October 13, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-057 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ सत्तावनवाँ अध्याय काशिराज की पराजय और नरान्तक का उन्हें बन्दी बना लेना अथः सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः राजनिग्रहं ब्रह्माजी बोले — जब उस दैत्यराज ने युद्धहेतु प्रयाण किया तो प्राग्गुल्मों (राज्य की सीमावर्ती चौकियों)-में स्थित लोग भागकर राजा के समीप आये और भोजन करते हुए राजा से कहने लगे कि चतुरंगिणी सेना के साथ वह दैत्यराज नरान्तक आ गया है। इधर नगरनिवासी भी युद्ध-वाद्यों की ध्वनि सुनकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे ॥ १-२ ॥ नगर में लोगों (-के चीखने-चिल्लाने) – के कारण अत्यधिक कोलाहल हो रहा था। लोग अपने प्राण बचाने के लिये दसों दिशाओं में भागते जा रहे थे ॥ ३ ॥ [यह दशा देखकर] राजा ने भोजन त्याग दिया और वायु के समान (वेगपूर्वक) उठ खड़े हुए। सर्वप्रथम उन्होंने युद्धोचित वेषभूषा धारण की और फिर लोगों (सैनिकों)-को आदेश दिया कि ‘युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।’ ऐसा कहकर राजा ने रणभेरी बजवायी ॥ ४१/२ ॥ बलवान् नरेश ने खड्ग, ढाल, तरकस, धनुष, कवच तथा शिरस्त्राण धारण किया और उन विनायक की पूजा की, ‘विनायक ! आपकी जय हो’ – ऐसा कहकर प्रणाम किया और उनका स्मरण करते हुए अश्वपर आरूढ़ हुए ॥ ५-६ ॥ उनके भेरीरव को सुनकर सभी सैनिक [ युद्ध के लिये] तैयार हो गये और अत्यन्त उत्साह में भरकर शीघ्रतापूर्वक पैदल तथा अश्व, गज, रथादि में आरूढ़ हो चल पड़े। वे योद्धागण त्रिलोकी को निगलने की सामर्थ्य वाले थे। [इन सभी सैनिक वीरों के साथ] वे नरेश नगर के पूर्वभाग में विद्यमान एक वेदी में स्थित हो गये ॥ ७-८ ॥ राजा ने मन्त्रियों तथा सभी सैनिकों को धन-वस्त्रादि से सन्तुष्ट किया और कहा कि आपलोग पराक्रम दिखलाइये, आज उसका अवसर आया है ॥ ९ ॥ यद्यपि विनायक की अनुकम्पा से हमें कहीं भी भय नहीं है, तथापि दैत्य बड़ा ही बलवान् है, इसने अपने पराक्रम से सारी पृथ्वी को जीत लिया है ॥ १० ॥ विजय में कोई नियम नहीं होता (कि इसकी ही विजय होगी) और मनुष्य प्रारब्ध के अधीन होते हैं। मैं यह बात इसीलिये कह रहा हूँ, कि अपनी सेना शत्रुसेना के लाखवें भाग के भी बराबर नहीं है ॥ ११ ॥ कहाँ सागर और कहाँ घड़ाभर पानी, कहाँ सूर्य और कहाँ जुगुनू! सामनीति का आश्रय लेने वाले हम लोग तो राजलक्ष्मी के साथ उन (विनायक) के द्वारा ही सुरक्षित रहे हैं । उन विनायक ने कितने ही दैत्यों का वध किया था, जिसका अपराध अब बाद में हम लोगों के सिर पर आया । आज वह (नरान्तक) सामनीति को त्यागकर युद्ध करने आया है, अतः जिससे हित हो, वैसा विचार करना चाहिये ॥ १२-१३१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब वहाँ स्थित महामन्त्री ने भयविह्वल राजा से कहा — ‘हे राजन् ! बुद्धिशील चार लोगों के साथ आप दैत्यराज नरान्तक की शरण में चले जाइये; क्योंकि अपना काम बनाने के लिये नीचों का आश्रय लेना भी कल्याणकारी है । हे राजेन्द्र ! आपको मैं बृहस्पति का मत बता रहा हूँ, उसे सुनिये और सुनकर वैसा ही कीजिये, तो अवश्य ही कल्याण होगा’ ॥ १४–१६ ॥ बृहस्पति कहते हैं — [आपत्तिग्रस्त पुरुष को चाहिये कि] वह कन्यादान, सहभोजन, वस्त्रादि का उपहार, मधुर बातें, प्रणिपात, प्रीतिभाव, सहयात्रा, यशोगान, शत्रु के विश्वासपात्र जनों का समर्थन आदि मुख्य उपायों से शत्रुओं का संहार कर दे ॥ १७ ॥ महामात्य बोला — [ राजन्!] यदि वह [ बदले में ] विनायक को माँग ले तो उसे विनायक को भी सौंपकर राज्य की रक्षा कर लेनी चाहिये। मुझे तो यही उचित जान पड़ता है, जिसमें आपका हित हो, उसीका निश्चय कीजिये ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब सभी लोग राजा से बोले — ‘हे नृप ! वैरशान्ति के लिये महामात्य ने सर्वथा उचित बात कही है, वही ठीक है, वही समर्थनीय है ‘ ॥ १९ ॥ वे लोग इस प्रकार विचार ही कर रहे थे कि तभी उन अत्यन्त बलशाली सभी दैत्यों ने टिड्डियों के समान सेनाओं के द्वारा नगर को घेर लिया ॥ २० ॥ जब नगरवासी लोग [छिपने के लिये] नगर के बीच में गये तो उन पापियों ने उस नगर को ही जलाना आरम्भ किया। दसों दिशाओं में प्रचण्ड अग्नि धधक उठी । धुएँ के कारण सूर्यमण्डल आच्छादित हो गया, जिससे कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो संसार में अति भयानक प्रलय ही आ गया हो ॥ २१-२२ ॥ जो लोग आग से घबराकर बाहर निकल रहे थे, उनको शत्रु पकड़ लेते थे। [वे पापी नगर में रहने वाली ] कुमारियों और युवतियों को कुत्सित चेष्टाओं के द्वारा शीलभ्रष्ट कर रहे थे । [इस घृणित व्यवहार से] अत्यधिक लज्जित कुछ स्त्रियाँ तत्काल प्राण त्याग दे रही थीं। कुछ ने नगरद्वार से गिरकर आत्महत्या कर ली ॥ २३-२४ ॥ कुछ अन्य महिलाओं ने विषभक्षण, शस्त्रघात तथा फाँसी लगाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। [दैत्यराज के] अनुचरों ने [बहुत-सी ] सुन्दर स्त्रियों को पकड़कर उन्हें अपने स्वामी के समीप पहुँचा दिया ॥ २५ ॥ नरान्तक ने उन स्त्रियों के साथ दुराचार करके उन्हें अपनी राजधानी भिजवा दिया। इस प्रकार की विनाशलीला को देखकर राजा ने अपने मन्त्रियों से कहा — ॥ २६ ॥ यदि हम लोगों के देखते-देखते स्त्रियों को ये दुरात्मा पापी ले जा रहे हैं, तो यह हमारे लिये बड़ी बदनामी की बात होगी, अतः हम असुरों से युद्ध करेंगे। ऐसा कहकर उत्साहपूर्वक युद्ध करने वाले उन नरेश ने अपने अश्व को चलने का संकेत किया और तत्काल धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर बाणवर्षा करने लगे ॥ २७-२८ ॥ काशिराज ने धनुष से वैसे ही बाण बरसाना आरम्भ किया, जैसे बादल जल बरसाते हैं। [ उस बाणवर्षा से] सूर्य आच्छादित हो गया और दैत्य किंकर्तव्यविमूढ हो गये। उन बाणों से दैत्यवृन्द विनष्ट होने लगा। कुछ दैत्य मर गये, कुछ खण्ड-खण्ड हो गये और कुछ दैत्यों के चरण छिन्न-भिन्न हो गये ॥ २९-३० ॥ कुछ दैत्यों के पेट फट गये, कुछ की भुजाएँ कट गयीं, कुछ की आँखें फूट गयीं और कुछ दैत्यों की जंघाएँ विदीर्ण हो गयीं । सेना के साथ मन्त्रिगण काशिराज का अनुगमन कर रहे थे। उन सभी ने मिलकर खड्ग, परशु आदि आयुधों से उन शत्रुसैनिकों का संहार कर डाला ॥ ३१-३२ ॥ युद्धभूमि में उनके प्रहारों से कुछ दैत्य मर गये और कुछ भूतल पर गिर पड़े। इधर वे दैत्य भी [राजा के पक्ष के] सैनिकों का महान् शस्त्रों के द्वारा संहार करने लगे। सेना के चंक्रमण के कारण उठी हुई धूल से भीषण अन्धकार छा गया, जिसके कारण वे सैनिक बिना पहचान के, अपने और पराये पक्ष के योद्धाओं को शस्त्रों से मारने लगे तथा एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से मल्लयुद्ध करने लगे ॥ ३३-३४१/२ ॥ [उस समय ] अश्वारोही अश्वारोहियों से, गजारोही गजारोहियों से, पैदल सैनिक पैदल सैनिकों से तथा रथारोही रथारोहियों से [भाँति-भाँति के] शस्त्रों, बाणों आदि द्वारा युद्ध कर रहे थे। इस रीति से सैनिक वीरों का वह भीषण संग्राम हो रहा था ॥ ३५-३६ ॥ [ राजा से पराभूत हुई] दैत्यसेना तितर-बितर हो गयी और भागने लगी। तब विजयी काशिराज ने उच्च स्वर से सिंह के समान गर्जना की। तदुपरान्त युद्धोत्सुक हाथी समान उत्साहपूर्वक वे विभिन्न सैन्य-समूहों में जा-जाकर, प्रमुख – प्रमुख योद्धाओं को मारते रहे, तथा उस महाभीषण सेना को तितर-बितर करते हुए उन्होंने दैत्यसेना के एक लाख वीरों का संहार कर डाला ॥ ३७-३८१/२ ॥ इस प्रकार से [सेना का] विनाश करने में लगे उन नरेश को देखकर शत्रुसैनिकों ने [यत्नपूर्वक] रोका और ‘यही काशिराज हैं’ ऐसा निश्चय करके उन्हें सबने घेर लिया तथा राजा की प्रबल बाणवर्षा को [किसी प्रकार ] सहन करते हुए उनको शत्रुओं ने बलपूर्वक बन्दी बना लिया ॥ ३९-४० ॥ मन्त्रिपुत्रों के साथ राजा के बन्दी बना लिये जाने पर राजसैनिक उच्च स्वर से ‘राजा पकड़ लिये गये हैं’ ऐसा कहते हुए चीत्कार करने लगे ॥ ४१ ॥ तदुपरान्त दैत्यों ने कुछ राजसैनिकों को पकड़ लिया, कुछ भाग निकले, कुछ मर गये, कुछ घायल हो गये और कुछ सैनिक दैत्यों के शरणापन्न हो गये। जैसे घनघोर जंगल में बलशाली भेड़िये हृष्ट-पुष्ट बैल को पकड़ लेते हैं, वैसे ही नरान्तक के दूत मन्त्रिपुत्रों के साथ राजा को [पकड़कर उन्हें] नरान्तक के समीप ले गये ॥ ४२-४३ ॥ अवरुद्ध न होने योग्य दैत्यसैनिकों के द्वारा वह पूरा नगर जला दिया गया, तदुपरान्त नरान्तक ने अपने शूर-वीर योद्धाओं से कहा — हे वीरो ! जिस कार्य के लिये हम लोग आये थे, वह सम्पन्न हो चुका है। इस समय वह मुनिपुत्र विनायक मेरे लिये नगण्य ही है। जब राजा ही जीत लिया गया तो सेना भी पराजित है, किले पर अधिकार हो जाने पर नगर को भी विजित ही मानना चाहिये । काशिराज के पराजित हो जाने से निश्चय ही बालक विनायक भी पराजित हो चुका है ॥ ४४–४६ ॥ यह राजा विवश होकर अभी बालक को ले आयेगा – ऐसा कहकर [विजयसूचक] बाजे बजवाता हुआ नरान्तक अपनी राजधानी की ओर चल पड़ा ॥ ४७ ॥ उस समय यशोगान करने वाले बन्दीजन नरान्तक का स्तवन कर रहे थे, काशिराज को उसने अपने आगे कर रखा था और वह यशोगायक बन्दीजनों को [वांछित] वस्तुएँ तथा ब्राह्मणों को [दान ] देता हुआ जा रहा था ॥ ४८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘राजनिग्रह’ नामक सत्तावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५७ ॥ Content is available only for registered users. 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