवत्सलता के कारण] उसके चारों ओर मँडराया करते हैं। वह [अपने निश्छल भक्तिभाव से] आपको वशीभूत करके सुखपूर्वक सोता है और आप [उसके हितार्थ] वैसे ही दौड़ते रहते हैं, जैसे बछड़े के लिये गाय दौड़ती है ॥ ३२ ॥ जो लोग दूसरे (देवताओं) की उपासना करते हुए नानाविध सन्ताप प्राप्तकर संसार-चक्र में बारम्बार भटकते रहते हैं, वे भी कभी-कभी आपके [करुणापूर्ण ] अनुग्रह को प्राप्त करके [पुनः ] मनुष्य-शरीर धारण करते हैं और तब [आपका सायुज्य ] पा लेते हैं ॥ ३३ ॥

भले ही कोई व्यक्ति धूल के कणों, आकाशीय तारागणों और बादलों के द्वारा बरसाये जलबिन्दुओं को गिन ले, परंतु आपके गुणों को गिन पाने में तो अपनी सारी ही आयु में शेषनाग अथवा ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हो सकते। [हे भगवन्! वस्तुतः आप निराकार और साकार — दोनों ही रूपों वाले हैं; क्योंकि ] निराकार कहे जाने वाले आपकी यदि आकृति न होती, तो उपासनाविधि ही व्यर्थ हो जाती और गुणों के परिणामभूत प्राकृतिक प्रपंच तथा विभिन्न जीवों के भाँति-भाँतिके कर्मभोग भी किस प्रकार सिद्ध हो पाते ? ॥ ३४-३५ ॥ यदि सज्जनों की संगति हो, उनका अनुग्रह हो, शास्त्रविहित कर्तव्य में निष्ठा हो और निरन्तर आपका अनुध्यान हो तो चित्त की शुद्धि, आपका महान् अनुग्रह, ज्ञान और मोक्ष – ये सभी दुर्लभ नहीं रहते ॥ ३६ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार के स्तवन को सुनकर सन्तुष्ट हुए उन विनायक ने काशिराज से कहा कि ‘मनोवांछित वर ग्रहण करो’ ॥ ३७ ॥

राजा ने कहा — [हे प्रभो !] जो मैं यहाँ आ सका हूँ, इतने से ही वरदान का प्रयोजन सिद्ध हो गया, अब मेरा पुनः जन्म-मरण न हो, इसका उपाय कीजिये ॥ ३८ ॥

ब्रह्माजी बोले — स्तुति से सन्तुष्ट हुए विनायक उन दिव्य देहवाले काशिराज से ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो) – इस प्रकार बोले और करोड़ों कल्पों तक के लिये उनको अपने समीप में स्थान दिया ॥ ३९ ॥ हे मुने! उन विनायकदेव ने ही कृपापूर्वक मुझको यह स्तोत्र बताया था, तदुपरान्त मैंने नारदजी को और नारदजी ने महर्षि गौतम को यह स्तोत्र बतलाया। फिर महर्षि गौतम ने इसे सभी ऋषियों को प्रदान किया। अत्यन्त पावन यह स्तोत्र विघ्ननाशक और ज्ञान, मोक्ष तथा समस्त वांछित फलों को देने वाला है ॥ ४०-४१ ॥ गणपतिदेव के समक्ष जो मनुष्य तीनों सन्ध्याओं में इसका पाठ करता है, उसे भक्ति की प्राप्ति होती है। इसका पाठ करके विद्यार्थी विद्या, पुत्रार्थी सन्तान तथा विजयार्थी विजय प्राप्त कर लेता है। हे मुने! जो-जो तुमने पूछा था, वह सब मैंने इस प्रकार बतलाया, काशिराज का आख्यान सुनने के बाद तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ४२-४३१/२

भृगुजी बोले — ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर व्यासजी का सन्देह नष्ट हो गया और उन उत्तमबुद्धि मुनिवर ने दूसरी कथाओं को विस्तारपूर्वक सुनने के लिये प्रश्न किया ॥ ४४१/२

व्यासजी ने पूछा — [हे ब्रह्मन्!] उन विनायक ने किस प्रकर अतिदरिद्र शुक्ल के घर में आदरपूर्वक साधारण भोजन करके उसकी दरिद्रता को दूर किया और काशिराज के समीप क्या-क्या लीलाएँ की थीं तथा काशिराज ने क्या किया, यह सब बतलाइये ॥ ४५-४६ ॥ विनायकदेव ने कैसे दोनों दैत्यों (नरान्तक और देवान्तक) – को मारा और कैसे पृथ्वी का भार हरण किया तथा किस रीति से धर्म की स्थापना की – यह सब भली-भाँति आप मुझे बतलाइये ॥ ४७ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने! उन बालरूप विनायक ने शुक्ल की दरिद्रता का हरण करके और भी जो-जो लीलाएँ की थीं, वह सब चरित मैं तुमको संक्षेप में बता रहा हूँ ॥ ४८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘राजा को स्वानन्दभुवनप्राप्ति का वर्णन ‘ नामक तिरपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५३ ॥

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