October 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-065 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ पैंसठवाँ अध्याय विनायक का बुद्धि को युद्ध के लिये भेजना, बुद्धि द्वारा एक भयंकर शक्ति का प्राकट्य और उस शक्ति द्वारा देवान्तक की सेना का संहार अथः पञ्चषष्टितमोऽध्यायः बुद्धिविजयं ब्रह्माजी कहते हैं — बुद्धिद्वारा कहे गये वचन को सुनकर भगवान् विनायक हर्षित होकर उससे बोले — भगवान् [ विनायक ] बोले – [हे बुद्धि !] तुम जाओ, उस दैत्य से युद्ध करो और उसे मारकर यश की प्राप्ति करो ॥ १ ॥ ऐसा कहकर विनायक ने उसे सुन्दर वस्त्र प्रदान किये। तब उसने उन देवाधिदेव को सिर झुकाकर उस दैत्य देवान्तक से युद्ध करने के लिये प्रस्थान किया ॥ २ ॥ उस समय उसके द्वारा की गयी सिंहगर्जना से तीनों लोक कम्पित हो उठे। उसके मुख से एक श्रेष्ठ शक्ति निकली; जो जटाओं से युक्त, विकृत मुखवाली और संसार का भक्षण करने के लिये उद्यत थी। वह अपने दोनों विशाल नेत्रों से ज्वालासमूहों का उत्सर्जन कर रही थी ॥ ३-४ ॥ वह (शक्ति) दैत्यसेना का दहन करती जा रही थी, जिससे [भयभीत ] वह (दैत्यसेना) पलायन कर गयी । उस (शक्ति) – के दर्शनमात्र से कुछ दैत्य प्राणहीन होकर गिर गये और अन्य दैत्य यह विचार करने लगे कि आज हमें कहाँ जाना चाहिये, कहाँ हम सुख से रह सकेंगे? उनमें से कुछ दैत्य कहने लगे — हे देवान्तक! दौड़ो- दौड़ो; हम मरे जा रहे हैं ॥ ५-६ ॥ इस प्रकार का कोलाहल सुनकर देवान्तक उस शक्ति के सम्मुख गया और शीघ्र ही अपने धनुष पर डोरी चढ़ाकर अपना हस्तलाघव दिखाते हुए उस शक्ति के अंगों पर सर्पसदृश विषैले बाणों से प्रहार करने लगा । उसके द्वारा शक्ति की ओर चलाये गये बाणसमूहों से सूर्य आच्छादित-से हो गये। तब उस शक्ति ने अपने विशाल मुख को फैलाकर उन बाणों को कमलनाल की भाँति निगल लिया ॥ ७-८१/२ ॥ उस समय उस दैत्य के सारे तरकस खाली हो गये, परंतु उस शक्ति की तृप्ति वैसे ही नहीं हुई, जैसे राक्षसों की मनुष्यों से तृप्ति नहीं होती ॥ ९१/२ ॥ देवान्तक को क्षीणं शक्तिवाला देखकर वह शक्ति दैत्यसेना के पास गयी। उसने उनमें से कुछ दैत्यों का भक्षण कर लिया और कुछ दैत्यों को अपने हाथ प्रहार से नीचे गिरा दिया। कुछ को अपने मुख में डाल लिया और कुछ को पटककर चूर्ण कर डाला ॥ १०-११ ॥ उसने असंख्य दैत्यसमूहों का भक्षण कर लिया, उन्हें चूर-चूर कर डाला और उन्हें मार डाला। कुछ दैत्यों को अपने चरणों के प्रहार से चूर-चूर करती हुई वह देवान्तक के पास गयी और उससे कहा — ‘तुम मेरे गर्भाशय में प्रविष्ट हो जाओ, जहाँ तुम्हारे दैत्य माता के गर्भ में स्थित [शिशु]-की भाँति शयन कर रहे हैं। जिन दैत्यों का मेरे द्वारा भक्षण कर लिया गया, वे मर गये और मेरे उदर में जाकर पच गये हैं’ ॥ १२-१३१/२ ॥ तब मल-मूत्र की गन्ध से व्याकुल वह देवान्तक उस शक्ति से भयभीत होकर शीघ्र ही पलायन कर गया, [परंतु] जहाँ-जहाँ वह जाकर छिपता, वहाँ- वहाँ वह शक्ति पहुँच जाती थी। इस प्रकार वह स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकों, पातालादि अधोलोकों और दसों दिशाओं में भ्रमण करता रहा ॥ १४-१५ ॥ तभी उस शक्ति ने उसकी शिखा पकड़कर उसे अपने गर्भाशय में रख लिया । तदनन्तर उस शक्ति के साथ बुद्धि विनायक के पास गयी ॥ १६ ॥ स्तनों के आघात से दोनों ओर के वृक्षों को गिराती हुई और मद के प्रभाव से घूमती हुई आँखोंवाली उस शक्ति को आगे करके बुद्धि भगवान् विनायक को प्रणाम किया ॥ १७ ॥ जिस प्रकार बादल जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार स्वेदवर्षा करती हुई उस मन्दगामिनी विकराल शक्ति को देखकर भगवान् विनायक ने उसे वहाँ से दूर हटाया। जब उसे वहाँ से हटाया गया तो वह दैत्य देवान्तक उसके गर्भाशय से भूमि पर गिर पड़ा। उस समय वह अत्यधिक दुर्गन्धयुक्त हो गया था, अतः दूतों ने उसको बाहर निकाल दिया ॥ १८-१९ ॥ तदनन्तर चेतना प्राप्त करके देवान्तक स्नानकर, चुपचाप घर चला गया। उस समय वह लज्जा के कारण नीचे मुख किये, चिन्तित, उदास और अत्यन्त दुखी था । बुद्धि के द्वारा निवेदन किये जाने पर उस शक्ति ने भगवान् विनायक को प्रणाम किया । उसे देखकर कुछ लोग हँसने लगे, कुछ भयभीत हो गये, कुछ कान्तिहीन हो गये और कुछ गिर पड़े ॥ २०-२१ ॥ तब उस (शक्ति)-ने उन (भगवान् विनायक) -से कहा — मैंने शीघ्रतापूर्वक दैत्यवाहिनी का भक्षण कर लिया और वह पापी देवान्तक भी मेरे द्वारा [गर्भाशय में] स्थित कर लिया गया । हे देव! हे दयानिधे ! अब आप मेरे निवासहेतु [कोई ] स्थान प्रदान करें ॥ २२१/२ ॥ भगवान् विनायक ने कहा — हे दैत्यनाशिनी ! तुम्हें धोखा देकर वह दैत्य देवान्तक अपने घर चला गया है । मैंने यह जान लिया है कि तुम्हारा पराक्रम इन्द्रादि देवताओं से भी बढ़कर है। तुम मेरे मुख में प्रवेश कर जाओ और वहीं विश्राम करो। मैं उस (देवान्तक) – का नियमन करूँगा, तुम्हें इस विषय में चिन्ता करना उचित नहीं है ॥ २३-२४१/२ ॥ ब्रह्माजी कहते हैं — भगवान् विनायक के इस प्रकार के वचन सुनकर वह शक्ति उनके मुख को देखकर उसमें प्रवेश कर गयी और सभी लोकों के निवास-स्थान देवाधिदेव विनायक के उदर में जाकर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ वैसे ही सो गयी, जैसे माता की गोद में शिशु सो जाता है ॥ २५-२६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘बुद्धिविजयवर्णन’ नामक पैंसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६५ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe