श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-077
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
सतहत्तरवाँ अध्याय
सिन्धुदैत्य का देवताओं को पराजित करना, विष्णु का उसके पराक्रम से प्रसन्न हो वरदान के रूप में देवोंसहित उसके नगर गण्डकीपुर में रहना, विष्णु का देवताओं को आश्वस्त करना, दुष्ट सिन्धुदैत्य द्वारा किये गये अधर्माचरण का वर्णन
अथः सप्तसप्ततितमोऽध्यायः
सिन्धुदुःशासनवर्णनं

ब्रह्माजी बोले — देवताओं के इस प्रकार के वचनों को सुनकर क्रुद्ध हुआ वह दैत्य सिन्धु आग की चिनगारी उगलता हुआ उन देवताओं पर वैसे ही टूट पड़ा, जैसे कि सिंह हाथियों के समूह पर टूट पड़ता है ॥ १ ॥ दैत्य सिन्धु ने अपनी मुट्ठी से बल दैत्य का वध करने वाले इन्द्र पर प्रहार किया, जिस कारण वे पृथ्वीतल पर उसी प्रकार गिर पड़े, जैसे कि आँधी के द्वारा वृक्ष भूतल पर गिर पड़ता है। दैत्यराज सिन्धु ने कुबेर के मस्तक पर, वरुण के हनुदेश (ठुड्डी) – में और यम की पीठ में चक्र के आघात से प्रहार किया ॥ २-३ ॥ अग्निदेव के तालुदेश पर चोट पहुँचायी, कामदेव को लात से मारा, वायुदेव को पैर से आघात किया और शनैश्चर को कुचल डाला। उसने चन्द्रमा तथा मंगल को पकड़कर बलपूर्वक घुमाया और भूतल पर पटक दिया। सनक तथा सनन्दन के पृष्ठभाग में चोट पहुँचायी ॥ ४-५ ॥ दोनों अश्विनीकुमार तथा देवर्षि नारद कहीं अन्यत्र ही भाग चले। उस सिन्धुदैत्य का पराक्रम देखकर उस समय सभी देवता भाग गये ॥ ६ ॥

कुछ देवता गिर पड़े तथा कुछ मूर्च्छित हो गये । तदनन्तर दैत्य सिन्धु ने चक्र के द्वारा भगवान् विष्णु की मुट्ठी में मारा तो उनका चक्र भूमि पर गिर पड़ा ॥ ७ ॥ तब भगवान् माधव ने गदा के द्वारा उस दैत्य के सिर पर आघात किया। उस प्रहार से बचकर दैत्य ने अपनी गदा उनके ऊपर फेंकी ॥ ८ ॥

उसके पराक्रम को देखकर मधुसूदन भगवान् विष्णु उससे बोले — ‘अरे दैत्य ! जो तुम्हारे मन में हो, वह वर माँगो। इस प्रकार का पुरुषार्थ अभी तक मैंने किसी भी असुर में नहीं देखा है।’ तब अत्यन्त आनन्दित होकर दैत्याधिपति सिन्धु बोला — ॥ ९-१० ॥

हे देवेश्वर! यदि आप सन्तुष्ट हैं और यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो हे हरे ! मेरे गण्डकी नामक नगर में आप अपने परिवार के साथ हमेशा के लिये निवास करें। हे प्रभो ! मैं इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उत्तम वर नहीं माँगता हूँ। तदनन्तर भगवान् महाविष्णु बोले — ‘मैं तुम्हारे नगर में निवास करूँगा। चूँकि मैंने तुम्हें वर दे दिया है, इसलिये मैं तुम्हारे अधीन हो गया हूँ’ ॥ ११–१२१/२

इसके पश्चात् सिन्धु नामक उस दैत्य ने सत्यलोक, कैलास, तथा विष्णुलोक में अपने दैत्यपतियों को प्रतिष्ठित किया और स्वयं इन्द्रपद पर प्रतिष्ठित हो गया, फिर वहाँ भी उसने दूसरे दैत्याधिपति को स्थापितकर लक्ष्मीपति विष्णु के साथ विविध प्रकार के वाद्यों तथा दुन्दुभियों की ध्वनि के साथ अपनी पुरी गण्डकी की ओर प्रस्थान किया । बन्दीजन उसकी स्तुति करते हुए कह रहे थे कि ‘ऐसा पुरुष कहीं भी नहीं हुआ, जो कि बहुत से देवताओं को जीतकर विष्णुभगवान्‌ को अपने घर में ले आया हो’ ॥ १३-१५१/२

गण्डकीनगर के निवासियों ने वरुण, हरि, कुबेर आदि प्रधान – प्रधान देवताओं को उसके समीप में स्थित देखा। इसके बाद सभी नगरवासी अपने-अपने घरों को चले गये। तदनन्तर दैत्य सिन्धु ने भगवान् विष्णु से कहा — ‘तुम गण्डकीनगर में देवताओं के साथ सुखों का उपभोग करो।’ तब उन्होंने भी वैसा ही किया। दैत्य सिन्धु ने उस गण्डकीनगर के चारों ओर दूर-दूर तक दैत्यों तथा अन्यों को सुरक्षा हेतु नियुक्त कर दिया ॥ १६-१८ ॥ इसके पश्चात् सभी देवता भगवान् विष्णु से कहने लगे — ‘हे गरुडध्वज ! आपने यह क्या किया ? आप अपने पराक्रम का परित्याग कर इस प्रकार आनन्द में निमग्न होकर क्यों रह रहे हैं ? ॥ १९ ॥ हम लोग कैसे इस कारागार में पड़ गये हैं। कैसे मृत्युलोक में आ गये हैं ? हे जगदीश्वर ! हमारे इस दुःखभोग का अन्त कब होगा ?’ ॥ २० ॥

तदनन्तर श्रीविष्णु उन सबसे बोले — ‘काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। काल के द्वारा ही सब कुछ उत्पन्न होता है, वृद्धि को प्राप्त होता है और अन्त में संहार भी हो जाता है ॥ २१ ॥ अतः आप लोग समयकी प्रतीक्षा करें, काल ही इसे अपना ग्रास बना लेगा ।’ इस प्रकार से महान् बल तथा पराक्रम से सम्पन्न उस दैत्य सिन्धु ने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करके बड़ी ही प्रसन्नता के साथ वह सम्पूर्ण वृत्तान्त अपने माता- पिता को बतलाया। माता-पिता ने उसका इस प्रकारका पौरुष जानकर उसे आशीर्वाद प्रदान किया ॥ २२-२३ ॥

तदनन्तर अत्यन्त दुष्ट दैत्य उस सिन्धु ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर यह घोषणा करवायी कि ‘आज से देवता, ब्राह्मण तथा गौ की पूजा जिस किसी के द्वारा भी की जायगी, वह निश्चित ही वध के योग्य होगा अथवा उसे शीघ्र ही मेरे पास में लाना होगा, जहाँ-जहाँ भी [देवताओं की ] प्रतिमाएँ हैं, उन्हें खण्डित करके जल में फेंक दिया जाय। मेरी ही प्रतिमा बनाकर घर-घर लोग उसकी पूजा करें।’ सिन्धु दैत्य द्वारा कहे गये इन वचनों को दूतों ने जगह-जगह पर लोगों को पुकार-पुकार कर बतलाया ॥ २४–२६ ॥

उन्होंने मन्दिरों को तोड़ डाला, मूर्तियों को खण्डित कर दिया और उन्हें गहरे जल में छोड़ दिया। इसी के साथ दैत्य सिन्धु की मूर्ति बनाकर अत्यन्त आदरभाव से स्थापित किया और उस मूर्ति की पूजा के लिये राक्षसों को नियुक्त कर दिया । तदनन्तर वे दूत अपने स्वामी सिन्धु के पास आये और कहने लगे — हमने विनायक, शिव, विष्णु, सूर्य तथा लक्ष्मी आदि की प्रतिमाओं को तोड़-फोड़कर शीघ्र ही अगाध जल में उन सबको फेंक दिया है, उनके स्थान पर आपकी प्रतिमाएँ स्थापित कर दी हैं, साथ ही आपकी प्रतिमाओं की पूजा के लिये राक्षसों को भी नियुक्त कर दिया है । हे स्वामिन्! यह सब करने के बाद ही हम सब आपके पास आये हैं । इस प्रकार से उस सिन्धु दैत्य के राज्य में सर्वत्र ही धर्म का लोप होने लगा ॥ २७–३० ॥

सभी लोग यज्ञ, दान, पितृपूजन, स्वाहाकार तथा वषट्कार से रहित हो गये। कहीं भी देवताओं, ब्राह्मणों तथा गुरुजनों का पूजन नहीं होता था ॥ ३१ ॥ अनेकों ऋषिगण सुमेरुपर्वत पर चले गये तथा कुछ नष्ट हो गये। इस प्रकार से तीनों लोकों में दैत्य और राक्षस अत्यन्त प्रबल हो गये थे। साधु पुरुष तथा देवता या तो कहीं छिप गये या निधन को प्राप्त हो गये । उस दैत्यराज सिन्धु से देवताओं ने जिस प्रकार से मुक्ति प्राप्त की थी, उसे अब आप लोग सुनें ॥ ३२-३३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके क्रीडाखण्डमें ‘सिन्धुकृत देवनिग्रहण’ नामक सतहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७७ ॥

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