श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-081
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
इक्यासीवाँ अध्याय
पार्वती का भाद्रमास की चतुर्थी को गुणेश की पार्थिव प्रतिमा बनाकर पूजन करना, भगवान् गणेश का उस पार्थिव प्रतिमा से प्रकट होना
अथः एकाशीतितमोऽध्यायः
गणेशाविर्भाव

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर वे देवी पार्वती प्रसन्न होकर अपने सखीजनों के पास गयीं, और उन्हें उन्होंने सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया, जिसे सुनकर उन सबको भी अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ १ ॥ तब से लेकर उन पार्वती का मन हर समय गुणेश में ही लगा रहने लगा। वे किसी दूसरे बालक को भी देखतीं तो यह गुणेश है — ऐसा कहने लगतीं। और जब उसे पकड़ने के लिये दौड़तीं तो उस बालक की माता के द्वारा उन्हें रोका जाता। गुणेश के ध्यान में तत्पर उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिलती थी ॥ २-३ ॥ वे निरन्तर उनके नाम का जप करतीं और सम्पूर्ण जगत् उनको गुणेशमय ही दिखलायी देता । वे अपनी सभी सखियों से यह पूछा करतीं कि वे गुणेश कब यहाँ आयेंगे? पूर्वकाल में मेरे पिताजी ने मुझे शंकरजी को पति- रूप में प्राप्त करने के लिये एक अत्यन्त शुभ व्रत बतलाया था तथा गणेशजी के पार्थिव-पूजन का विधान भी यथाविधि बतलाया था ॥ ४-५ ॥ उस व्रत के प्रभाव से मैंने शंकरजी को प्रिय पति के रूप में प्राप्त किया था। अब इस समय मैं गुणेश को प्राप्त करने के लिये पुनः उसी व्रत का पालन करूँगी ॥ ६ ॥

तब उन्होंने भाद्रपदमास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को बड़ी प्रसन्नता के साथ उन गुणेश की ग़जानन मुखवाली मूर्ति का निर्माण किया और फिर उनकी सोलह उपचारों द्वारा पूजा की ॥ ७ ॥ ध्यान आदि उपचार, जल, पंचामृत, अनेक प्रकार के वस्त्र, यज्ञोपवीत, गन्ध, धूप, दीप, नाना प्रकार के पुष्प, विविध नैवेद्य, अनेक प्रकार के फल, गीले पूगीफल एवं लवंग-इलायची आदि से समन्वित ताम्बूल, दूर्वा, शमीपत्र तथा अनेक प्रकार की दक्षिणाओं के समर्पण से, अनेक प्रकार की आरतियों, विविध मन्त्रपुष्पांजलियों, अनेक प्रकार के स्तुतिपाठ, प्रदक्षिणा एवं प्रार्थना तथा ब्राह्मणों के पूजन करने से गणेशजी की मिट्टी से बनायी गयी वह मूर्ति सजीव हो उठी ॥ ८–११ ॥

उस समय उस मूर्ति की आभा ने करोड़ों सूर्यों की प्रभा को जीत लिया। प्रलयकालीन अग्नि की ज्वाला को भी जीत लिया और अनन्त चन्द्रमाओं की चाँदनी को भी फीका कर दिया। उस ज्योति ने गौरी के नेत्रों की प्रभा को भी क्षीण कर दिया, जिस कारण वे मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़ीं। मुहूर्तभर में जब उनकी मूर्च्छा टूटी तो वे उन जगदीश्वर से बोलीं —॥ १२-१३ ॥

हे देव ! लगता है मेरे द्वारा आपके पूजन करने में कोई गड़बड़ी हो गयी है, किसके द्वारा यह अभिचार कर्म किया गया है, मैं उसे नहीं जान पा रही हूँ । हे देव ! हे कृपानिधान ! मेरा प्रयत्न विफल क्यों हुआ ? ॥ १४१/२

ब्रह्माजी बोले — उन गौरी का इस प्रकार का वचन सुनकर वे प्रभु सौम्य तेजवाले हो गये। उस समय वे अपने समक्ष बालरूपी विनायक को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ॥ १५१/२

वे प्रभु विनायक असंख्य मुख, असंख्य नेत्र, असंख्य चरण, तथा असंख्य कण्ठ और असंख्य मुकुट धारण किये हुए थे। सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि — ये उनके तीन नेत्र थे, वे मोतियों तथा मणियों की माला धारण किये हुए थे। अत्यन्त दीप्तिमान् थे, उन्होंने अपने हाथों में अनेक आयुधों को धारण कर रखा था और उनके सभी अंग अत्यन्त सुन्दर थे ॥ १६-१७१/२

प्रभु के इस प्रकार के परम अद्भुत पावन स्वरूप का दर्शनकर वे अपने शुभ नेत्रों को बन्दकर मन-ही-मन सोच-विचार में पड़ गयीं ॥ १८१/२

उनका शरीर कम्पित होने लगा। वे यह नहीं समझ पा रही थीं कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये। मैं जिनका ध्यान कर रही थी, क्या ये वे ही हैं अथवा मैं किसी अद्भुत अरिष्ट को देख रही हूँ। तदनन्तर उन पार्वती ने अपने नेत्रों को खोलकर दिव्य दृष्टि से देखा तो उन्हें उस समय भगवान् शिव के द्वारा बताये गये उपदेश के अनुसार वह सब ज्ञात हो गया और वे बोलीं — ॥ १९–२०१/२

पार्वतीजी बोलीं — इन्हीं की माया से मोहित होकर मैं अपने समक्ष [स्थित] इन प्रभु को नहीं पहचान पा रही हूँ | तब फिर उन्होंने उनसे पूछा, आप कौन हैं ? आपका आगमन कहाँ से हो रहा है? आप किसलिये यहाँ आये हैं? यदि आप गुणेश हैं तो वह मुझे बतलायें ॥ २१-२२ ॥

ब्रह्माजी बोले — उनका यह वचन सुनकर वे महापुरुष अपने शब्दों की ध्वनि से सभी दिशाओं तथा विदिशाओं को निनादित करते हुए बोले — ॥ २३ ॥

देव बोले — हे शुभे ! आप अनुष्ठान करते हुए रात-दिन जिनका ध्यान करती हैं, मैं वही परम पुरुष गुणेश हूँ, मैं पर से भी परतर हूँ । चूँकि वराभिलाषिणी आपसे मैंने कहा था कि मैं आपका पुत्र बनूँगा, इसलिये आपके घर में अवतरित हुआ हूँ । हे देवि ! इस समय जो मुझे करणीय है, उसे आप सुनें ॥ २४-२५ ॥ मुझे आप दोनों माता-पिता की सेवा करनी है, दैत्य सिन्धु का वध करना है और देवताओं को उनका अपना-अपना पद प्रदान करना है । [ यह सब करने के ] अनन्तर मैं अपने धाम को चला जाऊँगा ॥ २६ ॥

ब्रह्माजी बोले — उन भगवान् गुणेश्वर के वचनामृत का पान करके वे देवी पार्वती परम प्रसन्न होकर उनसे बोलीं — ॥ २७ ॥

गिरिजा बोलीं — आज मेरा परम सौभाग्य सफल हुआ है, यह मेरी तपस्या का परम उत्तम फल है, जो कि मैंने अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के नायक, चिदानन्दघन प्रभु परमात्मा का दर्शन किया है, जिनसे अनेक प्रकार की सृष्टि प्रादुर्भूत हुई है ॥ २८ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश — इन पंचमहाभूतों, ब्रह्मा, शिव, विष्णु, चन्द्रमा, इन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, गन्धर्व, यक्ष, मुनिगण, वृक्ष, पर्वत, सभी पक्षिगण, चौदह भुवन, स्थावर-जंगमात्मक सम्पूर्ण चेतन एवं अचेतन जगत् की जिनसे सृष्टि हुई है ॥ २९-३० ॥ वे ही आप परमेश्वर मेरे पुत्ररूप में प्राप्त हुए हैं, यह विडम्बना ही है। अब इस समय हे देव! मैं आपसे प्रार्थना कर रही हूँ कि आप एक सामान्य बालक बन जायँ, जिससे कि मैं आपका लालन-पालन कर सकूँ और परम आदर से आपकी सेवा कर सकूँ ॥ ३११/२

ब्रह्माजी बोले — वे देवी जब ऐसा कह ही रही थीं कि उसी समय उन्होंने अपने समक्ष उनका ऐश्वर्यमय स्वरूप देखा। उनकी छः भुजाएँ थीं, वे चन्द्रमा के समान सुन्दर थे। तीन नेत्रों से वे सुशोभित थे, उनकी नासिका अत्यन्त सुन्दर थी । मुख सुन्दर भौंहों से समन्वित था, उनका वक्षःस्थल अत्यन्त विशाल था ॥ ३२-३३ ॥ उनके चरणकमल ध्वजा, अंकुश, ऊर्ध्व रेखा तथा कमल से चिह्नित थे। उनकी आभा करोड़ों स्फटिकों के समान थी, वे प्रभु करोड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रभा वाले थे। वे स्वर्णिम आभा वाले केशों को धारण किये हुए थे, उन्होंने बालक का रूप धारण किया हुआ था, उन्होंने अपने मुख से जो प्रथम (आह्लादपूर्ण) शब्द निकाला, उससे सम्पूर्ण पृथ्वी पुलकित हो उठी ॥ ३४-३५ ॥

उनकी उस शब्दध्वनि से मनुष्यों एवं स्थानों ने अपनी मर्यादा का परित्याग कर दिया अर्थात् [ स्वाभाविक स्थिरता को छोड़कर] स्थान-स्थान दोलायमान हो उठा एवं [सचेतन] मनुष्यों को आनन्द-विह्वलता के कारण अपनी देह का भी भान न रहा। सूखे वृक्षसमूह पल्लवित हो गये। गायें बहुत दूध देने वाली हो गयीं। तीनों लोकों में प्रसन्नता छा गयी। देवता पुनः-पुनः दुन्दुभी बजाने लगे और पुष्पवृष्टि करने लगे ॥ ३६-३७ ॥

उन बालरूप गुणेश का दर्शनकर देवी गिरिजा ने प्रसन्नतापूर्वक दोनों हाथों से उन्हें पकड़ा और प्रेमपूर्वक किंचित् उष्ण जल से उन्हें स्नान कराया । परम प्रसन्न होकर देवी पार्वती ने अपने झरते हुए स्तनों से उन्हें दुग्धपान कराया। भगवान् शिव भी उन श्रेष्ठ शिशु गुणेश के [आविर्भाव के कारण] परम हर्षित हुए ॥ ३८-३९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘गुणेश के आविर्भाव का वर्णन’ नामक इक्यासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८१ ॥

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